21 May 2013

साहित्य का युवा नजरिया- 4


हालांकि साहित्य को पीढ़ियों में बांटना महज एक सुविधाजनक विभाजन ही माना जा सकता है, फिर भी हमने साहित्य के युवा मन की पड.ताल करने के लिए, उसमें बसनेवाली साहित्य और समाज की तसवीर को समझने के लिए मौजूदा दौर के कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों का चयन किया और उनसे चंद सवाल पूछे. यहां पीढ़ियों का वर्गीकरण कठोर नहीं है और कम से कम दो पीढ़ियों  तथा अलग-अलग क्षेत्रों की आवाजों को शामिल किया गया है. रचनाकारों का चयन भी किसी भी तरह प्राप्रतिनिधिक नहीं है. इस परिचर्चा में जैसी उम्मीद थी, विचारों के अलग-अलग क्षितिज हमारे सामने उभर कर आये, जो साहित्य के विविधतापूर्ण लोकतंत्र में झांकने का मौका देते हैं.

पांच लेखक : मनीषा कुलश्रेष्ठ, अनुज लुगुन, पंकज मित्र, पंकज सुबीर और उमाशंकर चौधरी 

पांच सवाल

1. मैं क्यों लिखता हूं ? 2. आपकी नजर में साहित्य की जिंदगी में क्या भूमिका है ? 3. किन पुराने लेखकों को आज के समय के करीब पाते हैं ? 4. क्या कालजयी होने की इच्छा आपको भी छू गयी है ? 5. आज के दौर के किस युवा लेखक की रचनाएं आपको प्रभावित करती हैं और क्यों ?


3.  उमाशंकर चौधरी     


‘कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे’ कविता संग्रह और ‘अयोध्या बाबू सनक गये हैं’ कहानी संग्रह. साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से नवाजा गया है. 




हर लेखक पूरी जिंदगी इस सवाल से जूझता रहता है कि आखिर वह क्यों लिख रहा है! उसके लिख भर देने से कोई क्रांति हो जायेगी ऐसा कम से कम प्रथम दृष्ट्या लगता तो नहीं है. लेकिन मुझे लगता है इसका जवाब सिर्फ यह हो सकता है कि अगर लोग लिखना छोड. दंे, संगीत छूट जाये, कला के सारे माध्यम छूट जाएं, तो यह जिंदगी कितनी नीरस और कितनी बर्बर हो जायेगी! क्रांति शब्द बड.ा हो सकता है, लेकिन साहित्य हमारे मस्तिष्क को परिष्कृत तो करता ही है.

टेरी इगलटन की तरह यह बात मुझे भी बहुत शिद्दत से लगती है कि समाज में जितनी ही चकाचौंध बढे.गी, साहित्य की अहमियत उतनी ही बढ.ती जायेगी. पिछले बीस वर्षों में देखा जा सकता है कि हमारा समाज कितना बर्बर होता जा रहा है. मनुष्य और मनुष्य के बीच विश्‍वास की महीन रेखा भी खत्म होती जा रही है. हमारा समाज, हमारी राजनीति विकास के जिस पश्‍चिमी मॉडल को अपना आदर्श मानती है, वहां हमारी संस्कृति हमसे छूटती जा रही है. भाषा का विर्मश बहुत बड.ा है. हम अपनी भाषा को छोड.ते हैं, तो उनकी पूरी मानसिकता को स्वीकार करते हैं. मैं साहित्य ही नहीं, सड.क पर हो रहे नुक्कड. नाटक से लेकर जैसलमेर की ढूह पर बैठकर अलगोझा बजाने वाले की भी इस संस्कृति को बचाने में उतनी ही अहमियत मानता हूं.

हर लेखक अपनी परंपरा से जुड.ा होता है. हम अपनी परंपरा में थोड.ा सा बदलाव लाते हैं. कुछ अच्छा करने की कोशिश करते हैं. मैं रेणु को आज के समय और अपने सबसे अधिक करीब पाता हूं. वे बडे. कथाकार थे. एक ऐसे लेखक, जो अपने समय को और भविष्य की नब्ज को पकडे. हुए थे. मुझे कविता के क्षेत्र में अमीर खुसरो और रघुवीर सहाय को आज भी बहुत प्रासंगिक मानता हूं. मैं समझता हूं कि रेणु और रघुवीर सहाय ने लेखन को समाज और राजनीति के जरूरी सवालों से सीधा-सीधा जोड.ा. किस्सागोई के लिए निस्संदेह मैं विनोद कुमार शुक्ल और उदय प्रकाश को पसंद करता हूं. और भाषा के लिए काशीनाथ सिंह और विश्‍वनाथ त्रिपाठी का बहुत बड.ा प्रशंसक हूं.

कालजयी होना या फिर इसे दूसरे शब्दों में कहें पाठकों का निरंतर प्यार पाना, यही तो लेखक को ऊर्जा देता है. अगर एक लेखक अच्छा काम करने के लिए समाज से ऊर्जा चाहता है, तो इसमें बुरा क्या है. साहित्य सृजन का काम कोई दो-चार वर्षों का नहीं है. जब तक आपके लेखन में दम नहीं होगा तमाम गुट मिल कर किसी लेखक को दो-चार वर्षों तक तो चर्चा में बनाये रख सकते हैं, लेकिन उसे कालजयी नहीं बना सकते. सारे पुरस्कार धरे के धरे रह जाते हैं. आपका लेखन ही आपको बचाता है.

मैं चूंकि कविता और कहानी दोनों लिखता हूं, इसलिए यहां मैं दोनों के संदर्भ में बात कर रहा हूं. हमारी पीढ.ी को लिखते हुए कुछ वर्ष गुजर गये हैं. आज हम यह बात कर सकते हैं कि आखिर यह पीढ.ी कितनी कारगर रही. इस पीढ.ी में काफी लोगांे ने लिखना शुरू किया था अब उसमें काफी छंटनी हो गयी है. जो बच गये हैं, उनकी एक पहचान बन चुकी है. जब पहचान बनी है, तो जरूर उनके यहां कुछ अच्छा और अलग होगा. मुझे लगता है कि बात इसपर होनी चाहिए कि हमारी पूरी पीढ.ी मिल कर हमारे समय की विभित्र समस्याओं-विषमताओं पर उंगली रख पायी या नहीं. साहित्य अंतत: कला है इसलिए प्रस्तुति के स्तर पर पसंद-नापसंद अवश्य होंगी. मेरे जेहन में भी कुछ नाम हैं अवश्य, लेकिन मैं समझता हूं कि यह सवाल एक पीढ.ी के लोगों से पूछ कर सनसनी पैदा करने से बेहतर है कि हमसे पहले की पीढ.ी या कुछ दिनों बाद हमारे बाद की पीढ.ी से पूछा जाए.


20 May 2013

साहित्य का युवा नजरिया- 3


हालांकि साहित्य को पीढ़ियों में बांटना महज एक सुविधाजनक विभाजन ही माना जा सकता है, फिर भी हमने साहित्य के युवा मन की पड.ताल करने के लिए, उसमें बसनेवाली साहित्य और समाज की तसवीर को समझने के लिए मौजूदा दौर के कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों का चयन किया और उनसे चंद सवाल पूछे. यहां पीढ़ियों का वर्गीकरण कठोर नहीं है और कम से कम दो पीढ़ियों  तथा अलग-अलग क्षेत्रों की आवाजों को शामिल किया गया है. रचनाकारों का चयन भी किसी भी तरह प्राप्रतिनिधिक नहीं है. इस परिचर्चा में जैसी उम्मीद थी, विचारों के अलग-अलग क्षितिज हमारे सामने उभर कर आये, जो साहित्य के विविधतापूर्ण लोकतंत्र में झांकने का मौका देते हैं.

पांच लेखक : मनीषा कुलश्रेष्ठ, अनुज लुगुन, पंकज मित्र, पंकज सुबीर और उमाशंकर चौधरी 

पांच सवाल

1. मैं क्यों लिखता हूं ? 2. आपकी नजर में साहित्य की जिंदगी में क्या भूमिका है ? 3. किन पुराने लेखकों को आज के समय के करीब पाते हैं ? 4. क्या कालजयी होने की इच्छा आपको भी छू गयी है ? 5. आज के दौर के किस युवा लेखक की रचनाएं आपको प्रभावित करती हैं और क्यों ?




3.  पंकज सुबीर    

ये वो सहर तो नहीं’ उपन्यास और ‘महुआ घटवारिन’ कहानी संग्रह के लेखक . ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है.  युवा लेखकों की नयी पीढी में अपनी खास जगह बनायी है. 




मैं क्यों लिखता हूं? यह एक मुश्किल प्रश्न है. फिर भी ऐसा लगता है कि किसी विषय का लगातार दबाव लिखने पर बाध्य कर देता है. कोई विषय अपने आप को लिखा ले जाने के लिये इस प्रकार से मजबूर कर देता है कि अंतत: लिखना ही पड.ता है.

अपनी जिंदगी में यदि देखता हूं, तो पाता हूं कि साहित्य की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. यही दूसरों के लिये भी सोचता हूं. महत्वपूर्ण इसलिये कि साहित्य ने विचार के स्तर पर अपने आप को विकसित करने में बहुत मदद की. एक अलग दृष्टि दी, ताकि दुनिया को एक भित्र नजरिये से देख सकूं. दूसरा नजरिया, जो उस नजरिये से सर्वथा अलग हो, जो परंपरागत है. एक अलग तरह की नजर जो अच्छे और बुरे को अपनी तरह से परिभाषित करे, न कि पूर्व की गढ.ी हुई सामाजिक परिभाषाओं की रोशनी में. 

पुराने लेखकों की यदि बात करूं तो, दो नाम हर समय अपने बहुत करीब लगते हैं. फणीश्‍वर नाथ रेणु और इस्मत चुगताई. ये दोनों अपनी विशिष्ट शैली के चलते सर्वकालिक पसंदीदा नाम रहे हैं.

समय की अपनी गति होती है. उस गति के चलते सब कुछ पुराना होता है. लेकिन कुछ ऐसा होता है, जो उस गति को मात देकर जिंदा रहता है. ऐसे में कालजयी होने की तो नहीं, लेकिन बस ये इच्छा है कि जो कहानियां लिख रहा हूं, वो इस तेजी से बदलते समय में कंटेंट के स्तर पर अपने आप को बचा कर रख सकें. उनके साथ ‘पुराने टाइप की कहानी है’, जैसा जुमला लगाने में कुछ परेशानी आये.

कई युवा हैं, जिनकी रचनाएं खूब प्रभावित करती हैं. कहानी में विमल पांडे हैं, मनीषा कुलश्रेष्ठ हैं, गीताश्री हैं, भालचंद्र जोशी हैं, जो प्रभावित करते हैं. क्यों प्रभावित करते हैं? क्योंकि इनकी कहानियों में ताम-झाम कम होते हैं. विषय को लेकर एक प्रकार की सजगता दिखायी देती है. बहुत उलझाने वाली भाषा और शैली नहीं होती. और सबसे बड.ी बात ये कि ये नयी खिड.कियां खोलते हैं. नयी जमीन तोड.ते हैं.

17 May 2013

साहित्य का युवा नजरिया- 2

हालांकि साहित्य को पीढ़ियों में बांटना महज एक सुविधाजनक विभाजन ही माना जा सकता है, फिर भी हमने साहित्य के युवा मन की पड.ताल करने के लिए, उसमें बसनेवाली साहित्य और समाज की तसवीर को समझने के लिए मौजूदा दौर के कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों का चयन किया और उनसे चंद सवाल पूछे. यहां पीढ़ियों का वर्गीकरण कठोर नहीं है और कम से कम दो पीढ़ियों  तथा अलग-अलग क्षेत्रों की आवाजों को शामिल किया गया है. रचनाकारों का चयन भी किसी भी तरह प्राप्रतिनिधिक नहीं है. इस परिचर्चा में जैसी उम्मीद थी, विचारों के अलग-अलग क्षितिज हमारे सामने उभर कर आये, जो साहित्य के विविधतापूर्ण लोकतंत्र में झांकने का मौका देते हैं.

पांच लेखक : मनीषा कुलश्रेष्ठ, अनुज लुगुन, पंकज मित्र, पंकज सुबीर और उमाशंकर चौधरी 

पांच सवाल
1. मैं क्यों लिखता हूं ? 2. आपकी नजर में साहित्य की जिंदगी में क्या भूमिका है ? 3. किन पुराने लेखकों को आज के समय के करीब पाते हैं ? 4. क्या कालजयी होने की इच्छा आपको भी छू गयी है ? 5. आज के दौर के किस युवा लेखक की रचनाएं आपको प्रभावित करती हैं और क्यों ?




2.  अनुज लुगुन   

आदिवासियों के अस्मिता संघर्ष को कविता में आवाज देने वाले युवा कवि. कविता लेखन जारी. भारतभूषण पुरस्कार देकर प्रतिभा को सम्मानित किया गया है. 




इसलिए लिखता हूं कि हमारे अपने जीवन, दर्शन, मूल्य,आदर्श, इतिहास ,उसके पात्र और प्रतीक चिह्न्, जो कि मृत नहीं हैं, लेकिन जिन्हें मृत घोषित कर दिया गया, उन्हें जीवित कर न केवल उनसे संवाद कर सकूं, बल्कि वे भी हमारे समय से संवाद कर सकें और यह लड.ाई है. 

कई बार साहित्य की जिंदगी में अहमियत को भौतिक वस्तुओं की तरह खोजा जाता है. लेकिन इसकी अहमियत किसी वस्तु की तरह मूर्त रूप में दिखायी नहीं देती है. यह न केवल हमारी संवेदना को जीवित रखता है, बल्कि हमें जीवन के प्रति नया नजरिया भी देता है. यह हमारी सोच को परिष्कृत करता है. यह हमें बताता है कि चेहरे पर धूल की काई जमी हो, तो चेहरा ही साफ किया जाये न कि आईना. दूसरे, यह हम जैसे शोषित, वंचित, दलित तबकों के लिए सांस्कृतिक संघर्ष का औजार भी है.

कबीर ,नागार्जुन ,मुक्तिबोध,पाश और गोरख पाण्डेय आज के समय के करीब लगते हैं

कालजयी होने की इच्छा, ओह! यह तो बहुत ही डरावना सवाल है. मैं एक बात बताना चाहता हूं कि हमारे मुंडा आदिवासी समाज में स्वर्ग-नरक जैसी कोई अवधारणा नहीं है और न ही हम भवसागर पार करते हैं. मुझे भी लेखन की दुनिया में न तो भवसागर पार करना है और न ही साहित्यिक स्वर्ग की प्राप्ति करनी है. जैसे आदिवासी समाज अतिरिक्त महत्वकांक्षाओं से रहित है, वैसे ही मैं भी हूं.

जहां तक मेरी साहित्यिक समझ है, मुझे लगता है आज जितने भी युवा लेखन कर रहे हैं विभित्र क्षेत्रों में अच्छा लिख रहे हैं. किसी को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है. साहित्य में किसी एक की रचना से पूर्णता नहीं आती है. वैसे निर्मला पुतुल और कैलाश वनवासी की रचनाओं का यथार्थ ज्यादा प्रभावित करता है. निर्मला जी जब ‘चुड.का सोरेन’ को संबोधित कर लिखती हैं, तो मुझे लगता वह मुझे ही संबोधित कर रही हैं.

यहां एक बात मैं यह जोड.ना चाहूंगा कि आज जितने बडे. पैमाने पर जन आंदोलन हो रहे हैं, उसकी वैसी अभिव्यक्ति आज के युवाओं के यहां मुझे दिखायी नहीं दे रही है. ऐसा नहीं है कि बिल्कुल नहीं लिखा जा रहा है, लेकिन ‘कुछ’ के लिखने भर से समय की विस्तृत परिधि को नहीं पकड.ा जा सकता है, कबीर, नागार्जुन,गोरख पाण्डेय या पाश जैसे लिखनेवाले नहीं हैं.


12 May 2013

मां, किस्से और मार्क्वेस



अपनी जिंदगी में जिसे सबसे करीब से देख पाते हैं, वह ‘मां’ होती है. मां की छवि को पूरी तरह बयां करना संभव नहीं, लेकिन जब-तब रचनाकारों ने अपनी-अपनी तरह से इस छवि को उकेरा है. मदर्स डे पर मां के जाने के बाद भी मां के रहने को बयां करता कवि मंगलेश डबराल का यादगार संस्मरण.




कुछ दोस्तों ने सुझाव दिया था कि मैं एक टेपरिकॉर्डर लेकर रोज एक घंटे मां के सामने बैठ जाऊं, उससे कुछ-कुछ पूछता रहूं और वह जो कुछ बतायेगी उससे एक बड़ा उपन्यास बन जायेगा. गाब्रियेल गार्सिया माक्र्वेस के उपन्यासों से भी आगे का जादुई यथार्थवाद उसमें होगा. इस बात पर कभी गंभीरता से नहीं सोचा. आज लेकिन जब मां नहीं है और उसे गये हुए एक साल हो गया है, सोचता हूं कितने गजब के किस्से उसके भीतर थे. एक से एक रहस्यमय, रोमांचक, खौफनाक और अविश्‍वसनीय घटनाएं और अंधविश्‍वास, जिन पर वह खुद विश्‍वास नहीं करती थी, लेकिन उन्हें विश्‍वसनीय तरीके से बतलाती थी. एक दिन उसने एक पहाड.ी औरत की कहानी सुनायी जिसने सिर्फ लड.कियों को ही जन्म दिया था. पांच या सात बेटियां होने के बाद घर के पुरुषों ने बाद में पैदा हुई लड.की को दूध की बजाय मट्ठा पिला कर मार दिया और खेत में दफना दिया. वह औरत रोज सुबह-शाम चोरी-छिपे खेत में जाती, अपनी मरी हुई बी को गड्ढे से निकाल कर कुछ देर अपना दूध पिलाती फिर वहीं गाड. कर चली आती. करीब महीने भर वह यह करती रही और फिर उसने मान लिया कि मरी हुई बी के लिए मोह कैसा. लेकिन फिर उसके कोई संतान नहीं हुई- न लड.की न लड.का. हालांकि उसका पति बहुत चाहता था कि एक बेटा हो जाये. मरने के बाद मुखाग्नि देने के लिए बेटा तो चाहिए न!

अंत तक एक दुख मां को यह रहा कि वह बचपन में और बाद में भी पढ. नहीं पायी क्योंकि डंगवाल लोगों में (मां डंगवाल परिवार से थी) यह माना जाता था कि पढ.ी-लिखी लड.की अपने पति को खा जाती है. इसलिए उसे पढ.ाया नहीं गया और जब वह खुद बहू और फिर हम बाों की मां बनी तो हमारे घर में मेरी दो दादियों का साम्राज्य था, जो घर का सारा काम करती थीं और मां के हिस्से खेत में काम करना, पानी लाना, लकड.ी लाना जैसी जिम्मेदारियां रह गयी थीं. खेत, जंगल और गांव के नीचे पानी के दो धारे (स्रोत) वे जगहें थीं जिनसे मां सबसे अधिक परिचित थी. कई बार उसने आग्रह करके खेत में काम करते हुए अपनी तसवीरें खिंचवायी थीं. फोटो खिंचवाना उसे पसंद भी बहुत था. शायद इसलिए कि मेरे पिताजी बहुत पहले कोडक का एक बॉक्स कैमरा खरीद कर लाये थे, जो हमारे गांव में पहली बार आया था और सबको चमत्कारी चीज लगता था. बाद में मैंने उस कैमरो को पिता जी से ले लिया और कहीं खो दिया. उस कैमरे की छाप मां के भीतर रही होगी इसीलिए फोटो खिंचाते हुए वह सहज लेकिन शानदार ‘पोश्‍चर’ बनाती थी. दिल्ली में वह जब भी मेरे पास रहने आयी, रोज अखबार उठाकर जरूर देखती थी और कहती थी कि यह जो ‘जनसत्ता’ लिखा हुआ है, वह तो मैं पढ. लेती हूं, लेकिन जैसे ही कोई‘लग’ (मात्रा या रेफ) आता है, तो मुझे समझ में नहीं आता. अकसर वह मेरी बेटी अल्मा से अपना नाम लिखवाकर उसे लिखने की कोशिश करती. मेरे दादा जी ने करीब सौ बरस पहले लगभग पंद्रह सौ गढ.वाली कहावतों का संग्रह तैयार किया था. लखनऊ में नवलकिशोर प्रेस से छपे उस संग्रह की ज्यादातर कहावतें मां को कंठस्थ थीं और वह बात करते हुए अचानक कोई कहावत बोल देती. लिखना-पढ.ना या हिंदी (मतलब देस्वाली) न जानने के बावजूद उसके संप्रेषण और संवाद की क्षमता पर मुझे आश्‍चर्य होता था. हमारे घर जो भी आता उससे घंटों बात करता और प्रसत्र होकर लौटता. एक बार क्रिस्टी मैरिल अमेरिका से आयीं और दिन भर मां की बातें सुनती रहीं, हालांकि मां सिर्फ गढ.वाल में बोल रही थी. शाम को घर लौट कर जब क्रिस्टी ने यह बताया, तो मैंने पूछा कि वे मां की बात समझ भी रही थीं या नहीं. तो वे बोलीं: एक-एक बात मेरी समझ में आ रही थी. इसी तरह मेरी एक मित्र घर आयीं और मां के पास बैठ गयीं और जब जाने लगीं तो मां देर तक उनका हाथ बुढ.ापे में भी बेहद कोमल अपनी हथेलियों से सहलाती रही और फिर उसने कहा कि तुम बहुत अच्छी हो, यहीं मेरे पास रह जाओ. जब भी कोई मेहमान हमारे यहां आता और मां के पास बैठता, तो वह हमेशा हाथ से कौर बनाते हुए उसे यह संकेत देती कि खाना खाकर जाओ. 

अंधविश्‍वास, अशिक्षा और पहाड. की सवर्ण व्यवस्था में पलने के बावजूद मां कितनी आधुनिक थी, इसका प्रमाण एक बार तब मिला जब मेरा एक भतीजा शिवप्रसाद जोशी ( कवि, पत्रकार और माक्र्वेस का भक्त) अपनी सहपाठी, झारखंड निवासी शालिनी से अंतरजातीय विवाह करना चाहता था. शिव प्रसाद घोर पंडित परिवार की संतान है, लेकिन मां उस समय पहली व्यक्ति थी जिसने इस विवाह का पक्ष लिया और कहा कि इन दोनों को जोड.ी बढ.िया रहेगी. ये दोनों शायद आज भी अपनी ‘दादी’ के आभारी होंगे. हिंदू-मुसलमान, सवर्ण-अवर्ण, ब्राह्मण-अब्राह्मण की बात उसकी दृष्टि से हमेशा ही बाहर रही. यहां तक कि जंगली जीव-जंतुओं के बारे में उसकी राय हम सबको चकित करने वाली थी. जंगल से घास लाते समय उसे शायद दो-तीन बार बाघ भी दिखा था और वह कहती थी कि बाघ तो बिल्ली जैसा छोटा हो सकता है और अगर उसकी पूंछ नहीं होती तो वह साकिना (छोटी पत्तियोंवाला एक पेड.) की पत्ती के पीछे भी छिप सकता है. भालू को वह सचमुच गंदा जानवर मानती थी और कहती थी कि अगर वह पीछे पड. जाये तो जंगल में कभी ऊपर नहीं नीचे की, ढलान की ओर भागना चाहिए. इससे भालू के बाल उसकी आंखों पर आ जाते हैं और वह देख नहीं पाता. 

मेरे बारे में मां का ख्याल था कि मेरी बायीं आंख की निचली पलक पर जो तिल है उसे जरा से ऑपरेशन से निकलवा देना चाहिए, क्योंकि आंख में ऐसे तिलवाले लोग जिंदगी भर रोते रहते हैं. आयुर्वेदिक और कुछ- कुछ ऐलोपैथी के डॉक्टर की पत्नी होने के नाते उसे ऑपरेशन, इंजेक्शन, हाजमाचूर्ण, ज्वरांकुश, दंशर, सितोप्लादि चूर्ण वगैरह जो कईदवाएं हमारे घर में बनती थीं, उनके नाम याद थे. मैंने तिल का ऑपरेशन नहीं करवाया लेकिन जब मुझसे बड.ी बहन राजलक्ष्मी ने अपने चेहरे पर जन्मजात एक लंबे से काले तिल (लाखण) को निकलवा दिया, तो मां बहुत दुखी हुई क्योंकि एक ज्योतिषी ने कहा था कि इस घर में पैदा होने वाला बेटा तभी बचेगा, जब उससे पहले लाखणवाली एक लक्ष्मी जन्म लेगी. मां कहती थी-ओफ्फो भाई, लाखण क्यों हटाई होगी इसने!

नियति का विधान देखिए कि जो स्त्री जीवन भर खेतों-जंगलों-पानी के स्रोतों में भागती फिरती रही, मृत्यु ने आकर सबसे पहले उसे चलने-फिरने में असर्मथ बना दिया. बहुत समय तक वह चुपचाप, बिना कराहे पीड़ा  झेलती रही. अपनी पांच -बेटियों और दो बेटों (जिनमें से एक की मृत्यु जन्म के साल भर बाद हो गयी थी) को जन्म देने की पीड़ा का अनुभव उसकी आंतरिक शक्ति बन गया होगा. शायद असह्य पीड़ा  में ही उसने मुझे, संयुक्ता, अल्मा, मोहित या प्रमोद को पुकारने की कोशिश की होगी. जब वह धर्मशिला कैंसर अस्पताल से घर लौटती तो आने-जानेवालों से कहती कि यमराज की कचहरी में अभी मेरी सुनवाई नहीं हो रही है. उसे अपनी पांचों बेटियों से बेहद लगाव था और मेरे पिता और अपने पति के खेतों से, घर के कमरों से भी, जिनमें दवाओं की खाली शीशियां, टिन के डिब्बे बहुतायत में हैं और समझ नहीं आता कि उसका क्या करें. अंत समय में मेरी पांचों बहनें- भुवनेश्‍वरी, जगदेश्‍वरी, राजलक्ष्मी, मालती, बसु- सब आ गयी थीं. कुछ काफी पहले और कुछ बाद में. वे उसकी सेवा करती कई रातों जागती रहीं और उन्ही की उपस्थिति में उसने इस संसार की अंतिम सांस ली और उसे इसी संसार में छोड. दिया.

इस तरह एक साल बीत गया. और अब अपने गांव डांग काफलपानी में उसका वार्षिक र्शाद्ध संपत्र करने के बाद मैं यहां हूं. घर में बहनें हैं, संयुक्ता, मोहित, कौंसवाल जी और दूसरे संबंधी हैं. तसवीरें हैं, खाली शीशियां और डिब्बे हैं, कई कनस्तरों में जगह-जगह मां के रखे हुए छीमी, तोर, लोबिया के बीज हैं और एक कमरे में देवी-देवताओं की अलमारी के सामने जलता हुआ एक दिया है. माक्र्वेस का उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ मैं ऐसे ही अपने साथ ले आया था. लेकिन उसे पढ.ना व्यर्थ. 

कवि का अकेलापन से साभार 

7 May 2013

साहित्य का युवा नजरिया

हालांकि साहित्य को पीढ़ियों में बांटना महज एक सुविधाजनक विभाजन ही माना जा सकता है, फिर भी हमने साहित्य के युवा मन की पड.ताल करने के लिए, उसमें बसनेवाली साहित्य और समाज की तसवीर को समझने के लिए मौजूदा दौर के कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों का चयन किया और उनसे चंद सवाल पूछे. यहां पीढ़ियों का वर्गीकरण कठोर नहीं है और कम से कम दो पीढ़ियों  तथा अलग-अलग क्षेत्रों की आवाजों को शामिल किया गया है. रचनाकारों का चयन भी किसी भी तरह प्राप्रतिनिधिक नहीं है. इस परिचर्चा में जैसी उम्मीद थी, विचारों के अलग-अलग क्षितिज हमारे सामने उभर कर आये, जो साहित्य के विविधतापूर्ण लोकतंत्र में झांकने का मौका देते हैं.


पांच लेखक : मनीषा कुलश्रेष्ठ, अनुज लुगुन, पंकज मित्र, पंकज सुबीर और उमाशंकर चौधरी 

पांच सवाल
1. मैं क्यों लिखता हूं ? 2. आपकी नजर में साहित्य की जिंदगी में क्या भूमिका है ? 3. किन पुराने लेखकों को आज के समय के करीब पाते हैं ? 4. क्या कालजयी होने की इच्छा आपको भी छू गयी है ? 5. आज के दौर के किस युवा लेखक की रचनाएं आपको प्रभावित करती हैं और क्यों ?


1.  मनीषा कुलश्रेष्ठ  



‘शिगाफ’ और ‘शालभंजिका’ उपन्यास सहित ‘कठपुतलियां’, ‘गंधर्व गाथा’ आदि कहानी संग्रह. लमही पुरस्कार से नवाजी गयी हैं.‘



मैंने जब होश संभाला था, मैंने पाया मुझे हिंदी विषय सबसे प्रिय लगता है और सबसे अच्छे नंबर निबंध में मुझे मिलते हैं, जब टीचर गाय, मां, नदी पर न लिखवा कर किसी घटना पर लिखवाती हैं, मसलन ‘ननिहाल में एक दिन’ या ‘ दशहरा मेला’. खूब कल्पना के घोडे. दौड.ाती! कहानियां, धारावाहिक उपन्यास पढ.ना बहुत ही जल्दी शुरू कर दिया था. लिखने का इरादा कभी न था. हिंदी लेखक का एक किताबी कैरिकेचर मन में रहता था, झोला छाप, ऐनकदार, थिगली लगा कुर्ता और हाथ में कविताओं / लेखों की मोटी पांडुलिपि! बहुत समय तक मैं लेखक तो कभी नहीं बनना चाहती थी. मैं विज्ञान पढ.ती और कथक सीखती थी. बाद में हिंदी में आयी. जीवन के कुछ रास्ते जब कहीं न जाने के लिए रुक गये, तो मैंने खुद को लिखते पाया. लिखा और भेजा छपने, तो शुरुआती एकाध अस्वीकृतियों के बाद मेरा लिखा व्यापक तौर पर छपने लगा. मैं थोड.ी कहानियां लिख कर वापस अपनी दुनिया में लौट जाना चाहती थी कि कहीं से चुनौती सी मिली, असल कसौटी तो उपन्यास है! फिर वह भी लिखा. इसलिए मेरा लेखन जब तक मुझे अपने स्तर असुंष्ट करता रहेगा, चुनौती देता रहेगा मैं लिखूंगी! एक असंतोष अपने लिखे से...यही लिखवाता है. 

सच कहूं तो, आम व्यक्ति के जीवन में तो कुछ नहीं. आजकल जब रेडीमेड विचार दृश्य माध्यमों से आपके भीतर इंजेक्ट कर दिए जाते हों, बिना सोचने-समझने की मोहलत दिये, तो साहित्य का महत्व कुछ बचता नहीं. रही बात बुद्धिजीवी वर्ग की, तो वहां विचारधाराएं इतनी कट्टरता लिये हैं कि साहित्य का आनंद और उद्वेलन मूर्छित पड.ा है.

बहुत पुरानों से क्रमश: बढूं, तो यकीनन प्रगतिशीलता से प्रेमचंद ने मिलवाया, उसे विस्तार दिया रेणु और यशपाल ने. यूं मुझे मानव संबंधों और मनोविश्लेषणात्मक तौर पर जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी भी सदा समसामयिक लगे. कुतरुल एन हैदर, कृष्णा सोबती, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, शैलेश मटियानी, मनोहर श्याम जोशी, मृदुला गर्ग का लिखा मुझे हमेशा हर समय के सामने खड.ा दिखता है, और वह कालजयी रहेगा. 

कालजयी बहुत बड़ा शब्द है! मैं अपने समय को ही बेलाग हो, ईमानदारी से छू सकूं वही बहुत है. 

आज का समय दो प्रकार के युवा लेखन की हदों के बीच आच्छादित है. एक ओर भाषाई कमाल, शिल्प और काल की अपरिमितता है, असमंजस है और जीवन नदारद है, दूसरी ओर जमीन, जीवन संघर्ष और भाषाई खुरदरापन है. संक्रमण का समय है और पूरी लाउडनेस के साथ है. इन दो हदों के बीच जो रच रहे हैं, वही प्रभावित करता है. कहने को तो, जो मौलिक और धड.कता हुआ है वह सब प्रिय है. मुझसे पूर्ववर्ती पीढी में मनोज रूपड़ा  गीतांजलि श्री, मधु कांकरिया मुझे प्रिय रहे. हाल ही में पहले नीलेश रघुवंशी के ‘एक कस्बे के नोट्स’ ने फिर हरेप्रकाश के उपन्यास ‘बखेड.ापुर’ ने हम सबको सुखद तौर पर चौंकाया है. शशिभूषण द्विवेदी और विमलचंद्र पांडे की लंबी कहानियां, प्रत्यक्षा की शहरी स्त्री मन की गझिन कहानियां, आकांक्षा पारे की कस्बाई युवतियों की कहानियां मुझे पठनसुख देती हैं. पठनीयता मेरे अंदर के विकट पाठक की पहली मांग रहती है. मैं पहले लेखक का नाम देखे बिना कहानियां पढ.ती हूं, पसंद आती हैं तब नाम पढ.ती हूं. किसी की कोई कहानी छूती है, तो मैं फोन जरूर करती हूं, चाहे वह रकीब हो कि हबीब! मेरे लिए रचना की श्रेष्ठता बहुत मायने रखती है, वहां रंजिशें भी रोक नहीं पातीं! यह दुर्लभ संस्कार मुझे मेरे रचना के प्रति गहरे सरोकारों से भरे इसी साहित्य संसार के वरिष्ठों ने दिया है.

मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित 

साहित्यिक किस्सों की सिनेमाई रील

साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर यह जानकारीपरक लेख प्रीति सिंह परिहार ने तैयार किया है...
आप भी पढ़ें. अखरावट 



साहित्य और सिनेमा दो अलग-अलग विधाएं हैं. विधा में अंतर के बावजूद दोनों के बीच एक धागा जुड.ा रहा है. बीच की नजदीकी जरूर समय के साथ बढ.ती-घटती रही, लेकिन कल भी साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बन रही थीं और आज भी बन रही हैं. कुछेक साहित्यक कृतियां ऐसी भी हैं, जिन्हें हर दौर के फिल्मकारों ने अपनी-अपनी तरह से परदे पर उतारा. बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की ‘देवदास’ इसकी एक मिसाल है. इस उपन्यास पर अब तक हिंदी, बांग्ला, उर्दू, तमिल, तेलुगु और असमिया भाषा में तकरीबन 14 फिल्में बन चुकी हैं. बॉलीवुड के चार निर्देशक अपने-अपने ढंग से ‘देवदास’ को परदे पर उतार चुके हैं. ‘देवदास’ सहित शरतचंद्र की तकरीबन 15 रचनाओं पर हिंदी और बांग्ला में फिल्में बनायी जा चुकी हैं. हिंदी में ‘बिराज बहू’,‘परिणीता’,‘मझली दीदी’,‘स्वामी’,‘छोटी बहू’,‘अपने पराये’ और ‘खुशबू’ ऐसी ही फिल्में हैं. ‘परिणीता’ को तीन बार रुपहले परदे पर जीवंत किया गया है. बांग्ला लेखक विमल मित्र की रचना ‘साहब बीबी और गुलाम’ पर इसी नाम से बनी अबरार अल्वी निर्देशित फिल्म हिंदी की एक अविस्मरणीय फिल्म मानी जाती है. परदे पर साकर हुई साहित्यिक रचनाओं में एक यादगार नाम आर के नारायाण के उपन्यास पर बनी ‘गाइड’ का भी है, जिसके गीत सुन कर आज भी हमारे दिल लरज उठते हैं और रोजी का वह खूबसूरत मासूम चेहरा हमारी आंखों में उतर आता है.

हिंदी साहित्य से फिल्मों में जगह पाने वाली सबसे अधिक रचनाएं हिंदी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की रही हैं. 1934 में नानूभाई वकील ने ‘सेवासदन’ पर फिल्म बनायी. ‘रंगभूमि’,‘गबन’ और ‘गोदान’ जैसे सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों सहित उनकी कहानी ‘तिरया चरित्र’ और ‘हीरा मोती’ पर भी फिल्में बनीं. मृणाल सेन तेलुगु भाषा में ‘कफन’ को परदे पर लेकर आये, लेकिन मूल कहानी में कईफेरबदल के साथ. फिल्म समीक्षकों की मानें, तो ज्यादातर फिल्मकार प्रेमचंद की रचनाओं को उनके वास्तविक प्रभाव के साथ परदे पर उतारने में पूरी तरह सफल नहीं हो सके. सत्यजीत रे ने प्रेमचंद की कहानियों ‘शतरंज के खिलाड.ी’ तथा ‘सद्गति’ पर इसी नाम से फिल्में बनायीं, ‘शतरंज के खिलाड.ी’ में उन्होंने बदलाव की पूरी स्वतंत्रता ली, लेकिन इसे परदे पर प्रेमचंद की रचनाओं को उतारने का सबसे सफल प्रयास माना जाता है.

शुरुआती दौर में सिनेमा साहित्य से काफी नजदीक से जुड.ा रहा. ऐसा नहीं था कि साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में सफल ही हों. फिर भी उन पर फिल्में बन रही थीं, व्यावसायिक सफलता की परवाह के बिना, एक भरोसा लेकर कि शायद लोगों को फिल्म पसंद आ जाये. चेतन आनंद ने मैक्सिम गोर्की की रचना ‘लोवर डेप्थ’ से प्रभावित होकर ‘नीचा नगर’, तो सोहराब मोदी ने शेक्सपियर के ‘हैमलैट’ को आधार बनाकर ‘खून का खून’ बनायी. कुछ फिल्मकारों ने व्यावसायिक पक्ष को परे कर मूल कृति की आत्मा को बनाये रखते हुए सिर्फ कलात्मक पहलू को ध्यान में रखकर फिल्में बनायीं. ऐसी फिल्में चर्चा में रहीं, आलोचकों द्वारा सराही गयीं और सिनेमा से जुडे. किसी न किसी सम्मान से भी नवाजी गयीं, लेकिन दर्शक उनसे अनजान ही रहे. वहीं कुछ फिल्मकारों ने साहित्यिक रचनाओं को व्यावसायिक मानदंड की दृष्टि से परदे पर उतारा और देर-सबेर इसमें सफल भी हुए. 1964 में भगवती चरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर इसी नाम से किदार शर्मा ने मीना कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप जैसे कलाकारों को लेकर फिल्म बनायी. फिल्म समीक्षकों की नजर में यह साधारण फिल्म थी, लेकिन इस फिल्म को ही नहीं, इसके संगीत को खूब पसंद किया गया. हिंदी की सबसे लोकप्रिय प्रेमकहानियों में से एक चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ का भी फिल्मांकन हुआ. सुनील दत्त और नंदा अभिनीत यह फिल्म मूल कहानी की तरह कोई लकीर नहीं खींच सकी.

एक दौर ऐसा बीता है, जब फिल्म जगत के लोग खूब साहित्य पढ.ा करते थे. कई बार कोई कृति उनके जेहन में कुछ इस तरह जगह बना लेती थी कि वे उसे परदे पर उतारने के लिए अपना सबकुछ दावं पर लगा देते थे. ऐसा ही कुछ हुआ मशहूर गीतकार शैलेंद्र के साथ. फणीश्‍वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गये गुलफाम’ पर शैलेंद्र ने फिल्म बनाने का सपना देखा. ‘तीसरी कसम’ नाम से बनी इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने बासु भट्टाचार्य को सौंपी थी. मुख्य भूमिका में शैलेंद्र के अभित्र मित्र राजकपूर के साथ वहीदा रहमान थीं. इस फिल्म को उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. लेकिन इसे विडंबना ही कहेंगे कि फिल्म को मिली तत्कालिक असफलता शैलेंद्र के अंत का कारण बन गयी. हालांकि उनकी मौत के बाद यह फिल्म और इसका संगीत इतना कामयाब रहा कि आज इसे हिंदी की क्लासिक फिल्मों में शुमार किया जाता है.

गीतकार शैलेंद्र के साथ जो कुछ हुआ, उससे वाकिफ होने के बाद भी साहित्यिक कृतियों की तरफ फिल्मकारों का झुकाव कम नहीं हुआ. वर्ष1969 में बासु चैटर्जी ने कथाकर राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर इसी नाम से एक फिल्म बनायी. इसे बेस्ट सिनेमेटोग्राफी का नेशनल अवार्ड और फिल्म फेयर का बेस्ट स्क्रीनप्ले अवार्ड मिला. लेकिन दर्शकों के बीच फिल्म इतनी लोकप्रिय नहीं रही. इसके बाद बासु चैटर्जी ने 1974 में हिंदी की प्रसिद्ध कथा लेखिका मत्रू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ बनायी. यह अमोल पालेकर तथा विद्या सिन्हा जैसे तब के नवोदित कलाकारों को लेकर बनायी गयी कम बजट की फिल्म थी. बावजूद इसके दर्शकों में यह खूब पसंद की गयी. इसके संगीत का जादू आज भी कायम है. 1975 में इसे फिल्म फेयर का बेस्ट क्रिटिक और बेस्ट फिल्म अवार्ड मिला. मत्रू भंडारी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘आपका बंटी’ पर भी फिल्म बनीं, जो कानूनी अड.चनों के चलते ‘समय की धारा’ नाम से प्रदर्शित हुई. बासु चटर्जी ने शतरचंद्र चट्टोपाध्याय की कृतियों पर ‘स्वामी’ और ‘अपने पराये’ जैसी फिल्में बनायीं. पारिवारिक तानों-बानों से सजी ये फिल्में साधारण होकर भी दर्शकों के मन में जगह बनाने में कामयाब रहीं.

साहित्यिक कृतियों पर बन रहे लोकप्रिय सिनेमा के अलावा भी साहित्यिक रचनाओं पर फिल्में बन रही थीं. यहां दर्शक कम थे, लेकिन यथार्थ को एक सार्थकता के साथ परदे पर लाने का जुनून था. फिल्मकार मणिकौल ने मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ और नाटक ‘आषाढ. का एक दिन’ पर इसी नाम से फिल्में बनायीं. इन फिल्मों के जरिए मुख्यधारा के बरक्स समानांतर सिनेमा की एक पगडंडी बनने लगी थी. कुमार शाइनी ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया दर्पण’ पर फिल्म बनायी, वहीं मणिकौल विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’, मुक्तिबोध की कहानी ‘सतह से उठता आदमी’ और विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ जैसी रचनाओं में मौजूद यथार्थ को सिनेमाई परदे पर लेकर आये. उन्होंने दोस्तोवस्की के उपन्यास पर ‘इडियट’ और मलिक मोहम्मद जायसी की कविता पर ‘द क्लाउड डोर’ जैसी फिल्में भी बनायीं. विजयदान देथा की कहानी पर बनी ‘दुविधा’ के लिए मणिकौल को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया. राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा की कहानियों पर बाद के फिल्मकारों-प्रकाश झा ने ‘परिणति’ और अमोल पालेकर ने ‘पहेली’ बनायी. इस कड.ी में शैवाल की कहानी पर बनी प्रकाश झा निर्देशित ‘दामुल’ का नाम भी उल्लेखनीय है. इसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. श्याम बेनेगल ने धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड.ा’ पर इसी नाम से फिल्म बनायी.

एक दौर ऐसा भी गुजरा जब लगा फिल्म जगत साहित्य से पूरी तरह विलग होता जा रहा है लेकिन बीच-बीच में दोनों के बीच जुड.ाव के कुछ चित्र उभरते रहे. ऐसा ही एक चित्र है ‘उमराव जान’. एक्शन फिल्मों के दौर में आयी मिर्जा हदी रुस्वा के उपन्यास ‘उमराव जान अदा’ पर मुजफ्फर अली निर्देशित इस फिल्म की लोकप्रियता को नहीं भुलाया जा सकता. हाल में चेतन भगत के उपन्यासों ‘फाइव प्वाइंट समवन’ और ‘द थ्री मिस्टेक्स ऑफ माइ लाइफ’ पर ‘3 इडीयट’ और ‘काई पो चे ’ जैसी फिल्में भी सिनेमा को साहित्य से जोड.ती दिखती हैं. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने हिंदी के प्रसिद्ध कथा लेखक काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर ‘मोहल्ला अस्सी’ नाम से फिल्म बनायी. कथाकार उदय प्रकाश की लंबी कहानी ‘मोहनदास’ पर भी फिल्म बन चुकी है. चेतन भगत का उपन्यास ‘टू स्टेट्स’ भी जल्द ही फिल्माकार होकर परदे पर आने वाला है. 



5 May 2013

सिनेमा पर सुधीर कक्कड़: भारतीय सिनेमा दिवास्वप्नों पर पलता है..

प्रसिद्द मनो-समाजशास्त्री सुधीर कक्कड़ की नजर से सिनेमा की व्याख्या. आप भी पढ़ें. 





1940 के दशक में जब मैं बड.ा हो रहा था, कम से कम पंजाब में तो सिनेमा देखने को भले पूरी तरह अनैतिक न माना जाता हो, आवारगी का एक लक्षण जरूर माना जाता था. ऐसा मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में तो जरूर था. सिनेमा देखने की आदत को खासतौर पर बच्चों की मानसिकता के निर्माण के लिहाज से खतरनाक समझा जाता था. वैसे हर फिल्म के लिए यही बात लागू नहीं होती थी. भारत में बाकी सारी चीजों की तरह इस मामले में भी एक श्रेणीकरण था. भारतीय फिल्मों की जाति व्यवस्था में कुंग-फू की स्टंट फिल्मों की भारतीय नकलों को सबसे निचले पायदान पर रखा गया था वहीं ‘ब्राह्मण मिथकीय’ और ‘क्षत्रिय ऐतिहासिक’ फिल्में शीर्ष स्थान पर अपना दावा करतीथीं. बचपन में स्टंट फिल्में मुझे सबसे ज्यादा पसंद थीं. मेरी दोस्ती एक दरबान से हो गयी थी. इस तरह मैं इस मामले में खुशनसीब था कि लाहौर में हम कहीं भी जाते, मैं अपनी फिल्मों के प्रति दीवानगी को आगे बढ.ा सकता था. मैंने ‘दीवानगी’ शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल इसके शाब्दिक अथरें में किया है. न कि किसी रूपक के तौर पर. फिल्मों के प्रति मेरी भूख कभी न भरनेवाली थी और मेरी खुराक भी कुछ ऐसी ही थी. मैंने ‘रतन’ 16 बार देखी. शिकारी 14 बार और यहां तक कि कादंबरी भी तीन बार. 



सिनेमा देखने जाने से जुड़ी यादें मुझे नोस्टालजिक बनाती हैं और बचपन से जुड.ी दूसरी अच्छी यादों पर भी छा जाती हैं. इस पर एक दिव्य आभामंडल छाया हुआ है. अंधेरे के अकेलेपन में, जिसे एक झिलमिलाती रोशनी चीरती रहती थी और परदे पर एक जादुई लेकिन जानी पहचानी दुनिया रचती थी- मैं एक छोटा सा बा नहीं रह जाताथा, बल्कि ईष्या के साथ देखी जानेवाली वयस्कों की दुनिया का हिस्सा बन जाताथा. हालांकि मैं इस दुनिया की प्रथाओं और रहस्यों को समझता था, लेकिन बेहद धुंधले रूप में. मैं किसी उत्तेजक संवाद के बाद फूट पड.नेवाले ठहाके में शामिल हो जाया करता था, भले ही इसका वास्तविक अर्थ मेरे पल्ले न पड.ा हो. 

भारत में फिल्में जिस दर्शक वर्ग की ओर लक्षित हैं, वह इतना विविधता भरा है, कि इनकी अपील सामाजिक और भौगोलिक विभाजनों के पार चली जाती है. हर दिन कम से कम डेढ. करोड. दर्शकों द्वारा देखे जानेवाले पॉपुलर सिनेमा के मूल्य और इसकी भाषा काफी समय पहले शहरी चौहद्दियों को पार कर ग्रामीण जनसंख्या की लोक-संस्कृति में शामिल हो गयी है, जहां यह अच्छे जीवन और सामाजिक, पारिवारिक और प्रेम संबंधों से जुडे. विचारों को प्रभावित करने लगा है. किसी क्षेत्र का लोक नृत्य या संगीत का कोई खास रूप जैसे भक्ति भजन जब मुंबई या मद्रास की स्टूडियो की चौखट को पार करता है और दूसरे क्षेत्रों और संभवत: पश्‍चिम के संगीत और नृत्य की शैलियों की भी मिलावट द्वारा रूपांतरित कर पुन: प्रसारित किया जाता है, तो यह लौट कर अपने मूल रूप को भी प्रभावित करता है. इसी तरह फिल्मी दृश्यों, संवादों और साज-सज्जा ने लोक थियेटरों का भी उपनिवेशीकरण शुरू कर दिया है. यहां तक कि धार्मिक पूजा के परंपरागत प्रतीक और मूर्तियां भी फिल्मों में देवताओं और देवियों के प्रस्तुतीकरण से प्रभावित हो रहे हैं. 

लोकप्रिय फिल्मों को मैं एक सामूहिक फेंटैसी, दिवास्वप्नों के समूह के तौर पर देखता हूं. ‘सामूूहिक’ और ‘समूह’ जैसे शब्दों के प्रयोग से मेरा मतलब यह नहीं है कि हिंदी फिल्में मिथकीय सामूहिक अवचेतन या जिसे कभी-कभी सामूहिक चेतना कहा जाता है, उसकी अभिव्यक्ति हैं. इसकी जगह मैं सिनेमा को भारतीय उपमहाद्वीप में रहनेवाली विशाल जनसंख्या के साझा स्वप्नों (फेंटैसी)का वाहक मानता हूं. यह विशाल जनसंख्या सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से एक दूसरे से जुड.ी है. फेंटैसी शब्द का यहां मेरा अभिप्राय कल्पना जगत से है, जो इच्छाओं से चालित होता है और हमें एक ऐसा वैकल्पिक जगत मुहैया कराता है, जहां हम यथार्थ से अपने पुराने संघर्ष को जारी रख सकते हैं. 

हमारी फिल्मों में फिल्म दर फिल्म स्वप्नों की ऐसी भारी मात्रा में नियमितता आश्‍चर्य में डालती है. एक तरह से जिंदगी की वास्तविक समस्याओं के ऐसे जादुई हल, भारतीय जनमानस में गहरी जमी ऐसे समाधानों की इच्छा की ओर इशारा करते हैं. कुछ लोग भारतीय सिनेमा में इस तरह बाहरी यथार्थ की अनदेखी को अस्वस्थता की निशानी भी मान सकते हैं. खासकर इसलिए भी क्योंकि कोई यह तर्क नहीं दे सकता कि फिल्मों में फेंटैसी भीषण गरीबी से जूझ रहे लोगों को इससे बाहर निकलने का रास्ता देती है. 

इस संदर्भ में पहली बात यह है कि भारत में फिल्म देखनेवालों की असल आबादी गरीबों की नहीं है. दूसरी बात, दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है, जहां गंभीरतम आर्थिक विपत्रता और राजनीतिक अस्थिरता के दौर में भी इस तरह से लगातार स्वप्न जगत का प्रदर्शन होता रहा है. न ही 1920 के दशक में र्जमनी में आर्थिक संकट के दौरान, न ही द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद जापान में फेंटैसी को इस ऊंचाई तक पहुंचाया गया. हमें यह मानना होगा कि सिर्फ आर्थिक स्थिति भारतीय फिल्मों में दिखनेवाले स्वप्न लोक की व्याख्या नहीं कर सकती. 

मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा में हर जगह दिखायी देनेवाली फेंटैसी का कारण सांस्कृतिक मनोविज्ञान में छिपा है, न कि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में. दूसरी संस्कृतियों की तरह हमारे यहां भी फिल्मों के एडिक्ट हैं. ये वैसे बदकिस्मत लोग हैं, जिन्हें उनके बचपन में ही दुनिया को वयस्क तरीके से देखने पर मजबूर होना पड़ा. जिन्हें अपनी शुरुआती जिंदगी में हर तरह के जादुई चीजों से वंचित कर दिये जाने के कारण पैदा हुए खालीपन को भरने के लिए फिल्मी दुनिया की फेंटैसी की जरूरत पड.ती है. इस समूह को छोड. दिया जाये, तो कोई भी समझदार भारतीय यह नहीं मानता कि सिनेमा में वास्तविक जिंदगी का अंकन होता है. हालांकि मुझे यहां यह स्वीकार करना चाहिए कि अविश्‍वास को स्थगित रखने की हमारी प्रवृत्ति किसी भी दूसरी संस्कृति की तुलना में कहीं ज्यादा है. 

इस आधार पर देखें, तो मैं भारतीय सिनेमा के दर्शकों को न सिर्फ सिनेमा की कहानी का पाठक मानता हूं, बल्कि उन्हें उसका असल लेखक भी स्वीकार करता हूं. फिर फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों, स्क्रिप्ट लेखकों और संगीत निर्देशकों की भूमिका क्या है? मेरा मानना है कि उनकीभूमिका पूरी तरह से यांत्रिक है, जैसे एक प्रकाशक की होती है. जो पास में आयी पांडुलिपियों में से किताबें चुन कर, उसे संपादित कर प्रकाशित करता है. बॉक्स ऑफिस पर पैसा कमाने की चाहत इस बात को पक्का करती है कि फिल्मकार ऐसे दिवास्वप्नों को चुनें और विकसित करें, जो अलग हट कर न हों. फिल्मों को इसलिए दर्शकों की साझा चिंताओं की ओर लक्षित होना होता है. अगर ऐसा नहीं होगा तो सिनेमा की अपील काफी सीमित हो जायेगी. जो व्यावसायिक रूप से नुकसानदेह होगा.

(सुधीर कक्कड. की किताब ‘इंडियन आइडेंटिटी’ का अनुवादित-संपादित अंश)

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4 May 2013

मेरी निगाह में सिनेमा : बलराज साहनी, सत्यजीत रे, अडूर गोपालकृष्णन


बलराज साहनी



मैं दो बीघा जमीन में अपनी भूमिका को हमेशा गर्व के भाव के साथ देखूंगा. बेशक मैं इस भूमिका की स्मृतियों को अपनी आखिरी सांस तक सहेज कर रखूंगा. - यह कबूल करने के बाद मुझे इस बात का हक दिया जाना चाहिए कि मैं इस फिल्म से जुड़े कुछ तकनीकी पक्षों पर बात करूं. यह फिल्म रवींद्रनाथ टैगोर की इसी नाम से लिखी एक कविता पर आधारित थी. लेकिन इसके बावजूद विमल राय ने गुरुदेव के प्रति इसके लिए कोई कृतज्ञता व्यक्त नहीं की है. मेरा मानना है कि न्याय और भलमनसाहत का तकाजा है कि इसे स्वीकार किया जाये.
इस फिल्म के मुख्य किरदार में दो खामियां हैं, जो इसकी ताकत को काफी हद तक कम कर देती है. पहला, वह कभी भी उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करता, जिसका उसे सामना करना होता है. दूसरा, वह अपने दोस्तों और सहकर्मियों को खुद से दूर कर देता है. एक औसत दर्शक खुद को हीरो के जूते में रख कर देखना चाहता है. कौन सा ऐसा दर्शक होगा, जो खुद को इस तरह के आत्मपीड़क और अंतर्मुखी हीरो के साथ जोड़ कर देखना चाहेगा. वह दया का पात्र ज्यादा नजर आता है. यही वजह रही कि दो बीघा जमीन को जनता के बीच उस तरह की सफलता और लोकप्रियता नहीं मिली, जितनी कि उसे बुद्धिजीवियों के बीच मिली.
कुछ हद तक हमारी सारी प्रगतिशील कला और हमारा साहित्य इस आदत का शिकार है. यह विदेशी मूल्य और वाद है, जिस पर हम खरा उतरना चाहते हैं, न कि उन मूल्यों पर, जो हमारी अपनी धरती की उपज हैं. दो बीघा जमीन की तकनीक भी विश्व प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक की फिल्म बाइसिकिल थीफ और उसमें प्रदर्शित किये गये यथार्थवाद से प्रभावित थी. यही वह कारण था कि रूसियों ने भले ही दो बीघा जमीन के बारे में अच्छी बातें कहीं, लेकिन उन्होंने अपनी सारी प्रशंसा और सम्मान राजकपूर की फिल्म आवारा के लिए सुरक्षित रख लिया, बल्कि वे आवारा के प्रति दीवाने से हो गये. आवारा के प्रदर्शन के बाद रूस में लाखों कामगार मजदूर फैक्टरियों और खेतों में ‘आवारा हूं’ की धुन गुनगुनाते पाये जाते थे. बल्कि जहां तक जनता के प्यार और लोकप्रियता का सवाल है, राजकपूर ने रूस के अभिनेताओं को भी पीछे छोड़ दिया. हालांकि हमने उम्मीद की थी समाजवाद के इस मक्का में लोग कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और उन्नत कला  को सम्मान देंगे, लेकिन रूसियों को आवारा के प्रति उनकी दीवानगी के लिए कसूरवार नहीं माना जा सकता. खास तौर से यह देखते हुए कि आवारा में कितने बेजोड़ तरीके से भारतीय जीवन की धड़कन को पकड़ा गया है. इस संदर्भ में हम यह गांठ बांध सकते हैं कि एक अंगरेज हमेशा एक ऐसे भारतीय से संवाद करना कहीं ज्यादा पसंद करेगा, जिसे बस काम चलाऊ अंगरेजी ही आती हो.
(बलराज साहनी की आत्मकथा ‘बलराज साहनी एन आॅटोबायोग्राफी’ का अनुदित एवं संपादित अंश)



सत्यजीत रे






मुझे लगता है कि मुझमें काफी पहले परिपक्वता आ गयी. मुझमें शुरू से ही ऊपर से साधारण दिखनेवाले ढांचे में गहन संदेश को सिनेमाई परदे उतारने का जुनून रहा. मैं अपनी फिल्में बनाते वक्त कभी पश्चिम के दर्शकों के बारे में नहीं सोचता. जब मैं फिल्म बना रहा होता हूं, तो सिर्फ बंगाल के दर्शक ही मेरे जेहन में होते हैं. अपनी फिल्मों के सहारे मंै उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश करता हूं. और ऐसा करते हुए मैं कामयाब भी रहा हूं. शुरुआत में बंगाल के दर्शक काफी पिछड़े हुए थे. वे बचकानी बांग्ला फिल्मों के कचरे के आदी थे. मुझे धीरे-धीरे ही सही, उन्हें साथ लेकर चलना था. इस राह में कई बार कामयाबी मिली, कई बार मैं चूक गया. दर्शकों से जुड़ा ऐसा खतरा बर्गमैन और फेलिनी के साथ नहीं था. बर्गमैन का फिल्म संसार बेहद सहज था. हालांकि कई बार उनमें तीखापन और गहरा संघर्ष भी होता है. इसमें उनकी कई बार उम्दा फोटोग्राफी भी मदद करती है. जहां तक फेलिनी की बात है, मुझे लगता है कि वह एक ही फिल्म लगातार बनाये जा रहे हैं. उनकी फिल्में काफी साहसी होती हैं. इस तथ्य के बावजूद कि फेलिनी कहानियों में ज्यादा रुचि नहीं लेते, दर्शक उनके साहस को देखने जाते हैं. मैं वह सब कर सकता हूं, जो बर्गमैन और फेलिनी ने किया है. लेकिन मेरे पास वे दर्शक नहीं हैं और मैं  उनके परिवेश में काम नहीं कर रहा हूं. मुझे उन दर्शकों से संतुष्ट रहना है, जो कूड़े का अभ्यस्त रहा है.
मैंने भारतीय दर्शकों के साथ तीस सालों तक काम किया है और इन  वर्षों में सिनेमा का बाहरी चेहरा वैसा का वैसा रहा है. कम से कम बंगाल में तो नहीं ही बदला. वहां आपको ऐसे निर्देशक मिल जायेंगे, जो इतने पिछड़े हैं, इतने मूर्ख किस्म के हैं, इतना कूड़ा उत्पादन कर रहे हैं कि आपके लिए यह यकीन करना नामुमकिन होगा कि उनकी फिल्मों का अस्तित्व भी मेरी फिल्मों के साथ है. मेरी परिस्थितियां ऐसी हैं कि मुझे अपनी कहानियों को हमेशा साधारण बनाये रखना होता है. हां, मैं यह जरूर कर सकता हूं कि मैं अपनी फिल्मों को अर्थवान बनाऊं, उनमें मनोवैज्ञानिक घात-प्रतिघात पैदा करूं, उनमें नये शेड्स डालूं. और इस तरह से एक ‘पूर्ण’ का निर्माण करूं, जो कई लोगों को कई सारी चीजें संप्रेषित करेंगी.
कुछ आलोचकों को लगता है कि मैं गरीबी को रोमांटिसाइज करता हूं, या कि मेरी फिल्मों में गरीबी और वंचितता अपने क्रूरतम रूप में प्रकट नहीं होती. मेरा मानना है कि पाथेर पंचाली गरीबी के रूपांकन में काफी कठोर है. पात्रों का व्यवहार, जिस तरह से मां एक वृद्ध औरत के साथ व्यवहार करती है, वह  क्रूरतापूर्ण ही तो है. मुझे याद नहीं कि किसी ने एक परिवार में किसी वृद्ध के साथ इस तरह की क्रूरता दिखायी है.
मैंने किसी की भी तुलना में अपनी फिल्मों कहीं ज्यादा राजनीतिक टिप्पणी की है. मिडिल मैन में एक लंबा संवाद है, जिसमें एक कांग्रेसी आगे के लक्ष्यों के बारे में बात करता है. वह झूठ बोलता है. मूर्खतापूर्ण बातें करता है, लेकिन उसकी उपस्थिति महत्वपूर्ण है. किसी भी दूसरे निर्देशक की फिल्म में इस दृश्य को शामिल नहीं किया जाता. लेकिन यह जरूर है कि फिल्म निर्देशकों के ऊपर कई तरह के प्रतिबंध होते हैं. उसे मालूम होता है कि कुछ चित्रण और डायलॉग कभी  भी सेंसर बोर्ड से पास नहीं होंगे. फिल्म निर्देशकों की भूमिका उदासीन द्रष्टा की नहीं है. आप हीरक राजार देशे देखिए. उसमें एक दृश्य है, जिसमें सारे गरीब लोगों को बाहर हांक दिया गया है. यहां इमरजेंसी के दौरान जो दिल्ली और दूसरे शहरों में हुआ उसका सीधा असर देखा जा सकता है. जब आप ऐसी फैंटेसी फिल्में बना रहे हों, तो आप अपनी बात सामने रख सकते हैं, लेकिन जब आप समकालीन चरित्रों के साथ खेल रहे होते हैं, तब आप एक सीमा तक ही अपनी बात रख सकते हैं.

(1982 में प्रकाशित सिनेएस्ट साक्षात्कार श्रृंखला का संपादित अंश)


अडूर गोपालकृष्ण


जब मैं अपनी फिल्मों पर काम कर रहा होता हूं, तो मैं अपने आप से यह नहीं कहता कि देखो ये तुम्हारे दर्शक हैं, और तुम्हारी फिल्म को इनके लिए प्रासंगिक होना चाहिए. नहीं, अगर मुद्दे महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं, अगर विचार वैध और तार्किक हैं, तो फिल्में खुद-ब-खुद प्रासंगिक हो जायेंगी. एक फिल्म ‘एक समय में’ बनायी जाती है, लेकिन यह ‘एक समय के लिए’ ही नहीं बनायी जाती. मेरा मानना है कि एक अच्छी फिल्म अपने बनानेवाले की उम्र से कहीं ज्यादा जियेगी. मेरा विश्वास है कि कला या साहित्य के अच्छे शाहकार की ही तरह एक अच्छी फिल्म का असर कई पीढ़ियों पर पड़ता है. हालांकि इसका असर महसूस हो, और यह क्रियाओं को जन्म दे, इसमें कहीं ज्यादा वक्त लग सकता है. वैसे भी मैं हर दिन-ब-दिन की सामान्य समस्याओं पर सिनेमा नहीं बनाता. मेरे पास इन फिल्मों में समय खपाने करने की ऊर्जा नहीं है. मैं व्यापक मुद््दों पर ध्यान केंद्रित करने को तरजीह देता हूं. फिल्म बनाने को लेकर मेरा साफ मानना है कि इसे विचारों को प्रभावित करना चाहिए. किसी मुद्दे पर जागरूकता पैदा करना चाहिए. शुरुआत यहीं से होती है. इस तरह की फिल्मों को आपको परेशान करना चाहिए. इसे आपको खुद से और समाज से सवाल पूछने के लिए प्रेरित करना चाहिए. इस तरह सवाल पूछना ही बदलाव की ओर पहला छोटा सा कदम है.
               जहां तक व्यावसायिक सिनेमा का प्रश्न है, यह आज एक जुआ बन गया है, न कि रचनाशीलता की एक प्रक्रिया. आज निर्माता-निर्देशकों को लगता है कि जो भव्य है, वह अच्छा है. स्टार कास्ट बड़ा होना चाहिए. बजट बड़ा होना चाहिए. लेकिन आखिरी सत्य यह है कि आप जो पैसा खर्च करते हैं, या कितना भव्य रचते हैं, वह महत्वपूर्ण नहीं है. दर्शक की असल चिंता यह है कि सिनेमा कितना अच्छा है.

(3 मई, 2006 को रेडिफ डॉट कॉम पर प्रकाशित साक्षात्कार का संपादित अंश)

1 May 2013

अच्छा मनुष्य हुए बिना अच्छी कविता नहीं लिखी जा सकती : मंगलेश डबराल

‘शब्द’ ‘घर का रास्ता’ खोजते हैं और ‘गुजरात के मृतक का बयान’ बनकर एक ‘कविता’ में दर्ज हो जाते हैं.‘आवाज भी एक जगह है’ जो ‘तुम्हारे भीतर’ को ‘किसी दिन’‘राग मारवा’ में ले जाती है, जहां स्मृतियों का एक संसार है. यह संसार है हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल की कविताओं का. मंगलेश जी से उनके सृजन संसार के बारे में कुछ दिन पहले बात की प्रीति सिंह परिहार ने. \यहां साक्षात्कार को आत्मवक्तव्य के रूप में ढाला गया है. अखरावट 




कोई बाहरी या भीतरी घटना जब तक मेरे संवेदन-तंत्र का हिस्सा नहीं हो जाती, तब तक उस पर लिखना संभव नहीं होता. लिखने का कोई तय समय भी नहीं. आमतौर पर रात में ही लिखता हूं. शुरू में सिर्फ दो-तीन पंक्तियां आती हैं, कभी वे कविता बन जाती हैं, कभी अधूरी रह जाती हैं. इस तरह अनगिनत पंक्तियां मेरे पास होंगी. 

मैं शायद अच्छाई को बचाने के लिए लिखता हूं. क्या बाजार, तकनीक और शोषण के भूमंडल में विचार, संवेदना और प्रकृति बचे रहेंगे? आदिवासी बनाम शहरी शोषक वर्ग के बीच की लड.ाई में कौन जीतेगा? क्या आदिवासियों से उनका सब कुछ लूट लिया जायेगा? एकध्रुवीय हो गये विश्‍व में हावी हो रही अमेरिकी दादागिरी से क्या एशिया बच पायेगा? एशिया विस्थापितों का शिविर बन रहा है. यह विस्थापन लोगों को कहां ले जायेगा? मेरी इस तरह की चिंताएं हैं, एक नागरिक के नाते और एक कवि के तौर पर भी. पोलैंड की कवयित्री विस्वावा शिम्बोस्र्का की एक कविता है कि ‘बीसवीं सदी में मनुष्य को एक साथ अच्छा और ताकतवर होना था. लेकिन अच्छा और ताकतवर आज भी दो मनुष्य हैं’ शायद इसलिए निराशा भी मेरी कविता में बार-बार आती है. लेकिन एक हवाई आशावाद की बजाय एक सी निराशा कहीं बेहतर है. 

एक रचनाकार के तौर पर मेरे साथ दूसरी मुश्किलें भी हैं. मुझे जो लिखना है, वो मैं नहीं लिख पाता हूं. कविता पूरी होने के बाद अकसर लगता है, यह वह नहीं, जो मैं कहना चाहता था. मेरी अपनी किताब, जिसे मैं पंसदीदा कह सकूं, मेरे पास अब तक नहीं है. वह शायद मेरा आने वाला संग्रह हो. 

बचपन में जयंशकर प्रसाद की कहानियां, खासतौर पर ‘आकाशदीप’ मुझे किसी रहस्यमयी दुनिया में ले जाती थीं. इस प्रभाव में मैंने शुरू में कहानियां लिखीं. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का ‘प्रियप्रवास’ मुझे कविता की ओर ले गया और मैं छंद में लिखने लगा. बाद में छंद का जादू टूटा. कुछ मित्रों के कारण मैं आधुनिक कविता के संपर्क में आया. तब मेरी कविता बदली और बदलती चली गयी. कहानियां भी लिखता रहा, जो ‘सारिका’,‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ आदि में प्रकाशित भी हुईं. बाद में कहानियां लिखना छूटता गया. इसका एक बड.ा कारण शायद समय की कमी रही. लेकिन, गद्य मुझे हमेशा से आकर्षित करता रहा है. 

गद्य जीवन के व्यवहार की भाषा है और कविता शायद इस व्यवहार की विशिष्ट गतिविधि. गद्य का ही एक परिष्कृत रूप. त्रिलोचन जी कहते थे कि कविता, कहानी, उपन्यास जो भी लिखो, लेकिन पूरा वाक्य लिखो. जितनी भी बड.ी कविताएं हैं, वे गद्य में हैं. ‘घन घंमड नभ गरजत घोरा/ प्रियाहीन डरपत मन मोरा’ गद्य ही है. कवियों का निकष गद्य है. फारसी में एक कहावत है, अच्छी नज्म वो है, जिसे नस्र यानी गद्य में न बदला जा सके. लेकिन अब अच्छा गद्य दुर्लभ होता जा रहा है. 

इस समय व्यापक स्तर पर विपुल कविता लिखी जा रही है. इसका एक कारण बाजार के दबाव से उपजी कशमकश भी है. समाज एक तरह के संक्रमण से गुजर रहा है. एक ओर संपत्र बनने का दबाव है, दूसरी ओर जीवन की सार्थकता का. सूचना का विनिमय बहुत तेजी से बढ.ा है. ये सूचनाएं दिमाग में एक हलचल पैदा कर ही रही हैं. जगह-जगह पहचान और अस्मिता का संघर्ष जारी है. इन सबसे अभिव्यक्ति की भूख भी बढ.ी है. 

लेखन बडे. पैमाने पर हो रहा है, लेकिन आलोचना के प्रतिमान ध्वस्त हुए हैं. जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी आलोचनात्मक नजरिया नहीं रह गया है. अमेरिका से जो कुछ हमारे पास आ रहा है, हमने मान लिया है कि वह सब अच्छा है. मध्यवर्ग कोई सवाल नहीं उठा रहा, सिर्फ ‘रिसीविंग एंड’ पर है. यह साहित्य में भी है. अच्छी रचना से खराब रचना को अलग करने का विवेक कम हो रहा है. लेकिन कोई छलनी है, जो अपने आप छानती रहती है चीजों को. कोईरचना अच्छी है या बुरी, इसे समय तय करता है. एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, जो अच्छे को अपना लेती है और खराब को किनारे कर देती है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई खराब लेखक, महान लेखक हो गया. 

अच्छा मनुष्य हुए बिना अच्छी कविता नहीं लिखी जा सकती. यहां अच्छाई का अर्थ संवेदनशील होने से है. दूसरों के दर्द को अपने दर्द की तरह महसूस करने से है. यथास्थिति में बदलाव की चाह से है. अन्याय, शोषण, असमानता के खिलाफ खडे. होने से है. परिस्थितियां भी बहुत हद तक लेखक को बनाती हैं. हालांकि अब लेखक होने की अवधारणा बदल रही है. चीजों की अद्वितीयता भी समाप्त हो रही है. उत्तर-आधुनिकतावादियों ने कहा कि किताब को भूल जाइए. यह सिर्फ टेक्स्ट है, इसे चाहे ‘एक्स’ ने लिखा हो या ‘वाई’ने. यह एक बड.ा बदलाव था. बेहतर है या नहीं, मैं नहीं कह सकता. लेकिन इस बदलाव से अब इंकार नहीं किया जा सकता. 

किसी सभ्यता को बहुत उत्रत ढंग से देखने के बाद, उसे खंडहर होते देखना असहनीय है. शायद इसलिए मैं घर से कतराने लगा. उस घर को, जिसे बहुत अच्छी स्थिति में देखा हो, कातर हालात में देखना कठिन था. मेरे पहले संग्रह ‘पहाड. पर लालटेन’ में शायद यह कचोट है. पहाड., जहां मेरा बचपन बीता, मेरी कविताओं में उससे मेरा एक विचित्र और द्वंद्वपरक संबंध है. मैं जहां रहने आया वहां की कठिनाई और पहाड. के जीवन की स्मृति दोनों की टकराहट है. ब्रेख्त की एक पंक्ति मुझे बहुत प्रिय है : ‘पहाड. की यातनाएं मेरे पीछे हैं और मैदान की यातनाएं मेरे आगे.’ एक बार जनसत्ता के संस्थापक-संपादक प्रभाष जोशी और उनकी पत्नी गंगोत्री गये, तो मेरे घर भी रुके. मैं साथ में था. घर में पिता जी, मां और बड.ी बहन थी. प्रभाष जी ने मेरे माता-पिता से पूछा कि क्या यह घर आता है? पिता जी ने कहा इसने ‘घर का रास्ता’ किताब तो मुझे सर्मपित कर दी, लेकिन खुद घर का रास्ता भूल गया.

संगीत से मेरा लगाव रहा है और मुझे लगता है, अमीर खां साहब से बड.ा चितंनशील और दार्शनिक गायक बीसवीं शताब्दी में तो नहीं हुआ. वे एक महान शख्सीयत थे. उन्होंने संगीत को दरबारों और संपत्र लोगों से मुक्त किया है. लेकिन उन्हें बहुत मुसीबतें सहनी पड.ी. लोगों ने कहा, आपके पास न कोई स्पष्ट घराना है, न वैसी आवाज है. उनका घराना मुश्किल से ही तैयार हो पाया, लेकिन उन्होंने जो संगीत रचा, वह अद्भुत है. अमीर खां साहब पर मेरी कविता एक कोशिश है, हमारे सांगीतिक अंतर्विरोध को स्पष्ट करने की. दूसरी बात, संगीत तनाव को विसजिर्त करता है और उदात्तता की तरफ ले जाता है, लेकिन अमीर खां साहब का गायन तनाव को विसजिर्त नहीं करता, बल्कि र्शोता में एक रचनात्मक तनाव भर देता है. 

मैंने मृतक लोगों पर भी कविताएं लिखीं. गोरख पांडे, मोहन थपलियाल, करुणानिधान हों या गुजरात के मृतक, इनका मरना कुछ मूल्यों की मृत्यु थी. इनका जीवन बहुत ऊबड.-खाबड. रहा, लेकिन इन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया. एक कवि और क्या कर सकता है, कविता में इन्हें जीवित करने के सिवा! विदा हो चुके लोग जब किसी रचना में आ जाते हैं, उसमें जीने लगते हैं. कोई भी जब पत्रा पलटता है, उनका जीवन चल पड.ता है.

इस भयानक समय में साहित्य मनुष्य को बचाने की कोशिश तो करता ही है. बचा पाता है या नहीं, यह अलग बात है. लेकिन ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई हैं, जब किसी रचना को पढ.कर लोगों का जीवन बदल गया. घोर निराशा से निकल कर उन्होंने फिर से जीना शुरू किया. समाज की स्मृति और संवेदना में रचनाओं का असर देर-सबेर होता है. अगर हमारा एक विशाल पढ.ा-लिखा तबका शोषण, असमानता, अन्याय के विरुद्ध है, तो उसकी संवेदना पर प्रेमचंद के उपन्यासों का कोई प्रभाव जरूर रहा होगा. साहित्य की सार्थकता मेरे लिए यही है. 

                               प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं