18 December 2009

नालंदा महाविहार :इतिहास आपके सीने में उतरता है


नालंदा महाविहार ,नालंदा विश्वविद्यालय .. आज से लगभग 800 साल पहले इस विश्व के सबसे पुराने और  सबसे  बड़े आवासीय विश्वविद्यालय को तुर्क हमलावर बख्तियार खिलजी ने भारी क्षति  पहुचाई और नालंदा महाविहार धीरे -धीरे ना सिर्फ समय और  विस्मृति के मलवे में, बल्कि सचमुच के ईंट- पत्थर और मिट्टियों  के भीतर  दफन हो गया  ..रेत पर पड़े आदमी  के पैर   के निशानों की तरह ज्ञान के इस भव्य केंद्र का  नामोनिशान ही  मिट गया..लेकिन कुछ निशाँ समय के निर्मम चोटों से पूरी तरह मिटते नहीं हैं बल्कि फिर से झाँकने लगते हैं ...दरअसल वैसे निशाँ जो सिर्फ जमीन पर नहीं होते बल्कि जमीन के भीतर तक धंसे होते हैं ..वे निशाँ जिनकी जड़ें होती हैं ,सदियों की झुलसती सुखाड़ को भी झेल लेने का माद्दा  रखते  हैं , हैं और फिर उग आते  है.





नालंदा के अवशेषों में शायद ऐसी ही ताकत थी. आज नालंदा हम सब के सामने है. साक्षात् .हम उसके खंडहरों में अपने आप को खोज सकते  हैं..क्योंकि ज्ञान कि जो परम्परा नालंदा में विकसित हुई वो भारत में ही नहीं दुनिया भर में फैली..और अलग अलग रौशन्दानों से थोड़ा थोड़ा छानकर ,हम तक पहुचती रही..भले अनजाने में ही.नालंदा महाविहार का इतिहास आप किताबों से पढ़ सकते हैं..विकिपीडिआ से भी नालंदा के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है. चाहें तो यू ट्यूब पर इस लिंक को(http://www.youtube.com/watch?v=k7UR9UEY79k) आजमायें काफी कुछ ,और काफी हद तक सही ..(पूरी तथ्यात्मकता का इसमें अभाव है.) जानकारी आपको मिल जायेगी.. लेकिन अगर आप नालंदा के सहारे अपने आप को, अपनी जड़ों को जानना चाहते हैं..अपने दिमाग की सलेट पट्टी पर लिखे हर्फों को अगर आप पहचानना चाहते हैं तो आपको नालंदा खुद जाना चाहिए..क्योंकि आप खुशनसीब हैं कि नालंदा के अवशेष इस रूप में मौजूद हैं कि उनसे आप बातें कर सकते हैं...अगर आप थोड़ी अंतरदृष्टी  का सहारा लें तो वहां.बौद्ध धर्म कि ज्ञान कि विशाल परम्पर को अपने भीतर जब्ज कर सकते हैं.फिलहाल आप इन तस्वीरों से काम चलाइये और देखिये विश्व  के धरोहर को...
      
खुदाई से पहले नालंदा 

                                  
नालंदा का स्तूप ..यहाँ तीन स्तूपों के निर्माण के चिह्न मिलते हैं..जो अलग अलग काल में अलग अलग राजाओं ने बनवाए थे...
  
नालंदा महाविहार में प्रवेश 



         
नालंदा महाविहार बहुमंजिला थी 


            

          
अध्ययन  हाल और छात्रों  के कमरे 

                                       
अध्ययन  हाल और छात्रों  के कमरे 

                                   

निर्माण के स्तर 
                                  
पानी का कुआं 
                                                  


                                

पानी का कुआं 



पानी का कुआं 




हवन और खाना बनाने के लिए चूल्हा 



हवन और खाना बनाने के लिए चूल्हा 
                                  



                                        
पार्क और पूजा स्थल 

                  
    
  




अलग अलग कालों में हुए निर्माण के अलग अलग स्तर 




  

2 December 2009

एक और भोपाल का इन्तजार?


भोपाल, इस एक संज्ञा  के कई अर्थ हैं.इस एक शब्द को सुनकर कई चित्र अलग अलग लोगों के जेहन में उभर सकते हैं.लेकिन जो  लोग  भोपाल गैस काण्ड के बदनसीब गवाह रहे उनके लिए भोपाल का अर्थ मौत ,रोग ,असहायता ,घुटन, शरीर में दौड़ता जहरीला  रासायनिक पदार्थ ,बिना किसी अपराध के पीढ़ियों तक सजा  भुगतने का अभिशाप ,सरकारी संवेदनहीनता और सिविक सोसाइटी की बेशर्म उदासीनता के अलावा  शायद ही और कुछ हो.भोपाल गैस काण्ड   जिसे मानवीय इतिहास का सबसे दर्दनाक औद्योगिक हादसा माना जाता है की संयोग से 25  वीं वर्षगाँठ आज की रात पड़ेगी, इसमें संयोग  जैसा कुछ नहीं 25 वीं   या 50 वीं बरसी का आ जाना तय  है. वह हमारी या आपके चाहने से आगे या पीछे नहीं हो सकता ,रुक नहीं सकता. अभी तुरत हमने इंदिरा  गांधी  की शहादत(?) की 25 वीं बरसी  मनाई है.अख़बारों में ,टीवी पर, पत्रिकाओं में  इंदिरा गांधी छाई  रहीं.सभी सरकारी मंत्रालयों ने इंदिरा गांधी को श्रधान्जली  के लिए   विज्ञापनों पर करोड़ों रूपये खर्च किये. मरे हुए नेता को जीवित कर देने की सारी तरकीब जो सत्ताधारी पार्टी अपना सकती थी ,उसे अपनाने में वह पीछे नहीं रही.
      लेकिन अफ़सोस इसी साल एक 25 वीं बरसी और मनाई जानी थी जिसे याद करना सरकार के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला है.काश यह बरसी नहीं आयी होती ? काश यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से 25  साल पहले  2 - 3 दिसंबर 1984 की आधी रात को जहरीले मिथाइल आइसोसाइनाइद का रिसाव नहीं हुआ होता..काश वो बेक़सूर जाने बचाई जा सकी होतीं? काश उस जहर से और पूरे इलाके के पीने के पानी ,मिट्टी तक में जहरीला रसायन शामिल ना हुआ होता जिसने आज तक 25000 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली है.काश ?? कितना अजीब है ,और अक्सर कितना बेहूदा भी है  ये शब्द? जिस तरह हिरोशिमा नागाशाकी पर परमाणु बम का गिड़ना,या चर्नोबिल के नाभिकीय दुर्घटना को  किसी काश से नहीं बदला जा सकता ठीक उसी तरह भोपाल की भयावह सच्चाई को भी किसी काश की मदद से  नहीं झुठलाया  जा सकता.हाँ इससे आँखे मूँद लिया जा सकता है.ठीक उसी तरह जिस तरह भारत सरकार ने और राज्य की सरकार ने इस मामले में अपनी आँखे मूँद रखी हैं. कितना आसान है आँखें मूँद लेना एक रोज -ब रोज घटते दहशत भरी दुर्घटना से? रोज तिल तिल कर मरते लोगों से आँखे बचा लेना कितना आसान  है? कितना आसान है अपनी सारी नैतिक  जिम्मेदारी से हाथ खीच लेना?  कितना आसान है अपनी तमाम बर्बरता के बावजूद सभ्य कहलाना?
   भोपाल गैस काण्ड के बाद सरकार के सामने जो चुनौतियां थी उससे निपटने में सरकार नाकाम क्यों रही? क्यों किसी को इस काण्ड के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए किसी को सजा तक नहीं हुई? क्यों आज तक भोपाल गैस काण्ड के मुख्य अभियुक्त एन्डरसन पर मुकदमा चलाने तक में भारत सरकार नाकाम रही?क्यों आज भी यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डोव केमिकल  कंपनी  आज भी शान से भारत में काम कर रही है ? क्यों भारत सरकार को गैस पीड़ितों को मुआवजा  देने के लिए सुप्रीम कोर्ट की फटकार की जरूरत पडी? क्यों इस फटकार के बाद भी मृतकों के परिजनों तक मुआवजा  नहीं पहुच पाया ? भोपाल गैस काण्ड कई असहज सवाल खड़े करता है. सिर्फ सरकार के लिए नहीं हम सब के लिए. मीडिया के लिए .मल्लिका शेहरावत के कपड़ों और रखी सावंत के चुम्बन के रस में डूबी हुई मीडिया ने क्या किया आज तक भोपाल गैस काण्ड के पीड़ितों के लिए? क्यों भूल कर बैठी रही मीडिया  आज तक इस काण्ड  को? क्यों इंतजार करना पड़ा उसे 25 वीं  बरसी  का  इस विषय पर  कुछ लिखने बोलने के लिए? सचिन और अमिताभ को सदी का महानायक करार देने वाली  मीडिया ने कभी क्यों नहीं सुध ली उन छोटे छोटे संगठनों की जो भोपाल के गैस पीड़ितों के लिए अंतहीन संघर्ष कर  रहे है हैं?जो उन तक साफ़ पानी जैसी न्यूनतम आवश्यकता पहुचाने  के लिए लड़ रहे हैं. उनको रोज मौत से लड़ने में मदद कर रहे हैं. क्यों इतनी धुंधली और इतनी बेहूदा हो गई मीडिया के भीतर नायकत्व की  समझ ? क्यों बोर वेल में फंसे एक बच्चे पर 36  घंटे का लाइव प्रसारण करने वाली मीडिया  ने शाश्वत रूप से  जहरीले रसायनों के चंगुल में फंसे लोगों पर कुछ भी सोचने और बोलने को जरूरी नहीं समझा ? यह सब हमारे समय और समाज में हो रहा है, इस सच्चाई ने कभी हमारी नींद क्यों नहीं उडाई ?
         सवाल कई हैं और उतने ही असहज भी. लोगों के जीने या मरने की कीमत आज कुछ नहीं. आप अगर अरुणाचल में, या मणिपुर में, मर रहे हों ,अगर आप पूर्व्वी उत्तर प्रदेश में जापानी दिमागी ज्वर से मर रहे हों ,अगर आप बिहार में कालाजार या मलेरिया से मर रहे हों, अगर आप आन्ध्र या ,विदर्भ में कर्ज की मार से मर रहे हों, अगर आप उड़ीसा में भूखमरी से मर रहे हों..या आप भोपाल में मिटटी और पानी में रिसते जहरीले  रसायन से मर रहे हों ,उस माँ के दूध को पीने से मर रहे हों जिसके दूध तक में यह जहर घुल चुका है तो आपके मौत की कीमत कुछ नहीं. आपके मौत की कीमत तभी है जब आप सत्ताधारी पार्टी की सर्वेसर्वा की सास या नानी हों.या आपकी मौत पर टीवी चैनलों को भरपूर दर्शक और विज्ञापन मिल सकने की उम्मीद  हो.रही सरकार से कुछ उम्मीद करने की बात तो  सरकार आपके जीने के लिए भले एक पाई भी खर्च ना करे लेकिन मरे को ज़िंदा करने के लिए करोड़ों खर्च  करने में पीछे नहीं हटेगी. यह हमारे समय का चलन है..एक ऐसे क्रूर समय का हिस्सा होना अगर आपकी नसों में सिहरन पैदा नहीं करता तो इन्तजार कीजिये किसी भोपाल काण्ड का. आपको समय की भयावहता का अंदाजा लग जायेगा.