27 February 2013

बार-बार मरता और जन्म लेता है लेखक



उड़िया लेखिका डॉ प्रतिभा राय को वर्ष 2011 के लिए 47वां ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने की घोषणा की गयी है. कथा लेखिका प्रतिभा राय अपने उपन्यास तथा कहानियों में चरित्र और जीवन स्थितियों को जीवंत ढंग से प्रस्तुत करने के लिए जानी जाती हैं. उनके पास किस्सागोई की एक खास और प्रभावशाली भाषा है. यही वजह है कि उड़िया भाषा के अतिरिक्त भी उनका एक बड़ा पाठक वर्ग है. हिंदी में अनूदित उनके उपन्यास ‘द्रौपदी’ , ‘उसका अपना आकाश’ और ‘उत्तर मार्ग’ की प्रसिद्धि इसकी बानगी हैं. प्रतिभा राय का सृजन संसार उन्ही की जुबानी...

जीवन के किसी स्मरणीय क्षण की कलात्मक अभिव्यक्ति कहानी का रूप लेती है. कुछ खंडित क्षणों के बिंबों में उभरता हैपूर्णांग जीवन-काव्य. व्याप्तिहीन कहानी की कुछ दीप्ति में समग्र जीवन उद्भाषित हो सकता है. क्षण के खंडांश को भाव की सांद्रता में महाकाल के इतिहास में परिणत कर सकती है एक सार्थक कहानी. महासिंधु के हर बिंदु में जल ही होता है- वह पूर्णता का अंश है- फिर स्वयं-संपूर्ण भी. खंडित चंद्रकला की तरह कहानी विस्तृत जीवन का भाष्य न होने पर भी जीवन-सत्य का एक अंश है. सत्य का अंश भी सत्य है- वह मिथ्या नहीं. एक क्षुद्र रंध्र के जरिए सूर्य-दर्शन करने की तरह. बिंदु में सिंधु सृजन करना और क्षण को महाकाल में परिणत करना है कहानी का धर्म. भाव की सांद्रता, स्पष्टता और विभित्र विषयों के साथ संहति तथा समन्वय बना कर महाभाव की उपलब्धि करना अच्छी कहानी का लक्षण है. अत: कथाकार को सतर्कतापूर्वक थोडे. में बहुत कुछ कहना पड.ता है. 

किसी घटना का सीधा वर्णनकहानी नहीं बन जाता. घटना के केंद्र में जो भाव-बिंदु है- उसे प्रवाहित करना कहानी का लक्ष्य है. पर एक अच्छी कहानी की परिणति व्यंजना में होने के बजाय जिज्ञासा और भावोद्रेककारी अतृप्ति में होती है. एक अच्छी कहानी में तत्व, उपदेश, नीति, नियम का भी सीधे-सीधे प्रचार नहीं होता. अच्छी कहानी पढ. कर भी नहीं पढ. सकने की अतृप्ति का रसबोध भरा होता है. 

अच्छी कहानी में एक आघात होता है- बिजली की तरह झटका. व्यस्त जीवन के जरा-से विराम में वह आघात पैदा होता है- पर उस झटके का अनुभव ह्रदय में अमिट चिह्न् बन रह जाता है. ठीक बिजली के झटके की तरह. आघात क्षणिक पर अनुभव तीव्र, चिरस्थायी. अच्छी कहानी चेतना की समूची सत्ता को स्पंदित, मंथित कर देती है. 

पर कहानी की खास बात है मधुर विद्रोह. प्रचलित प्रथा, चलन, नीति-नियम, समाज-संस्कार, उत्पीड.न, शोषण, प्रतिकूल परिस्थिति में एक लड.ाका जीव होता है. जीवन के इस निरंतर संग्राम में वह न सिर्फ जीतता है और न सिर्फ हारता है. वह हारता है- जीतना-हारना सुनिश्‍चत जानकर भी संग्राम से पीछे नहीं हटता. अत: लेखक जब व्यवस्था के विरोध में विद्रोह करता है, मुंह खोलता है, अपने विद्रोह की घोषणा करता है, तो घटना और पात्रों के माध्यम से. अत: कथा हो या उपन्यास, सब एक-एक विद्रोह की घोषणा हैं. कहानी की हर घटना के समय लेखकीय सत्ता वहां उपस्थित रहती है. हर चरित्र में लेखकीय सत्ता का चेहरा दिख जाता है. अर्थात् कहानी लेखक की आत्मजीवनी कही जा सकती है. इसका यह अर्थ नहीं कि 200 कहानियों का लेखक जीवन की 200 घटनाएं हैं या वह 200 किंवदंतियों का नायक है. लेखक कहीं स्वयं उपस्थित है, तो कहीं दूसरे का प्रप्रतिनिधित्व करता है. अपने अंदर एवं अपने चारों ओर की घटना, अपने जीवन की और औरों के जीवन की घटनाओं में जब लेखक आत्मस्थ हो जाता है, तब लेखक और चरित्र एकात्म हो जाते हैं. लेखक भूल जाता है कि वह किसी और का प्रप्रतिनिधित्व कर रहा है. तब उसमें कोई छलना, कृत्रिमता, दूरी या औपचारिकता नहीं रहती. कथा और चरित्र-सत्ता में तब लेखक किसी और की बात नहीं कहता होता- अपने जीवन की बात ही कहता है. तब उसकी व्यक्ति-सत्ता और युग-सत्ता एकाकार हो जाती है. लेखक कोईखंडित क्षण नहीं, कोई युग नहीं, युग-युगांतर का प्रप्रतिनिधित्व करता है. उसकी चरित्र की छाया से स्वयं को मुक्त करने के बाद अपनी कहानी लिखकर और बाद में अपनी कहानी पढ.कर खुद चकित होता है- कौन है इसका स्रष्टा? क्या मैंने लिखी है कहानी? यहां वह स्वयं अपना आलोचक और विमुग्ध पाठक बना होता है. इस दृष्टि से हर कहानी लेखकीय जीवनगाथा के सिवा कुछ नहीं. 

लेखक एक जीवन में बार-बार मरता है फिर जन्म लेता है. वह उस जीवन में अगणित जीवन का स्पंदन अनुभव करता है- उस स्पंदन की उपलब्धि और अभिव्यक्ति ही कहानी है. रचनाकार कभी मोक्ष नहीं पाता. अनिर्वाण उसकी सृजन वेदना है, क्योंकि अंतर्मन में वह जितना शब्दमय है, बहि: प्रकाश में उतना शब्दमय नहीं होता. अत: कईबातें अप्रकाश्य रह जाती हैं. सृजनात्मक संरचना के बाद अपनी अंतरात्मा का कुछ अंश विमोचन होने का अनुभव रहता है उसमें. पर यह संपूर्ण मोचन नहीं. साहित्यिक अभिव्यक्ति सहसा पूर्णता में तृप्त होने के बाद अगले क्षण लेखक अपना पाठक बन जाता है, अतृप्ति और असंपूर्णता की वेदना का अनुभव करता है. पूर्ण चंद्र सिर्फ एक रात के लिए परिपूर्ण होता है, पर अगली रात को क्षय होने लगता है. यही लेखकीय तृप्ति का असंतोष का रूप है. पर यह अतृप्ति की वेदना उसे जड. नहीं करती. साहित्यक अभिव्यक्ति पर पूर्ण विराम नहीं लगाती. 

साहित्य का असल अभिप्राय है आदमी के अंदर कई कारणवश अप्रकाश्य अमूल्य संभावना के द्वार मुक्त करना. हर आदमी के अंदर मुक्ति की स्वतंत्रता की ईप्सा होती है. साहित्य मुक्ति की सांकल खोल देता है. यदि ऐसा नहीं होता है, तो लेखक पराजय स्वीकार करने को बाध्य है. रचनाकार को सहस्रनयन, अनेक ह्रदय- अगणित संवेदना का अधिकारी होना पड.ता है. साहित्य लेखक की आत्मरमण की वस्तु नहीं है, देश-काल-पात्र से ऊपर मानव की मुक्ति का द्वार है सफल साहित्य. 

एक सफल कहानीकार एक सफल उपन्यासकार हो सकता है, न भी हो. ठीक वैसे ही सफल उपन्यासकार सार्थक कहानीकार नहीं भी हो सकता. कहानी व उपन्यास एक बात नहीं है. कहानी को लंबी खींचने पर उपन्यास नहीं बन जाता और उपन्यास का संक्षिप्त सार कहानी नहीं होता. उपन्यास की कहानी व्यापक होती है, तो कहानी में प्लॉट की बजाय भाव या थीम पर अधिक जोर होता है. कहानी में उपन्यास की तरह चरित्र चित्रण नहीं होता, चरित्राभास ही ऐसी दक्षता से दिया जाता है कि चरित्र का रूप स्पष्ट उजागर हो जाये पाठकीय अंतर्जगत में. व्यंजनापूर्ण, प्रतीकधर्मी, इंगितधर्मी भाषा के जरिए एक सार्थक कहानी का सौकुमार्य खिल उठता है. पाठक मन में तृप्ति नहीं, अतृप्ति की रसना के जरिए जिज्ञासा पैदा कर देती है. 


( किताबघर से प्रकाशित उड़िया से हिंदी में अनूदित ‘दस प्रतिनिधि कहानियां’ की भूमिका का संपादित अंश )

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