लेकिन अफ़सोस इसी साल एक 25 वीं बरसी और मनाई जानी थी जिसे याद करना सरकार के लिए मुश्किलें पैदा करने वाला है.काश यह बरसी नहीं आयी होती ? काश यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से 25 साल पहले 2 - 3 दिसंबर 1984 की आधी रात को जहरीले मिथाइल आइसोसाइनाइद का रिसाव नहीं हुआ होता..काश वो बेक़सूर जाने बचाई जा सकी होतीं? काश उस जहर से और पूरे इलाके के पीने के पानी ,मिट्टी तक में जहरीला रसायन शामिल ना हुआ होता जिसने आज तक 25000 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली है.काश ?? कितना अजीब है ,और अक्सर कितना बेहूदा भी है ये शब्द? जिस तरह हिरोशिमा नागाशाकी पर परमाणु बम का गिड़ना,या चर्नोबिल के नाभिकीय दुर्घटना को किसी काश से नहीं बदला जा सकता ठीक उसी तरह भोपाल की भयावह सच्चाई को भी किसी काश की मदद से नहीं झुठलाया जा सकता.हाँ इससे आँखे मूँद लिया जा सकता है.ठीक उसी तरह जिस तरह भारत सरकार ने और राज्य की सरकार ने इस मामले में अपनी आँखे मूँद रखी हैं. कितना आसान है आँखें मूँद लेना एक रोज -ब रोज घटते दहशत भरी दुर्घटना से? रोज तिल तिल कर मरते लोगों से आँखे बचा लेना कितना आसान है? कितना आसान है अपनी सारी नैतिक जिम्मेदारी से हाथ खीच लेना? कितना आसान है अपनी तमाम बर्बरता के बावजूद सभ्य कहलाना?
भोपाल गैस काण्ड के बाद सरकार के सामने जो चुनौतियां थी उससे निपटने में सरकार नाकाम क्यों रही? क्यों किसी को इस काण्ड के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए किसी को सजा तक नहीं हुई? क्यों आज तक भोपाल गैस काण्ड के मुख्य अभियुक्त एन्डरसन पर मुकदमा चलाने तक में भारत सरकार नाकाम रही?क्यों आज भी यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डोव केमिकल कंपनी आज भी शान से भारत में काम कर रही है ? क्यों भारत सरकार को गैस पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए सुप्रीम कोर्ट की फटकार की जरूरत पडी? क्यों इस फटकार के बाद भी मृतकों के परिजनों तक मुआवजा नहीं पहुच पाया ? भोपाल गैस काण्ड कई असहज सवाल खड़े करता है. सिर्फ सरकार के लिए नहीं हम सब के लिए. मीडिया के लिए .मल्लिका शेहरावत के कपड़ों और रखी सावंत के चुम्बन के रस में डूबी हुई मीडिया ने क्या किया आज तक भोपाल गैस काण्ड के पीड़ितों के लिए? क्यों भूल कर बैठी रही मीडिया आज तक इस काण्ड को? क्यों इंतजार करना पड़ा उसे 25 वीं बरसी का इस विषय पर कुछ लिखने बोलने के लिए? सचिन और अमिताभ को सदी का महानायक करार देने वाली मीडिया ने कभी क्यों नहीं सुध ली उन छोटे छोटे संगठनों की जो भोपाल के गैस पीड़ितों के लिए अंतहीन संघर्ष कर रहे है हैं?जो उन तक साफ़ पानी जैसी न्यूनतम आवश्यकता पहुचाने के लिए लड़ रहे हैं. उनको रोज मौत से लड़ने में मदद कर रहे हैं. क्यों इतनी धुंधली और इतनी बेहूदा हो गई मीडिया के भीतर नायकत्व की समझ ? क्यों बोर वेल में फंसे एक बच्चे पर 36 घंटे का लाइव प्रसारण करने वाली मीडिया ने शाश्वत रूप से जहरीले रसायनों के चंगुल में फंसे लोगों पर कुछ भी सोचने और बोलने को जरूरी नहीं समझा ? यह सब हमारे समय और समाज में हो रहा है, इस सच्चाई ने कभी हमारी नींद क्यों नहीं उडाई ?
सवाल कई हैं और उतने ही असहज भी. लोगों के जीने या मरने की कीमत आज कुछ नहीं. आप अगर अरुणाचल में, या मणिपुर में, मर रहे हों ,अगर आप पूर्व्वी उत्तर प्रदेश में जापानी दिमागी ज्वर से मर रहे हों ,अगर आप बिहार में कालाजार या मलेरिया से मर रहे हों, अगर आप आन्ध्र या ,विदर्भ में कर्ज की मार से मर रहे हों, अगर आप उड़ीसा में भूखमरी से मर रहे हों..या आप भोपाल में मिटटी और पानी में रिसते जहरीले रसायन से मर रहे हों ,उस माँ के दूध को पीने से मर रहे हों जिसके दूध तक में यह जहर घुल चुका है तो आपके मौत की कीमत कुछ नहीं. आपके मौत की कीमत तभी है जब आप सत्ताधारी पार्टी की सर्वेसर्वा की सास या नानी हों.या आपकी मौत पर टीवी चैनलों को भरपूर दर्शक और विज्ञापन मिल सकने की उम्मीद हो.रही सरकार से कुछ उम्मीद करने की बात तो सरकार आपके जीने के लिए भले एक पाई भी खर्च ना करे लेकिन मरे को ज़िंदा करने के लिए करोड़ों खर्च करने में पीछे नहीं हटेगी. यह हमारे समय का चलन है..एक ऐसे क्रूर समय का हिस्सा होना अगर आपकी नसों में सिहरन पैदा नहीं करता तो इन्तजार कीजिये किसी भोपाल काण्ड का. आपको समय की भयावहता का अंदाजा लग जायेगा.
सरकार तो यूसीआई एल को यूनियन कार्बाइड डाऊ केमीकल्स को बेचने तक से नहीं रोक सकी । एक षड़यंत्र के तहत डाऊ केमिकल्स को यूनियन कार्बाइड बेचा गया ताकि सारी लड़ाई डाऊ के नाम शिफ्ट हो जाए और यूनियन कार्बाइड मजे से अपना धंधा चलाती रहे।
ReplyDeleteप्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in
माफ कीजिएगा लेकिन, लेख बहुत ही सतही लगा। कुछ आंकड़ें भी ग़लत हैं।
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद.कम से कम आपने लेख पढ़ा तो सही. अगर आप गलत आंकड़ों से अवगत कराती ,और अगर ये बताती कि लेख को सतही बनाने वाले हिस्से कौन से थे तो मैं आपका शुक्रगुजार होता.भोपाल गैस त्रासदी को आंकड़ों की सहायता से या विद्वतापूर्ण लेखों से अगर समझा जा सकता तो मैं कम से कम five past midnight in bhopal से कुछ अंश लेकर इस लेख को स्तरीय बनाने की कोशिश कर सकता था.मैंने ज्यादा नहीं फिर भी इस किताब को तो कम से कम पढ़ा ही है.वैसे अगर आपके मन में गुस्सा है और आप अपने गुस्से को हमेशा बौद्धिकता के लबादे में ढककर पेश करना चाहें तो मेरे हिसाब से ये बौद्धिकता के साथ फरेब ही होगा.मुझे उम्मीद है कि आपको धूमिल सारी कविता ही गैर स्तरीय लगती होंगी..क्योंकि वहां भी जो प्रकट रूप से सामने है वह गुस्सा और आक्रोश ही है..जिसे उन्होंने बौद्धिकता का लिबास पहनाने की जरुरत कभी महसूस नहीं की,और ऐसा बहुत कुछ लिखा जो सुरुचिपूर्ण तो कतई नहीं कहा जा सकता .कुछ शब्दों से आपकी आपत्ती हो सकती है लेकिन आज के समय में शब्दों और भाषा के purity की अपेक्षा रखने का कोई मतलब नहीं बनता.जब सब कुछ अशुद्ध है तो भाषा की शुद्धता के आग्रह का क्या मतलब है?
ReplyDeleteबहरहाल हर समझ को भोथरा कर देने वाले इस समय में आपकी प्रतिबद्धता मुद्दों की जगह गंभीर और स्तरीय लेखन से बनी रहे ..और पत्रकारिता आपके लिए 2 -10 का एक बौद्धिक व्यापार बना रहे इस दुआ के साथ.....
अवनीश
लेख अच्छा है और आपकी नाराज़गी जायज है ..हम सब के भीतर ये नाराज्गी होनी भी चाहिए ...पर आपने सरकार से ज्यादा मीडिया पर गुस्सा जताया है और उसकी कमियां बताई है..... सरकार ने ना सिर्फ आँखें मूदी हैं बल्कि उस्का जैसा रवैया रहा है ऐसे में इन मौतों की जिम्मेदार सरकार ही है .....जब सज़ा देने वाली और न्याय करने वाले ही गुनाहगार हों ..तो किस से क्या उम्मीद की जा सकतीहै
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