19 February 2013

उपन्यास की जादुई दुनिया


 हमारे समय  के बेहद महत्वपूर्ण उपन्यासकार ओरहन पामुक का लेखन पाठक पर जादू सा असर करता है. पामुक ने उपन्यास के साथ साथ साहित्य पर भी काफी लिखा है. दूसरों के लेखन पर भी और अपने लिखने और पढने पर भी. द नेव एंड  द सेंटीमेंटल  नॉवेलिस्ट का पहला लेख व्हाट आवर माइंड्स डू व्हेन वी रीड नावेल में पामुक ने उपन्यास को एक प्रतिबद्ध पाठक  की नजर से देखा है. लेख के हिंदी अनुवाद की दूसरी कड़ी.


उपन्यास पढ़ते वक्त हमारी आत्मा, हमारे दिमाग में क्या चल रहा होता है?  उस समय हमारे भीतर पैदा हो रहा रोमांच, उस रोमांच से कैसे अलग होता है, जिसे हम फिल्म देखते वक्त, किसी पेंटिंग को निहारते वक्त, कोई कविता, यहां तक कि महाकाव्य को सुनते वक्त महसूस करते हैं! एक उपन्यास समय-समय पर हमें जीवनी, फिल्म, कविता, पेंटिंग, या परीकथा से मिलने वाली खुशी दे सकता है. लेकिन इस कला का सच्चा और विशिष्ट  प्रभाव मौलिक रूप से दूसरी साहित्यिक विधाओं, फिल्म, चित्रकारी, से अलग है. इस अंतर को दर्शाने की शुरुआत मैं आपको यह बताने से कर सकता हूं कि जवानी के दिनों में पूरे भावावेश में उपन्यास पढ़ते वक्त मैं क्या करता था और मेरे भीतर किस तरह की जटिल छवियां जन्म लिया करती थीं.
म्यूजियम घूमने जानेवाले किसी व्यक्ति की तरह, जो सबसे पहले किसी पेंटिंग से अपनी आंखों(दृष्टि इंद्रिय) का मनोरंजन करना चाहता है, उन दिनों मैं सक्रियता, द्वंद्व, और लैंडस्केप की समृद्धि को प्राथमिकता दिया करता था. यह महसूस करना कि मैं किसी के निजी जीवन का गुप्त रूप से साक्षी बन रहा हूं और  सामान्य रास्तों के के स्याह  हिस्सों का अन्वेषण करना मुझे आनंदित किया करता था. लेकिन यह मत समझिए कि मेरे भीतर जो चित्र बना करते थे वे हमेशा बेचैन किस्म के होते थे. जवानी के दिनों में उपन्यास पढ़ते हुए कभी मेरे भीतर एक व्यापक, गहरा और बेहद शांत लैंडस्केप का जन्म होता था और कभी रोशनी बाहर चली जाती थी और स्याह और सफेद के किनारे स्पष्ट हो कर एक दूसरे से अलग हो जाया करते थे. छायाएं चक्कर काटने लगती थीं. कभी-कभी मैं इस एहसास पर चकित होता रहता था कि पूरी दुनिया अलग ही रोशनी से बनी हुई है. और कभी-कभी सुबह का धुंधलका बाकी हर चीज पर छा जाता था-पूरा ब्रह्मांड एक भावना, एक स्टाइल में तब्दील हो जाया करता था. मुझे इससे खुशी मिला करती थी. मुझे एहसास होता था कि मैं इस खास वातावरण के लिए ही वह किताब पढ़ रहा था.

धीरे-धीरे जैसे में उपन्यास के भीतर के जीवन में दाखिल होता था, मुझे लगता था कि इंस्तांबुल के बेशिकताश में अपने घर मैं बैठे हुए उपन्यास के पन्ने पलटने से पहले मेरी अपनी ही क्रियाओं की छायाएं- एक ग्लास पानी पीना,  मेरी मां के साथ हुआ मेरा संवाद, मेरे दिमाग में आये विचार और वह छोटा सा असंतोष जो मैंने अपने मन में पाला था, सब धीरे धुंधले हो कर समाप्त होते जा रहे हैं. मुझे एहसास होता था कि वह नारंगी हाथकुर्सी जिस पर मैं बैठा हूं, वह बगल में रखा हुआ बदबू  देता ऐश ट्रे, कालीन बिछा हुआ कमरा, गली में फुटबाल खेलते और एक दूसरे पर चिल्लाते बच्चे, बहुत दूर नौकाओं से आनेवाली सीटी की आवाज, इन  सबका अस्तित्व मेरे दिमाग में सिकुड़ रहा है और एक नयी दुनिया- शब्द  दर शब्द, वाक्य दर वाक्य मेरे सामने खुद को प्रकट कर रही है. जैसे-जैसे में पन्ने पर पन्ने पढ़ता जाता था, यह नया जगत मेरे सामने शीशे की तरह साफ होता जाता था, उन गुप्त चित्रों की तरह जो रीएजेंट डालने के बाद धीरे-धीरे प्रकट होते हैं. रेखाएं, छायाएं, घटनाएं और पात्र प्रखर हो उठते थे. उन शुरुआती क्षणों में वैसी हर चीज जिसके कारण उपन्यास की दुनिया में मेरा प्रवेश देर से हुआ, पात्रों, वस्तुओं और घटनाओं याद करने और उनकी छवि बनाने में जिन चीजों ने अवरोध पैदा किया, मुझे दुख पहुंचाते थे, परेशान करते थे. मुख्य पात्र, जिसके किसी दूर के रिश्तेदार की असल नातेदारी मुझे याद नहीं आती थी,  कोई संवाद जिसके बारे में मुझे लगा था कि इसके दोहरे मायने हैं, लेकिन मैं उस दूसरे  मायने को समझ नहीं पाता था, यह सब मुझे बेहद परेशान किया करता था. और जब मेरी आंखें शब्दों से गुजर रही होती थीं, मैं थोरी अधीरता और खुशी के साथ यह कामना किया करता था कि सारी चीजें अपनी जगह पर व्यवस्थित हो जायेंगी. उस समय मेरी सोच के सारे दरवाजे पूरी तरह खुल जाते थे, जैसे किसी कमजोर जानवर को बिल्कुल अनजान जगह पर छोड़ दिया गया हो. मेरा दिमाग लगभग खलबली की स्थिति में काफी तेज चलने लगता था. जैसे ही मैं अपना पूरा ध्यान उपन्यास के ब्योरों पर लगाता था, ताकि उस दुनिया का अभ्यस्त हो सकूं, जिसमें मैं दाखिल होने जा रहा हूं, मुझे शब्दों को दृश्यात्मकता देने में, उपन्यास में वर्णित घटनाओं की छवि बनाने में मुश्किल आने लगती थी.
कुछ देर बाद यह गहन और थका देनेवाला प्रयास रंग लाता था और मेरे सामने वह भव्य लैंडस्केप प्रकट हो जाता था, जिसे मैं देखना चाहता था. जैसे कि कोई बड़ा महाद्वीप कोहरे को चीर कर अपने समस्त रंगों के साथ आंखो के सामने प्रकट हो जाये. तब मैं उपन्यास में दर्ज घटनाओं और ब्योरों को कुछ इस कदर देख पाता  था, जैसे कि कोई अपनी खिड़की से बाहर के दृश्यों को आसानी से देख रहा हो...

जारी...



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ओरहन पामुक की किताब 'द नेव एंड द सेंटीमेंटल नोवेलिस्ट' के पहले अध्याय 'व्हाट आवर माइंड्स डू, व्हेन वी रीड नोवेल्स' का अंश 

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