30 June 2013

उस उड़ान के निशान अब भी हैं बाकी



‘उड़ान’ की कविता चौधरी को कौन भूल सकता है! यह धारावाहिक कंचन चौधरी भट्टाचार्य के जीवन पर आधारित था. इसे दर्शकों तक लाने और हजारों लड.कियों की प्रेरणा बनाने का श्रेय जाता है कंचन चौधरी की छोटी बहन कविता चौधरी को. कविता सर्फ के विज्ञापन में ललिता जी के तौर भी प्रसिद्ध हुईं. कविता चोधरी को याद करते हुए यह छोटा सा लेख लिखा है युवा पत्रकार प्रीति सिंह परिहार ने आप भी पढ़ सकते हैं...: अखरावट 


व क्त की परतें बीते हुए को ढकती जाती हैं, और इस क्रम में अनगिनत ऐसी चीजें भी भुला दी जाती हैं, जिनका कभी हमारी जिंदगी में गहरा दखल रहा था. लेकिन भुला दिये जाने के इस स्वाभाविक व्यवहार के बीच भी कुछ तो बचा ही रहता है, अपने पूरे प्रभाव के साथ. फिर वह व्यक्ति विशेष हो या टेलीविजन के जरिये हमसे रूबरू होने वाला कोई किरदार या कहानी. वास्तविक जिंदगी की ऐसी ही एक कहानी टीवी के जरिये हम तक पहुंची. धीरे-धीरे इस कहानी को हम अपने आस-पास की दुनिया में नये चेहरों के साथ घटते हुए देखने लगे. जी हां, आपका अंदाजा सही है, यह पुलिस अधिकारी कल्याणी की कहानी है. देश के मध्यम और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की लड.कियों की जिंदगी में आयी यह कहानी उन्हें उड.ने का हुनर भी दे गयी. 

नब्बे के दशक में वाया दूरदर्शन ‘उड.ान’ धारावाहिक घर-घर तक पहुंचा था. खास बात यह थी कि जिन घरों में बाों को टीवी देखने की मनाही होती थी, वहां भी सहजता से इस धारावाहिक को देखने की इजाजत मिल जाती. इसकी प्रमुख पात्र कल्याणी स्कूलों में पढ.नेवाली लड.कियों के लिए आइकॉन बन गयी थी. हर लड.की कल्याणी की तरह पुलिस अधिकारी बनने का सपना देखने लगी थी. ‘उड.ान’ एक तरह से महिला सशक्तीकरण पर आधारित पहला धारावाहिक था. असल में यह कहानी थी कंचन चौधरी भट्टाचार्य की, जिन्हें देश की पहली महिला पुलिस निदेशक बनने का गौरव हासिल हुआ. लेकिन इसे दर्शकों तक लाने और हजारों लड.कियों की प्रेरणा बनाने का श्रेय जाता है- कंचन चौधरी की छोटी बहन कविता चौधरी को. अपनी बड.ी बहन के पुलिस अधिकारी बनने, पुरुषों के दबदबेवाले पुलिस महकमे में बतौर महिला अधिकारी खुद को साबित करने के संघर्ष को धारावाहिक की स्क्रिप्ट में ढालनेवाली कविता ही थीं. उन्होंने न सिर्फ ‘उड.ान’ को शब्दबद्ध किया, इसकी निर्देशक भी वही थीं. ‘उड.ान’ की प्रमुख किरदार कल्याणी की भूमिका को भी कविता ने ही निभाया था. कविता चौधरी ने इस धारावाहिक से अपनी निर्देशकीय ही नहीं, अभिनय प्रतिभा को भी साबित किया था. 

दर्शकों के मन में यह सवाल आज भी बना हुआ है कि इसके बाद वह कभी टीवी के परदे पर अपने इस असर के साथ क्यों नहीं दिखीं. इसका जवाब शायद यह हो कि जिस उद्देश्य के लिए कविता चौधरी ने इस माध्यम को थामा था, उसे एक हद तक छू लिया था. इसलिए खुद को दोहराया नहीं. हालांकि इस धारावाहिक के बाद कविता सर्फ के एक विज्ञापन में ललिता जी के रूप में बहुत लोकप्रिय हुई थीं. डेली सोप की भरमारवाले इस दौर में परदे पर कविता चौधरी भले नहीं हैं, लेकिन उन्होंने इस बीच कुछ फिल्में और धारावाहिक लिखे हैं. सामाजिक सरोकारों से जुडे. विषयों पर वृत्तचित्र बनाये हैं. सतीश कौशिक निर्देशित फिल्म ‘बधाई हो बधाई’और 2008 में आये टीवी सीरियल ‘योर ऑनर’ का लेखन भी उनके नाम दर्ज है. 

इस सबसे इतर वह आज भी सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय रहती हैं, जिसकी तस्दीक कभी-कभार अखबारों के पत्रों में सिंगल कॉलम की खबरों से ही सही, होती रहती है. इस कहानी की असली नायिका कंचन चौधरी 2007 में सेवानवृत्त हो चुकी हैं. लेकिन उस दौर की वो लड.कियां जिनके लिए यह धारावाहिक प्रेरणा बना, अपनी बेटियों को इस धारावाहिक के दृश्यों से जोड. सकती हैं. इसके 32 ऐपिसोड डीवीडी के रूप में आ गये हैं. क्या पता उनकी प्रेरणा का कोई कतरा उनके बेटी के की आंखों में एक और ‘उड.ान’ बन कर तैर जाये. 

हमें किसी का सम्मान नहीं चाहिए, कैसा भी आचार्यत्व नहीं चाहिए : नागार्जुन

हिंदी साहित्य में नागार्जुन का व्यक्तित्व अपने आप में अकेला है. वे प्रतिबद्ध कवि तो थे ही, ‘प्रतिबद्ध घुमक्कड.’ भी थे. काफी पहले नागार्जुन से प्रख्यात कथाकार मनोहर श्याम जोशी ने एक लंबा साक्षात्कार लिया था. यह साक्षात्कार एक तरह से नागार्जुन की छोटी जीवनी है. नागार्जुन की जयंती पर उस साक्षात्कार का संपादित अंश. : अखरावट 



नागार्जुन नामक इस व्यक्ति को, जो विष्णु नागर की कविताओं की प्रशंसा कर रहा है, जो मुझे यह बता रहा है कि उसने किसको चिट्ठी में क्या लिख दिया है, जो सुड.क-सुड.क कर अब चायपान कर रहा है, मैं जानता हूं और वर्षों से. किंतु बहुत निकट से नहीं. दूसरे शब्दों में यह कि मैं जानता तो हूं, मगर वैसे नहीं.. ‘ऐसे’ मैं क्या जानता हूं? यही कि बाबा भला आदमी है. हिंदी साहित्य में ‘भले आदमियों’ की एक अलग और दुर्लभ प्रजाति चली आ रही है. यह ‘भलापन’ कुछ-बहुत स्वभाव से मापा जाता है और बहुत-कुछ व्यक्ति विशेष के महत्वाकांक्षी न होने से. कहीं आडे. न आने से. भले आदमियों के बारे में बुरा सुनने का सुख एकांत में भी प्राप्त नहीं हो पाता. कोई सर्वज्ञ आपको अलग से ले जाकर कान में यह नहीं बताता कि ‘दरअसल इनका यह है कि.. समझ गये ना! हां..बस-बस-बस.’ मुक्तिबोध के उठ जाने के बाद भलेपन के क्षेत्र में बाबा और शमशेर भाई दो शीर्षस्थ प्रतियोगी माने गये हैं. वही स्वभाव की सरलता, सभी पीढ.ियों के लोगों में उठना बैठना, नये कृतिकारों की प्रशंसा करना, जिनसे भी संबंध रखना बहुत घरेलू और साहित्यिक स्तर पर, महत्वाकांक्षी न होना- सामाजिक और साहित्यिक दोनों ही स्तरों पर; कविताएं कहीं भी किसी भी कॉपी-डायरी में या कागज की चिंदी पर लिख देना, खो देना; आधुनिक बिरादरी में होने के बावजूद क्लासिकी और परंपरागत साहित्य में रुचि और गति रखना, और कम्युनिस्टों की नजदीकी के बावजूद पार्टी संगठन से न कोई विशेष प्रीति होना, न कोई विशेष प्राप्ति- ‘भाई’ और ‘बाबा’ में काफी समानताएं हैं. किंतु इस तथ्य को भी रेखांकित करना आवश्यक समझा गया है कि शमशेर ‘भाई ही हैं, ‘बाबा’ नहीं और नागार्जुन चाहे कितने भी भोले हों, आप उन्हें भाई-भाई वाले दावं में ला नहीं सकते. और फिर बाबाओं में ऐसा है कि खुश हो गये, तो वरदहस्त, उखड. गये तो त्रिनेत्र. नाराज़ी कुछ हलकों में नागार्जुन के भोलेपन का अवमूल्यन कराती आयी है. 

‘ऐसे’ मैं यह भी जानता हूं कि बाबा मसिजीवी हैं. रॉयल्टी वसूली की चिंता में कहते हैं,‘वहां से पैसा वसूलें, तो दो बोरा धान डलवा डलवा आयें, फिर निश्‍चिंत निकल जायें घुमक्कड.ी पर’ शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार हो, जो लेखन और जीविका में, सृजन और अर्जन में इतना सीधा संबंध जोड.ता हो, और डंके की चोट पर, खंड काव्य लिख रहे हैं आजकल. थोड.ा पौराणिक-क्लासिक ऐसा थीम हो, तो खंडकाव्य झट कोर्स में लग जाता है. उपन्यास भी हम छोटा ही लिखते हैं. बृहद उपन्यास में झंझट है, आकार बड.ा होगा, तो कीमत भी ज्यादा होगी. कहां से खरीदेगा विद्यार्थी!

नहीं,‘साहित्यकार’ इस तरह नहीं बोलते, लेकिन नागार्जुन तो बाबा हैं..

..सवाल यह है कि ‘वैसे’ नागार्जुन क्या चीज हैं? अजी बगैर ‘वैसे’ हुए कोई लेखक-कवि हुआ है आज तक!
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वह घरवाली, वह गरीब ब्राह्मनी एक के बाद एक चार बाों को जन्म देती है, मगर बचता कोई नहीं. तब वैद्यनाथ धाम की विशेष सेवा करता है, मिसिर परिवार और जो बा जन्म लेता है, जीवित रहता है, उसका नाम रखा जाता है- वैद्यनाथ मिसिर. बुआजी का आग्रह होता है, इसे ठक्कन कहो! ठक्कन, ठगनेवाला, जो ठगने मात्र को आया है. कोईभरोसा नहीं, कब यह भी रूठ कर चला जाये. चश्मेबद्दूर ठक्कन कहने से शायद बच जाये. पसीजे कुछ और बना रह जाये यहां अपनी तिरस्कृता-उपेक्षिता मां की गोदी में.

‘हम गांव जायेंगे, तो बूढे. लोग अबभी बुलायेंगे, अरेठक्कन! नागार्जुन कहने से नहीं चीन्हेंगे- समझ गये ना?’

ठक्कन चार-पांच साल का था कि उसकी मां एक और बा जन कर अपनी उम्र के चालीसवें वर्ष में भगवान को प्यारी हुईं. ठक्कन को लगता है कि उसे अपनी मां का पिता द्वारा निरंतर अपमान किये जाने की स्मृति है.

..वितृष्णा, उसका बचपन इस एक शब्द में समेटा जा सकता है. यद्यपि पंडितों के घर जन्मा बालक भी चार साल की उम्र में इस शब्द को कहां जानता होगा! 

वितृष्णा होती थी हमको, समझ गये ना? चाची हमारी माता के लिए दो पैसा की दवा नहीं करने देती थी. हमको बराबर लगा कि पिता चाची के इशारों पर माता की उपेक्षा करते हैं. समझ गये ना! 

कवि नागार्जुन के बचपन में बांस-वन, कदली गाछ, काली घटा, आम्र मंजरी, पोखर-वोखर आप लाख ढूंढ.िये नहीं मिलेंगे. आप स्थापित करना चाहें, ठक्कन की स्मृति करने नहीं देगी. आपने सही कहा कि ‘बड. दिब लागल कदमक फूल’ लेकिन ठक्कन को कदंब के फूलोंवाला नहीं, वह गांव याद आता है, जहां कदम-कदम पर धर्म-मोक्ष के झंडाबरदार अर्थ-कामविषयक कानाफूसी करते थे. शायद ही किसी कवि की स्मृति में अपने गांव की इतनी गैर-रूमानी छवि हो, जितनी नागार्जुन के मन में है. तुलसी चौरा पर संझवाती-वंझवाती तो खैर हैइये नहीं, आप धरती-पुत्र की प्रगतिशीलता से धड.कती जिंदादिली भी यहां नहीं पाइयेगा. 

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राजनीति में भी बाबा का टूर बेढब रहा है. गांधीवादी, सुभाषवादी, समाजवादी, साम्यवादी, जयप्रकाशवादी, हर जमात में उठे-बैठे हैं. कहीं भी जमे नहीं हैं.’ 

फारवर्ड ब्लाकिस्ट हम इसलिए नहीं रहे कि सुभाष ने गलत निर्णय किया, तोजो-हिटलर से सांठ-गांठ कर ली. 

क्या सभी ने गलत निर्णय किये? कोई भी दल, कोई भी नेता ऐसा नहीं निकलता, जिसने अधिकतर निर्णय सही किये हों? 

जिसने जो गलत निर्णय किया, सो हमने कहा, साफ कहा, मुंह पर कहा. इससे न हम उनके शत्रु हो गये, न वे हमारे. राहुल जी की मने कोई कम आलोचना की हमने? प्रेम के क्षेत्र में उनकी महानता हमें कभी पसंद नहीं आयी. एक र्मतबा हमने उन्हें 36 प्रेमिकाओं-विवाहितों का हिसाब लगा कर दिया था. उनका तरंग में आकर लिखना, ढीलम-पोलम, जैसा का तैसा, यह हमें कभी ठीक नहीं लगा. कई बार उनसे बहुत बहस हुई. कहते थे कसने-मांजने का काम अगली पीढ.ी करेगी. उनकी महंतगिरी की हमने आलोचना की. प्रयाग के साहित्यिक महंतों पर जब हमने प्रहार किया, राहुलजी को भी नहीं बख्शा,यद्यपि मित्र कहते थे कि उनका नाम न लो, उन्हें मत घसीटो, वे अपनी राजनीतिक विचारधारा के हैं. 

विधिवत किसी भी दल के कार्यकर्ता नहीं बने. यद्यपि उन्हें कम्युनिस्ट समझा जाता है और उनका काव्य राजनीतिक रंग में रंगा हुआ है. ऐसा क्यों?

जब हम किसी स्थान में बसे ही नहीं, तब किसी राजनीतिक दल में कैसे बस जाते! आदमी किसी एक जगह रहता है, तभी न जाकर काम कर सकता है पार्टी का. ढोलक-मजीरा बजाने का ही काम ले भले, पर सुबह-शाम आरती के समय ढोलक- मजीरा बजाने के लिए उपलब्ध तो हो!

सुना बाबा झगड.ा हो जाता है, बहुत जल्दी? 

गलत बात को हम गलत कहते हैं. झगड.ा हो, हो. आपने ठप्पा लगाया, मैंने भी बगैर पूछे लगा दिया. आपने कहा अंगूठा टेको, हमने अंगूठा टिका दिया- वह हमसे नहीं होता. कम्युनिस्टों में संगठन बहुत टाइट किस्म का होता है. समाजवादियों का भी टाइट है, मगर कुछ कम. 

तो क्या बाबा संगठन के खिलाफ हैं?

हम संगठन के विरुद्ध नहीं हैं, लेकिन संगठन के साथ होने का मतलब अगर यह लगाया जाता हो कि हम अपने विवेक के शत्रु हो जायें, तो हमें स्वीकार नहीं. हम सर्वहारा के साथ हैं, अपनी राजनीति में, अपने साहित्य में, किंतु हमें इस विषय में किसी की लगायी कोई कैद मंजूर नहीं है. समझ गये ना? हमें जो करना है, अपनी तरह से करते हैं. हमें किसी का सम्मान नहीं चाहिए, कैसा भी आचार्यत्व नहीं चाहिए. 

आचार्यत्व से परहेज!

आचार्यत्व बहुत महंगा पड.ता है, समझ गये ना? एक होता है साहित्य, एक होती है साहित्य की राजनीति. हम साहित्यवाले हैं. हमारा वह नहीं है कि छह-सात कमेटियों की शोभा बढ.ा रहे हैं और साहित्य में कुछ कर-धर नहीं पा रहे. 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तो आचार्य थे?

वह निभा ले गये आचार्यत्व. यह हम जानते हैं. एक्सेप्शन होता है हर रूल का. बाकी आचार्यत्व का मतलब ही यह है कि साहित्यिक लुटिया डूबी. हमारे मित्र थे चतुरानंद मिर्श. नितांत प्रतिभाशाली. दो बहुत सुंदर उपन्यास लिखे. फिर राजनीतिक गति को प्राप्त हुए. रमेश सिन्हा का क्या हुआ! ओपी सिंघल का क्या हुआ! और नामवर! नामवर सिंह के लिए हमको बहुत दया आती है. इतना मेधावी व्यक्ति और एक लाइन नहीं लिख पाता, एक लाइन!

(यह साक्षात्कार मूल रूप से संभवत: 1981 में ‘आलोचना’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. ‘नया पथ’ के नागार्जुन विशेषांक, 2011 से साभार.)

23 June 2013

मन के अंदर एक कारखाना होता है, जहां रचना की बुनाई चलती रहती है : इब्बार रब्बी

वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी की कविताओं में जिंदगी के यथार्थ में शामिल वे चीजें हैं, जिनके आस-पास से हम रोज गुजरते हैं, लेकिन उनके होने को ठहर कर नहीं देखते. बिजली का खंभा हो, रेल की पटरी या दिल्ली की बस या फिर घर में रखी मेज, ऐसी अनगिनत चीजें उनकी कविताओं में जीवंत एहसास के साथ जगह पाती हैं. पिछले दिनों प्रीति सिंह परिहार ने इब्बार रब्बी से लम्बी बातचीत कॆ. उस साक्षात्कार को यहाँ इब्बार रब्बी के आत्मवक्तव्य में ढाला गया है… 

फोटो : राजेश कुमार 


बचपन से किताबें पढ़ने में मेरी गहरी रुचि थी. पढ़ने का जुनून मुझ पर इस कदर हावी था कि मैं बच्चों की कहानियां ही नहीं, रामायण, महाभारत सबकुछ बिना समझे पढ़ जाता था. उन्हीं दिनों मैंने दो किताबें पढ़ीं, ‘प्रतिनिधि कहानियां’ और ‘21 कहानियां.’ बहुत छोटा था इसलिए अज्ञेय, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र, उपेंद्रनाथ अश्क और अन्य लेखकों की कहानियां ज्यादा समझ नहीं आयीं. लेकिन प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ ने मुझे गहराई से प्रभावित किया. मैंने सोचा मैं भी ऐसी कहानियां लिखूंगा. इसके बाद मैंने कहानियां लिखने की कोशिश भी की, जो बहुत ही बचकानी किस्म की थीं. 

मेरे माता-पिता बहुत पहले गुजर चुके थे. उनकी कोई खास स्मृति मेरे जेहन में नहीं थी. मैं अपने नाना के यहां रहता था. मैं जब 15-16 साल का था, मेरे नाना की मृत्यु हो गयी. पहली बार समझ में आया कि मृत्यु क्या होती है. मैंने तब उन पर एक कविता लिखी. वो शायद मेरी पहली कविता कही जा सकती है. 
दिल्ली आने से पहले करीब एक दशक तक कुछ भी नहीं लिखा. पहले का लिखा पीछे छूट गया. दिल्ली आकर फिर नये सिरे से श्ुारुआत हुई. 10 अगस्त 1975 की रात एक रात मैंने बहुत सारी कविताएं एक साथ लिखीं. ‘घड़ी का एक गीत’,‘मेज का गीत’, ‘अखबार की नौकरी 10 वर्ष’,‘बच्चा घड़ी बनाता है’,‘गुलाब’ आदि कविताएं उस रात लिखीं. उस वक्त आपातकाल लगा था. उस पर भी कविता  लिखी. लिखता गया. 
मैंने ज्यादातर ऐसी चीजों पर कविता लिखी, जो कविता के विषय नहीं थे, जिन्हें कभी छुआ नहीं गया था. ‘अरहर की दाल’ इसी तरह की कविता है. 

नागार्जुन के उपन्यासों में हर प्रकार के आम और मछलियों के स्वाद का वर्णन आता है . ऐसा वर्णन पहले किसी ने नहीं किया था. इसी तरह रेणु के ‘मैला आंचल’ से पहले किसी भी लेखक ने हवा ,पेड़ों, पंछियों और गांव की बोली का इतना कलात्मक उपयोग नहीं किया था. उन्होंने ध्वनियों, आवाजों आदि को पकड़ा. मुझे यह सब चीजें बहुत हॉन्ट करती हैं. ऐसी अनेक चीजों से मेरी कविता भी बनती रही है. हालांकि रचनाकार को पता नहीं होता कि कौन सी चीज क्या असर छोड़ेÞगी या कैसे कविता हो जायेगी. मैं वैसे भी आवेश वाला कवि हूं. आवेश पल भर में आता और चला जाता है. ऐसा ही कुछ मेरी रचना के साथ होता है. मैंने अकसर अनुभवों को नोट करने की कोशिश की, नहीं तो वे स्मृति से चले जाते हैं. अनुभव के किसी हजारवें हिस्से से शायद कोई कविता बनती है. जरूरी नहीं कि तब भी कविता हो ही जाये. 

मैंने आदिवासी इलाकों में जाकर काम किया. महीनों उनके बीच रहा. वहां के  दुर्लभ अनुभवों से मेरी डायरियां भरी पड़ी हैं. लेकिन उनका अभी तक कोई लेखकीय उपयोग नहीं हुआ. इन जगहों में असल में मैं जीवन, कला और कविता की खोज में गया था. कुछ चीजें कविताओं में आयीं भी. दिल्ली या भोपाल में बैठ कर आदिवासियों के जीवन पर कविता नहीं लिखी जा सकती. उनके साथ रहना, देखना और फिर लिखना एक तरह से उनके जीवन का दस्तावेजीकरण है. 

मन के अंदर एक कारखाना होता है, जहां रचना की बुनाई चलती रहती है. वह बुनाई जब पूरी हो जाती है, तब कपड़ा बाहर आता है. यह समाधि लगाने या स्वयं से बात करने जैसा कुछ है. मेरे साथ ही नहीं, शायद औरों के साथ भी ऐसा होता होगा. 
कविता कभी नष्ट नहीं होती, जैसे ध्वनि और विचार नष्ट नहीं होते. हर चीज नये सिरे से लौट कर पुन: आती रहती है. मैंने जब लिखना शुरू किया था, तब कहा जाता था कि कविता मर गयी है. लेकिन! नागार्जुन, त्रिलोचन और शमशेर तब महान कविता लिख रहे थे. आज भी कविता लिखी जा रही है और खूब लिखी जा रही है. 

रचनाकार को अपनी वही रचना प्रिय होती है, जो प्रकाशित नहीं होती. मुझे मेरी  ‘दिल्लीनामा’और हाल में लिखी गयी ‘भिखारियों का गीत’ कविता अच्छी लगती है. ये दोनों किसी संग्रह में नहीं हैं. ‘लोग बाग’ संग्रह की तारीफ हुई, पर वह मुझे बहुत कमजोर लगा. पहला संग्रह ‘घोषणा-पत्र’ मन के ज्यादा करीब लगा. खुद तय करना मुश्किल है. 

मैंने कभी पुरस्कारों को अहमियत नहीं दी. सार्त्र ने कहा भी था नोबेल पुरस्कार के लिए कि ‘यह आलू का बोरा है.’ मेरे मन में कभी पद या प्रतिष्ठा की लालसा नहीं रही. नौकरी के दौरान कई बार मेरे सामने पदोन्नति के मौके आये. लेकिन, मैंने आगे बढ़ कर उन्हें पाने की कोशिश नहीं की. नतीजतन मुझसे कनिष्ठों को मुझसे बड़े पद मिल गये. लेकिन कभी मेरे मन में इस बात को लेकर कुंठा या क्रोध नहीं उपजा. मार्क्सवाद और कविता ने मुझे शायद तनाव से बचाया. वैसे भी जीवन के अंतिम क्षणों में पुरस्कार मिले, तो उसका क्या लाभ. लेकिन कोई लेखक बीमार है और पुरस्कार या सम्मान में उसे कुछ लाख की राशि मिलती है, तो वह इलाज में काम आ सकती है. यही पुरस्कार की उपयोगिता है. हमारे यहां तो अंतिम समय में पुरस्कार दिये जाते हैं. पूरा जीवन अभाव में कट जाने के बाद अंत में पुरस्कार मिले, तो क्या लाभ! कई बार लेखक के पास रोटी खाने के भी पैसे नहीं होते. दुनिया से जाने के बाद किसी ने उसे याद भी किया, तो इससे लेखक को क्या हासिल होगा!

यात्राएं मुझे पसंद हैं. ऐसे ही सड़कों और गलियों में घूमना, खंडहरों और एतिहासिक स्थलों को खोजना अच्छा लगता है. लेकिन अब स्वास्थ्य कारणों से कहीं जा नहीं सकता. पढ़ने का तो शौक है ही. विषयों की रुचि का कहीं अंत ही नहीं है. इस समय पढ़ रहा हूं कि समुद्र के रास्ते कैसे योरोप वालों ने दुनिया को खोजा. अब किताबें नहीं खरीद पाता. आर्थिक स्थति ऐसी नहीं रही. पुस्तकालय भी नहीं जा सकता, क्योंकि आने-जाने का साधन नहीं है. इसलिए बहुत पहले खरीदी गयी ऐसी किताबें पढ़ रहा हूं, जो समय की कमी के कारण पढ़ नहीं सका था. हाल ही में चालीस साल पहले खरीदी गयी भगत सिंह की जीवनी पढ़ी, जो उनकी  भतीजी ने लिखी है. नेपोलियन की जीवनी पढ़ी. पढ़ते हुए समय कट जाता है और मुझे कभी किसी तरह की निराशा नहीं घेरती. मेरा तनाव किताबों में विलीन हो जाता है. जानकारियां भी बढ़ती हैं. जैसे कि हंगरी के मूल निवासी और हमारे बीच घनिष्ठ संबंध हैं. इन दिनों मैं ‘सोशल हिस्ट्री आॅफ इंग्लैंड’ पढ़ रहा हूं, जो मैंने एमए के दौरान खरीदी थी. हमारे यहां भगवतशरण उपाध्याय और वासुदेव शरण अग्रवाल ऐसा काम कर चुके हैं. मेरी इच्छा है कि ‘कबीर के समय का भारत’ नाम से ऐसी ही एक किताब लिखूं. पता नहीं लिख पाता हूं या नहीं, क्योंकि कवि अकसर बोलते बहुत हैं और लिखते कम हैं. 

मुझे विष्णु खरे, वीरेन डंगवाल की कविताएं पसंद हैं. उदय प्रकाश का कविता संग्रह ‘रात में हारमोनियम’ खासतौर पर. कहानियां तो उनकी अद्भुत हैं ही. हिंदी में अभी उनके जैसा कहानीकार कोई और नहीं दिखता. कभी शताब्दियों में ऐसे लेखक जन्म लेते हैं. इसी तरह विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास और कविताएं दोनों चकित करते हैं, जैसे फेलिनि की फिल्में चकित कर देती हैं. विनोद कुमार शुक्ल की भाषा का भी कोई मुकाबला नहीं है. वह कल्पना की सीमाएं तोड़ देते हैं. नये लोगों में निर्मला पुतुल की कविताएं प्रभावित करती हैं. व्योमेश शुक्ल, अष्टभुजा शुक्ल, बद्रीनारायण भी अच्छा लिख रहे हैं.
बातचीत : प्रीति सिंह परिहार

9 June 2013

साहित्य की यह लाइव बहस...

साहित्य की दुनिया इन दिनों बहस-मुबाहिसों से गुलजार है. यह बहस पूरी तरह लाइव है. पल-पल का हिसाब, पल-पल का जवाब इसमें दिया जा रहा है. साहित्य का यह नया ‘पब्लिक स्फेयर’ (सार्वजनिक मंच) रचा है फेसबुक और ब्लॉग ने. लेकिन यह तथाकथित सार्वजनिक मंच खतरों से खाली नहीं है. साहित्य के इस नये ‘पब्लिक स्फेयर’ या मंच पर प्रीति सिंह परिहार की विशेष प्रस्तुति

यह कोईघोषित मंच नहीं, जहां किसी बहस को अंजाम तक पहुंचाया जा सके, टिप्पणी की जा सके और सवाल रखे जा सकें. लेकिन फिर भी एक लाइव बहस जारी है. बहस में शामिल चेहरे प्रत्यक्ष नमुदार नहीं हैं. उनकी उपस्थिति दर्ज कराती प्रोफाइल आमने-सामने हैं. यहां शब्द ही बहस का आगाज है और आवाज भी. पिछले कुछ वर्षों में बिना मेल-मुलाकात के ही लोगों के दोस्तों की फेहरिस्त लगतार बढ.ाने वाली सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक की वॉल में साहित्य की यह बहस आगे बढ. रही है. बिना थके. बिना थमे. इस वॉल पर निजी अनुभवों, तसवीरों से लेकर राजनीतिक, साहित्यिक और समसामयिक घटनाओं पर टिप्पणियां आम हैं. फेसबुक की वॉल एक ऐसा सार्वजनिक मंच, या नया पब्लिक स्फेयर है, जहां पर लगातार कविताएं, कहानी, संस्मरण, लेख या उसकी कुछ पंक्तियां चस्पां की जा रही हैं. लेकिन, रचनाएं फेसबुक पर वह गरमाहट नहीं पैदा कर पातीं, जैसा कोई विवादित लेख कर जाता है. कुछ लोगों का तो मानना है कि फेसबुक साहित्यिक बहस का नया अड्डा बन कर उभरा है. पिछले तीन-चार वर्षों में फेसबुक पर एक के बाद एक विवादास्पद (और अकसर कटु) बहसें चली हैं. कभी तसवीरों ने किसी बहस को जन्म दिया है, तो कभी किसी लेख, साक्षात्कार, या बहस खड.ी करने के लिए चतुरता से उठा ली गयी किसी पंक्ति ने.

हाल ही में फेसबुक पर एक लंबी बहस चली. जिसमें बडे. संपादक से लेकर वरिष्ठ कवि और युवा ‘लेखक’ तक शामिल थे. बहस के मूल में था, कवि कमलेश से उदयन वाजपेयी की लंबी बातचीत में से चुनकर निकाला गया एक बयान- ‘मानवता को सीआइए का ऋणी होना चाहिए’ है. इस बहस ने विचारधारा से लेकर व्यक्ति और अवसरवादिता तक के सिरे पकडे.. युवा कवि गिरिराज किराडू के फेसबुक वॉल से शुरू हुई यह बहस 18 अप्रैल 2013 से 4 मई 2013 तक चली. जनपक्ष ब्लॉग में इस बहस को गिरिराज किराडू - अशोक कुमार पांडेय के मार्फत ‘विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण : लेखन और जीवन’ शीर्षक से सिलसिलेवार ढंग से पढ.ा जा सकता है. कथादेश के जून अंक में अर्चना वर्मा ने इस पर एक लंबा आलेख लिखा, जो जानकीपुल ब्लॉग पर भी देखा जा सकता है. यहीं इस सबके बरक्स कुछ सवाल अपनी ओर ध्यान खींचते हैं. क्या फेसबुक की वॉल हिंदी साहित्य का नया पब्लिक स्फेयर है? जनपक्ष ब्लॉग में उक्त बहस की भूमिका देखें-‘यह बहस हिंदी साहित्य के नये पब्लिक स्फेयर फेसबुक के संजीदा उपयोग का एक उदाहरण है और उसके बारे में अपरीक्षित धारणाओं का एक सशक्त प्रतिवाद भी. फेसबुक पर बहस लाइव होती है, कोई बोलता नहीं है, सब लाइव लिखते हैं.’ 

फेसबुक की इस लाइव बहस में क्या कोईवैचारिक क्षितिज बनता दिखता है? क्या यह बहस क्या हमारी साहित्यिक जमीन को मजबूत कर रही है? जिस तरह की साहित्यिक बहसें फेसबुक की वॉल पर आगे बढ.ी हैं, उनकी प्राथमिकता, प्रामाणिकता और अर्थवत्ता कौन तय करेगा? यहां ऐसे ही सवालों का जवाब दे रहे हैं तीन साहित्यकार.


१- अर्चना वर्मा 

फेसबुक सोशल मीडिया के अर्थ में पब्लिक स्फेयर माना जा सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसे हम साहित्य का पब्लिक स्फेयर कह सकते हैं. साहित्य का पब्लिक स्फेयर तो यह तब होगा, जब इसमें बडे. पैमाने पर और हर विधा का साहित्य प्रप्रतिनिधित्व पा सके. फेसबुक में चली हालिया बहस, जिसे साहित्य से जोड.ा जा रहा है, कवि कमलेश के बयान पर थी. लेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस ओर गया हो कि कमलेश खुद फेसबुक पर नहीं हैं. जिस व्यक्ति को लेकर इतनी लंबी बहस चली, उसका पक्ष सुना ही नहीं गया. ईमानदारी की बात यह होती कि वह पूरी बातचीत जिसमें से बहस का आधार बने ‘सात शब्द’ निकाले गये, वॉल पर डाली जाती. सबके सामने पूरी तसवीर तो आती! हो सकता है आगे हम फेसबुक को इस रूप में विकसित कर सकें. लेकिन अभी इसे साहित्य का पब्लिक स्फेयर कहना जल्दबाजी होगी. बजाय फेसबुक के बहुस से ब्लॉग और इ-पत्रिकाओं को हम बेशक साहित्य के सार्वजनिक मंच हिस्सा मान सकते हैं. 

फेसबुक की बनावट देखें तो, सबके मित्रों की अलग-अलग टोली है. अपने-अपने पोस्ट हैं. अभी जो कुछ सामने है, उसमें तो यही दिख रहा है कि मूल मुद्दा यानी साहित्य से जुड.ा विचार पीछे छूट जाता है और बहस व्यक्ति केंद्रित हो जाती है. इसमें बजाय विषय की तह में जाने के एक दूसरे को ध्वस्त करने की मंशा ज्यादा दिखती है. अकसर किसी भी बात का जवाब तर्क से नहीं दिया जाता, बल्कि तर्क को हास्यास्पद बना कर मन का गुबार निकालने की मंशा अधिक नजर आती है. दोस्ती-यारी में एक दूसरे की पीठ पर हाथ मार कर, चुटकुला करके, बातचीत करने का रंग दिखायी देता है. कमलेश के बयान पर फेसबुक की पूरी टिप्पणी को देखें, तो उसमें बस एक खीझ या परेशानी दिखती है कि किसी को रजा फांउडेशन से पौने दो लाख का फेलोशिप क्यों मिला? इन विवादों से तह में मौजूद चीजें तो सामने आती हैं, लेकिन यहां साहित्य भी कहीं मौजूद है यह नहीं दिखता. 

मैं फेसबुक की बहुत नियमित विजिटर नहीं हूं. लेकिन, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अशीष नंदी के बयान को लेकर हुए विवाद पर मैंने उस वक्त एक पोस्टी लिखी थी. वह एक लेखक के बारे में त्वरित प्रतिक्रिया थी. उसे जो रिस्पांस मिला, वह चाहे जितने भी लोगों का हो, उससे एक फीडबैक वाली फीलिंग तो होती है. लेकिन जो लोग आपकी बात पर लाइक का क्लिककर रहे हैं, वो आपकी बात का र्मम भी जान रहे हैं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है. किसी ने कोईठीक -ठाक कविता पोस्ट की और उसके बदले में किसी और ने कोई चलताऊ शेर जड. दिया, वह असल कोई संवाद नहीं है. अब तो लाइक पर भी चुटकुले बन गये हैं कि मृत्यु के संदेश पर भी लोग-बाग लाइक में क्लिक कर देते हैं. कोई जब फेसबुक पर अपनी कविता, कहानी या उपन्यास का अंश तत्काल डालता है, तो उस पर चार छह लोगों से प्रतिक्रिया मिल जाती है. वह आपसदारी में रचना पर एक फीडबैक और दोस्तों की बधाई ही होती है.

हालांकि फेसबुक पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी आती हैं, लेकिन यहां तात्कालिकता का दबाव इतना ज्यादा होता है कि ज्यादातर समय बहस का रुख बदल जाता है. बात गहराई तक नहीं जाती. बहस व्यक्तिगत आक्षेपों की श्रृंखला में बदल जाती है. किसी बहस में जो गंभीरता होनी चाहिए, ठहर कर सोचने का जो धैर्य होना चाहिए, संदर्भ इकट्ठा करने के लिए जिस तरह का अध्ययन होना चाहिए, वह नजर नहीं आता. अकसर लगता है कि तात्कालिकता के दबाव में एक माध्यम की शक्ति का दुरुपयोग किया जा रहा है. जिस पंक्ति पर बहस होती है, लोग उसके संदर्भ को समझे, पूरे लेख को पढे. बिना ही टिप्पणी करने लगते हैं. फतवे देने लगते हैं. सोशल मीडिया पर फैसला सुनाने की हड.बड.ी दिखाई देती है. 

हां भविष्य में फेसबुक के पब्लिक स्फेयर बन जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इसके लिए जरूरी है कि किसी बहस को शुरू करने से पहले मूल लेख को भी जगह दी जाये. उस पर सोच समझ कर तर्क के साथ बात रखी जाये, बजाय टंगड.ी मार कर निकल जाने के. 

अगर फेसबुक पर साहित्य के पब्लिक स्फेयर की संभावना की बात है, तो मैं पहले यह देखूंगी कि इसके लिए क्या नया किया जा सकता है. अब तक जितने लोगों ने इस पर जो काम किया है, उसमें कहां क्या कम रह गया है. मेरे ख्याल से किसी के चार-पांच हजार प्रसंशकों के दायरे में फेसबुक पब्लिक स्फेयर नहीं बन सकता.

२- मंगलेश डबराल 

अभी मैं एक-डेढ. महीने से ही फेसबुक पर हूं. शायद जल्दी ही उससे बाहर आ जाऊं, क्योंकि उसमें समय बहुत लगता है. फेसबुक पर साहित्य को लेकर काफी सामग्री डाली जा रही है, लेकिन फेसबुक को साहित्य का पब्लिक स्फेयर कहना कठिन है. हालांकि कुछ लोग जरूर इसमें कायदे की बहसें, कला और संस्कृति से जुड.ी कुछ बेहतरीन चीजें लेकर आ रहे हैं. कुछ लोगों ने लिखा कि फेसबुक पर बहुत कविताएं आने लगी हैं. लेकिन, मुझे लगता है कि फेसबुक ज्यादातर लोगों के लिए अपने बारे में सूचनाएं शेयर करने का माध्यम है. यह व्यक्ति की छोटी-छोटी सफलता-विफलता की एक नोटबुक जैसा है. कुछ लोगों ने कहा कि यह उनके लिए अपनी एक पहचान की तरह है. लेकिन तमाम चीजों के बाद भी यह एक स्मिृतिविहीन माध्यम है. इसने ब्लॉग को भी काफी आघात पहुंचाया है. लोग अब ब्लॉग पर कम और फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय दिखते हैं. ब्लॉग लिखना ज्यादा जिम्मेदारी का और गंभीर काम है. वैसी गंभीरता फेसबुक में नहीं आ पायी है. इसमें चीजें जमा होती रहती हैं और दबती जाती हैं. कुल मिलाकर यह एक चौराहे की तरह है, जहां कोईभी बिना जवाबदेही के किसी भी तरह की टिप्पणी कर चला जाता है. लेकिन, इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक कुमार पांडेय और वीरेंद्र यादव जैसे पांच-सात लोग फेसबुक में एक गंभीर सामाजिक, सांस्कृति बहस की जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल, इस समय साहित्य में विचार का बहुत अभाव है. इस अभाव के कारण लोग व्यक्ति केंद्रित हो रहे हैं. इसलिए गंभीर बहस में भी जहां विचार की बात होती है, तुरंत व्यक्ति की बात भी आ जाती है. फेसबुक है भी व्यक्तिपरक माध्यम. ऐसे लोग जिन्हें चीजों की ठीक से जानकारी नहीं है, वे भी आकर टिप्पणी करते हैं. इससे बहस बीच-बीच में भटक जाती है. यहां बहस के भटकने की ज्यादा आशंका है. इसके बावजूद कुछ लोग इस बात को लेकर काफी सचेत हैं कि आज विचार की दुनिया में क्या हो रहा है? किस तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक आक्रमण हम पर हो रहे हैं? फेसबुक पर ऐसे लोग बेहतर भूमिका निप्रभाते दिख रहे हैं. इस बीच निश्‍चय ही फेसबुक का स्वरूप कुछ बदला है. बहुत सा दुलर्भ संगीत इसमें पोस्ट हुआ है. बहुत सी बहसें आ रही हैं. यह नया माध्यम है और युवा पीढ.ी के बहुत से लोग इसे एक वैचारिक मोड. दे रहे हैं. 

लेकिन विस्मृति हर युग का बहुत बड.ा लक्षण है. भूमंडलीकरण की शक्तियों का आग्रह है कि हम भूल जायें. सीआइए को लेकर जो बहस शुरू हुई है, उसमें यह सवाल तो अपनी जगह पर है कि कमलेश जी ने सीआइए के बारे में क्या कहा, लेकिन बड.ा सवाल है कि क्यों आज संसार में सीआइए की भूमिका को विस्मृत किया जा रहा है. सीआइए ने जिस तरह से लोगों का दमन किया, सत्ताएं पलटीं, कठपुतली सरकारें बैठायीं, उसको अनदेखा करने की जानबूझ कर कोशिश हो रही है. कमलेश जी अगर यह कहते हैं कि मानव जाति को सीआइए का ऋणी होना चाहिए, इसका अर्थ है कि सीआइए के अपराध को हम अनदेखा कर दें. यह पूरी बहस इस बात के विरुद्ध है. मैं भी इस बहस में शामिल हुआ हूं, लेकिन किसी व्यक्ति नहीं, बल्कि विचार का विरोध या सर्मथन करने और दबाये जा रहे तथ्यों को सामने रखने के लिए. अमेरिका ने कैसे उस दौर में ब्रेख्त और चैपलिन को तंग किया था. इसके लिए सीआइए ने बाकायदा एक संस्था बनायी थी ‘कमेटी ऑन अनअमेरिकन एक्टिविटीज’. चैपलिन ने तो तंग आकर अमेरिका ही छोड. दिया था. यह सारे तथ्य इतिहास में दबे पडे. हैं, इनको इस समय उभार कर लाना जरूरी इसलिए लगा, ताकि कमलेश जी जैसे जिम्मेदार व्यक्ति के इस गैरजिम्मेदार बयान को वैधता न मिले. कमलेश जी ने एक और बात कही कि कम्युनिस्टों ने ब्राह्मणों के खिलाफ उसी तरह काम किया, जैसा नाजियों ने यहूदियों के खिलाफ किया. इस व्यक्तव्य का अर्थ है कि आप उस इतिहास को ही ठीक से नहीं देख रहे हैं. फिलहाल फेसबुक बहस का आगाज तो कर रहा है, लेकिन उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पा रहा.

३- प्रभात रंजन

फेसबुक को पब्लिक स्फेयर माना जाये या नहीं, लेकिन साहित्य के पब्लिक स्फेयर के रूप में यह जरूर उभरा है. खासतौर पर हिंदी साहित्य की बात करें, तो फेसबुक ने इससे जुडे. लोगों को एक बड.ा मंच दिया है. यह एक ऐसी जगह है जहां वे अपनी रचनाएं साझा कर सकते हैं, वैचारिक बहस कर सकते हैं. 

हिंदी साहित्य में अलग-अलग लेखक संगठन और गुट हैं. अब तक वे आपस में ही विचारों को साझा करते रहे हैं. लेकिन फेसुबक में अलग-अलग विचारधारा और संगठन के लोग आपस में संवाद कर सकते हैं. वैचारिकता को लेकर अब तक जो एक आडंबर हमने बना रखा था, वह छटने लगा है. फेसबुक ने हिंदी साहित्य के लिहाज से यह एक बड.ा काम किया है. इसने लेखक को स्वतंत्र स्पेस तो दिया ही है, वैचारिक गुटबंदियों को भी कमजोर किया है. 

कमलेश के सीआइए के बयान पर चली बहस में कहीं न कहीं निजी हमले भी हुए, लेकिन बहस का इस तरह निजी होना भी उसे एक वैचारिक आयाम देता है. सीआइए ही नहीं, मेरा मानना कि केजीबी को लेकर भी बात होनी चाहिए. यह बहस भी इस ओर जाती दिखी. हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि फेसबुक साहित्यिक जमीन मजबूत कर रहा है. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह खोई हुई जमीन को हासिल करने का काम कर रहा है. 

यह बहस अथपूर्ण है या नहीं, लेकिन महत्वपूर्ण तो है ही. महत्वपूर्ण इसलिए, क्योंकि फेसबुक ने यह मौका दिया है कि मैं किसी वरिष्ठ लेखक से भी सीधे बात कर सकता हूं. किसी मुद्दे पर सहमति-असहमति जता सकता हूं. हां ऐसे लोग आपस में बहस कर सकते हैं, जो पहले संवाद की स्थिति में नहीं थे. ठीक है कि इसमें कटुता या निजता भी आ जाती है, लेकिन इसने निकटता भी बढ.ायी है. हां अभी लोग इसे बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. शायद इसलिए, क्योंकि फेसबुक पर चली ज्यादातर साहित्यिक बहसें व्यक्ति केंद्रित रही हैं. उदय प्रकाश के पुरस्कार मामले में लंबी बहस हुई,लेकिन उनकी कहानियों पर कोईबात नहीं हुई. कमलेश के बयान पर इतना हंगामा हुआ, लेकिन उनके कवित्व को लेकर कोई बात नहीं हुई. लेकिन यह शुरुआती स्थिति है और अभी निर्णय पर जाना ठीक नहीं. आने वाले समय में जरूर इसे एक सार्थक दिशा मिलेगी. 

भाषा को लेकर ओम थानवी और आशुतोष के बीच चले संवाद को हम दो व्यक्तियों की लड.ाई कह सकते हैं, लेकिन दो अक्षर ‘च’ और ‘ज’ को लेकर चली इतनी बड.ी बहस असल में भाषा के प्रति सजगता भी तो है. 

हिंदी साहित्य में इस समय सबसे बड.ा संकट किताबों और पत्रिकाओं की उपलब्धता का है. सवाल हैकि जो लोग सीतामढ.ी, मुज्जफरपुर, सतना जैसी जगहों में रहते हैं, वे कैसे किताबों और पत्रिकाओं तक पहुंचें? कनेक्टिविटी की इस कमी को फेसबुक और ब्लॉग ने दूर किया है. अनेक नये लोगों को इस माध्यम ने पहचान देने का काम किया है. कई लेखक फेसबुक और ब्लॉग पर पहले प्रकट हुए और बाद में उन्हें पत्र-पत्रिकाओं ने छापा. अपर्णा मनोज, लीना मल्होत्रा जैसी लेखिकाएं इसी माध्यम से आयीं. 

प्रचार माध्यम के रूप में भी फेसबुक का साहित्यिक इस्तेमाल हो रहा है. किसी पत्रिका में कौन सी रचना छपी है, इसकी जानकारी फेसबुक से मिल जाती है. कौन क्या लिख रहा है, यह पता चल जाता है. वैसे इसको पब्लिक स्फेयर से ज्यादा प्रचार माध्यम के रूप में हिंदीवालों ने अपनाया है.