26 April 2013

जिसने चिराग बनना कबूल किया...

शमशाद बेग़म को याद करते हुए यह टुकडा लिखा है प्रीति सिंह परिहार ने आप भी पढ़ें. 




हिंदी सिनेमा के शुरुआती दशकों में फिल्म गायकी में एक खनकदार आवाज हुआ करती थी. इस आवाज ने कईयादगार गीत दिये और संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा के लिए दर्ज हो गयी. लेकिन इस आवाज की पहचान में लिपटी शख्सीयत शमशाद बेगम अरसे से गुमनाम खामोशी ओढे. जी रही थीं. इसी खामोशी के साथ उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. दुनिया से इस रुखसती से बहुत पहले से वह अपने आपको घर की चारदीवारी में समेटे हुए थीं. इस दौरान उनका जिक्र शायद ही कहीं था. आज जब वो नहीं हैं, उनके जाने की खबरें हैं. गुजर जाने के बाद याद करने का दस्तूर जो ठहरा. इस हकीकत से वाबस्ता शमशाद बेगम की सांसें बिना किसी शिकायत के चलते-चलते, थम गयीं. पीछे रह गये हैं उनके गाये सदाबहार गीत, जो कल भी उतनी ही शिद्दत से सुने जाते थे, आज भी उन्हें सुनने वालों की कमी नहीं. 

शमशाद बेगम का नाम हर उस शख्स की याद में जगह रखता है, जो संगीत से वाबस्ता रहा है. ये अलग बात है कि शमशाद उन लोगों की यादों से दूर हो गयीं थीं, जिनकी सफलता का ताला खोलने की वह चाबी बनीं थीं. लंबे समय से वह मुंबई में ही, सिने जगत की चकाचौंध से दूर अपनी बेटी और दामाद के साथ गुमनाम जिंदगी बसर कर रही थीं. बीमार थीं. लेकिन उनकी फिक्र का कोई चरचा कभी उनके गीतों से आबाद रही फिल्मी दुनिया में नहीं सुनाई दिया. चालीस से लेकर साठ के दशक तक अपनी अवाज से कई गीतों को सजाने वाली इस गायिका ने तकरीबन चार दशक पहले पार्श्‍वगायन को अलविदा कह खुद को अपने घर-परिवार तक सीमित कर लिया था. शमशाद बेगम का अंतिम गीत 1968 में फिल्म ‘किस्मत’ के लिए आशा भोंसले के साथ ‘कजरा मोहब्बत वाला’ रिकॉर्ड किया गया था. 

रेडियो और दूरदर्शन के दौर में जिन गानों को सुनते हम बडे. हुए उनमें ‘ले के पहला-पहला प्यार’,‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’,‘बूझ मेरा क्या नाम रे’ में शमशाद बेगम की मैखुश आवाज घुली थी. 14 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृत्सर में जन्मी शमशाद के एल सहगल की गायिकी की मुरीद थीं. बचपन से संगीत से लगाव तो था, लेकिन इसकी विधिवत तालीम उन्हें नहीं मिली थी. किस्मत ने जरूर उन्हें खनकती आवाज के साथ सुरों को साधने का हुनर दिया था. इसी हुनर की बदौलत शमशाद बेगम को 1937 में लाहौर रेडियो से अपनी गायकी को आगे बढ.ाने की राह मिली. 1940 के आस-पास वह फिल्मों में बतौर प्लेबैक सिंगर गाने लगीं. उन्होंने नौशाद, ओपी नय्यर, मदन मोहन और एसडी बर्मन सहित उस दौर के तमाम संगीतकारों की लिए गाने गाये. ओपी नय्यर उनकी आवाज से इतने प्रभावित थे कि कहते थे,‘शमशाद की आवाज मंदिर की घंटी की मांनिद स्पष्ट और मधुर है.’

शमशाद ने गजल और भक्तिगीत भी गाये. उनके हिस्से विभित्र भाषाओं में लगभग पांच हजार गीत गाने का श्रेय दर्ज है. फिल्मी दुनिया से उनके दूरी बना लेने के लंबे अतंराल के बाद 1998 में खबर सुनी गयी थी कि गायिका शमशाद बेगम नहीं रहीं. लेकिन उनके कुछ प्रसंशक जब इस खबर की तह में गये, तो पता चला वे जीवित हैं और यह खबर नौसिखिया खबरियों की जल्दबाजी का नतीजा थी. शमशाद बेगम को खुदा ने दिलकश आवाज के साथ खूबसूरत चेहरा भी बख्शा था. लेकिन उन्हें अपनी तसवीर खिंचवाने से हमेशा परहेज रहा. लंबे समय तक लोग उन्हें उनकी आवाज से ही पहचानते रहे. संगीत की दुनिया से खुद को दूर करने के कुछ समय पहले उन्होंने पहली बार एक साक्षात्कार के दौरान अपनी तसवीर लेने की इजाजत दी थी. वर्ष 2009 में लोगों ने व्हील चेयर पर बैठे राष्ट्राति से पद्मभूषण लेते समय इस गायिका की एक झलक देखी.

शमशाद बेगम की शख्सीयत से रूबरू होकर यही अहसास होता है कि उन्होंने सितारा बनने की सारी खूबियों के बाद भी चिराग बने रहना कबूल किया था. इस चिराग से रोशन कई जहां हुए, पर इसे अपने साये में बैठे अंधेरे का कोई मलाल न रहा. शायद शमशाद ‘सुनहरे दिन’ फिल्म में गाये अपने गीत ‘मैंने देखी जग की रीत..’ की तर्ज पर इस जमाने की रीत से वाकिफ थीं. इसलिए किसी शिकायत को अपने दिल में न जगह देकर जिंदादिली से जीते हुए इस दुनिया से अलविदा हुईं.

                                     प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं 

25 April 2013

मैं रहूँ न रहूँ , मेरी आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी : शमशाद बेग़म

हिंदी सिनेमा की शुरूआती पार्श्‍व गायिकाओं में एक महत्वपूर्ण नाम रहा है शमशाद बेगम का. अपनी आवाज से कईगीतों को सदाबहार नगमों में शुमार करवानेवाली यह गायिका अब हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनके गाये गीत आज भी उतने मकबूल हैं, जितने कल थे. इन गीतों की लोकप्रियता जाहिर करती है कि इनसे हमेशा सिनेमाईसंगीत गुलजार रहेगा. शायद इसीलिए प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नय्यर ने उनकी आवाज की तुलना मंदिर की घंटी की पवित्रता से की थी. शमशाद के साथ काम कर चुके लोगों के जेहन में वह एक बेहतरीन गायिका के साथ, एक खुशमिजाज, मिलनसार और जिंदादिल शख्सीयत के तौर जिंदा हैं. पद्मभूषण से सम्मानित शमशाद बेगम से कुछ दिनों पहले बात की थी युवा फिल्म रिपोर्टर उर्मिला कोरी ने. बातचीत का यह अंश आप भी पढ़ें। 



आज से कुछ सालों पहले मुंबई के हीरानंदानी स्थित उनके घर पर मुझे उनसे मिलने का मौका मिला था. उनके घर पर पहुंचने से पहले मेरे जेहन में उनके व्यक्तित्व की एक संजीदा छवि थी, लेकिन जब वह व्हीलचेयर से कमरे में दाखिल हुईं, तो उनकी बाों की तरह खिलखिलाती मुस्कुराहट से एक अलग ही छवि जेहन में बस गयी. मुझे देख कर उनकी जो पहली प्रतिक्रिया थी,‘अरे आप तो अभी बी हो. खुशकिस्मत हो, जो आज के दौर में हो, वरना हमारे जमाने में बहुत पाबंदिया थीं. अच्छा लगता है जब लड.कियों को उनके मन का करते देखती हूं.’ शमशाद जी से मिले अभी बस दो मिनट ही हुए थे, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो हम एक-दूसरे को बरसों से जानते हों. उन्होंने तहे दिल से न सिर्फ मेरा स्वागत किया, बल्कि किसी अभिभावक की तरह ही फिल्मों से इतर दुनिया के बारे में बातचीत की. शमशाद जी की मशहूर गायिका की जगजाहिर छवि से आगे उनके व्यक्तित्व के और भी कई पहलू थे, जो उनसे मिल कर ही आप जान सकते थे. वे खुशमिजाज, नये लोगों की तारीफ करनेवाली महिला थीं. वे लोगों की हौंसलाअफजाई करने में विश्‍वास रखती थीं और जिंदगी से वे बेहद संतुष्ट थीं. यही वे तत्व थे, जो उन्हें औरों से जुदा करते थे. बिना शिकवा- शिकायत के उन्होंने एक बेहतरीन जिंदगी जी. आज शमशाद बेगम नहीं हैं. लेकिन उनकी गायिकी और उनका खुशमिजाज चेहरा हमेशा जेहन में जिंदा रहेगा. उस मुलाकात में उन्होंने अपनी जिंदगी की कई बातें मुझसे साझा की थीं. शमशाद बेगम से हुई उस बातचीत के मुख्य अंश उन्हीं के शब्दों में.

और मैंने गुलाम हैदर का दिल जीत लिया
महज 12 साल की उम्र में जेनोफोन कंपनी से मैंने अपने कैरियर की शुरुआत की थी. मेरे चाचाजी मेरे प्रेरणास्त्रोत थे. उन्हें गाने का शौक था. उनसे ही यह गुण मुझमें आ गया था. मेरे चाचाजी को मेरी आवाज बहुत पसंद थी, इसलिए जेनोफोन (लाहौर) द्वारा आयोजित प्रतिस्पर्धा में वे मुझे ले गये,जहां मैंने बिना किसी संगीत के एक मुखड.ा गाकर संगीतकार उस्ताद गुलाम हैदर का मन जीत लिया. मैं विजेता चुनी गयी और जेनोफोन कंपनी के साथ 12 गानों का कॉट्रैक्ट मिला. एक गाने के लिए उस वक्त बारह रुपये मिलते थे. इससे पहले मेरी विधिवत ट्रेनिंग नहीं हुई थी, लेकिन उस्ताद गुलाम हैदर ने मुझे संगीत की औपचारिक शिक्षा दी. वही मेरे पहले और आखिरी गुरु थे. उस वक्त धार्मिक कट्टरता भी काफी हावी थी. मुझे याद है जेनोफोन कंपनी ने एक आरती‘जय जगदीश’ रिकॉर्ड करवायी थी, मगर धर्मिक कट्टरता की आशंका के डर से मेरी जगह उमा देवी का नाम दिया गया था.

रेडियो ने रखा मेरी गायिकी को जिंदा 
जेनोफोन कंपनी में तो मैं गाने लगी थी, लेकिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मेरे लिए बतौर गायिका शुरुआत करना आसान नहीं था. अम्मी गुलाम ए फातिमा जितनी नर्म मिजाज की थी, अब्बा हुसैन बख्श उतने ही सख्त मिजाज थे. महिलाएं उस वक्त परदे में रहती थीं. उन दिनों प्लेबैक का जमाना नहीं था. अभिनेत्रियां अभिनय के साथ -साथ परदे पर गाती भी थीं. इसलिए लाहौर के पंचोली स्टूडियो ने मेरी आवाज सुनकर पहले मुझे स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया था. आपको विश्‍वास नहीं होगा, मैं चुन ली गयी. स्क्रीन टेस्ट तो मैं अब्बाजान से छिपकर देने गयी थी, लेकिन जैसे ही शूटिंग की बात आयी, अब्बा से इजाजत लेना जरूरी हो गया था. जैसे ही अभिनय के लिए मैंने उनसे बात की, उन्होंने फरमान सुना दिया कि अगर मैंने अभिनय के लिए जिद की, तो वे मेरा गाना भी बंद करवा देंगे. मेरे सपने चूर-चूर हो गए. मैंने ऑल इंडिया में रेडियो प्रोग्राम कर अपने अंदर की गायिका को जिंदा रखा था. लेकिन अल्लाह को मुझ पर तरस आ गया और दो साल बाद प्लेबैक सिगिंग का दौर शुरु हो गया. एक बार फिर पंचोली स्टूडियो ने मुझे बुलाया और बतौर गायिका अपनी फिल्म ‘खजांची’ में मुझे ब्रेक दिया. इस तरह से मुझे मेरी पहली फिल्म मिल गयी.

जब मैं नरगिस की आवाज बनी
‘खजांची’ फिल्म के गीत सभी को इतने पसंद आए कि पाकिस्तान से हिंदुस्तान तक सभी मेरे प्रशंसक बन गए. इन्हीं में से एक फिल्मकार महबूब खान भी थे. मुझे मुंबई लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. वे मुझसे मिलने लाहौर आये और मेरे अब्बा को मनाया. अब्बा मान गए, लेकिन उन्होंने एक शर्त्त रखी कि मुंबई जाने के बाद भी मैं परदा करूंगी और अभिनय में कभी नहीं आऊंगी. मैंने हां कर दी और मैं मुंबई आ गयी. महबूब खान की फिल्म ‘तकदीर’ में मैं नरगिस दत्त की आवाज बनी थी. इसके बाद सी रामचंद्रन,पंडित गोविंद, अनिल विश्‍वास जैसे संगीतकारों की जैसे लाइन लग गयी. एक के बाद एक सुपरहिट गीत आये और मैं मुंबई की होकर रह गयी. लेकिन अपने अब्बा से किया वादा हमेशा निभाया. अपने कैरियर में मैंने हमेशा खुद को लाइम लाइट से दूर रखा. मेरी गिनी चुनी तस्वीरे ही होंगी. मैं सिर्फ गाना गाती, फिर घर आ जाती थी. यही वजह है कि इंडस्ट्री में मेरा कभी कोई दोस्त नहीं था. 




गुटबाजी बढ. गयी, तो मैंने इंडस्ट्री छोड. दी 
शुरुआत में नवोदित संगीतकार मेरे पास आकर कहते थे कि आप मेरी फिल्म में एक गाना गा दीजिए, लेकिन गाना हिट हो जाने के बाद वे मुझे पहचानते भी नहीं थे. मैं हमेशा से यही सोचती थी कि जो गीत मेरे लिए बना है, वह मुझे ही मिलेगा. नूरजहां, सुरैया, जोहराबाई अंबालेवाली, अमीरबाई कर्नाटकी, उमादेवी ये उस दौर में मेरी प्रतिद्वंद्वी थीं, जो गायकी के साथ-साथ अभिनय भी करती थीं. लोग इन्हें आवाज और अभिनय दोनों से पहचानते थे, लेकिन मेरी आवाज ही काफी थी. लोगों ने मेरी आवाज को हमेशा ही पसंद किया और मुझे काम मिलता गया. मैंने कभी भी किसी संगीतकार से काम नहीं मांगा. यही वजह है कि जब इंडस्ट्री में ग्रुपिज्म (गुटबाजी) बढ. गया, तो मैंने इंडस्ट्री छोड. दी. मुझे खुशी थी कि जब मैंने इंडस्ट्री छोड.ी, उस वक्त मैं टॉप पर थी. फिल्म ‘किस्मत’ का ‘हाय मैं तेरे कुर्बान’ मेरा आखिरी गीत था, जो बहुत बडा हिट हुआ था. उस गीत के बाद मैंने कभी माइक नहीं पकड.ा.

रीमिक्स से मुझे परहेज नहीं 
मौजूदा दौर में मुझे सोनू निगम की आवाज बहुत पसंद है. मुझे रिमिक्स गानों से कोई परहेज नहीं है. मेरे द्वारा गाये गए ‘सैंय्या दिल में आना रे’, ‘लेके पहला-पहला प्यार’ और ‘मेरे पिया गये रंगून’ जैसे गीतों के रीमिक्स वर्जन मैं चाव से सुनती हूं. मुझे खुशी है कि कम से कम रीमिक्स गानों की वजह से आज की पीढ.ी पुराने गानों से रूबरू है.

हमारे दौर में संगीत इबादत था
इस पीढ.ी की मुझे सिर्फ एक परेशानी नजर आती है, वह ये कि यह अपने बडे.-बुजुगरें को उतना सम्मान नहीं देती, जितना हमारे वक्त में था. मुझे याद है, मैं मोहम्मद रफी के साथ फिल्म ‘रेल का डिब्बा’ का गीत ‘ला दे मुझे बालमा हरी हर चूड.ियां..’ गा रही थी. बिना सांस लिए गाना गाने की बात भले ही आज चर्चा में हो, लेकिन हमारे वक्त में भी हम ऐसे कई गीत गाते थे. यह गीत भी कुछ ऐसा ही था, गाते हुए मोहम्मद रफी की सांस टूट जा रही थी, लेकिन मेरी नहीं टूट रही थी. फिर क्या था, रफी साहब ने आकर मेरे पैरों को छू लिया और कहा कि ‘आपा कैसे आप एक सांस में गा ले रही हैं.’ उस वक्त अपने से बड.ों का इस कदर सम्मान किया जाता था. किशोर कुमार कोरस में वायलिन बजाता था. अक्सर गाने की रिकॉर्डिंग के बाद मेरी कुरसी के पास आकर बैठ जाता और कहता कि मेरे भाई (अशोक कुमार) मुझसे कितने आगे हैं और मैं कहीं भी नहीं हूं, तब मैंने उससे कहा था कि वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब तू सबसे आगे निकल जाएगा. वाकई ऐसा ही हुआ. उसमें संगीत को लेकर जबरदस्त जुड.ाव था.

संगीत उस वक्त के लोगों के लिए सिर्फ व्यवसाय या आय का साधन नहीं था, बल्कि इबादत था. मुझे याद है राजकपूर को अपनी फिल्म ‘आवारा’ में मुझसे एक गाना गवाना था, लेकिन मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं था. क्योंकि उस वक्त एक बार में ही गाने की रिकॉर्डिंग करनी पड.ती थी. इसलिए पहले ही मैं संगीतकार के साथ रियाज कर लेती थी, तब जाकर स्टूडियो में गाना गाती थी. मगर राज साहब के लिए मेरे पास डेट्स ही नहीं थीं. मैंने उन्हें परेशानी बतायी और कहा कि अगर मैं मुश्किल से गाने के लिए एक दिन का समय निकाल लूंगी, लेकिन रिहर्सल के लिए समय कहां से लाऊं. तब राज जी ने मुझसे कहा कि आप उसके लिए परेशान न हों. शंकर-जयकिशन आपके घर आकर रिहर्सल करायेंगे. वाकई हर सुबह गाने की रिकॉर्डिंग में जाने से पहले शंकर-जयकिशन और राज कपूर मेरे घर आकर रिहर्सल करवाते थे.

मुझे किसी से कोई शिकवा नहीं 
मुझे किसी से कोई शिकवा नहीं है. फिल्म इंडस्ट्री ने मेरी कभी खबर नहीं ली. लेकिन मुझे किसी से शिकायत नहीं है. गायिकी मेरा जुनून है और मैंने उसे शिद्दत से जिया. इससे ज्यादा मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं थी. मुझे उस वक्त भी दुख नहीं हुआ था, जब अभिनेत्री सायरा बानो की दादी शमशाद बेगम के मरने पर सभी ने सोचा कि मैं नहीं रही. कई प्रतिष्ठित अखबार और चैनलों ने मेरी ही तसवीर दिखायी थी. मेरी बेटी उषा ने कहा भी हमें इन पर केस करना चाहिए, लेकिन मैंने मना कर दिया. आखिरकार साई सामने आ गयी. मैं एक बात जानती हूं कि मैं रहूं या न रहूं, लेकिन मेरी आवाज फिल्मों के माध्यम से हमेशा जिंदा रहेगी.

16 April 2013

हीरो को टक्कर देनेवाला खलनायक : प्राण

प्राण को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की घोषणा शायद इस वजह से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी यह पुरस्कार परदे पर खलनायक की भूमिका अदा करने वाले एक अभिनेता को मिला है. प्राण सिनेमा के परदे पर खलनायकी के पर्याय हैं. नायकों की पूजा करने वाले हमारे समाज में प्राण को सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान मिलना भारतीय सिनेमा के वयस्क होने का एक प्रमाण कहा जा सकता है. हालांकि सच यह भी है की यह वयस्कता इसके सौवें साल में आयी है, और अभी भी इसे एक ट्रेंड मानने का कोई ठोस कारण नहीं है. प्राण को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिलने पर सोमवार को यह लेख प्रभात खबर के लिए विनोद अनुपम ने लिखा. आप भी पढ़िए. : अखरावट 

93 वर्ष की उम्र में प्राण के लिए हिन्दी सिनेमा के सबसे बडे सम्मान दादा साहब फाल्के सम्मान की घोषणा हुई। वाकई प्राण जैसे अभिनेता को यह सम्मान काफी पहले मिल जाना चाहिए था। लेकिन सवाल है पहले किन्हें नहीं मिलना चाहिए था, देवानंद को, यश चोपडा को, मन्ना डे, मजरुह सुल्तानपुरी को...प्राण से भी पूछा जाता तो इनमें से किसी नाम की जगह पर अपने नाम पर शायद ही वे सहमत होते। प्राण के लिए अभिनय एक कला थी,जिसके प्रति समर्पण का प्रतिसाद उन्हें उनके दर्शकों से मिलता था, पुरस्कार की न तो उन्हे इच्छा थी, न ही अपेक्षा।आश्चर्य नहीं कि आजादी के ठीक पहले भारत आ जाने वाले प्राण को अपना पहला फिल्मफेयर अवार्ड मिलने में 20 वर्ष बीत गए। लेकिन दर्शकों की तालियों ने कभी प्राण के चेहरे पर शिकन नहीं आने दी। अपने 70 साल से भी लम्बे सिनेमाई जीवन में उन्हें शायद ही कभी असंतोष व्यक्त करते देखा गया। भारतीय सिनेमा के 100 वें वर्ष में वास्तव में यह सम्मान भाईचारे, समर्पण और अभिनय की उस परंपरा को याद दिलाने की कोशिश है जिसके प्रतीक पुरुष के रुप में प्राण माने जाते हैं। आज जबहिन्दी सिनेमा के नायक वास्तविक जीवन में खलनायक बनने को उतावले दिख रहे हों, ऐसे में यह जानना वाकई सुखद लगता है कि प्राण ऐसे विरले कलाकारों में थे जो सेट पर महिला कलाकारों को खड़े होकर रिसिव किया करते थे, चाहे वह कोई नवोदित अदाकारा ही क्यों न हो। परदे पर क्रूरता के पर्याय बने प्राण की पहचान उनकी सौम्यता थी, जो अब 93बर्ष के बुजुर्ग के चेहरे पर और भी मुखर हो गई लगती है। लेकिन यह प्राण के अभिनय का प्रभाव ही है कि तस्वीरों में दिखते उस सौम्य बुजुर्ग को देखते हुए भी याद ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के दो घोड़े पर एक साथ सवार डाकू राका की ही आती है। याद उस खलनायक की आती है, जिसने न जाने कितने बलात्कार, कितने षडयंत्रों, कितनी हत्याओं को पूरी तन्मयता से परदे पर साकार किया।
                यह शायद संयोग नहीं कि प्राण ने अपने अभिनय की शुरूआत महिला कलाकार के रूप में ही की थी। शिमला की रामलीलाओं में मदन पुरी राम की भूमिका निभाया करते थे,जबकि सीता की भूमिका लंबे समय तक प्राण निभाते रहे। प्राण की विलक्ष्ण अभिनय क्षमता ही थी कि एक सौम्य छवि को क्रूर खलनायक के रूप में उन्होंने दर्शकों को स्वीकार करवा दिया। प्राण की अभिनय यात्रा का आरंभ छोटी छोटी नकारात्मक भूमिकाओं से हुआ।1940 में पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ में प्राण को एक अहम् नकारात्मक किरदार मिला,  फिल्म सफल हुई और उसके साथ प्राण की गणना भी सफल अभिनेताओं में होने लगी। जल्दी ही वे लौहार फिल्म उद्योग में एक खलनायक की छवि बनाने में कामयाब हो गए, इनकी लोकप्रियता ने उसी समय निर्माताओं को हिम्मत दी, और 1942 में लाहौर की पंचोली आर्ट प्रोडक्शन के ‘खानदान’ में इन्हें उस समय की महत्वपूर्ण अदाकारा नूरजहां के साथ नायक बनने का अवसर दिया गया।लेकिन खलनायक के अभिनय की विविधता के सामने,नायक के चरित्र की एकरसता प्राण को रास नहीं आयी। बटवारे से पहले प्राण तकरीबन २२ फिल्मो में खलनायक की भूमिका निभा कर लाहौर में स्थापित हो गये थे। आजादी के बाद प्राण ने लाहोर छोड़ दिया और मुंबई आ गए, हालांकि पाकिस्तान में नायक के रूप में उनकी ‘शाही लुटेरा’ जैसी फिल्में आजादी के बाद तक दिखायी जाती रही, और भारत आने के बावजूद पाकिस्तान के लोकप्रिय अभिनेताओं में वे शुमार किये जाते रहे।

                प्राण स्टाइल ऐक्टर थे, लेकिन फर्क यह था कि जहां अधिकांश अभिनेता अपने स्टाइल को अपना ब्रांड बनाकर जिंदगी भर दुहराते रहे, प्राण हरेक फिल्म में अपने एक नये स्टाइल के साथ आए। कभी कभी स्टाइल के लिए उन्होंने सिगरेट, रूमाल, छड़ी जैसी प्रापर्टी का भी सहारा लिया, लेकिन अधिकांश फिल्मों में स्टाइल उनकी आंखों, होठों और चेहरे के भाव से बदलते रहे। हां, प्राण शायद ऐसे पहले अभिनेता थे जिन्होंने आवाज और मोडूलेशन बदलकर पात्र को एक नई पहचान दी, बाद में जिसका इस्तेमाल अमिताभ बच्चन ने‘अग्निपथ’ में, शाहरूख खान ने ‘वीरजारा’ में और बोमन ईरानी ने ‘वेलडन अब्बा’ में किया। प्राण अपने अभिनय के बारे में कहते भी थे, मैं पात्र में नहीं उतरता पात्र को अपने अंदर उतार लेता हूं।आज के मेथड एक्टिंग में उनका यकीन नहीं था। यह प्राण की ही खासियत थी कि अपने मैनेरिज्म के साथ भी वे दर्शकों को एक ओर ‘उपकार’ के मंगल चाचा दूसरी ओर ‘विक्टोरिया नं.203’ के राणा के रुप में भी स्वाकार्य हो सकते थे। आश्चर्य नहीं कि हिंदी सिनेमा  में पचास और साठ का दशक त्रिदेव ( दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद ) के लिये भले ही याद किया जाता हो, लेकिन जो उन्हें एक कडी से जोडती थी वे प्राण थे, फिल्म चाहे दिलीप कुमार की हो, या राज कपूर की, या फिर देवानंद की, अधिकांश फिल्मों में खलनायक के रुप में प्राण की उपस्थिती तय मानी जाती थी। दिलीप कुमार के साथ‘आजाद’, ‘मधुमती’, ‘देवदास’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘राम और श्याम’ और ‘आदमी’ में महत्वपूर्ण किरदार रहे तो  देव आनंद के साथ ‘जिद्दी’, ‘मुनीमजी’, ’अमरदीप’  जैसी फिल्मे पसंद की गई। राज कपूर के साथ ‘आह’, ‘चोरी  चोरी’ , ‘छलिया’ , ‘जिस  देश  में  गंगा बहती  है’ , ‘दिल  ही  तो है’ जैसी फिल्मों में जो जोडी बनी वह ‘बाबी’ तक कायम रही।

                      प्राण ने 60 साल से भी ज़्यादा समय तक चले अपने करियर के दौरान 400 से भी अधिक फिल्मों में काम किया। प्राण के लिए फर्क नहीं पडता फिल्म कैसी बन रही है, कौन बना रहा है, साथी कलाकारों की क्या भूमिका है, वे अपना श्रेष्ठ देते रहे। चाहे फिल्म कैसी भी बनी हो, यह याद करना मुश्किल होता है कि दर्शकों की कसौटी पर प्राण खरे न उतरे हों। मनमोहन देसाई की बडी फिल्मों की बडी भूमिका में भी वे उतने ही सशक्त दिखते थे,जितना ‘जंगल में मंगल’ जैसी छोटी फिल्म में किरण कुमार के साथ काम करते हुए।प्राण ने कभी अपने को किसी खास समूह का हिस्सा नहीं बनने नहीं दिया। उनके लिए सिनेमा महत्वपूर्ण रहा, और सिनेमा में अपनी भूमिका। 1967 में मनोज कुमार ने ‘उपकार’के साथ उन्हें एक नई पहचान दी। सहृदय मलंग चाचा के किरदार को प्राण ने वह ताकत दी कि हिन्दी सिनेमा में चरित्र भूमिकाओं को नायकों के समानान्तर स्थान दिया जाने लगा। यहां तक कि चरित्र भूमिकाओं को केन्द्र में रख कर फिल्में लिखी जाने लगीं। कह सकते हैं अमिताभ बच्चन प्रौढ भूमिकाओं में आज अपना श्रेष्ठ देते दिख रहे हैं तो उसकी जमीन तैयार करने का श्रेय प्राण को ही जाता है।

              2001 में प्राण को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। वास्तव में यह उस कलाकार का सम्मान था जो अपने अभिनय की स्वयं मिसाल था। अभिनय की यह तरलता शायद उन्हें उस विरासत से मिली थी जिसे प्राण ने आज भी संजोये रखा है। कहते हैं शराब के साथ जब लोग होश खो बैठते हैं, प्राण साहब पूरी गालिब सुना दे सकते हैं। फैज भी मानते थे कि उनके अलावा किसी और को फैज याद है, तो वे प्राण हैं। मीर तकी मीर, नजीर अकबराबादी, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी... प्राण की जिंदगी के सुर शायद यहीं से तय होते थे।

                शायद इसीलिए ‘उपकार’ के मलंग बाबा हों या ‘विक्टोरिया नं. 203’ का मस्त मौला चोर, ‘कालिया’ का जेलर हो या ‘जंजीर’ का खान, जिंदगी के जो भी रंग दिखाने के अवसर प्राण को मिले पूरी तन्मयता से उसे परदे पर साकार किया उसने। राजकपूर, दिलीप कुमार,देव आनंद से लेकर राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, नवीन निश्चल अभिनेताओं की पीढि़या-दर-पीढि़या गुजरती रहीं, लेकिन जब तक शारीरिक रूप से सक्षम रहे,प्राण के लिए हिन्दी सिनेमा में भूमिका निकाली जाती रही। वे ऐसे पहले चरित्र अभिनेता थे,जिनपर गाना फिल्माया जाना फिल्म के लिए भाग्यशाली माना जाता था। भाग्यशाली हो या न हो, यह तो जरूर है कि प्राण की जीवंतता उस गाने को अमर कर देने का सामर्थय रखती थी। कौन भूल सकता है, ‘कस्में वादे प्यार वफा सब बाते हैं बातों का क्या....’ या फिर ‘यारी है इमान मेरा, यार मेरी जिंदगी...। ‘प्राण’ का होना हिन्दी सिनेमा में प्राण का होना है, हड़बड़ी में हिट तलाशते और सफलता के लिए अभिनय से दीगर चीजों को तरजीह देने की कोशिश में लगे अभिनेताओं को एक बार अवश्य मुड़कर प्राण की ओर देख लेना चाहिए, यदि वे अच्छे अभिनेता के साथ अच्छे व्यक्ति भी बनना चाहते हैं।

विनोद अनुपम : लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं.

11 April 2013

फरमाइश की है झुमरी तिलैया से.....

"झुमरी तिलैया" नाम सुनकर हम बचपन में खिलखिला कर हंस दिया करते थे. हम में से कई लोगों के लिए झुमरी तिलैया बस एक काल्पनिक जगह थी, जहाँ के लोग फ़िल्मी गानों के बेहद शौक़ीन थे.  वे दिन भर चिट्ठियाँ लिखा करते थे...अपनी फरमाइशों की फेहरिस्त बनाया करते थे...उन्हें जूनून की हद तक शायद रेडिओ पर अपना नाम और उससे भी बढ़कर अपने शहर का नाम सुनने का चस्का लगा था... जब धीरे धीरे देश से वह पुराना रेडियो गायब हुआ, तब उसके साथ ही झुमरी तिलैया भी कही खो गया. उसके साथ ही खो गयी चेहरों पर खिलने वाली वह तन्दुरित मुस्कान....इस झुमरी तिलैया पर जो हकीकत की जमीन से ज्यादा हमारी कल्पनाओं में बसा करता था...एक रिपोर्ट लिखी है  अनुपमा ने... आप भी पढ़े...: अखरावट 
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देश  के लाखों रेडियो श्रोताओं की याद में बसा झारखंड का झुमरी तिलैया धीरे-धीरे अपनी पहचान बदल रहा है, लेकिन उसकी नई पहचान में भी सिनेमा और स्वाद का रस घुला हुआ है...... 

अगर आपने जीवन के किसी भी दौर में रेडियो पर फरमाइशी फिल्मी गीतों का कार्यक्रम सुना हो तो यह संभव नहीं है कि आप झुमरीतिलैया के नाम से अपरिचित हों. बात जब झुमरीतिलैया की हो तो वाकई यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि किस किस्से को तवज्जो दी जाए, बातचीत का कौन-सा सिरा थामा जाए. है तो यह एक छोटा-सा कस्बा लेकिन यहां गली-गली में ऐसी दास्तानें बिखरी हैं जो आपकी यादों से वाबस्ता होंगी.
झारखंड के कोडरमा जिले में स्थित यह शहर फरमाइशी गीतों के कद्रदानों का शहर तो है ही लेकिन आप यहां आएंगे तो एक और फरमाइश आपसे की जाएगी- यहां बनने वाले कलाकंद को चखने की. यहां बनने वाला कलाकंद हर रोज देश के कोने-कोने में जाता है और दुनिया के उन मुल्कों में भी जहां इस इलाके के लोग रहते हैं.

इस बीच सड़क किनारे दीवारों से झांकते पोस्टर एक दूसरी कहानी भी बता रहे होते हैं. यह झुमरीतिलैया की नई पहचान है. कुछ युवाओं द्वारा जिद और जुनून में बनाई गई ‘झुमरीतिलैया’ नाम की फिल्म ने भी शहर को नई पहचान देने की कोशिश की है. इन्हीं बातों के बीच तिलैया डैम के पास हमें ब्रजकिशोर बाबू मिलते हैं, जो कहते हैं, 'देखिए, यह सब पहचान बाद की है, इसकी असली पहचान तो अभ्रक को लेकर रही है. 1890 के आस-पास जब रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ तो पता चला कि यहां तो अभ्रक की भरमार है. फिर क्या था अंग्रेजों की नजर पड़ी, वे खुदाई करने में लग गए. बाद में छोटूराम भदानी और होरिलराम भदानी आए. उन्होंने मिलकर सीएच कंपनी प्राइवेट लिमिटेड बनाई और माइका किंग नाम से मशहूर हो गए.’ ब्रजकिशोर बाबू कहते हैं कि शहर में 1960 में ही मर्सिडीज और पोर्सके कार देखी जा सकती थीं.

इस छोटे-से कस्बे में ऐसी अनेक दास्तानें बिखरी हुई हैं. वहां से हम सीधे गंगा प्रसाद मगधिया के घर पहुंचते हैं जो अपने जमाने में रेडियो पर फरमाइशी गीतों के चर्चित श्रोता थे. रेडियो सिलोन से लेकर विविध भारती तक फरमाइशी फिल्मों का कार्यक्रम हो और मगधिया का नाम न आए, ऐसा कम ही होता था. शहर के बीचो-बीच स्थित दुकान के पीछे बने मकान में उनकी पत्नी मालती देवी, भाई किशोर मगधिया और बेटे अंजनि मगधिया से मुलाकात होती है. घर में दाखिल होने पर पता चल जाता है कि हम ऐसी जगह पर हैं जहां कभी सिर्फ और सिर्फ गीत-संगीत और रेडियो की खुमारी रही होगी. कुछ पुराने रेडियो छज्जे पर रखे रहते हैं कपड़े के गट्ठर में पुराने कागजों के कुछ बंडल पड़े होते हैं. अंजनि मगधिया उन्हें खोलते हुए कहते हैं, ‘इसे ही देख लीजिए, कुछ नहीं बताना पड़ेगा हम लोगो को.

पिताजी के मन में रेडियो फरमाइश, गीत-संगीत की दीवानगी की कहानी इसी बंडल में है.’ बंडल खुलता है, सबसे पहले एक पैड नजर आता है- बारूद रेडियो श्रोता संघ, झुमरीतिलैया. पोस्टकार्ड हैं जो बाकायदा प्रिंट कराए गए हैं. कोई गंगा प्रसाद मगधिया के नाम से है तो किसी में उनके साथ पत्नी मालती देवी का नाम भी है. कुछ पोस्टकार्ड बारूद रेडियो श्रोता संघ के नाम वाले हैं. स्व. गंगा प्रसाद मगधिया की पत्नी मालती देवी कहती हैं, ‘मुझे तो इतना गुस्सा आता था उन पर कि क्या बताऊं. दिन भर बैठकर यही करते रहते थे. कहने पर कहते थे- सुनना, तुम्हारा भी नाम आएगा. मैं झल्लाकर कहती कि रेडियो से नाम आने पर क्या होगा तो वे हंस कर कहते- माना कि फरमाइश बचपना बर्बाद करती है, मगर ये क्या कम है कि दुनिया याद करती है. 

उनके भाई किशोर कहते हैं कि उस जमाने में विदेश में एक बार फरमाइश भेजने में 14 रुपये तक का खर्च आता था लेकिन यह रोजाना होता था. हमारे मन में सवाल उठता है कि आखिर उस जमाने में यानी 60 से 80 के दशक के बीच इतना खर्च कर रेडियो पर फरमाइशी गीत सुनने का यह जुनून क्यों. जवाब मिलता है- एक तो इस छोटे-से कस्बेनुमा शहर को ख्याति दिलाने की होड़, दूसरा इस छोटे-से शहर के लोगों का नाम रेडियो सिलोन, रेडियो इंडोनेशिया, रेडियो अफगानिस्तान, विविध भारती वगैरह में रोजाना सुनाई पड़ता था. एक तो इसे लेकर उत्साह और रोमांच रहता था और दूसरा अधिक से अधिक बार नाम प्रसारित करवाने की एक होड़ भी थी, जिसमें कई गुट एक-दूसरे से मुकाबला करने में लगे रहते थे.

हम रेडियो और फरमाइशी गीतों के दूसरे दीवानों के बारे में जानना चाहते हैं. बताया जाता है कि रामेश्वर वर्णवाल भी फरमाइशी गीतों के बेमिसाल श्रोता और फरमाइश भेजने वालों के बेताज बादशाह थे. कवि और फिल्म समीक्षक विष्णु खरे ने कभी लिखा था कि अमीन सयानी को मशहूर कराने में झुमरीतिलैया वाले रामेश्वर वर्णवाल का बड़ा योगदान रहा है. मगधिया और वर्णवाल के अलावा झुमरीतिलैया से फरमाइश करने वालों में कुलदीप सिंह आकाश, राजेंद्र प्रसाद, जगन्नाथ साहू, धर्मेंद्र कुमार जैन, लखन साहू, हरेकृष्ण सिंह, राजेश सिंह और अर्जुन सिंह के नाम भी हैं. हरेकृष्ण सिंह तो अपने नाम के साथ अपनी प्रेमिका प्रिया जैन का नाम भी लिखकर भेजा करते थे.

फरमाइशी गीतों की मासूम चाहत में भी षड्यंत्रों और घात-प्रतिघात की गुंजाइश मौजूद थी. कई लोग जहां टेलीग्राम भेजकर भी गीतों की फरमाइश करते थे वहीं ऐसे लोग भी थे जो डाकखाने से सेटिंग करके एक-दूसरे की फरमाइशी चिट्ठियों को गायब भी करवा देते थे ताकि दूसरे का नाम कम आए. बहरहाल, अतीत के इन दिलचस्प किस्सों के साथ हम वर्तमान को जानने की कोशिश करते हैं. फरमाइशी गीतों के कारण पहचान बनाने वाले इस शहर में अब इसके कितने दीवाने बचे हैं? गंगा प्रसाद मगधिया के भाई किशोर मगधिया कहते हैं, ‘हम इसे जिंदा तो रखना चाहते हैं लेकिन केवल एक परंपरा की तरह क्योंकि रोजी-रोटी की चिंता जुनून पर हावी है.’ 

इस बीच शहर की दीवारों पर जगह-जगह ‘झुमरीतिलैया’ फिल्म के पोस्टर नजर आ रहे हैं. हम कोशिश करते हैं शहर की नई फिल्मी पहचान से रूबरू होने की. हम फिल्म के कलाकारों से मिलने उनके घर पहुंचते हैं. एक कमरे में सारे कलाकार जुटते हैं. निर्देशक-अभिनेता अभिषेक द्विवेदी, उनके भाई राहुल, उनके पिता उदय द्विवेदी, मां कांति द्विवेदी, विवेक राणा, उनके मामा गौरव राणा, अभिनेत्री नेहा, नेहा के पापा आदि. इन सबने मिलकर फिल्म प्रोडक्शन कंपनी बनाई एफ ऐंड बी यानी फेंड्स ऐंड ब्रदर्स प्रोडक्शन. फिल्म में अगर तकनीशियन वगैरह का शुल्क जोड़ लिया जाए तो इसमें कम से कम 13 लाख रुपये लगते लेकिन आपसी जुगाड़ के चलते यह महज पांच लाख रुपये में बन गई.

यह फिल्म शहर के सिनेमाहॉल में दस दिन तक चलीं, रांची में एक सप्ताह तक, बुंडू में छह दिन तक. अब होली के बाद दूसरे शहरों में फिर से रिलीज करने की तैयारी है. फिल्म में एक्शन की भरमार है. अभिषेक कहते हैं, ‘हम बचपन से ही मार्शल आर्ट के दीवाने रहे हैं. बहुत दिनों से फिल्म बनाने की सोचते थे. हमने तय किया खुद ही पैसा जुटाएंगे और खुद ही अभिनेता-अभिनेत्री बनेंगे.’ इसके बाद सोनी एफएक्स कैमरे का जुगाड़ हुआ. ग्यारहवीं में पढ़ने वाली नेहा नायिका के रूप में मिल गई.

हीरो के लिए विवेक, राहुल आदि हो गए. पापा की भूमिका के लिए निर्देशक अभिषेक के पापा मिल गए और मां के रोल में उनकी मां. किसी का नाम नहीं बदला गया. किसी को फिल्म का अनुभव पहले से नहीं था, सो बार-बार ब्रूस ली की फिल्म ‘इंटर द ड्रैगन’, ‘टॉम युम वुम’ आदि दिखाई गईं ताकि एक्शन का रियाज हो. इसके बाद घर में और आस-पास के लोकेशन में ‘झुमरीतिलैया’ की शूटिंग भी शुरू हो गई. फिल्म बनाने के दौरान लगा कि एक गाना तो होना ही चाहिए. अब गायक कहां से आए तो अभिषेक ने अपने चाचा को कहा, जो मुकेश के गाने ही गाते हैं. ऐसे ही जुगाड़ तकनीक से झुमरीतिलैया बनकर तैयार हुई और रिलीज हुई तो एक बार फिर गीत-संगीत के शहर का फिल्मी सफर शुरू हुआ.


फिल्म की अभिनेत्री नेहा कहती हैं, ‘मैं पहले सोचती थी कि अभिनय कैसे करूंगी लेकिन दोस्तों के साथ काम का पता ही नहीं चला.’ फिल्म में मां बनी निर्देशक अभिषेक की मां कांति द्विवेदी कहती हैं, ‘बेटों ने मुझसे भी अभिनय करा लिया, अब तो सड़क पर जाती हूं तो कई बार बच्चे कहते हुए मिले- देखो-देखो, झुमरीतिलैया की मां जा रही है.’ एक्शन फिल्मों का नाम झुमरीतिलैया क्यों? इस सवाल के जवाब में निर्देशक अभिषेक कहते हैं कि अपना शहर है झुमरीतिलैया, इसके नाम पर तो इतना भरोसा है कि कुछ भी चल जाएगा.

गीतों के शहर में फिल्मों के जरिए सफर का यह नया अनुभव सुनना दिलचस्प लगता है. यहां से निकलते-निकलते युवा फिल्मकार भी कलाकंद चखने की सिफारिश कर ही देते हैं. वहां से हम कलाकंद के लिए मशहूर आनंद विहार मिष्ठान्न भंडार पहुंचते हैं. दुकान मालिक के बेटे अमित खेतान कहते हैं, ‘झुमरीतिलैया जैसा कलाकंद कहीं और खाने को नहीं मिल सकता.’

खेतान बताते हैं कि कलाकंद की शुरुआत भाटिया मिष्ठान्न भंडार ने की थी लेकिन उसके बंद हो जाने के बाद कलाकंद की सबसे ज्यादा बिक्री उनकी दुकान में ही होती है. इसकी फरमाइश देश के हर हिस्से और कई बार विदेश तक से आती है. पिछले चार दशक से कलाकंद बनाने में ही लगे कारीगर सुखती पात्रो कहते हैं, ‘मैंने बहुत जगह देखा है, कलाकंद आज भले सभी जगह हो लेकिन यह देन तो इसी झुमरीतिलैया की है.’

पता नहीं कलाकंद कहां की देन है लेकिन वाकई झुमरीतिलैया के कलाकंद का स्वाद शायद ही कहीं और मिले. शहर की पहचान अब बदल रही है. कोई कहता है कि यह पावर हब बन रहा है तो कोई और बेशकीमती पत्थरों को इसकी नई पहचान बताता है, लेकिन हमारे हाथों में मगधिया के पोस्टकार्डों का बंडल होता है- पसंदकर्ता गंगा प्रसाद मगधिया, बारूद रेडियो क्लब, झुमरीतिलैया, गीत- दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गया रे, फिल्म गंगा-जमुना....!

मूल रूप से तहलका हिंदी में प्रकाशित 

मूल कॉपी यहाँ पढ़ी जा सकती है

10 April 2013

सूरज न बन पाये तो बनके दीपक जलता चल



बात जब संगीत निर्देशकों की होती है तो हमारे मन में एसडी-आर डी बर्मन, मदन मोहन, ओ पी नैय्यर, कल्याण जी आनद जी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, खैय्याम आदि के नाम तो आते हैं, लेकिन हम अक्सर एक नाम भूल जाते हैं।। य़ह अलग बात है कि आज भी कही जब उनके संगीत से सजे गीत जब हमें सुनने को मिलते हैं, तो हमारे कदम बरबस ठिठक जाते हैं ...हम मधुबन की खुशबू को  तो  ढलती रातों में घुलते महसूस करते हैं लेकिन संगीत का मधुबन बनेवाली हिंदी सिनेमा की इस महिला संगीतकार का नाम याद करने में अक्सर मुश्किल का सामना करते हैं।। कितनों को तो शायद यह नाम मालूम भी नहीं।। यहाँ बात हो रही है हिंदी सिनेमा की पहली स्थापित महिला संगीतकार उषा खन्ना उषा खन्ना कि. उषा खन्ना पर यह छोटा सा लेख लिखा है प्रीति सिंह परिहार ने. आप भी पढ़ें।।  : अखरावट 






जिंदगी प्यार का गीत है, इसे हर दिल को गाना पड़ेगा’ गीत को अपने संगीत से सजाने से बहुत पहले ही उन्होंने गीतों के इर्द-गिर्द अपनी एक दुनिया बनाने का सपना बुन लिया था़.  इस सपने को लेकर वे बड़ी हुईं।  यह सपना साकार भी हुआ पर जरा सी तब्दीली के साथ़। सपने का आधार संगीत ही रहा पर आकार कुछ अलग बना़।  हुआ यूं कि वे आयीं तो गायिका बनने थीं, लेकिन उनमें एक बेहतरीन संगीतकार का हुनर था. उनके असली हुनर की पहचान हुई और पहली ही फिल्म के संगीत से यह पहचान प्रसिद्घि पाने लगी़  अपने संगीत से उन्होंने तीन दशक तक लगभग ढाई सौ फिल्मों के गीतों को अपनी धुनों से सजाया़  आज उनके नाम का जिक्र भले कभी-कभार होता हो, लेकिन हिंदी सिनेमा के संगीतकारों की बात उनके नाम के बिना शुरू नहीं हो सकती़  जी हां, बात हो रही है हैं प्रसिद्घ महिला संगीतकार उषा खन्ना की़।  वही उषा खन्ना जिन्होंने ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’, ‘मधुबन खुशबू देता है’ जैसे यादगार गीतों की धुन बनायी़।

मध्यप्रदेश के ग्वालियर में जन्मी उषा खन्ना ने संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी़। पिता मनोहर खन्ना शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता थे और गीत लिखा करते थे़।  पिता के संगीत प्रेम ने उषा को भी संगीत की ओर मोड़ा़ वे पिता के लिखे गानों की धुन बनातीं, फिर उन्हें खुद गाती भी थीं।  अरबी संगीत ने भी उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया़।

अपनी पहली धुन महज सोलह साल की उम्र में बनाने वाली उषा को गायिका बनने की ख्वाहिश फिल्मी दुनिया में लेकर आयी, उन्होंने कुछ गीत गाये भी, लेकिन उनकी पहचान शायद संगीतकार के तौर पर ही होनी थी़।  पचास के दशक में वे जब गायिका के तौर पर मौका पाने के लिए शशिधर मुखर्जी से मिलीं, तो उन्होंने अपनी ही धुनों से सजाये कुछ गीत उन्हें सुनाये़।  उषा खन्ना ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था, उनके गीत सुन कर शशिधर मुखर्जी ने कहा ‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम लता और आशा जैसी गायिकाओं से अच्छा गाती हो? ये गीत अगर तुमने बनाये हैं, तो तुम संगीतकार क्यों नहीं बन जातीं? अगले कुछ महीनों तक वे उषा से हर रोज दो गानों की धुन बनवाते़।  अच्छी तरह परखने और उनकी बनायी कई धुनों को सुनने के बाद 1959 उन्होंने ‘दिल दे के देखो’ में उषा को बतौर संगीतकार मौका दिया़।  इस पहली ही फिल्म के गीतों की सफलता ने उनके लिए संगीत की दुनिया का रास्ता तैयार कर दिया़। 1979 में उषा खन्ना के संगीत से सजे ‘दादा’ फिल्म के गीत ‘दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुस्कुरा के चल दिये’ के लिए के यसुदास को फिल्म फेयर अवार्ड मिला़।  उषा खन्ना के कंपोजीशन में मोहम्मद रफी और आशा भोंसले ने क ई प्रसिद्ध गीत गाये़।

‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले’, ‘जिंदगी प्यार का गीत है’ और ‘शायद मेरी शादी का ख्याल दिल में आया है’ जैसे अनगिनत यादगार गीत उषा खन्ना के संगीत के पिटारे से निकले हैं. उन्होंने कुछ मलयालम फिल्मों में भी संगीत दिया जिन्हें खासा पसंद किया गया़ फिल्मकार और गीतकार सावन कुमार ने उनके लिए सबसे अधिक गीत लिखे, जिनमें से ज्यादातर लोकप्रिय हुए़।  2003 में ‘दिल परदेसी हो गया’ फिल्म में संगीत देने के बाद से उनका नाम किसी फिल्म में बतौर संगीतकार नहीं दिखा़।  इस बीच कई धारावाहिकों में उनके संगीत देने की खबरें जरूर आती रहीं.  उषा की धुन से सजा ‘साजन बिना सुहागन’का गीत ‘मधुबन खुशबू देता है’ की खुशबू आज भी संगीतप्रेमियों के मन में कायम है़।  इस गीत के अंतरे में एक पंक्ति है-‘सूरज न बन पाये, तो बनके दीपक जलता चल’.  उषा खन्ना बेशक सूरज की तरह चमकने की काबीलियत रखती हैं, लेकिन उन्होंने दीपक की तरह जलते रहना चुना़  उषा खन्ना के बरक्स एक हद तक यह बात सच भी लगती है़  उन्होंने आज गायिकी में स्थापित कई बड़े नाम मसलन, पंकज उदास, रूप कुमार राठौर और सोनू निगम को पहला मौका दिया था़  लेकिन उगते सूरज को सलाम करने के आज के समय में लाखों श्रोताओं के दिलों में सुकून का दीया जलानेवाली उषा खन्ना का जिक्र कहीं नहीं दिखता.                                


8 April 2013

"लिखना एक तरह से कैद में चले जाना है" : चिनुआ अचेबे


अफ्रीकी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले चिनुआ अचेबे, जिनका निधन पिछले महीने २१ मार्च को हो गया, ने लेखन को हमेशा एक तरह का रचनातमक  एक्टिविज्म माना. उनका लेखन महज एक लेखक की रचना यात्रा नहीं बल्कि अफ्रीकी महादेश की पीड़ा की भी यात्रा है. उनके लेखन और  संघर्ष को यह साक्षात्कार (जिसे यहाँ आत्म वक्तव्य की शक्ल में ढाला गया है) काफी गहराई से सामने लाता है...आपके लिए इस आत्म वक्तव्य का दूसरा और आख़िरी हिस्सा. यहाँ उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में महत्वपूर्ण बातें कही हैं. : अखरावट




सृजन की प्रक्रिया हर रचना के लिए एक समान नहीं होती. मुझे लगता है कि सबसे पहले एक सामान्य विचार आता है, उसके ठीक बाद अहम किरदार आते हैं. हम लोगों सामान्य विचारों के समुद्र के बीच में रहते हैं, इसलिए यह अपने आप में उपन्यास नहीं है, क्योंकि सामान्य विचार अनगिनत संख्या में हैं. लेकिन जिस क्षण एक खास विचार एक किरदार से जुड़ जाता है, यह कुछ ऐसा होता है, जैसे कोई इंजन चल पड़े. तब एक उपन्यास बनने लगता है. यह खासकर उन उपन्यासों के संदर्भ में सही बैठता है, जिसमें विशिष्ट और कद्दावर चरित्र होते हैं, जैसे देवता के बाण में एजुलू. ऐसे उपन्यासों में जिसमें किरदार का व्यक्तित्व उस तरह का सब पर छा जानेवाला नहीं होता है, जैसे नो लॉन्गर एट ईज, मुझे लगता है कि एक सामान्य विचार कम से कम शुरुआती अवस्था में ज्यादा अहम होता है. लेकिन जब यह शुरुआती अवस्था बीत जाती है, सामान्य विचार और चरित्र में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता है. दोनों अहम हो जाते हैं. 

जैसे कोई उपन्यास आगे बढ़ता है, मैं प्लॉट या थीम के बारे में ज्यादा चिंता नहीं करता हूं. सारी चीजें खुद ब खुद आती हैं, क्योंकि तब किरदार कहानी को अपने हिसाब से मोड़ रहे होते हैं. एक बिंदु पर आकर लगता है कि जैसे आपका घटनाओं पर उस तरह का नियंत्रण नहीं है, जैसा आपने सोचा था. कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें वहां होना ही चाहिए, नहीं तो कहानी अधूरी लगेगी. और ऐसी चीजें खुद ब खुद आ जाती हैं. जब ऐसा नहीं होता है, तब आप मुश्किल में होते हैं और उपन्यास रुक जाता है. 

मेरे लिए लिखना एक कठिन काम है. कठिन शब्द इसे बताने के लिए काफी नहीं है. यह एक तरह से एक कुश्ती की तरह है. आपको विचारों और कहानी के साथ कुश्ती लड़नी होती है. इसके लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है. लेकिन इसी क्षण यह काफी रोचक भी है. इसलिए लिखना एक साथ कठिन और आसान दोनों है. आपको यह स्वीकार करना होता है कि जब आप लिख रहे होते हैं, तब आपकी जिंदगी पहले वाली नहीं रह जाती. मेरे लिए लिखना एक तरह से कैद में चले जाना है. फिर चाहे कितना भी वक्त लगे आप इस कैद से बाहर नहीं आ सकते. इसलिए यह एक साथ कठिन और उल्लास देनेवाला, दोनों है. 

मैंने महसूस किया है कि मैं सबसे अच्छा तब लिखता हूं, जब मैं नाइजीरिया में अपने घर में होता हूं. लेकिन आदमी  दूसरी जगहों पर भी रह कर काम करना सीखता है. जिस परिवेश के बारे में मैं लिख रहा हूं, लिखने के लिहाज से वह परिवेश मेरे लिए सहज होता है. दिन का वक्त खास मायने नहीं रखता. मैं सुबह जागनेवाला व्यक्ति नहीं हूं. मुझे बिस्तर से बाहर निकलना अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं पांच बजे जगकर लिखना नहीं शुरू करता, हालांकि मैंने सुना है कि कई लोग ऐसा करते हैं. मैं अपने दिन की शुरुआत के बाद लिखना शुरू करता हूं और रात गये तक लिख सकता हूं. लिखने का अनुशासन मेरे लिए यह है कि मुझे किसी भी सूरत में काम करना है. इससे फर्क  नहीं पड़ता कि मैं कितना लिख पा रहा हूं. 

मैं पेन से ही लिखता हूं. कागज पर पेन मेरे लिए सबसे मुफीद तरीका है. मैं मशीनों के साथ सहज नहीं हो पाता. जब भी मैं टाइपराइटर पर कुछ काम करना चाहता हूं, मुझे लगता कि यह मेरे और मेरे शब्दों के बीच आ रहा है. जो बाहर निकलता है, वह वैसा नहीं होता है, जो बेफिक्र होकर लिखते हुए आता. इस मामले में मैं शायद पूर्व औद्योगिक व्यक्ति हूं. 

जहां तक लेखक का सार्वजनिक बहसों में खुद को शामिल करने का सवाल है, मुझे लगता है कि इसके लिए कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता. लेकिन मुझे लगता है कि लेखक सिर्फ लेखक नहीं होता. वह एक नागरिक भी होता है. मेरा हमेशा से मानना रहा है कि गंभीर और अच्छे साहित्य का अस्तित्व हमेशा से मानवता की मदद उसकी सेवा करने के लिए रहा है. न कि उसे सवालों के घेरे में लाने या उस पर दोषारोपण करने के लिए. कोई कला कैसे कला कही जा सकती है, अगर इसका मकसद मानवता को हताश करना हो. हां, यह मानवता को असहज कर सकता है. यह मानवता के खिलाफ नहीं हो सकता. यही कारण है कि मैं नस्लवाद को असहनीय मानता हूं. कुछ लोगों को लगता है कि मेरे कहने का मतलब  यह है कि अपने लोगों की प्रशंसा करनी चाहिए. भगवान के लिए जाइये और मेरी किताबें पढ़िये. मैं अपने लोगों की प्रशंसा नहीं करता. मैं उनका सबसे बड़ा आलोचक हूं. कुछ लोगों को लगता है कि मेरा छोटा सा पर्चा- द ट्रॉबल विद  नाइजीरिया, थोड़ा अतिवादी था. मैं अपने लेखन के कारण हर तरह की समस्या में पड़ता रहा हूं. कला को हमेशा मानवता के पक्ष में होना चाहिए. 
समाप्त .

पेरिस रिव्यू में छपे एक पुराने साक्षात्कार के आधार पर तैयार 


7 April 2013

लेखक को इतिहासकार होना होता है...: चिनुआ अचेबे


अफ्रीकी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले चिनुआ अचेबे, जिनका निधन पिछले महीने २१ मार्च को हो गया, ने लेखन को हमेशा एक तरह का रचनातमक  एक्टिविज्म माना. उनका लेखन महज एक लेखक की रचना यात्रा नहीं बल्कि अफ्रीकी महादेश की पीड़ा की भी यात्रा है. उनके लेखन और  संघर्ष को यह साक्षात्कार (जिसे यहाँ आत्म वक्तव्य की शक्ल में ढाला गया है) काफी गहराई से सामने लाता है...आप भी पढ़िए : अखरावट 




जहां तक बचपन में कहानियां लिखने की प्रेरणा की बात है, उस दौर में कहानियां लिखना संभव नहीं था. इसलिए तब इस बारे में सोचा भी नहीं. हां, इतना जरूर है कि मुझे यह पता था कि मुझे कहानियां पसंद हैं. कहानियां जो मेरे घर में सुनायी जाती थीं, पहले मेरी मां द्वारा. फिर मेरी बड़ी बहन द्वारा. जैसे कछुए की कहानी- या कोई भी कहानी जो मैं लोगों की बातचीत के भीतर से ढूंढ़ लेता था. जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया, तब जो कहानियां मैं पढ़ा करता था, वे मुझे अच्छी लगती थीं. वे दूसरी तरह की कहानियां थीं. लेकिन मुझे अच्छी लगती थीं. नाईजीरिया के मेरे हिस्से में मेरे माता-पिता ईसाई धर्म में धर्मांतरित होनेवाले शुरुआती लोगों में से थे. उन्होंने सिर्फ धर्म ही नहीं बदला था, मेरे पिता ईसाई धर्म प्रचारक भी थे. वे और मेरी मां  वर्षों तक इग्बोलैंड के विभिन्न हिस्सों में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए घूमते रहे. मैं छह भाई बहनों में पांचवां था. जब मैं बड़ा हो रहा था, तब तक मेरे पिता रिटायर हो चुके थे और अपने परिवार के साथ अपने पुश्तैनी गांव में आकर बस गये थे. 

जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया और पढ़ना सीखा, मेरा सामना दूसरे लोगों और दूसरी धरती की कहानियों से हुआ. ये कहानियां मुझे बहुत अच्छी लगती थीं. इनमें कई अजीब-अतार्किक किस्म की होती थीं. जब मैं बड़ा हुआ, मैंने रोमांच कथाओं को पढ़ना शुरू किया. तब मुझे नहीं पता था कि मुझे उन बर्बर-आदिम लोगों के साथ खड़ा होना है, जिनका मुठभेड़ अच्छे गोरे लोगों से हुआ था. मैंने सहज बोध से गोरे लोगों का पक्ष लिया. वे अच्छे थे! वे काफी अच्छे थे! बुद्धिमान थे! दूसरी तरफ के लोग ऐसे नहीं थे. वे मूर्ख थे. बदसूरत थे. इस तरह मुझे अपनी कहानी के न होने के खतरे से परिचय हुआ. एक महान कहावत है- जब तक शेर की तरफ से इतिहास लिखनेवाला नहीं होगा, जब तक शिकारी का इतिहास हमेशा उसे ही महिमामंडित करेगा. यह बात बहुत बाद तक मेरी समझ में नहीं आयी. जब मुझे एहसास हुआ कि मुझे लेखक बनना है, तब मुझे यह पता था कि मुझे वह इतिहासकार बनना है. यह किसी अकेले का काम नहीं है. यह एक ऐसा काम है, जिसे हम सबको मिलकर साथ करना है, ताकि शिकार के इतिहास में शेर की पीड़ा, उसका कष्ट, उसकी बहादुरी भी झलके.            

मेरी उच्च शिक्षा इबादान विश्वविद्यालय में हुई. तब यह नया-नया खुला ही था. एक तरह से यह उपनिवेशवादी समय के विरोधाभासों का आईना था. अगर अंगरेजों ने नाइजीरिया में कुछ बेहतर काम किये, तो इबादान उनमें से एक था. यह लंदन यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज के तौर पर शुरू हुआ था. उपनिवेशी शासन में चीजें ऐसी ही होती थीं. आप किसी और की पूंछ के तौर पर काम करना शुरू करते हैं.  मुझे जो डिग्री मिली वह लंदन यूनिवर्सिटी की ही थी. आजादी जब आयी, तब इसके प्रतीकों में से एक यह भी था कि इबादान यूनिवर्सिटी के तौर पर अस्तित्व में आया. 

मैंने पढ़ाई विज्ञान से शुरू की. फिर अंगरेजी, फिर इतिहास फिर धर्म. मुझे ये विषय काफी रोचक और काम के लगे. धर्म का अध्ययन मेरे लिये नया और उत्सुकता पैदा करनेवाला था, क्योंकि इसमें सिर्फ ईसाई धर्म दर्शन शामिल नहीं था, इसमें पश्चिमी अफ्रीका के धर्मों का अध्ययन भी शामिल था. वहां मुझे जेम्स वेल्स नाम के एक शिक्षक मिले. वे प्रभावशाली उपदेशक थे. एक बार उन्होंने मुझसे कहा, हम तुम्हें शायद वह नहीं पढ़ा सकते जिसकी तुम्हें जरूरत है, हम तुम्हें सिर्फ वही पढ़ा सकते हैं, जितना हम जानते हैं. मुझे लगा वे बेहद मार्के की बात कह रहे हैं. यह मुझे मिली सबसे अच्छी सीख थी. मैंने वहां सचमुच वैसा कुछ नहीं सीखा जिसकी मुझे जरूरत थी, सिवाय इस भाव के कि मुझे अपने बल पर अपना रास्ता बनाना है. अंगरेजी विभाग इसका उम्दा उदाहरण था. वहां मौजूद लोग इस विचार पर ही हंस देते कि हम में से कोई लेखक बनेगा. 

मेरी पहली दो किताबों- "थिंग्स फॉल अपार्ट" और नो लॉन्गर एट ईज के टाइटल क्रमश: आइरिश और अमेरिकी कवियों की कविताओं की पंक्तियों से हैं. ऐसा शायद इसलिए था कि ऐसा एक तरह के दिखावे के लिए था. मैंने अंगरेजी से जनरल डिग्री ली थी. और मुझे इसका प्रदर्शन करना था. लेकिन येट्स! मुझे भाषा के प्रति उसकी मोहब्बत, उसका प्रवाह अच्छा लगता था. वे दिल से हमेशा सही पक्ष में रहे. 

मेरे उपन्यास "थिंग्स फॉल अपार्ट" की पांडुलिपि की कहानी लंबी है. सबसे पहले तो यह लगभग खो ही गयी थी. 1957 में मैं स्कॉलरशिप कुछ दिन बीबीसी में जाकर पढ़ाई करने के लिए लंदन गया था. मैं थिंग्स फॉल अपार्ट का पहला ड्रॉफ्ट अपने साथ ले गया था, ताकि मैं इसे पूरा कर सकूं. वहां मैंने वहां अपने एकमात्र नाइजीरियाई साथी के कहने पर वह पांडुलिपी बीबीसी में इंस्ट्रक्टर और उपन्यासकार गिलबर्ट फेल्फ्स को दी. पांडुलिपी पाकर उन्होंने कोई उत्साह नहीं दिखाया था. वे होते भी क्यों? लेकिन उन्होंने काफी विनम्रता के साथ वह पांडुलिपी ले ली थी. वे मेरे अलावा पहले व्यक्ति थे, जिन्हें वह पांडुलिपी रोचक लगी थी. बल्कि उन्हें इसने इस  तरह प्रभावित किया था कि एक शनिवार वे मुझे खोजते रहे, ताकि वे मुझे इसके बारे में बता सकें. मैं लंदन से बाहर आ गया था. जब उन्हें इसका पता लगा, तो उन्होंने पता लगाया कि मैं कहां हूं और मेरे होटल में फोन किया और मेरे लिए पलट कर उन्हें फोन करने का संदेश छोड़ा. उनका यह संदेश मिलने पर मैं पूरी तरह बाग-बाग हो गया. मैंने अपने आप से कहा कि शायद उन्हें उपन्यास पसंद नहीं आया. फिर लगा कि अगर ऐसा होता, तो उन्होंने मुझे फोन ही क्यों किया होता! कुछ भी हो, मैं काफी रोमांचित था. जब मैं लंदन वापस लौटा, तो उन्होंने कहा, यह लाजवाब है. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं चाहता हूं कि यह उपन्यास मैं अपने प्रकाशक को दिखाऊं! मैंने कहा- हां, लेकिन अभी नहीं, क्योंकि मुझे लगता है कि इसका फॉर्म सही नहीं है. मैं तीन परिवारों की गाथा लिखना चाह रहा था, इसलिए मैंने अपने पहले ड्राफ्ट में काफी कुछ समेटने की कोशिश की थी, इसलिए मुझे लग रहा था कि मुझे कुछ क्रांतिकारी करने की जरूरत है, ताकि मैं इसे ज्यादा बड़ा कलेवर दे सकूं. 

इंग्लैंड में मैंने एक टाइपिंग एजेंसी का विज्ञापन देखा था. मुझे  एहसास था कि अगर आप प्रकाशक पर सचमुच प्रभाव जमाना चाहते हैं, तो आपको अपनी पांडुलिपी टाइप कराके भेजनी चाहिए. मैंने अपने हाथ से लिखी उपन्यास पांडुलिपि, जो उसकी एकमात्र पांडुलिपी थी, नाइजीरिया से लंदन पार्सल कर दी. उन्होंने जवाब भेजा कि पांडुलिपी की टाइपिंग के लिए प्रत्येक कॉपी के हिसाब से 32 पाउंड लगेंगे. मैंने ब्रिटिश पोस्टल आॅर्डर से यह रकम भेज दी. इसके बाद महीनों गुजर गये, लेकिन उनकी तरफ से कुछ भी सुनने को नहीं मिला. मैं उन्हें चिट्ठियां लिखता रहा. लिखता रहा. उधर से कोई जवाब नहीं आया. एक शब्द भी नहीं. मैं चिंता में  दुबला और  दुबला और दुबला होता जा रहा था. आखिरकार मैं खुशकिस्मत था. जिस ब्रॉडकास्टिंग हाउस में मैं काम करता था, उसमें मेरे बॉस छुट्टियों में  लंदन जा रहे थे. उन्हें मैंने इसके बारे में बताया. आखिरकार लंदन में उनकी कोशिशों के बाद मुझे थिंग्स फॉल अपार्ट की टाइप की हुई कॉपी मिली. सिर्फ एक. न कि दो. खैर जब यह वापस लौट कर आयी तब मैंने इसे अपने प्रकाशक हिनेमैन को भेजा. उन्होंने इससे पहले कभी कोई अफ्रीकी उपन्यास नहीं देखा था. उन्हें नहीं पता था कि इस उपन्यास के साथ आखिर करना क्या है! उन्होंने लंदन स्कूल आॅफ इकोनॉमिक्स के इकोनॉमिक्स और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर से इस पर सलाह मांगी. वे हाल ही में नाइजीरिया से लौटे थे. उन्होंने इस उपन्यास के बारे में लिखा था, जो मेरे प्रकाशक के अनुसार किसी उपन्यास पर की गयी सबसे छोटी टिप्पणी थी. "विश्वयुद्ध के बाद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास". पहले  इस उपन्यास की काफी कम कॉपी छापी गयी थी. ऐसा उन्होंने पहले कभी नहीं किया था. लेकिन यह काफी जल्दी आउट आॅफ प्रिंट हो गया. उपन्यास की कहानी इसी जगह पर रुक जाती अगर प्रकाशक ने इसके पेपरबैक संस्करण को छापने का एक और जुआ नहीं खेला होता. इस तरह  अफ्रीकी राइटर्स सीरीज अस्तित्व में आया. ऐलन हिल को अफ्रीकी साहित्य की खोज के लिए ब्रिटेन में सम्मानित किया गया. 

जारी 

पेरिस रिव्यू में करीब डेढ़ दशक पहले छपे साक्षात्कार का अनुवाद 

6 April 2013

‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के कारण बहुत से लोगों को लगता है कि मैं बनारस का रहने वाला हूं : अब्दुल बिस्मिल्लाह


वरिष्ठ कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास झीनी-झीनी बीनी चदरिया को कौन भूल सकता है! काशी के बुनकरों पर लिखे इस उपन्यास को हिंदी साहित्य के मास्टरपीस का दरजा दिया जाता है. जीवन अनुभवों को कथा लेखन का बीज माननेवाले अब्दुल बिस्मिल्लाह से उनके सृजन संसार पर यह साक्षात्कार लिया है प्रीति सिंह परिहार ने. यहाँ साक्षात्कार को आत्मवक्तव्य की शक्ल में ढाला गया है. :: अखरावट.
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मैंने पढ.ते-पढ.ते ही लिखना सीखा. बचपन से मुझे पढ.ने का शौक था, लेकिन साहित्य की दुनिया और साहित्यिक किताबें मेरी पहुंच से बहुत दूर थीं. मैं ‘साहित्य’ के नाम से भी वाकिफ नहीं था, हां स्कूल की किताबों से अलग कुछ पढ.ना चाहता था. हम उन दिनों मध्यप्रदेश के डिंडोरी में रहते थे. वहां रविवार को लगने वाले हाट में फुटपाथ पर किस्सा तोता-मैना और हातिमताई जैसी किताबें एक या दो आना में मिला करती थीं. पिता से जिद कर मैं अपने लिए वे किताबें ले लेता था. पढ.ने के लिए मैं अखबारों की कतरनें भी सहेज लेता था, जिनमें धनिया, मिर्ची, हल्दी वैगरह लपेट कर बाजार से आती थीं. बहरहाल, इंटर कॉलेज पहुंचा, तो वहां छोटा सा पुस्तकालय मिला. लेकिन लेखन की वास्तविक प्रेरणा मुझे जीवन से मिली है.

इसके पीछे भी एक घटना रही. शरतचंद्र के उपन्यास ‘परिणीता’ से प्रभावित होकर मैंने ‘वादा’ शीर्षक से पहली बार एक प्रेम कहानी लिखी थी. मैंने कहानी के पात्रों के नाम हिंदू रखे और अज्ञानवश मामा की बेटी के साथ प्रेम दिखा दिया. मुसलिम समाज में तो मामा और चाचा की बेटी से विवाह हो जाता है, लेकिन हिंदू समाज में नहीं. अपने हिंदी के अध्यापक त्रिपाठी जी को मैंने वह कहानी दिखायी कि वो मेरी प्रसंशा करेंगे, पर बड.ी डांट पड.ी मुझे. उसी क्षण मैंने तय किया कि अब यथार्थ को जाने बिना कोरी कल्पना से कहानी नहीं लिखूंगा. इस समाज में यथार्थ की कितनी परते हैं, तब मैं नहीं जानता था. इसके बाद बहुत दिनों तक मैं छटपटाता रहा पर लिख नहीं सका. हालांकि लिखने की छटपटाहट तो पैदा हो ही गयी थी, इसलिए मैंने फिर हिम्मत की और अपने ही जीवन में जिन अनुभवों से गुजरा था, उन्हीं को आधार बनाकर लिखना शुरू किया. बचपन की एक घटना पर ‘खोटा सिक्का’कहानी लिखी. बेशक मैंने जीवन के अनुभवों पर लिखना शुरू किया, लेकिन यह भी सच है कि महज यथार्थ से साहित्य नहीं रचा जा सकता. साहित्य में कल्पना मिर्शित यथार्थ जरूरी है.

मेरी पहली कहानी आगरा से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘युवक’ में ‘सोने की अंगूठी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई. उन्हीं दिनों बरेली की पत्रिका ‘एकांत’ में कविता भी छपी. तब मैं बीए में था.

मैं मानता हूं कि रचना एक वृक्ष है. वृक्ष जन्म लेता है एक बीज से. रचना एक बीच के रूप में रचनाकार के भीतर आ जाती है. भीतर ही भीतर वह रूप ग्रहण करती रहती है. यहीं पर रचनाकार की परख होती है. अगर उसने धैर्य से काम नहीं लिया, तो असमय जन्मे बो की तरह अपरिपक्व रचना का जन्म होगा. रवींद्रनाथ टैगोर ने भी रचना के जन्म की तुलना प्रसव पीड.ा से की थी. मेरा ख्याल है कि हर लेखक लगभग इस तरह की स्थिति से गुजरता है. लेकिन हर विधा की रचना प्रक्रिया अलग ढंग की होती है. उपन्यास एक थीम पर होता है. थीम के अनुकूल कहानी तथा कहानी के अनुकूल पात्र सोचने पड.ते हैं. इसके बाद कहानी बुनने की प्रक्रिया शुरू होती है. भीतर पूरा ढांचा तैयार हो जाता है, तब बारी आती है उसे कागज पर उतारने की. पर कागज पर उतराते वक्त जरूरी नहीं कि वह ज्यों की त्यों रहे. एक समय के बाद लेखक का किरदारों पर नियंत्रण नहीं रहता. कईबार वे ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं. हम समाज में कई तरह के लोगों को देखते और जानते हैं और उनमें से ही हमें किरदार मिलते हैं. मेरे साथ प्राय: ऐसा होता है कि मैं एक किरदार में कई किरदारों की खूबियां और खामियां शामिल कर देता हूं. ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के दो प्रमुख किरदार मतीन और अमीरउल्ला न जाने कितने लोगों से मिला कर गढे. गये हैं.

‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के कारण बहुत से लोगों को लगता है कि मैं बनारस का रहने वाला हूं. लेकिन मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ, बचपन मध्यप्रदेश में बीता, पढ.ाई ज्यादातर मिर्जापुर और इलाहाबाद में हुई. नौकरियां छिटपुट कीं. बनारस के एक इंटर कॉलेज में परमानेंट नौकरी मिली, तो जहां मकान किराये पर मिला, वह बुनकरों का इलाका था. दिन-रात बराबर चलने वाले करघों की आवाज मुझे परेशान करने लगी. बहुत कोशिश के बाद भी किसी दूसरी जगह मकान नहीं मिला. यह इस देश की कटु साईहै, किसी मुसलमान को हिंदू मोहल्ले में किराये पर मकान नहीं मिलता. और बनारस में मुसलमान मतलब बुनकर. मैंने वहां तीन मकान बदले और तीनों बुनकर इलाके में ही मिले. सोचा अब इससे नहीं बचा जा सकता. बाद में वहां रहते-रहते करघों की आवाज की इतनी आदत हो गयी कि दीवाली पर तीन दिन के लिए करघे बंद हुए, तो एक अजीब से सूनेपन का एहसास हुआ. अब मुझे उनसे संगीत सा आनंद मिलने लगा. शायद कबीर ने अनहद नाद यहीं से पकड.ा हो.

वहां रहते हुए मैं बुनकरों के जीवन को नजदीक से देख रहा था. मैंने देखा वे मुसलमान तो हैं पर उनके त्योहार, रीति रिवाज, भाषा सब अलग हैं. मैं उनके सुख-दुख में शामिल हुआ और उनका अंग बन गया. तब मुझे लगा कि इन पर मैं लिखूंगा. मैं उनसे जुड.ी सूक्ष्म से सूक्ष्म चीजें देखता और नोट करता था. उनके जीवन को जानने के लिए मैं जितना भी प्रयत्न कर सकता था, किया. फिर भी दावे से नहीं कह सकता कि मैंने समग्रता में उनका चित्रण किया.

मेरी अधिकांश कहानियों के किरदार असल जीवन से हैं. कहीं-कहीं मैं भी हूं किरदार बनकर. जिस जगह के किरदार हैं, वहां की भाषा और बोली भी है. कालिदास का ‘शाकुंतलम’ पढ.ते वक्त मैंने देखा कि दुष्यंत के संवाद संस्कृत में हैं और शांकुतला के प्राकृत में. यह बात मेरे मन में हमेशा से थी. हर युग में दो तरह की भाषा होती है, एक पढे. लिखों की और एक आमजन की. बनारस के बुनकर जो भाषा बोलते हैं उसे अगर हिंदी में लिख दिया जाये, तो वह उपन्यास बन ही नहीं सकता था. मुझे लगता है कि बहुत जरूरी है किरदार अपनी भाषा बोले. भाषा केवल शब्द नहीं पूरी संस्कृति है. रचनाओं में क्षेत्रीय बोलियों-भाषाओं का इस्तेमाल एक तरह से उनका संरक्षण भी है.

मेरे लेखन की मूल चिंता पहले तो स्पष्ट नहीं थी. बाद में एहसास हुआ कि प्रतिबद्धता जरूरी है. तय करना होगा कि हम किसके पक्ष में खडे. हैं. मैंने उपेक्षित और शोषित के साथ खडे. होना चुना. पक्ष निर्धारित किये बिना क्रिटिकल एप्रोच भी नहीं आता. कभी-कभी इसमें सेल्फ क्रिटिसिज्म भी होता है. आत्म आलोचना के बगैर हम दूसरे की आलोचना भी नहीं कर सकते.

अब मेरी पहचान कथाकार के रूप में बन गयी है और उसे धोया नहीं जा सकता. ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ प्रकाशित होने से पहले मेरे नाम के आगे दो विशेषण लगते थे- कवि, कथाकार. बाद में कवि गायब हो गया, सिर्फ कथाकार रह गया. हाल ही में मेरा एक कविता संग्रह छपा, उसे मैंने दो लोगों को सर्मपित किया. त्रिलोचन शास्त्री को, जो मुझे मूलत: कवि मानते थे और प्यारे दोस्त मंगलेश डबराल को, जो मुझे मूलत: कथाकार मानते हैं.

लिखना मेरा कर्तव्य है, पेशा नहीं. पेशा तो अध्यापन है. जाहिर है कि दिन का समय मेरे पास नहीं होता, प्राय: मैं रात में ही लिखता हूं. लिख रहा होता हूं, तो कुछ भी होता रहे मैं उससे डिस्टर्ब नहीं होता. हालांकि लिखने के बीच बड.ा अंतराल आ जाये, तो वो जरूर लेखन को बाधित करता है. ‘अपवित्र आख्यान’ और ‘रावी लिखता है’ मैंने लगभग आगे-पीछे 1993-94 में पोलैंड में लिखना शुरू किया था. तभी भारत लौटना था. दोनों अधूारे उपन्यास लेकर 95 में मैं भारत लौट आया. दोनों वैसे ही पडे. रहे समय नहीं मिला पूरा करने का. 10 साल बाद मैं जब मॉस्को गया, उन्हें भी साथ लेता गया. इन दोनों को मैंने मॉस्को मैं बैठ कर पूरा किया. यानी शुरुआत पोलैंड में हुई और अंत मॉस्को में. बीच में दस साल का अंतराल रहा है. एक नया उपन्यास शुरू किया, लेकिन बीमार पड. जाने के कारण वह अधूरा पड.ा है, देखिए कब पूरा होता है.

मेरी दृष्टि में लेखन पुरस्कार के दो पहलू हैं. पुरस्कार से नयी ऊर्जा मिलती है, वहीं वे एक अजीब तरह की जिम्मेदारी का एहसास भी कराते हैं. आजकल तो तमाम तरह के पुरस्कार हैं और उनको लेकर राजनीति भी है. लेकिन मैंने इसे ऊर्जा और जिम्मेदारी के तौर पर ही लिया है. पुरस्कार से भी बड.ी चीज है पाठकों का स्नेह. हालांकि अब समय बदल गया है. पहले कोई रचना छपती थी, तो बाकायदा पत्र आते थे पाठकों के. लेकिन अब कोई एसएमएस कर देता है या फोन. पत्रों में एक अभिव्यक्ति होती थी भावों की. अब कितना जुड.ाव है, तय कर पाना मुश्किल है. फिर भी असली निर्णायक पाठक है और उस निर्णय की जड. रचना में है. अगर रचना में सार्मथ्य है तो वो बची रहेगी. यही वास्तविकता है और मैं पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया को ही वास्तविक पुरस्कार मानता हू.
                         प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं 


मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित