22 February 2013

जहाँ आस्था तर्क से बड़ी हो जाती है ...









इलाहाबाद में चल रहा कुम्भ अपने आखिरी चरण में आ गया है . बीबीसी के पत्रकार मार्क टली ने कुम्भ को न सिर्फ बेहद नजदीक से देखा है, बल्कि उस पर प्रामाणिक ढंग से लिखा भी है। उन्होंने कुम्भ को किसी सर्कस की तरह नहीं बल्कि एक सामाजिक-धार्मिक परिघटना की तरह देखा है। उनकी निगाह देसी या विदेशी पत्रकार की वह निगाह नहीं है जो सिर्फ 'ग्रैंड की खोज' में लगी रहती है। टली की किताब नो फुल स्टॉप्स इन इंडिया के कुम्भ सम्बन्धी रिपोर्ताज को पढना इस लिहाज से एक रोचक अनुभव है। हालांकि यह लेख बड़ा है, फिर भी इसके अभिप्रेत को इस संपादित अनुवादित अंश में समेटने की कोशिश की गयी है। 




पहला दिन 

कुंभ मेले को दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक पर्व कहा जाता है, लेकिन यह वास्तव में कोई भी ठीक -ठीक नहीं जानता कि आखिर यह कितना बड़ा है. शायद भगवान उन श्रद्धालुओं का हिसाब रखता है, जो इलाहाबाद में कुंभ के दौरान गंगा और यमुना में अपने पाप धोते हैं. जहां तक नश्‍वर लोगों का संबंध है, सैटेलाइट फोटोग्राफ, कंप्यूटर और आधुनिक तकनीक के दूसरे साजोसामान इस संख्या का यह ठीक-ठीक या ठीक के करीब अनुमान लगा सकें. लेकिन, अभी तक इनका इस्तेमाल इस मकसद से नहीं किया गया है. इसलिए हमारे पास कहने के लिए यही हैकि 1977 के कुंभ मेले के सबसे पवित्र दिन एक करोड. लोगों ने संगम में स्नान किया था. यह यकीन करने के सारे कारण थे कि 1989 में कहीं ज्यादा लोग आयेंगे. जैसा कि मेले की तैयारियों के आधिकारिक वर्णन में कहा गया था, जनसंख्या बढ.ने और लोगों में सामान्य रूप से धार्मिक आस्था बढ.ने के कारण इस बार अनुमान है कि मुख्य स्नान दिवस के मौके पर कम से कम डेढ. करोड. लोग संगम के नजदीक स्नान करेंगे. पंडितों का कहना था कि 1989 का कुंभ मेला 144 वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण कुंभ मेला होगा, क्योंकि इस बार ग्रह-नक्षत्र विशिष्ट रूप से पवित्र दशा में हैं. मेले को लेकर पंडितों के अनुमान और आधिकारिक रपटों को मैं देख चुका था, इसलिए जब मैं मुख्य स्नान से एक सप्ताह पहले इलाहाबाद पहुंचा, तो काफी आश्‍चर्यचकित रह गया कि प्रशासन, पत्रकार और धार्मिक नेता तथा स्थानीय पंडित इस बात से चिंतित थे कि शायद इस बार श्रद्धालुओं की संख्या करोड. के पार न जाये.


मैं इलाहाबाद में अपने राजनीतिक गुरुओं में से एक संत बख्श सिंह, जो पूर्व सांसद थे, के यहां ठहरा था. मेरी पहली मुलाकात इलाहाबाद के भूतपूर्व मेयर और एक प्रभावशाली कांग्रेस नेता रामजी द्विवेदी से हुई. वे मेला सलाहकार समिति के सदस्य भी थे. रामजी ‘मिस्टर इलाहाबाद’ थे. वे हर किसी को जानते थे. कुछ भी ‘फिक्स’ कर सकते थे, जो कि भारत में हमेशा काफी महत्वपूर्ण होता है. सबसे पहले मुख्य स्नान दिवस के दिन आनेवाले श्रद्धालुओं की अनुमानित संख्या पर शंका जाहिर करनेवाले मिस्टर रामजी ही थे. लेकिन मेरे लिए यह बेहद डरावना था कि उन्होंने इस कम संख्या का कसूरवार बीबीसी को ठहराया. उन्होंने दावा किया कि बीबीसी ने कहा है कि कुंभ में दो लाख लोग भगदड. में मारे जायेंगे. मैंने रामजी को समझाना चाहा कि यह जरूर अफवाह है. दरअसल, इसमें हमारी विश्‍वसनीयता (खासकर हमारी हिंदी सेवा की) प्रदर्शित होती है, लेकिन गलत तरीके से. भारतीयों को जब किसी अफवाह को मजबूती देनी होती है, तो वे कहते हैं कि ‘मैंने यह बीबीसी में सुना है.’ रामजी ने माना कि ऐसा कोई प्रसारण कभी नहीं हुआ होगा, लेकिन उन्होंने जोड़ा,‘हो सकता हैकि यह अफवाह मेले का संचालन कर रहे अधिकारियों की तरफ से उड़ाई गयी हो. उन्होंने जानबूझ कर मेले में आनेवाले श्रद्धालुओं की संख्या को बढ़ा कर दिखाया, ताकि मेले के बजट को बढ़ा कर दिखाया जाये. और जब उन्होंने पैसा खा लिया है, तब उन्होंने इस बात की भी सफाईदेनी है कि आखिर श्रद्धालुओं की संख्या कम क्यों है..

पांच दिन बाद

महास्नान के एक दिन पहले, पांच फरवरी को संत बख्श सिंह मेरे कमरे में एक अखबार लेकर आये और कहा तुम बच गये. उन्होंने स्थानीय हिंदी अखबार अमृत मंदिर के पहले पन्ने पर आये संपादकीय को जोर से पढ. कर सुनाया, जिसका शीर्षक था- ‘आस्था की विजय.’ संपादकीय की शुरुआत इस तरह हुई थी : ‘मनगढ़ंत' हादसों के भय के बावजूद, हर तरह की अफवाहों को धता बताते हुए लोग उत्तर से, दक्षिण से, पूरब से, पश्‍चिम से, ट्रेन से, बस से टैक्सी से, ट्रैक्टर और पैदल चलते हुए प्रयाग की पावन धरा पर मौनी अमावस्या के दिन संगम में पवित्र स्नान करने के लिए पहुंच गये हैं.’ स्थानीय अखबारों ने इन अफवाहों और मनगढ़ंत हादसों की अफवाहों को फैलाने में अपनी भूमिका निभाई थी.

मैं तुरंत कपडे. पहन कर उस संपादकीय की सच्चाई जानने के लिए बाहर निकला. इंसानों का एक सैलाब संगम की ओर उमड़ा चला आ रहा था. सड.क पर हर तरह के वाहनों को प्रतिबंधित कर दिया गया था. गांवों की औरतें एक दूसरे के पल्लू को पकडे. चल रही थीं, ताकि अलग न हो जायें. पुरुष अपने माथे पर गठरियां, सूटकेस और यहां तक कि टिन के ट्रंक लेकर चले आ रहे थे. उनके पास बर्तन और वैसे सारे सामान थे, जो एक आत्मनिर्भर कैंपर के लिए जरूरी होता है. श्रद्धालु बेहद शांत भाव से आगे देखते हुए चले जा रहे थे. कहीं कोई हड़बड़ी-घबराहट नहीं थी. कोई किसी को धक्का नहीं दे रहा था. बस शांत, धीमी रफ्तार वाला जनसमूह. इस भीड. में एक बेहद बूढ.ी औरत अपनी बेटी का सहारा लिए चल रही थी. चटक रंग की पगड़ी पहने हुए राजस्थान के लोग थे. खाली पांव चल रही मध्य भारत की आदिवासी लड.की थी, जिसके पांवों में कडे. थे. हिमालय से आये हुए लोग भी थे. पूरब से बंगाली थे, हां दक्षिण भारतीय कम नजर आ रहे थे. ज्यादतर श्रद्धालु गांवों से समूह बना कर आये थे. जींस पहने लड.कियां और टेरीकॉट की पैंट पहने पुरुष भी उस भीड. में दिखाई दे रहे थे. सारे श्रद्धालु बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन से कई मील पैदल चल चुके थे. कुछ लोग रुककर सुस्ता रहे थे, ताकि संगम की ओर अंतिम प्रस्थान किया जा सके. इतने सारे लोगों के लिए टेंट की व्यवस्था की जा सके, इसका सवाल ही नहीं उठता था. जिन लोगों को जहां जगह मिली वे वहीं जम गये. शाम होते-होते मेला क्षेत्र धुएं से भर गया. गोयठों से जलने वाले हजारों-चूल्हे जल गये थे, जिसने मेरी आंखें बंद कर दीं और मुझे भारत के गांवों में बितायी हुई शामों की याद दिला दी.

महास्नान का दिन 

..गंगा के उस पार सूरज उग आया था. नदी से निकलनेवाली धुंध और लाखों-लाख श्रद्धालुओं के पांवों से उड.नेवाली धूल सूरज को ढक रही थी. श्रद्धालुओं का जन सैलाब संगम के कोने-कोने में काले बादलों की तरह फैला दिख रहा था. इस बात का अनुमान लगा पाना भी नामुमकिन था कि आखिर यहां कितने मिलियन(एक मिलियन = दस लाख) लोग थे. मैं अपना रास्ता बनाते हुए प्रेस कैंप तक पहुंचा. मैंने अपने जीवन में कभी भी इतनी शांत भीड. नहीं देखी थी. वहां कोई पागलपन, उन्माद नहीं था. बस आस्था के प्रति एक स्थिर विश्‍वास था. यह विश्‍वास कि जो किया जाना चाहिए था, किया जा चुका है. र्शद्धालुओं की बड.ी संख्या गांवों से आनेवालों की थी. उनकी आस्था ने उन्हें यह साहस दिया कि वे अफवाहों की परवाह किये बगैर, यात्रा के सारे कष्टों को झेलते हुए, कई मील पैदल चलते हुए स्नान के लिए पहुंच पाये. तब भी इन गांव वालों से कहा जाता हैकि उनकी आस्था, जो उनके लिए इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण है, महज एक अंधविश्‍वास है. उनसे कहा जाता है कि वे धर्मनिरपेक्ष बनें. अभिजात्य वर्ग के लोगों ने ज्यादातर इस मेले की उपेक्षा की. जो आये, कारों से आये और टेंट में रात बितायी.

दुनिया के किसी दूसरे देश में कुंभ मेले जैसा दृश्य मुमकिन नहीं है. इतने बडे. मेले का सफलतापूर्वक संचालन भारत की अकसर आलोचना पानेवाली प्रशासन व्यवस्था के लिए बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन यह भारतीय जनता की कहीं बड़ी जीत थी.

(मार्क टली की किताब ‘नो फुल स्टॉप्स इन इंडिया’ के 'द कुम्भ मेला अध्याय का संपादित-अनुवादित अंश)

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