12 May 2013

मां, किस्से और मार्क्वेस



अपनी जिंदगी में जिसे सबसे करीब से देख पाते हैं, वह ‘मां’ होती है. मां की छवि को पूरी तरह बयां करना संभव नहीं, लेकिन जब-तब रचनाकारों ने अपनी-अपनी तरह से इस छवि को उकेरा है. मदर्स डे पर मां के जाने के बाद भी मां के रहने को बयां करता कवि मंगलेश डबराल का यादगार संस्मरण.




कुछ दोस्तों ने सुझाव दिया था कि मैं एक टेपरिकॉर्डर लेकर रोज एक घंटे मां के सामने बैठ जाऊं, उससे कुछ-कुछ पूछता रहूं और वह जो कुछ बतायेगी उससे एक बड़ा उपन्यास बन जायेगा. गाब्रियेल गार्सिया माक्र्वेस के उपन्यासों से भी आगे का जादुई यथार्थवाद उसमें होगा. इस बात पर कभी गंभीरता से नहीं सोचा. आज लेकिन जब मां नहीं है और उसे गये हुए एक साल हो गया है, सोचता हूं कितने गजब के किस्से उसके भीतर थे. एक से एक रहस्यमय, रोमांचक, खौफनाक और अविश्‍वसनीय घटनाएं और अंधविश्‍वास, जिन पर वह खुद विश्‍वास नहीं करती थी, लेकिन उन्हें विश्‍वसनीय तरीके से बतलाती थी. एक दिन उसने एक पहाड.ी औरत की कहानी सुनायी जिसने सिर्फ लड.कियों को ही जन्म दिया था. पांच या सात बेटियां होने के बाद घर के पुरुषों ने बाद में पैदा हुई लड.की को दूध की बजाय मट्ठा पिला कर मार दिया और खेत में दफना दिया. वह औरत रोज सुबह-शाम चोरी-छिपे खेत में जाती, अपनी मरी हुई बी को गड्ढे से निकाल कर कुछ देर अपना दूध पिलाती फिर वहीं गाड. कर चली आती. करीब महीने भर वह यह करती रही और फिर उसने मान लिया कि मरी हुई बी के लिए मोह कैसा. लेकिन फिर उसके कोई संतान नहीं हुई- न लड.की न लड.का. हालांकि उसका पति बहुत चाहता था कि एक बेटा हो जाये. मरने के बाद मुखाग्नि देने के लिए बेटा तो चाहिए न!

अंत तक एक दुख मां को यह रहा कि वह बचपन में और बाद में भी पढ. नहीं पायी क्योंकि डंगवाल लोगों में (मां डंगवाल परिवार से थी) यह माना जाता था कि पढ.ी-लिखी लड.की अपने पति को खा जाती है. इसलिए उसे पढ.ाया नहीं गया और जब वह खुद बहू और फिर हम बाों की मां बनी तो हमारे घर में मेरी दो दादियों का साम्राज्य था, जो घर का सारा काम करती थीं और मां के हिस्से खेत में काम करना, पानी लाना, लकड.ी लाना जैसी जिम्मेदारियां रह गयी थीं. खेत, जंगल और गांव के नीचे पानी के दो धारे (स्रोत) वे जगहें थीं जिनसे मां सबसे अधिक परिचित थी. कई बार उसने आग्रह करके खेत में काम करते हुए अपनी तसवीरें खिंचवायी थीं. फोटो खिंचवाना उसे पसंद भी बहुत था. शायद इसलिए कि मेरे पिताजी बहुत पहले कोडक का एक बॉक्स कैमरा खरीद कर लाये थे, जो हमारे गांव में पहली बार आया था और सबको चमत्कारी चीज लगता था. बाद में मैंने उस कैमरो को पिता जी से ले लिया और कहीं खो दिया. उस कैमरे की छाप मां के भीतर रही होगी इसीलिए फोटो खिंचाते हुए वह सहज लेकिन शानदार ‘पोश्‍चर’ बनाती थी. दिल्ली में वह जब भी मेरे पास रहने आयी, रोज अखबार उठाकर जरूर देखती थी और कहती थी कि यह जो ‘जनसत्ता’ लिखा हुआ है, वह तो मैं पढ. लेती हूं, लेकिन जैसे ही कोई‘लग’ (मात्रा या रेफ) आता है, तो मुझे समझ में नहीं आता. अकसर वह मेरी बेटी अल्मा से अपना नाम लिखवाकर उसे लिखने की कोशिश करती. मेरे दादा जी ने करीब सौ बरस पहले लगभग पंद्रह सौ गढ.वाली कहावतों का संग्रह तैयार किया था. लखनऊ में नवलकिशोर प्रेस से छपे उस संग्रह की ज्यादातर कहावतें मां को कंठस्थ थीं और वह बात करते हुए अचानक कोई कहावत बोल देती. लिखना-पढ.ना या हिंदी (मतलब देस्वाली) न जानने के बावजूद उसके संप्रेषण और संवाद की क्षमता पर मुझे आश्‍चर्य होता था. हमारे घर जो भी आता उससे घंटों बात करता और प्रसत्र होकर लौटता. एक बार क्रिस्टी मैरिल अमेरिका से आयीं और दिन भर मां की बातें सुनती रहीं, हालांकि मां सिर्फ गढ.वाल में बोल रही थी. शाम को घर लौट कर जब क्रिस्टी ने यह बताया, तो मैंने पूछा कि वे मां की बात समझ भी रही थीं या नहीं. तो वे बोलीं: एक-एक बात मेरी समझ में आ रही थी. इसी तरह मेरी एक मित्र घर आयीं और मां के पास बैठ गयीं और जब जाने लगीं तो मां देर तक उनका हाथ बुढ.ापे में भी बेहद कोमल अपनी हथेलियों से सहलाती रही और फिर उसने कहा कि तुम बहुत अच्छी हो, यहीं मेरे पास रह जाओ. जब भी कोई मेहमान हमारे यहां आता और मां के पास बैठता, तो वह हमेशा हाथ से कौर बनाते हुए उसे यह संकेत देती कि खाना खाकर जाओ. 

अंधविश्‍वास, अशिक्षा और पहाड. की सवर्ण व्यवस्था में पलने के बावजूद मां कितनी आधुनिक थी, इसका प्रमाण एक बार तब मिला जब मेरा एक भतीजा शिवप्रसाद जोशी ( कवि, पत्रकार और माक्र्वेस का भक्त) अपनी सहपाठी, झारखंड निवासी शालिनी से अंतरजातीय विवाह करना चाहता था. शिव प्रसाद घोर पंडित परिवार की संतान है, लेकिन मां उस समय पहली व्यक्ति थी जिसने इस विवाह का पक्ष लिया और कहा कि इन दोनों को जोड.ी बढ.िया रहेगी. ये दोनों शायद आज भी अपनी ‘दादी’ के आभारी होंगे. हिंदू-मुसलमान, सवर्ण-अवर्ण, ब्राह्मण-अब्राह्मण की बात उसकी दृष्टि से हमेशा ही बाहर रही. यहां तक कि जंगली जीव-जंतुओं के बारे में उसकी राय हम सबको चकित करने वाली थी. जंगल से घास लाते समय उसे शायद दो-तीन बार बाघ भी दिखा था और वह कहती थी कि बाघ तो बिल्ली जैसा छोटा हो सकता है और अगर उसकी पूंछ नहीं होती तो वह साकिना (छोटी पत्तियोंवाला एक पेड.) की पत्ती के पीछे भी छिप सकता है. भालू को वह सचमुच गंदा जानवर मानती थी और कहती थी कि अगर वह पीछे पड. जाये तो जंगल में कभी ऊपर नहीं नीचे की, ढलान की ओर भागना चाहिए. इससे भालू के बाल उसकी आंखों पर आ जाते हैं और वह देख नहीं पाता. 

मेरे बारे में मां का ख्याल था कि मेरी बायीं आंख की निचली पलक पर जो तिल है उसे जरा से ऑपरेशन से निकलवा देना चाहिए, क्योंकि आंख में ऐसे तिलवाले लोग जिंदगी भर रोते रहते हैं. आयुर्वेदिक और कुछ- कुछ ऐलोपैथी के डॉक्टर की पत्नी होने के नाते उसे ऑपरेशन, इंजेक्शन, हाजमाचूर्ण, ज्वरांकुश, दंशर, सितोप्लादि चूर्ण वगैरह जो कईदवाएं हमारे घर में बनती थीं, उनके नाम याद थे. मैंने तिल का ऑपरेशन नहीं करवाया लेकिन जब मुझसे बड.ी बहन राजलक्ष्मी ने अपने चेहरे पर जन्मजात एक लंबे से काले तिल (लाखण) को निकलवा दिया, तो मां बहुत दुखी हुई क्योंकि एक ज्योतिषी ने कहा था कि इस घर में पैदा होने वाला बेटा तभी बचेगा, जब उससे पहले लाखणवाली एक लक्ष्मी जन्म लेगी. मां कहती थी-ओफ्फो भाई, लाखण क्यों हटाई होगी इसने!

नियति का विधान देखिए कि जो स्त्री जीवन भर खेतों-जंगलों-पानी के स्रोतों में भागती फिरती रही, मृत्यु ने आकर सबसे पहले उसे चलने-फिरने में असर्मथ बना दिया. बहुत समय तक वह चुपचाप, बिना कराहे पीड़ा  झेलती रही. अपनी पांच -बेटियों और दो बेटों (जिनमें से एक की मृत्यु जन्म के साल भर बाद हो गयी थी) को जन्म देने की पीड़ा का अनुभव उसकी आंतरिक शक्ति बन गया होगा. शायद असह्य पीड़ा  में ही उसने मुझे, संयुक्ता, अल्मा, मोहित या प्रमोद को पुकारने की कोशिश की होगी. जब वह धर्मशिला कैंसर अस्पताल से घर लौटती तो आने-जानेवालों से कहती कि यमराज की कचहरी में अभी मेरी सुनवाई नहीं हो रही है. उसे अपनी पांचों बेटियों से बेहद लगाव था और मेरे पिता और अपने पति के खेतों से, घर के कमरों से भी, जिनमें दवाओं की खाली शीशियां, टिन के डिब्बे बहुतायत में हैं और समझ नहीं आता कि उसका क्या करें. अंत समय में मेरी पांचों बहनें- भुवनेश्‍वरी, जगदेश्‍वरी, राजलक्ष्मी, मालती, बसु- सब आ गयी थीं. कुछ काफी पहले और कुछ बाद में. वे उसकी सेवा करती कई रातों जागती रहीं और उन्ही की उपस्थिति में उसने इस संसार की अंतिम सांस ली और उसे इसी संसार में छोड. दिया.

इस तरह एक साल बीत गया. और अब अपने गांव डांग काफलपानी में उसका वार्षिक र्शाद्ध संपत्र करने के बाद मैं यहां हूं. घर में बहनें हैं, संयुक्ता, मोहित, कौंसवाल जी और दूसरे संबंधी हैं. तसवीरें हैं, खाली शीशियां और डिब्बे हैं, कई कनस्तरों में जगह-जगह मां के रखे हुए छीमी, तोर, लोबिया के बीज हैं और एक कमरे में देवी-देवताओं की अलमारी के सामने जलता हुआ एक दिया है. माक्र्वेस का उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ मैं ऐसे ही अपने साथ ले आया था. लेकिन उसे पढ.ना व्यर्थ. 

कवि का अकेलापन से साभार 

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