18 December 2009

नालंदा महाविहार :इतिहास आपके सीने में उतरता है


नालंदा महाविहार ,नालंदा विश्वविद्यालय .. आज से लगभग 800 साल पहले इस विश्व के सबसे पुराने और  सबसे  बड़े आवासीय विश्वविद्यालय को तुर्क हमलावर बख्तियार खिलजी ने भारी क्षति  पहुचाई और नालंदा महाविहार धीरे -धीरे ना सिर्फ समय और  विस्मृति के मलवे में, बल्कि सचमुच के ईंट- पत्थर और मिट्टियों  के भीतर  दफन हो गया  ..रेत पर पड़े आदमी  के पैर   के निशानों की तरह ज्ञान के इस भव्य केंद्र का  नामोनिशान ही  मिट गया..लेकिन कुछ निशाँ समय के निर्मम चोटों से पूरी तरह मिटते नहीं हैं बल्कि फिर से झाँकने लगते हैं ...दरअसल वैसे निशाँ जो सिर्फ जमीन पर नहीं होते बल्कि जमीन के भीतर तक धंसे होते हैं ..वे निशाँ जिनकी जड़ें होती हैं ,सदियों की झुलसती सुखाड़ को भी झेल लेने का माद्दा  रखते  हैं , हैं और फिर उग आते  है.





नालंदा के अवशेषों में शायद ऐसी ही ताकत थी. आज नालंदा हम सब के सामने है. साक्षात् .हम उसके खंडहरों में अपने आप को खोज सकते  हैं..क्योंकि ज्ञान कि जो परम्परा नालंदा में विकसित हुई वो भारत में ही नहीं दुनिया भर में फैली..और अलग अलग रौशन्दानों से थोड़ा थोड़ा छानकर ,हम तक पहुचती रही..भले अनजाने में ही.नालंदा महाविहार का इतिहास आप किताबों से पढ़ सकते हैं..विकिपीडिआ से भी नालंदा के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है. चाहें तो यू ट्यूब पर इस लिंक को(http://www.youtube.com/watch?v=k7UR9UEY79k) आजमायें काफी कुछ ,और काफी हद तक सही ..(पूरी तथ्यात्मकता का इसमें अभाव है.) जानकारी आपको मिल जायेगी.. लेकिन अगर आप नालंदा के सहारे अपने आप को, अपनी जड़ों को जानना चाहते हैं..अपने दिमाग की सलेट पट्टी पर लिखे हर्फों को अगर आप पहचानना चाहते हैं तो आपको नालंदा खुद जाना चाहिए..क्योंकि आप खुशनसीब हैं कि नालंदा के अवशेष इस रूप में मौजूद हैं कि उनसे आप बातें कर सकते हैं...अगर आप थोड़ी अंतरदृष्टी  का सहारा लें तो वहां.बौद्ध धर्म कि ज्ञान कि विशाल परम्पर को अपने भीतर जब्ज कर सकते हैं.फिलहाल आप इन तस्वीरों से काम चलाइये और देखिये विश्व  के धरोहर को...
      
खुदाई से पहले नालंदा 

                                  
नालंदा का स्तूप ..यहाँ तीन स्तूपों के निर्माण के चिह्न मिलते हैं..जो अलग अलग काल में अलग अलग राजाओं ने बनवाए थे...
  
नालंदा महाविहार में प्रवेश 



         
नालंदा महाविहार बहुमंजिला थी 


            

          
अध्ययन  हाल और छात्रों  के कमरे 

                                       
अध्ययन  हाल और छात्रों  के कमरे 

                                   

निर्माण के स्तर 
                                  
पानी का कुआं 
                                                  


                                

पानी का कुआं 



पानी का कुआं 




हवन और खाना बनाने के लिए चूल्हा 



हवन और खाना बनाने के लिए चूल्हा 
                                  



                                        
पार्क और पूजा स्थल 

                  
    
  




अलग अलग कालों में हुए निर्माण के अलग अलग स्तर 




  

2 December 2009

एक और भोपाल का इन्तजार?


भोपाल, इस एक संज्ञा  के कई अर्थ हैं.इस एक शब्द को सुनकर कई चित्र अलग अलग लोगों के जेहन में उभर सकते हैं.लेकिन जो  लोग  भोपाल गैस काण्ड के बदनसीब गवाह रहे उनके लिए भोपाल का अर्थ मौत ,रोग ,असहायता ,घुटन, शरीर में दौड़ता जहरीला  रासायनिक पदार्थ ,बिना किसी अपराध के पीढ़ियों तक सजा  भुगतने का अभिशाप ,सरकारी संवेदनहीनता और सिविक सोसाइटी की बेशर्म उदासीनता के अलावा  शायद ही और कुछ हो.भोपाल गैस काण्ड   जिसे मानवीय इतिहास का सबसे दर्दनाक औद्योगिक हादसा माना जाता है की संयोग से 25  वीं वर्षगाँठ आज की रात पड़ेगी, इसमें संयोग  जैसा कुछ नहीं 25 वीं   या 50 वीं बरसी का आ जाना तय  है. वह हमारी या आपके चाहने से आगे या पीछे नहीं हो सकता ,रुक नहीं सकता. अभी तुरत हमने इंदिरा  गांधी  की शहादत(?) की 25 वीं बरसी  मनाई है.अख़बारों में ,टीवी पर, पत्रिकाओं में  इंदिरा गांधी छाई  रहीं.सभी सरकारी मंत्रालयों ने इंदिरा गांधी को श्रधान्जली  के लिए   विज्ञापनों पर करोड़ों रूपये खर्च किये. मरे हुए नेता को जीवित कर देने की सारी तरकीब जो सत्ताधारी पार्टी अपना सकती थी ,उसे अपनाने में वह पीछे नहीं रही.
      लेकिन अफ़सोस इसी साल एक 25 वीं बरसी और मनाई जानी थी जिसे याद करना सरकार के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला है.काश यह बरसी नहीं आयी होती ? काश यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से 25  साल पहले  2 - 3 दिसंबर 1984 की आधी रात को जहरीले मिथाइल आइसोसाइनाइद का रिसाव नहीं हुआ होता..काश वो बेक़सूर जाने बचाई जा सकी होतीं? काश उस जहर से और पूरे इलाके के पीने के पानी ,मिट्टी तक में जहरीला रसायन शामिल ना हुआ होता जिसने आज तक 25000 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली है.काश ?? कितना अजीब है ,और अक्सर कितना बेहूदा भी है  ये शब्द? जिस तरह हिरोशिमा नागाशाकी पर परमाणु बम का गिड़ना,या चर्नोबिल के नाभिकीय दुर्घटना को  किसी काश से नहीं बदला जा सकता ठीक उसी तरह भोपाल की भयावह सच्चाई को भी किसी काश की मदद से  नहीं झुठलाया  जा सकता.हाँ इससे आँखे मूँद लिया जा सकता है.ठीक उसी तरह जिस तरह भारत सरकार ने और राज्य की सरकार ने इस मामले में अपनी आँखे मूँद रखी हैं. कितना आसान है आँखें मूँद लेना एक रोज -ब रोज घटते दहशत भरी दुर्घटना से? रोज तिल तिल कर मरते लोगों से आँखे बचा लेना कितना आसान  है? कितना आसान है अपनी सारी नैतिक  जिम्मेदारी से हाथ खीच लेना?  कितना आसान है अपनी तमाम बर्बरता के बावजूद सभ्य कहलाना?
   भोपाल गैस काण्ड के बाद सरकार के सामने जो चुनौतियां थी उससे निपटने में सरकार नाकाम क्यों रही? क्यों किसी को इस काण्ड के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए किसी को सजा तक नहीं हुई? क्यों आज तक भोपाल गैस काण्ड के मुख्य अभियुक्त एन्डरसन पर मुकदमा चलाने तक में भारत सरकार नाकाम रही?क्यों आज भी यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डोव केमिकल  कंपनी  आज भी शान से भारत में काम कर रही है ? क्यों भारत सरकार को गैस पीड़ितों को मुआवजा  देने के लिए सुप्रीम कोर्ट की फटकार की जरूरत पडी? क्यों इस फटकार के बाद भी मृतकों के परिजनों तक मुआवजा  नहीं पहुच पाया ? भोपाल गैस काण्ड कई असहज सवाल खड़े करता है. सिर्फ सरकार के लिए नहीं हम सब के लिए. मीडिया के लिए .मल्लिका शेहरावत के कपड़ों और रखी सावंत के चुम्बन के रस में डूबी हुई मीडिया ने क्या किया आज तक भोपाल गैस काण्ड के पीड़ितों के लिए? क्यों भूल कर बैठी रही मीडिया  आज तक इस काण्ड  को? क्यों इंतजार करना पड़ा उसे 25 वीं  बरसी  का  इस विषय पर  कुछ लिखने बोलने के लिए? सचिन और अमिताभ को सदी का महानायक करार देने वाली  मीडिया ने कभी क्यों नहीं सुध ली उन छोटे छोटे संगठनों की जो भोपाल के गैस पीड़ितों के लिए अंतहीन संघर्ष कर  रहे है हैं?जो उन तक साफ़ पानी जैसी न्यूनतम आवश्यकता पहुचाने  के लिए लड़ रहे हैं. उनको रोज मौत से लड़ने में मदद कर रहे हैं. क्यों इतनी धुंधली और इतनी बेहूदा हो गई मीडिया के भीतर नायकत्व की  समझ ? क्यों बोर वेल में फंसे एक बच्चे पर 36  घंटे का लाइव प्रसारण करने वाली मीडिया  ने शाश्वत रूप से  जहरीले रसायनों के चंगुल में फंसे लोगों पर कुछ भी सोचने और बोलने को जरूरी नहीं समझा ? यह सब हमारे समय और समाज में हो रहा है, इस सच्चाई ने कभी हमारी नींद क्यों नहीं उडाई ?
         सवाल कई हैं और उतने ही असहज भी. लोगों के जीने या मरने की कीमत आज कुछ नहीं. आप अगर अरुणाचल में, या मणिपुर में, मर रहे हों ,अगर आप पूर्व्वी उत्तर प्रदेश में जापानी दिमागी ज्वर से मर रहे हों ,अगर आप बिहार में कालाजार या मलेरिया से मर रहे हों, अगर आप आन्ध्र या ,विदर्भ में कर्ज की मार से मर रहे हों, अगर आप उड़ीसा में भूखमरी से मर रहे हों..या आप भोपाल में मिटटी और पानी में रिसते जहरीले  रसायन से मर रहे हों ,उस माँ के दूध को पीने से मर रहे हों जिसके दूध तक में यह जहर घुल चुका है तो आपके मौत की कीमत कुछ नहीं. आपके मौत की कीमत तभी है जब आप सत्ताधारी पार्टी की सर्वेसर्वा की सास या नानी हों.या आपकी मौत पर टीवी चैनलों को भरपूर दर्शक और विज्ञापन मिल सकने की उम्मीद  हो.रही सरकार से कुछ उम्मीद करने की बात तो  सरकार आपके जीने के लिए भले एक पाई भी खर्च ना करे लेकिन मरे को ज़िंदा करने के लिए करोड़ों खर्च  करने में पीछे नहीं हटेगी. यह हमारे समय का चलन है..एक ऐसे क्रूर समय का हिस्सा होना अगर आपकी नसों में सिहरन पैदा नहीं करता तो इन्तजार कीजिये किसी भोपाल काण्ड का. आपको समय की भयावहता का अंदाजा लग जायेगा.



30 November 2009

ओखला मंडी को हटाओ





क्यों भाई ओखला मंडी को क्यों हटाओ और ऐसे ऐसे कैसे हटा सकता है कोई ओखला मंडी को .कितनी बड़ी मंडी है यह दक्षिणी दिल्ली की .फूलों की ,सब्जियों की ..साग सब्जियों की खरीदारी फिर कहा से करेंगे बेचारे दुकानदार ,कैसे आप तक पहुचायेंगे छोटी-छोटी मंडियों के सब्जी वाले  फल सब्जियां ,कैसे ठेले पर बिकेगा आपके रसोई को  चलाने  वाली सब्जियां आलू प्याज..कैसे चलेगा उन हजारों लोगों का रोजगार जो रोज ओखला मंडी के सहारे अपना कारोबार चलते हैं?  बहुत बड़ा कारोबार फैला है ओखला मंडी में ,ओखला मंडी के आस पास..करोड़ों के वारे न्यारे हो जाते हैं यहाँ रोज...कोई वजह तो हो ..यू ही कैसा हटाया जा सकता है फलता फूलता बाजार किसी के सनक में कुछ कह देने से ..नहीं बिल्कुल नहीं हटेगा ..शान के साथ रहेगी ये मंडी..सब की जरूरतें पूरी करती रहेगी.
    हाँ भाई इन बातों से किसको इनकार है..लेकिन फिर भी ओखला मंडी को यहाँ से हटाओ..नहीं हटा सकते तो ओखला मंडी में रहने वाले आदमियों को कहो की वे हट जाएँ इस मंडी से..हद है कोई सिविक सेंस नाम की चीज भी होती है या नहीं..आप कह दें की सभ्य समाज में इस सेन्स की कोई दरकार नहीं , सफाई और इंसानी तहजीब की कोई जगह होती है या नहीं? नहीं होती तो मत हटाओ और अगर होती है तो जरूरी है कि इस मंडी को यहाँ से जल्द से जल्द हटा दिया जाये..यह सभ्य समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि ओखला मंडी में रहने वाले वहाँ कारोबार करने वाले ओखला मंडी के सामने वाली सड़क को पब्लिक  टायलेट बना दे और इस मंडी के सामने से निकलने वाले लोग अपनी नाक पर रुमाल रख कर उस सड़क से गुजरें..अरे ये भी तो सोचो कि यह मंडी शहर के पौश लोकैलिटी से सटा हुआ है और उन अमीर लोगों पर इस यातनादायक स्थिति का क्या प्रभाव पड़ता होगा और वे कितने बेजार से रहते होंगे ..हाँ ये भी सही है कि वे कार में चलने वाले लोग हैं.उनको शहर की बदबू वातानुकूलित शीशे चढ़े कारों में महसूस नहीं होती ..अरे अमीरों की नहीं तो कम से कम उन लोगों के बारे में तो कोई सोचो जिन्हें ओखला मंडी के बस स्टॉप पर रोज बस के लिए खड़ा होना पड़ता है..
अरे कुछ नहीं तो कॉमन वेल्थ गेम के नाम पर तो इस शहर के बदनुमा दाग को हटाने की कोई तरकीब निकालो..शीला जी से कहो वे मान जायेंगी..वहाँ कोई पार्क खुलवा  देंगी उसे विदेशी आगंतुकों के सामने गर्व से दिखलाएंगी..हाँ ये सही है,हिट आइडिया है ,. क्योंकी अगर सरकार  को इस और कुछ करना होता तो वह यहाँ पब्लिक टायलेट की कोई ना कोई व्यवस्था अरसा पहले कर चुकी होती..लेकिन अफ़सोस शायद यहाँ से कभी मुख्यमंत्री का कारवां गुजरा ही नहीं और कभी गुजरा भी तो यकीनन उन्होंने  अपने कार के शीशे चढ़ा रखे होंगे...
  लेकिन सवाल ये है कि एक सभ्य कहे जाने शहर में ,जो गलती से भारत की राजधानी भी है ,कोई आदमी सड़क के किनारे अपने आप को फारिग करने के लिए क्यों विवश होता है? कोई क्यों नहीं देखता उस मजबूरी  को जो उसे ऐसा करने पर मजबूर करती है..उसको इंसान की श्रेणी से यू ही हम जानवरों की श्रेणी में धकेल कर चैन की नींद कैसे सोते हैं..दिल्ली को वर्ल्ड क्लास शहर बनाए की कवायद में इन लोगों की जिन्दगी मामूली इंसानी स्तर तक पहुच क्यों नहीं पा रही ये सोचने का वक़्त कोई क्यों नहीं निकाल पा रहा है? क्या हमारी सिविल सोसाइटी नाम मात्र की सिविल सोसाइटी रह गई है? बर्बरता सिविलाइज्ड का विलोम है ,क्या हम ज्यादा से ज्यादा बर्बर होते नहीं जा रहे? अगर हम इंसानों को सड़क के किनारे मजबूरी  में  निवृत होते देख कर भी अपने घरों में चैन की नींद सो सकते हैं तो हमें बर्बर के अलावा क्या कहा जा सकता है?बात सिर्फ ओखला मंडी की नहीं है दिल्ली के भीतर ऐसे अनगिनत इलाके हैं जहाँ इंसान न्यूनतम इंसानी गरिमा के साथ जी पाने में भी समर्थ नहीं है..अगर हमारी सिविल सोसाइटी इसको देख कर शर्मसार नहीं होती तो क्या कोई मतलब है हमारे  सिविलाइज्ड कहलाने का? दिल्ले चमकेगा ,वर्ल्ड क्लास बनेगा क्या ऐसे ही?

29 November 2009

बाग़ मनहर लग रहा है..एक सपना सज रहा है..



दिल्ली को वर्ल्ड क्लास शहर बनाने का सपना सपना रह जाये इसकी संभावना आज बहुत ज्यादा है..अफ़सोस दिल्ली अभी पेरिस बन पाने के सपने के साथ ना जाने कितने महीने या कितने साल और अपनी बेचैन सांसें गिनता रहेगा?वैसे दिल्ली अगर वर्ल्ड क्लास शहर बन जाए तो तो दिल्ली का चेहरा कैसा होगा? शहर का चेहरा किससे  बनता है? फ्लाईओवरों  से ,जगमगाती नेओन लाइटों से ,शौपिंग मॉलों से ,ए सी बसों से. जी हाँ क्यों नहीं ?शहर अगर एक शरीर है तो इनको शरीर का हिस्सा मानना  ही चाहिए.और अगर हर हिस्सा अच्छा हो तो शहर खुद ब खुद अच्छा हो ही जायेगा. हाँ लेकिन इस शक के साथ ही कि क्या कभी दिल्ली की हर सड़क पेरिस की सड़क जैसी हो जाएगी,क्या उत्तर और दक्षिणी दिल्ली का भेद मिट जाएगा , क्या शहर के वीआईपियों का इलाका और शहर  के मजदूरों के इलाके में समान सुविधा पहुच पायेगी, एक सवाल दिल में जरूर उठता है कि  दिल्ली का चेहरा क्या  दिल्ली वालों के बिना बनाया जा सकता है? अगर दिल्ली वालों से दिल्ली का चेहरा बनाया जाए तो क्या सरकार को नए सिरे से इस बात पर सोचना नहीं चाहिए कि दिल्ली का चेहरा पेरिस जैसा बनने में दरअसल में कितने साल लगेंगे? क्यूकि इस बात की संभावना तो बहुत कम है कि दिल्ली की वह रोज घुटने  पिसने वाली आबादी, रोज हाथों में मामूली से औजार लेकर सड़कों पर दिहाड़ी की तलाश में निकलने वाली आबादी का चेहरा  अचानक  इतना खूबसूरत और चमकदार हो जाए कि शहर में पेरिस की चमक आ जाए. ऐसा नहीं होगा ये कहने और मानने  के लिए किसी आंकड़े की जरूरत हम में से किसी को नहीं.
   तो अगर सरकार को दिल्ली को सचमुच पेरिस बनाना हो तो सरकार के पास क्या विकल्प है? सरकार पचास लाख की बस सड़क पर उतारे, बस स्टॉपों को खूब खर्च कर कर के चमकाए, नालों को पाटने में करोड़ों  लगाये ,या आम आदमी की जिंदगी में इस तरह की सहूलियतें पैदा करें की उसके चेहरे पर चमक खिल  जाए..या शहर के भीतर रोजगार की ऐसी स्थितियां पैदा करें कि लोगों की जेबों में ज्यादा पैसे हों और वे हँसते खिलखिलाते हुए दिखलाई दें?  फिलहाल सरकार पहले विकल्प पर काम कर रही है..और अफ़सोस यह कि वह इसमें भी सफल होती दीख नहीं रही..यानी शरीर का इलाज किये बगैर शरीर को चमकाने कि कोशिश जारी है  जो शर्तिया तौर पर नाकामयाब होने वाली है..चलिए हम सब सरकार के इस प्रयास को थोडा गौर से देखें ..कॉमन वेल्थ गेम के नाम पर शहर को बदलने की जो कवायद शुरू हुई है..वह हम सब के सामने सरकार के चरित्र का पर्दाफाश करने वाली है..हम सब आने वाले महीनों में सौन्दर्यीकरण के इस प्रयास में सरकार के पक्षपात भरे चेहरे से वाकिफ होने  वाले हैं..हम सब इस सच से वाकिफ होने वाले हैं कि विदेशी आगंतुकों के सामने अपनी छवि ऊंची करने के लिए हमारे आपके पैसे का दुरूपयोग करने वाली सरकार का चेहरा दरअसल में कितना और किस हद तक जनविरोधी है..
  हम सब निराला कि कविता तब तक गुनगुना सकते हैं ..बाग़ मनहर लग रहा था/ एक सपना पल रहा था..ये सपना  किसका है..किसके फायदे का है ये हमें आने वाले महीनों में पता लगने वाला है..आइये हम सब एक नए ब्रेकिंग न्यूज का साक्षी बनने की तयारी कर लें..यह ब्रेकिंग न्यूज टीवी स्क्रीन पर आकर गायब होने वाला नहीं होगा बल्कि सरकार के चेहरे पर पड़े सदाशयता के मुखौटे को हमेशा के लिए ब्रेक करने वाला होगा..तो आइये देखिये सरकार का खेल..खेल के नाम पर खेला जाने वाला, आत्मा को कालिख से पोतने वाला खेल..

27 November 2009

मुंबई हमले की बरसी ?




26 /11 यानी भारत का 9 /11  ..इससे किसको इनकार हो सकता है कि इस दिन भारत की आत्मा पर आतंकवादियों ने गहरे जख्म लगाये. जो कुछ देखा गया ,सुना गया ,बताया गया वह बेहद खौफनाक था. डर के जितने चेहरे हो सकते हैं ,वह उन सभी चेहरे में हमारे सामने नाच रहा था.यह हमला  सीरियल ब्लास्ट से भी खतरनाक था, जहाँ कुछ या कई लोग आतंकी हमले में  पल भर में सांस लेते लोगों की सूची से मिटा दिए जाते हैं ..लेकिन यहाँ तो हिंसा की लगातार चलने वाली तस्वीर हमरे सामने थी ..टीवी सेटों पर लगता दिखाई जाती हुई...लेकिन मैं यह सोचे बिना नहीं रह सकता कि क्या सचमुच ऐसा था.?.क्या मुंबई हमले ने सचमुच हमारी आत्मा पर खरोंचे पैदा की थी..? और अगर हमारे पास सचमुच कोई आत्मा है तो मुंबई हमले से पहले के हमलों ने इस पर जख्म क्यों नहीं लगाया था..मुंबई के लोकल ट्रेन में हुए विस्फोटों  कि कड़ियों से ये हमला क्यों ज्यादा दुःख पैदा करने वाला था..देश के हर चप्पे पर आतंकी हमलों से जो खूनी होली लिखी जा रही थी उसने हमारी आत्मा पर जख्म क्यों नहीं दिए थे? क्या इसलिए जो जल रहा था वह वह शान शौकत का प्रतीक होटल  ताज और त्रैदेंत था किसी व्यापारी की छोटी दुकान नहीं? या जो मारे जा रहे थे वे पैसे वाले ,अमीर लोग थे..ऑफिसों और फैक्टरियों में में काम करने वाले साधारण हमारे आपके जैसे इंसान नहीं? अगर हमारी  आत्मा पर 26 /11  से पहले कोई जख्म नहीं आया था तो कैसे मान लिया जाए कि उस दिन ही हमारी आत्मा जख्म खाने के लिए उपस्थित हो गई थी . हमारी  आत्मा पर कोई जख्म -वख्म उस दी भी नहीं आया ..हाँ टीवी पर ऐसा खौफनाक नजारा हम पहली बार देख रहे थे इसलिए टीवी सेटों पर चिपके हुए थे..और चैनेलों के गणित में यह हमला एक फायदेमंद  सौदा बन कर आया था इसलिए हमले का हर खूनी मोड़ उनको वरदान लग रहा था..तो मुंबई हमलों के दिन कौन रोया था? और जो रोया था उसने टीवी सेटों पर आकर अपने रोने का ऐलान करने के सिवा क्या किया? क्या वे सभी लोग इस बात से बहुत  ज्यादा खुश नहीं थे कि वे टीवी स्क्रीन के भीतर विक्टिम की सूची में नहीं थे?  
   हाँ सरकार की जो किरकिरी हुई थी उसके बाद सरकार ने कुछ कदम जरूर उठाये जिससे सरकार कि नेकनीयती पर जनता का भरोसा बना रहे.. सरकार पर भरोसे का क्या है वह तो भागवान पर भरोसे के सामान है..लाख छल करने के बाद भी भागवान पर भरोसा बना रहता है क्यूकि जाने के लिए कोई दूसरा हमारे पास नहीं..सरकार भी जानती है कि जनता के पास उसके सिवा कोई और ठौर नहीं इसलिए जनता कितनी ही बार छली जाए , सरकार के ऊपर से उसका भरोसा डिगेगा जरूर टूटेगा नही..
   चलिए बरसियों के इस फैशनेबल  मौसम में एक बरसी और सही लेकिन यह बात मेरे दिल में कांटे की तरह चुभ  तो जरूर रही है कि कि हामरे आत्मा पर अब कोई जख्म लगता क्यों नहीं?

7 September 2009

"फाइव पॉइंट समवन " के लेखक की तीन इडिऔटिक बातें





आप का  नाम चेतन भगत है.आप  ने अपनी पढाई , भारत के सबसे प्रतिष्ठित इंजिनीअरिंग और प्रबंधन  संस्थानों  ,क्रमशः- आई आई टी और आई आई एम्  से की है.. आप आज भारत के सबसे ज्यादा बिकने  वाले लेखक हैं..आपकी किताबें बेस्ट सेलर हैं ,आप सेलेब्रिटी हैं..आप के उपन्यास " वन नाईट @ काल सेंटर " पर पहले ही " हेलो " नाम की फिल्म बन चुकी है .".फाइव पॉइंट समवन" पर आमिर को लेकर " थ्री ईडिअट्स"  नाम की फिल्म भी बन रही है.. 

लगता है तीन इडिऔटिक बात करने की प्रेरणा शायद चेतन भगत को यही से  मिली ..अगर ऐसी प्रेरणा वे आई आई टी और आई आई एम् से लाना भूल गए हों तो ....,,क्यूकि अपने इडिऔटिक उपन्यासों के लिए तो प्रेरणा वे इन जगहों से लेते ही रहे हैं.खैर फिलहाल उनके किताबों पर कुछ नहीं लिखूंगा.. फिलहाल कल चेतन ने  टाइम्स ऑफ इंडिया में जो बातें कही हैं उसके इडियोसिटी  पर कुछ कहना चाहता हूँ .
चेतन के अनुसार वे एकता कपूर और करण जौहर से इस बिना पर बेहतर हैं..कि  वे अंग्रेजी में लिखते हैं..या कहें उनकी भाषा अंगेरजी होना ही  उन्हें हिंदी  धारावाहिक  और फिल्मे बनाने वाली  एकता कपूर ,और करन जौहर से बेहतर  बनाता है..दूसरी मजेदार बात जो चेतन ने कही, कि चूकि उनकी भाषा अंग्रेजी है..,इसलिए यह अपने आप में सिद्ध है कि उनका लेखन प्रोग्रेसिव है..और हिंदी पिछडों की भाषा है..तीसरी और खुद चेतन की चेतना और समझदारी  के स्तर को बताने  वाली उनकी उक्ति पर तो अंग्रेजी को प्रगतिशील मानने वाले सारे लोग भी सर पीट ले ,वो दिलचस्प उक्ति इस प्रकार है..सेक्स्पीअर भीड़ के लिए लिखने वाले  साहित्यकार थे..और चुकी चेतन  भी भीड़ के लिए, यानी  मास  के  लिए लिखते हैं इसलिए वे भी सेक्स्पीअर के साथ गिने जाने लायक हैं  ...हाई रे चेतन की चेतना और हाई रे उनको पढने वाले.!!.चेतन उस कुंठित मास के लिए लिख रहे हैं जो अपने ना पढ पाने की कुंठा को उनके जैसे  हलके लेखक को पढ कर शांत करते हैं..चेतन सफल व्यक्ति हैं..उनकी उपलब्धियां शानदार है.लेकिन इतना होने से कोई लेखक नहीं हो सकता..चेतन बाजार के लेखक हैं..और उनको पढने वाले वे हैं जो सब कुछ खरीद  लेना  चाहते हैं..साहित्य  पढने के संतोष को भी ..चेतन कन्जूमर  के लिए लिखते हैं,पाठक के लिए नहीं..मार्केटिंग का ज्ञान उनके इस लेखन रणनीति में काम आ रहा है...उन्हें जो लिखना है लिखें..जिनको उनको पढना है पढें..लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे चेतन इस तरह के इडिऔटिक  उक्तियों को उचारने से परहेज करेंगे  

3 September 2009

जब मिस्टर पीरजादा रात के खाने पर आये :..साझा इतिहास,साझी स्मृति , साझी यंत्रणा












मैंने कहा था कि मैं जल्द ही झुम्पा लाहिरी के कहानी संग्रह interpreter maladies में संकलित कहानी " जब मिस्टर पीरजादा  रात के खाने पर आये" पर आगे   कुछ लिखूंगा ..शायद नहीं लिख पाता..लेकिन कल एक पत्रिका  में युवा पाकिस्तानी  उपन्यासकार अली सेठी के दिल्ली प्रवास के संस्मरण  को पढ़ा तब  अचानक लगा कि  हम भारतीय उपमहाद्वीप  के निवासी किस तरह एक समान इतिहास की कड़ी में बंधे हुए हैं और हम कितना भी  चाहें इस साझे इतिहास से मुंह नहीं मोड़ सकते. भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश, आज अलग-अलग देश भले हों लेकिन इन तीनो मुल्कों का इतिहास  ही नहीं भूगोल भी  समान है. हम साझे इतिहास,साझे भूगोल,साझी स्मृति और साझी यंत्रणा से बंधे हुए हैं.बिजली के झालर पर अलग अलग लटके लेकिन एक ही साथ रौशनी बिखेरते..एक ही स्रोत से जलने के लिए शक्ति लेते..शायद इतिहास के डाकखाने में हमारा पता अभी भी साझा ही है ..चिट्ठियाँ आती एक ही घर में हैं, बस अलग-अलग दरवाजों के भीतर सरका दी जाती हैं. 
                 विभाजन के बाद का भारतीय इतिहास कुछ समझदार लोगों द्वारा तय किये गए सरहदों के भीतर अपने आपको फिट करने की कोशिश है..लेकिन इतिहास रह रह कर इस अप्राकृतिक सांचे से बाहर निकलता रहता है..हमको चिढाने के लिए नहीं हमको खुद अपने आप से रू ब रू कराने के लिए..मुझे धक्का लगा था ,जब मैंने पहली बार ये पढ़ा था कि हड़प्पा भारत में नहीं पाकिस्तान में है,जब मैंने ये पढ़ा था कि ऋग्वेद भारत में नहीं पाकिस्तान में कही लिखा गया था..यकीनन ऐसे ही कई धक्के पाकिस्तानी और बांगलादेशी नागरिकों को लगते होंगे..और चूकि इतिहास को पोंछ कर साफ़ नहीं किया जा सकता,और इन तीन देशों का इतिहास आपस में बेतरह गुथा हुआ है ,इसलिए स्मृति की मार से बचने का कोई रास्ता हम में से किसी के पास मौजूद नहीं है..खैर..अब बात मिस्टर पीरजादा की 
                   जब मिस्टर पीरजादा रात के खाने पर आये एक  ऐसी कहानी है जो हमें हमारे सामूहिक इतिहास की ओर ले जाती है. सन 1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांगलादेश) में हुआ गृह युद्ध, जो आगे चल कर मुक्ति संग्राम में बदल गया ,इतिहास के उन निर्मम दौरों में से एक  है जब सत्ता ने  अपने आपको बचाने के लिए राक्षसी  निर्ममता को अपना अस्त्र बनाने ,  इंसानियत की तमाम कसौटियों को रौंद डालने, से भी परहेज नहीं किया ..यह कहानी समय के इसी  दौर में अमेरिका  में रह रहे   एक भारतीय परिवार के  एक बांगलादेशी नागरिक की यंत्रणाओं को साझा करने की कहानी है.. कहानी की नैरेटर एक दस साल की लड़की है .वह  यह समझ नहीं पाती कि आखिर मिस्टर पीरजादा और उसके माता पिता में ऐसा क्या फर्क है कि वे दो अलग अलग देशों के नागरिक हैं.? .. उसकी मा उसे बताती है कि मिस्टर पीरजादा अब भारतीय नहीं समझे जाते ,कि देश का 1947 में विभाजन हो गया था,तब से नहीं ..लडकी  सोचती है'' एक ही जबान बोलने वाले,एक ही चुटकुले पर हंसने वाले,एक ही तरह दिखने वाले,आम का अंचार का शौख रखने वाले ,हाथ से खाना खाने वाले,घर में घुसने से पहले जूते बाहर कर लेने वाले ,शराब ना पीने वाले ,ये लोग आखिर किस विधान से अलग -अलग हैं"? कुछ लोगों द्बारा  मानचित्र पर जमीन के एक हिस्से का  रंग पीला और एक का नारंगी भर कर देने से दो देश अलग हो जाते हैं?सामान संस्कृति ,सामान भाषा और ऐसे सैकडों  समानताओं के होते हुए भी क्या सिर्फ धर्म के अलग होने से? लेकिन अगर धर्म ही जोड़ता है और धर्म ही अलग करता है , तो बांगलादेश में गृहयुद्ध होता ही क्यों?क्या ये सच नहीं है कि सत्ता सब कुछ को निगल लेती है ..मजहब को भी..
       .मुक्ति संग्राम के दौरान जब ढाका और अन्य जगहों पर पाकिस्तानी सेना की वहशियत, खून की नदिया बहा रही थी,लूट-पाट कर रही थी , औरतों का बलात्कार कर रही थी, तब अपने परिवार की चिंता में डूबे मिस्टर पीरजादा के साथ लड़की  के माँ बाप क्यों उसी तरह चिंतित थे? कहानी के हवाले से कहू तो क्यों "उस वक्त तीनो, एक आदमी की तरह,एक शरीर की तरह व्यवहार कर रहे थे..एक ही खाने को,एक ही भय,एक ही चुप्पी को साझा करते हुए?"  क्या सिर्फ इस कारण नहीं कि वे एक थे ..बहुत सारे मामले में..
    यही एकता,साझापन हमारा इतिहास है ,जिसे सत्ता के उन्माद में कभी पंजाब में कुचलने की कोशिश की गई,कभी बंगाल में ..लेकिन जो तमाम ऐसे कोशिशों के बावजूद जिंदा है और हम सब के भीतर से झांकता है.  



जे एन यू के पोस्टर और वाल पेंटिंग्स : रचनात्मक राजनीति की मिसाल








जे एन यू छात्र  राजनीति की  ट्रेडमार्क मानी जाती हैं वहाँ की पोस्टरें और वाल पेंटिंग्स ..वाम दलों से सम्बद्ध पार्टियां ही नहीं बल्की एनएसयूआई और एबीवीपी जैसी पार्टियां भी इसका पूरा सहारा लेती हैं..यह राजनीति को रचनात्मक बनाता है,,एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का माहौल वहाँ के दीवारों पर बनाए गए पोस्टरों  में  देखा जा सकता है .. .कुछ पोस्टर तो इतने कलात्मक होते हैं कि आप इनको राजनीतिक सन्देश के लिए नहीं सिर्फ इनकी कलात्मकता के कारण निहार सकते हैं..  मैंने अपने एक दोस्त से वहाँ की तस्वीरें भेजने के लिए कहा..तस्वीरें ज्यादा तो नहीं आ पायी, लेकिन पोस्टरों की रचनात्मकता की .ओर वे जरूर थोडा इशारा करती हैं..कोशिश करूंगा कि जे एन यू की दीवारों पर लगे पोस्टरों और वाल पेंटिंग्स आगे कभी अच्छी तरह समेट कर आपके सामने हाजिर करू..फिलहाल ये थोड़े से फोटो.. 

2 September 2009

छात्र संघ चुनाव :.डी यू चला जे एन यू की राह!!









मुझे याद है ,वो 1998 का अगस्त का महीना ...दिल्ली विश्वविद्यालय पूरी तरह चुनाव के रंग में रंग चुका था..हवाओं में कुछ ऐसा था कि वह पहचानी हुई -सी नहीं लगती थी..हवा के हर कण पर जैसे बैलेट नंबर , पार्टियों के नाम ,उम्मीदवारों के नाम आकर अटक  गए थे और हमारे चारों तरफ डोल रहे थे..हवा में पर्चे  उड़ते ..और जोर का शोर गूंजता--" बैलेट नंबर क्या है 5 है 5 है.."...."आई आई एन एस यू आई....... ".हॉस्टल में रहने वाले हम जैसे छात्रों  के लिए तो चुनाव प्रचार असल में शाम के 7 बजे से शुरू होता और आधी रात तक चलता रहता..कभी कभी  पूरी रात तक भी .एक याद जो हमेशा जेहन में ताजा रह गई वह है किसी दल के  कैंडीडेट की दी हुई कोल्ड ड्रिंक की पार्टी..यह इस तरह की मेरी पहली पार्टी,या कहें मुफ्तखोरी  थी .बाद में पता चला कि ये पुराना दस्तूर था..कोल्ड ड्रिंक ही क्या, वे शराब और कबाब  से भी खिदमत करने को तैयार रहते ... खुद अपनी,और अपने गुर्गों की  खिदमत तो  वे ऐसे करते ही थे..दस -बारह दिनों तक काफी गहमा-गहमी रहती..पर्चे.. पैम्फलेट  ..बैनर ,टी- शर्ट ,डायरी ,और भी बहुत सारे चीजें बांटी जातीं ..लड़कों के लिए कैंटीन फ्री कर दिया जाता..जितना खाना है खाओ,मजे करो..लेकिन वोट दे दो.." नोट लो और वोट दो" का खेल भी चलता ..वैसे लड़के अमूमन ऐसे candidate को वोट नहीं देते..कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में चुनावों में गन-तंत्र चलता है  और डी यू में धन-तंत्र ...बात सोलह आने सच हो या ना हो ,आठ आने तो सही है ही.. यहाँ पूरे आठ आने डी यू के ही.(यू-पी वाले 8 आने  का फैसला मैं नहीं करना चाहता..).खूब पैसा.. खूब -खूब पैसा खर्च किया जाता..
       चुनावों के दौरान होता तो बहुत कुछ लेकिन यहाँ सब कुछ बता पाना संभव नहीं..कई साल हो गए डूसू चुनावों के समय विश्वविद्यालय नहीं गया था..इस बार जा रहा हु..फिजा काफी बदली बदली है.. पोस्टर गायब हैं ,डायरियां नहीं बँट रही, टी शर्ट पहन कर बस स्टाप पर आपसे वोट नहीं मांगे जा रहे.शराब और कबाब  का दौर , चल रहा   है या नहीं..ये फिलहाल पता  लगाने  का कोई साधन नहीं..क्यूकि मैं बाहर बाहर से ही सब कुछ देख रहा हूँ, एक outsider की तरह    ..हाँ बाहर से जो देख रहा हु..वो  अभी भले थोडा कम चमकीला..फीका फीका लगे ..लेकिन यह एक सुखद परिवर्तन है..हाथ से लिखे पोस्टर दीवारों पर टंगे हैं..भले ही कम मात्रा   में..जे एन यू जैसा पोस्टर कल्चर यहाँ विकसित होते होते जरूर बहुत समय लगेगा..लेकिन मजबूरन ही इस बार इसकी शुरुआत हो गयी है..शुरुआत नहीं होती अगर कुछ उम्मीदवारों की उम्मीदवारी रद्द नहीं की जाती .... वैसे अभी भी डीयू की "वाल ऑफ डेमोक्रेसी" खाली है..और वहाँ जे एन यू  मार्का पोस्टरबाजी नहीं दिख रही है..जिसे मैं राजनीतिक चेतना की कलात्मक अभिव्यक्ति मानता हूँ..हाँ ऐसा जरूर लग रहा है कि  मौहाल बदलेगा..डीयू  में भी राजनीति ,जल्दी ही रचनात्मक और कलात्मक मोड़ लेगी .. 


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27 August 2009

तंजानिया की कला शैली: मेकोंडे





मैं कोई  कला का जानकार नहीं हूँ .संघ लोकसेवा की तैयारी के दौरान भी कला और संस्कृति के हिस्से को मैं सिर्फ गधों कि तरह रट  लिया करता था..फिर विश्व कला के बारे में, वो भी  एक अफ्रीकी देश की  कला शैली के बारे में मुझे कोई जानकारी हो इसकी कोई संभावना नहीं है..दरअसल  आज मेरी मुलाक़ात तंजानिया मूल की  एक महिला से हुई..भारत में आजकल अफ्रीका और दक्षिण एशियाई देशों के काफी लोग इलाज कराने के लिए  आते हैं..जिसे भारत सरकार मेडिकल टूरिस्म का नाम देती है..गुर्दे की खराबी का इलाज करा रहे  या कैंसर से मरते  एक आदमी और उसके परिवार के लिए  इलाज के लिए भारत आना टूरिस्म है...ऐसा भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय का मानना है...खैर..  थोडी देर बात करने के बाद फातमा नाम  की  उस महिला ने हमें अपना तंजानिया का फोन नंबर .दिया..और कहा कि तंजानिया आना तो हामारे यहाँ जरूर आना..फिर उसे radiology वार्ड में बुला लिया गया और वो चली गई.
.दरअसल  हुआ ये कि उस्से बात करते वक़्त मैं लाख चाहने के वावजूद  तंजानिया की राजधानी याद नहीं कर पाया ..सिर्फ इतना याद आया कि यह   केन्या के दक्षिण में और विक्टोरिया झील से सटा हुआ है..अभी तंजानिया कि राजधानी देखने के लिए विकिपेडिया का सहारा लिया..तब अचानक इस कला शैली  से परिचय हुआ ..
मेकोंडे तंजानिया कि एक भाषा भी है और एक जनजाति भी..मेकोंडे कला इसी मेकोंडे जनजाति द्बारा  विकसित एक पारंपरिक कलाशैली है.. कठोड़ और गहडे रंग के  एबोनी की लकडी को तराश कर विभिन्न प्रकार की  काष्ट प्रतिमाएँ बनायी जाती हैं,,  1950 के बाद माडर्न मेकोंडे आर्ट को काफी बढावा मिला है..परम्परागत रूप से इस शैली में घरेलू जीवन से जुड़े हुए चीजों की मूर्तियाँ  बनायी जाती थी  लेकिन अब abstract विचारों को  भी मूर्तियों की शक्ल में  ढालने की परम्परा शुरू हो गई है.  
यूरोपीय इतिहासकारों ने कभी  ना सिर्फ भारत,बल्कि तमाम एशियाई तथा अफ्रीकी देश को  असभ्य और बर्बर  बताकर प्रचारित किया था..मैं इस कला के नमूने को देखकर बस यही समझ पा रहा हूँ  कि इतनी संमृद्ध कला शैली असभ्य  और बर्बर लोगों के द्वारा तो विकसित नहीं की जा सकती..

26 August 2009

मंटो: निर्लिप्त घूरती आँखें





 आप  में से बहुतों ने मंटो की कहानी "खोल दो " को पढ़ा होगा.अगर आपने यह कहानी नहीं पढ़ी है तो आपके लिए यह एक अनियार्य कहानी की  तरह है. अखबारों,पत्रिकाओं,और टीवी में अभी जिस तरह जिन्ना और विभाजन छाया हुआ है उसने मुझे यह कहानी याद दिला दी.."खोल दो" ऐसी कहानी नहीं है जिसे आप याद रखना चाहते हैं,बल्कि यह उन कहानियों में से है जिन्हें आप भूल जान चाहते है..लेकिन फिर भी यह बार -बार आप तक लौट कर आती है..आपके सामने कुछ असहज सवाल खडा करने के लिए.आपको निस्तेज, सुन्न,सर्द आँखों से देखने के लिए..ये आँखे आप पर टिक जाती हैं और और धीरे धीरे आपको भी अपने आगोश में  लेने लगती हैं..एक जड़ता  आप पर हावी होने लगती है..मंटो की  यह कहानी आपके विवेक के स्थगित  कर देती है..आप सोचना चाहते हैं लेकिन कुछ  सोच नहीं पाते.. इंसानी क्रूरता ,वहशियत,बिना शोर किये,धीरे से सरक कर  पसीने से लथपथ चेहरे में चिपके गर्द की मानिंद आपके वजूद का अनचाहा हिस्सा बन  जाती  है. 

यहाँ मैं इस कहानी का एक अंश आपके सामने रख रहा हूँ..सिर्फ इसलिए कि भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को राजनैतिक इतिहास की बहसों से पूरी तरह समझना मुमकिन नहीं है..यह बंटवारा राजनैतिक से कही ज्यादा सामाजिक और मानसिक था..मंटो की कहानियां इस बंटवारे के दौरान  इंसानियत और हैवानियत के बीच की  धुंधलाती लकीर को ताकती हुई कहानियां है..यहाँ विभाजन पर लिखी कई अन्य कहानियों की तरह घर,जमीन,सदियों के रिश्ते नाते और  सम्बन्ध के टूटने की  सामाजिक त्रासदी को उभारने कि जगह व्यक्ति की , मानसिक त्रासदी उसके मानसिक अंतर्द्वंद ,और मानसिक पतन को बयान किया  गया है .

.................एक स्ट्रेचर था ,जिस पर लाश पड़ी  थी..सराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी और बढा..कमरे में अचानक रौशनी हुई..सराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया --"सकीना ! "
        डाक्टर जिसने कमरे की रौशनी की थी ने सराजुद्दीन से पूछा,  "क्या है ?"
     सराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका , "जी मैं .......जी मैं ........इसका बाप हूँ.."
    डाक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी लाश की नब्ज टटोली और सराजुद्दीन से कहा ,"खिड़की खोल दो .."
  सकीना के मुर्दा जिस्म में जुम्बिश हुई ..बेजान हाथों से उसने अजारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी ..बूढा सराजुद्दीन ख़ुशी से चिल्लाया ,"जिंदा है--मेरी बेटी जिंदा है --.."डाक्टर सर से पैर तक पसीने में गर्क हो गया ...


(यकीन मानिए मैं ये लाइन  टाइप कर  रहा हूँ   और मेरे भीतर  एक अजब सी सिहरन हो रही है...एक मीलों तक फैली खामोशी मुझे  घेर रही है. )

25 August 2009

जिन्ना और विभाजन पर कुछ और




इसे अपनी राय बनाने के लिए जरूरी सामग्री की तरह पढें..यहाँ कोई निष्कर्ष निकालने कि कोशिश नहीं की गई है..बस कुछ प्रचलित school of thought को  आपके सामने रख रहा हूँ.उम्मीद है इससे आपको विभाजन को समझने में मदद मिलेगी 


अगर भारत का विभाजन नहीं हुआ होता तो भारत कैसा होता ...यकीनन वैसा नहीं जैसा  आज है..भारत को ऐसा बनाने के लिए विभाजन ज़रूरी था ..नेहरु ने 1946 में कृष्णा मेनन को लिखे एक पत्र मे लिखा था कि भारत का शासन  चलने के लिए ये जरूरी है कि भारत का ,बल्कि  कहें कि पंजाब और बंगाल का विभाजन कर दिया जाए ..नेहरु ने ये भी लिखा कि आर्थिक दृष्टि से संपन्न बंगाल और पंजाब का हिस्सा भारत के साथ रहेगा और इस तरह जो पाकिस्तान बनेगा वह आर्थिक दृष्टि से अत्यं कमजोर होगा जो खुद को शायद ही संभाल सके...
साफ़ है नेहरु भी विभाजन चाहते थे...संभवतः ऐसा चाहने के लिए वे मजबूर किये गए थे.
नेहरु ने कभी जिन्ना कि तरह पकिस्तान कि मांग नहीं कि..लेकिन नेहरु की राजनीति ने पाकिस्तान कि मांग को मजबूत ही किया..पकिस्तान कि मांग 1940 में की गई थी.1940  से 1947   तक का साल भारतीय राजनीति में इतना उथल पुथल भरा  रहा कि पाकिस्तान कि मांग से निपटने के  लिए कौंग्रेस के पास कोई नीति बनाने के लिए वक़्त ही नहीं था..
जैसा कि पाकिस्तानी इतिहासकार आएशा  जलाल ने लिखा है..जिन्ना ने पकिस्तान की मांग स्वतंत्र पाकिस्तान के लिए नहीं की थी..वे तो बस इसके सहारे मुस्लिमों के लिए ज्यादा से ज्यादा रियायत,सत्ता का मुस्लिमों के हित में ज्यादा से ज्यादा विकेंद्रिकर्ण चाहते थे..यह एक  दाँव (bluff  )था..लेकिन नेहरु और पटेल ने जिन्ना के इस दाँव को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भुमिका निभायी..जितनी आसानी से ये दोनों नेता पाकिस्तान की मांग  को मान गए उससे बकौल आएशा  जलाल, खुद जिन्ना को भी हैरानी हुई थी.
कहा जाता है कि जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्सन दिवस कि घोषणा कर के समझौते कि बची - खुची आशा को भी मिटा दिया.लेकिन इस बात कि प्रायः कोई चर्चा नहीं की जाती कि आखिर जिन्ना को डायरेक्ट एक्सन दिवस की घोषणा करने कि नौबत क्यों आयी.नेहरु कि जीवनी लिखनेवाले बेंजामिन जकारिया .ने लिखा है कि कैबिनेट मिशन योजना को असफल बनाने में नेहरु का भी हाथ था..मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने भी इस बात का अपनी किताब इंडिया विन्स फ्रीडम में जिक्र किया है..आज़ाद के अनुसार कैबिनेट मिशन प्रस्ताव पर नेहरु ने जो जनसभाएं की  उसमे उन्होंने लगातार यह कहा कि हम इस प्रस्ताव से बंधे  नहीं हैं..दरअसल नेहरु केंद्रीय शासन व्यवस्था का सपना संजो चुके थे और इस सपने में वे समूहीकरण के कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को मानने के लिए तैयार  नहीं थे...इस प्रस्ताव में शक्ति के विकेंद्रीकरण और एक कमजोर केंद्र का प्रस्ताव था....माना  ये जाता है कि नेहरु के इस रवैय्ये ने जिन्ना को डायरेक्ट एक्सन दिवस कि घोषणा करने पर मजबूर किया ..क्यूकि तब तक जिन्ना को एहसास हो चुका था को कौंग्रेस मुस्लिमों कि मांग को पूरा करने का इरादा नहीं रखती.
ये बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि मुस्लिम लीग के लियाकत अली जो आगे पाकिस्तान के पहले प्रधान मंत्री बने,बजट पेश करने वाले पहले भारतीय थे..यह बजट मार्च 1947   में पेश किया गया था.इसमें अमीर उद्योगपतियों  पर जिन्होंने युद्ध के समय भारी मुनाफा कमाया था,,ज्यादा कर लगाने कि मांग की गई थी.नेहरु ने भी  लगातार इस  बात पर सहमती जतायी थी.लेकिन कौंग्रेस  इसे लियाकत  अली द्बारा हिन्दू  व्यापारियों को तंग करने की नीति माना और इस बजट का विरोध किया..अंत नेहरु ने इस बजट को अस्वीकार कर दिया और इस बजट की  जगह एक पूर्णतः बदला हुआ  बजट पेश किया.गया..इस प्रकरण ने एक बार फिर इस बात को साबित किया कि भारत को मुस्लिमों के हिसाब से नहीं चलाया  जाएगा और कौंग्रेस हिदुओं का हित साधने वाली  पार्टी है..गौरतलब है कि 1946   के चुनावों में मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को जबरदस्त सफलता मिली थी और तकरीबन 90   फीसदी से ज्यादा ऐसी सीटें उसे मिली थी.ऐसे में लीग को साथ लेकर चलना कांग्रेस के लिए जरूरी था..लेकिन यह ऐसा नहीं कर पाई.
खैर  ये बातें ये बात साबित नहीं करती कि विभाजन के लिए जिन्ना नहीं नेहरु या पटेल जिम्मेदार थे..लेकिन यह ये तो जरूर साबित करता है कि इसके लिए  सिर्फ जिन्ना ही  जिम्मेदार नहीं थे. हाँ किसकी जिम्मेदारी कितनी थी इस बात पर बहस हो सकती है..
 .
कही ना कही १९४६-४७ तक आते आते जो स्थितिया बन गई थी,वे सामूहिक रूप से विभाजन  के लिए जिम्मेदार बनी.इस समय तक .विभाजन सिर्फ जिन्ना या नेहरु के कोर्ट से निकल कर कलकत्ता और नोआखाली और उससे भी आगे बिहार उत्तर प्रदेश  दिल्ली और पंजाब तक पहुच गया था..और यह खुले मैदान में खून के प्यासे इंसानों द्बारा तय किया जा रहा था..
दरअसल आजादी  के बाद जिन्ना और नेहरु जो भारत चाहते थे उसमे गहरा मतभेद था..जिन्ना विकेंद्रीकरण चाहते थे तो नेहरु मजबूत  केंद्र..दोनों के गोल अलग अलग थे..ऐसे में विभाजन के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था..ये बात अलग है कि नेहरु को वैसा भारत मिला जैसा वे चाहते थे ..लेकिन जिन्ना को वैसा पकिस्तान नहीं मिला जैसा वे चाहते थे.. 
 .

23 August 2009

और अब खून में मिलावट

" अब भी जिसका खून ना खौला खून नहीं वो पानी है "
इसे कविता के तौर पर नहीं एक सार्वजनिक सूचना के तौर  पर पढें..  जी हाँ आपके खून के ना  खौलने का कारण शायद यही हो  


दूध में मिलावट,घी में मिलावट,मसालों में मिलावट के बाद अब खून में मिलावट ...ऐसा नहीं है की खून में मिलावट बिलकुल नयी बात है...तकरीबन दस-बारह  साल पहले जब मैं पटना में था तब मेरे एक जान -पहचान वाले को खून की जरूरत हुई थी अचानक रात में.अपने एक डॉक्टर रिश्तेदार को जब मैंने फ़ोन किया तो उन्होंने कहा की खून का इंतजाम खुद करो.. ब्लड बैंक के खून में खून कम पानी ज्यादा होता है...खून का इंतजाम किया गया ..लेकिन खून की जरूरत पड़ने पर खून देने वाले हमेशा और समय पर मिल ही जाए जरूरी नहीं ..ऐसे में ब्लड बैंक पर  ही निर्भर रहना पड़ेगा..आज खबर आयी है की इस ब्लड  बैंक के खून में मिलावट का घिनौना खेल खेला जा रहा है..खेल तो  पहले  से ही खेला जा रहा था अब खबर आयी है.. 
ये दौर ही शायद मिलावट का दौर है..आदमी ही खालिस नहीं है..आदमी की आदमियत में हिंसक लोभ नमक कि तरह घुल गया है ..शुद्ध तो कुछ भी नहीं होता ..बिलकुल  खालिस सोने के तो जेवर भी नहीं बनते..लेकिन अब मिलावट  ही दस्तूर बन गया है..सच कहे तो अब एक ही चीज ऐसी है जिसमे मिलावट नहीं है..आदमी के भीतर पैसे  कमाने की चाहत ...और इस चाहत  के लिए किसी भी चीज में मिलावट की जा सकती है..,,खून में पानी की ही नहीं..आदमी की इंसानियत में हैवानियत  की भी मिलावट ..

जिन्ना पर नयी किताब के बहाने लोकतंत्र पर बहस

एक अपील : लोकतंत्र  को  सिर्फ लोकतंत्र रहने दें , उसे फासीवादी लोकतंत्र बनाने की कोशिश ना करें 






अच्छा हुआ  कि जसवंत सिंह ने जिन्ना पर एक किताब लिखी..इससे  कुछ हुआ या नहीं हुआ, हर किसी को अपने आपको देशभक्त साबित करने का मौका तो मिल ही गया....इसमें कोई शक नहीं  कि भारतीय इतिहास में मुहम्मद अली जिन्ना की हैसियत एक खलनायक की  है....भारतीय राजनैतिक थिएटर का गब्बर सिंह और मोगाम्बो से भी बड़ा खलनायक.. यह मौका भांप कर कि जिन्ना पर किताब लिखने वाले जसवंत को गद्दार,मति - भ्रष्ट  बताकर अपने आपको देशभक्त साबित किया जा सकता है राजनैतिक पार्टियां जसवंत का सर कलम करने के लिए निकल पडी...खुद जसवंत कि पार्टी ने भी जसवंत की किताब को,और जसवंत सिंह कि सोहबत को इतना खतरनाक माना कि उससे अपना दामन बचा ले जाने की  बेचैनी से बीमार हो गई.. और जसवंत  को कारण बताओ नोटिस देने कि सभ्यता तक से  परहेज करते  हुए उन्हें पार्टी से  निष्कासित  कर दिया..
लेकिन अभी बात जिन्ना की नहीं,बात जसवंत की भी नहीं..जसवंत सिंह की किताब की तो बिलकुल नहीं...क्यूकि किताब अभी तक मेरे हाथ आयी नहीं है...और बिना किताब पढ़े और तथ्यों और तर्कों को  पढ़े बिना इस  मुद्दे पर रायशुमारी  करना कोई मतलब नहीं रखता...यह काम उनके लिए छोड़  दिया जाए जो अखबार की कतरनों से ,टीवी पर कैप्शन की  चन्द लाइनों से चंद्रमा और सूर्य तक के सारे रहस्य जान लेने की काबिलियत  रखते हैं..
यहाँ बात लोकतंत्र की...बात लोकतंत्र के उस मॉडल की जो हमने पिछले  छः दशकों में अपने यहाँ बनाया है...बात थोडी सी उस संविधान की जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता  की गारंटी देता है...बात उस उदारवाद के छद्म मुखौटे की जिसे हमने आजादी के बाद  के इन सालों में जब मन किया है सुविधा से पहना है जब मन किया है उतार कर फेंका है..
लोकतंत्र का मतलब  क्या है ? वोट डालना और एक सरकार को चुन लेना? या एक ऐसी व्यवस्था कि स्थापना करना जहाँ सभी तरह के विचार सह अस्तित्व के साथ रह सकें..लोकतंत्र  कि बुनियादी  खासियत ही यही है कि यहाँ विभिन्न ही नहीं विपरीत तथा विरोधी मत भी एक ही साथ सांस ले सकते हैं...एक दुसरे को काटते ,घिसते,छीलते हुए..एक दुसरे को बेहतर बनाने में योगदान देते हैं ....यह उदारवादी लोकतंत्र का गुण  है.. अमेरिका में एक ही साथ एडवर्ड सईद ,नोम चोमस्की, जैसे विचारक अमेरिकी व्यवस्था की आलोचना करते हैं..लेकिन वे वहां से निकाल नहीं फेंके गए हैं...यह अमेरिकी लोकतंत्र का गुण है ..कम से कम दुनिया को दिखाने के लिए उदारवाद का एक सुन्दर  मुखौटा  तो उनके पास जरूर मौजूद है...लेकिन भारत में ऐसा मुखौटा भी  देखने को नहीं मिलता..
बात करें  सबसे पहले भाजपा के आंतरिक डेमोक्रेसी की..२२ अगस्त के हिन्दुस्तान टाइम्स में एन डी टीवी की ग्रुप एडिटर बरखा दत्ता ने  लिखा है की.." जसवंत के निष्कासन ने भाजपा के आतंरिक लोकतंत्र के दावे की कलई खोल दी है".यहाँ एक बहुत महत्वपुर्ण सवाल ये है कि .लोकतंत्र के भीतर क्या किसी व्यक्ति को किसी विषय पर अपनी राय रखने से रोका जा सकता है.क्या यह व्यक्ति के मूल अधिकारों का उल्लंघन नहीं है?
जहां तक जिन्ना के व्यक्तित्व पर ,उनके भारतीय राजनीति में स्थान पर विश्लेषण कि बात है..तो साफ़ कहा जा सकता है कि जिन्ना का मूल्यांकन कभी भी पूर्वाग्रह से रहित होकर नहीं किया गया है..जिन्ना पर सारी कहानी 1929 में  जिन्ना के 14  सूत्रीय मांग, 1940  में ,पाकिस्तान की मांग और 1946  में डाइरेक्ट एक्सन दिवस कि  घोषणा में सिमट जाती है..लेकिन जिन्ना के राजनीतिक जीवन को देखने के लिए  इससे भी भीतर जा कर इस  शख्स को जाने कि जरूरत है.....
इतिहास में जिन्ना के राजनैतिक विकास को अगर गौर से देखा जाए तो इस  बात से किसी को ऐतराज नहीं हो  सकता है..कि जिन्ना ने अपना राजनैतिक जीवन एक राष्ट्रवादी ,धर्मनिरपेक्ष नेता के तौर पर शुरू किया  था...जिन्ना किस तरह और कब कट्टरपंथी इस्लामिक राजनीति कि और झुक गए यह  देखना और समजने कि  कोशिश करना बहुत जरूरी है..ऐसा ही एक प्रयास एजी नूरानी ने अपने एक लेख "अस्सेसिंग जिन्ना "में किया है., जो 13 -26 अगस्त 2005 में फ्रंतलाइन में प्रकाशित हुआ था  .एजी नूरानी एक जाने माने विद्वान् हैं और उनका राय इस विषय में  गौर करने के लायक है. नूरानी लिखते हैं कि..जिन्ना का कांग्रेस और गांधी से अलगाव सिर्फ कट्टरपंथी  इस्लामिक राजनीति चेतना के कारण ना होकर जमीनी राजनैतिक बहसों और कांग्रेस और गांधी जी द्बारा जिन्ना के साथ किये गए व्यवहार के कारण था.(.नूरानी  के लेख पर यहाँ बहस करने कि गुंजाइश नहीं उस पर फिर कभी )..दरअसल इतिहास के प्रति सतही नजरिये  के कारण जिन्ना  को पूरी तरह समझने कि कोशिश से परहेज कर लिया जाता है..इतिहास आँखे बंद कर के विश्लेषण करने कि चीज नहीं  है.शुतुरमुर्ग कि तरह असहज सवालों से बचने कि कोशिश उन सवालों को खत्म नहीं कर देती...जिन्ना के सवाल पर हमारा रुख ऐसा ही रहा है..जिन्ना की खलनायकी  से शायद ही किसी को इनकार है..लेकिन अगर एक खलनायक देश को दो टुकडों  में बाँट देने  जैसे असंभव काम को अंजाम देने में सफल हो गया को तो उसका खलनायकत्व जरूर इमानदार तरीके से विश्लेषित  किया जान चाहिए..इसी नजरिये के  अभाव के कारण बरखा दत्ता ने लिखा है कि.."भाजपा दरअसल ये समझने से इनकार करती है कि आधुनिक भारत का इतिहास कौंग्रेस का इतिहास है."..दरअसल इस तरह कि सोच के कारण ही जिन्ना को कौंग्रेस और गांधी से अपना रास्ता अलग करना पड़ा था. 
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जसवंत सिंह की किताब को राजनैतिक गलियारे में जिस तरह देश द्रोह के प्रमाण की तरह पेश किया गया वह आश्चर्यजनक है..ऐसा करना भारतीय  राजनीति की कमजोरी को दिखाता है. लोकतंत्र में आप विचारों से सहमत या असहमत हो सकते है..विचारों के कारण किसी को सूली पर नहीं टांग सकते..जसवंत प्रकरण में यही हुआ  है..ऐसी राजनीतिक व्यवस्था तालिबानी,फासीवादी व्यवस्था  के करीब पहुचती दिखती है...


जिन्ना गलत थे ,ये इतिहास भी कहता है..ख़ास तौर से 16 अगस्त 1946 को मनाये गए सीधी कारवाई दिवस और उसके बाद पनपी साम्प्रदायिक हिंसा, जिसकी परिणति भारत के विभाजन में हुई और और जिसने भारत ही नहीं पाकिस्तानी जनता की सामूहिक स्मृति( collective memory ) पर कभी ना मिटने वाले जख्म दिए ,को भूलना संभव नहीं है..लेकिन जिन्ना क्यों जिन्ना बने  इसकी पड़ताल करने को भी  गलत करार देना, लोकतांत्रिक असहिष्णुता का ही उदाहरण है...भले ही लेखक के तर्क बिलकुल  गलत ,गैर तथ्यपरक हों  लेकिन उसे बोलने और लिखने  के  अधिकार से  वंचित नहीं  किया जा सकता .जो उसे संविधान से मिला है....,(भले लेखक दक्षिण पंथी पार्टी का हो या अति (रेडिकल )  वाम पार्टी का ही क्यों ना हो)..ऐसा लोकतंत्र जहां लेखक होने के लिए  एक उदार वामपंथी या एक कोंग्रेसी  होना जरूरी हो लोकतंत्र नहीं माना जा सकता...