वरिष्ठ कवि असद जैदी को पढ.ना अपने समय, समाज और राजनीति को पहले से बेहतर
तरीके से देखना और समझना है. अपनी कविताओं से समय के साथ संवाद करनेवाले
असद जैदी से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के मुख्य अंश...अखरावट
‘कविता’ आपके लिए क्या है ?
कविता समाज में एक आदमी के बात करने का तरीका है. पहले अपने आप से, फिर दोस्तों से, तब उनसे जिनके चेहरे आप नहीं जानते, जो अब या कुछ बरस बाद हो सकता है आपकी रचना पढ.ते हों. कविता समाज को मुखातिब बाहरी आवाज नहीं, समाज ही में पैदा होनेवाली एक आवाज है, चाहे वह अंतरंग बातचीत हो, उत्सव का शोर हो या प्रतिरोध की चीख. यह एक गंभीर नागरिक कर्म भी है. कविता आदमी पर अपनी छाप छोड.ती है. जैसी कविता कोई लिखता है वैसा ही कवि वह बनता जाता है और किसी हद तक वैसा ही इंसान.
लेखन की शुरुआत कैसे हुई? क्या इसके पीछे कोई प्रेरणा थी?
खुद अपने जीवन को उलट-पुलट कर देखते, जो पढ.ने, सुनने और देखने को मिला है उसे संभालने से ही मेरा लिखने की तरफ झुकाव हुआ. घर में तालीम की कद्र तो थी पर नाविल पढ.ने, सिनेमा देखने, बीड.ी-सिगरेट पीने, शेरो-शायरी करने, गाना गाने या सुनने को बुरा समझा जाता था. यह लड.के के बिगड.ने या बुरी संगत में पड.ने की अलामतें थीं. लिहाजा अपना लिखा अपने तक ही रहने देता था. मगर मिजाज में बगावत है, यह सब पर जाहिर था.
कविता विधा ही क्यों?
शायद सुस्ती और कम लागत की वजह से. मुझे लगता रहता था असल लिखना तो कविता लिखना ही है. यह इस मानी में कि कविता लिखना भाषा सीखना है. कविता भाषा की क्षमता से रू-ब-रू कराती है और उसे किफायत से बरतना भी सिखाती है. कविता एक तरह का ज्ञान देती है, जो कथा-साहित्य या ललित गद्य से बाहर की चीज है. वह सहज ही दूसरी कलाओं को समझना और उनसे मिलना सिखा देती है. हर कवि के अंदर कई तरह के लोग- संगीतकार, गणितज्ञ, चित्रकार,फिल्मकार, कथाकार,मिनिएचरिस्ट,अभिलेखक, दार्शनिक, नुक्ताचीन र्शोता और एक खामोश आदमी- हरदम मौजूद होते हैं.
अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताएं.
मैं अकसर एक मामूली से सवाल का जवाब देना चाहता हूं. जैसे : कहो क्या हाल है? या, देखते हो? या, उधर की क्या खबर है? या, तुमने सुना वो क्या कहते हैं? या, तुम्हें फलां बात याद है? या, यह कैसा शोर है? जहां तक मैं समझ पाया हूं, मेरे प्रस्थान बिंदु ऐसे ही होते हैं. कई दफे अवचेतन में बनती कोई तसवीर या दृश्यावली अचानक दिखने लगती है, जैसे कोई फिल्म निगेटिव अचानक धुल कर छापे जाना मांगता हो. मिर्जा ने बड.ी अच्छी बात कही है- ‘हैं .ख्वाब में हनोज जो जागे हैं .ख्वाब में.’ दरअसल, रचना प्रक्रिया पर ज्यादा ध्यान देने से वह रचना प्रक्रिया नहीं रह जाती, कोई और चीज हो जाती है. यह तो बाद में जानने या फिक्र में लाने की चीज है. यह काम भी रचनाकार नहीं, कोई दूसरा आदमी करता है- चाहे वह उसी के भीतर ही बैठा हो- जो रचना में कोई मदद नहीं करता.
अपनी रचनाशीलता का अपने परिवेश, समाज, परिवार से किस तरह का संबंध पाते हैं?
संबंध इस तरह का है कि ‘दस्ते तहे संग आमद: पैमाने वफा है’ (गालिब). मैं इन्ही चीजों के नीचे दबा हुआ हूं, इनसे स्वतंत्र नहीं हूं. लेकिन मेरे लेखन से ये स्वतंत्र हैं, यह बड.ी राहत की बात है.
क्या साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा का होना जरूरी है?
पानी में गीलापन होना उचित माना जाये या नहीं, वह उसमें होता है. समाज-रचना में कला वैचारिक उपकरण ही है- आदिम गुफाचित्रों के समय से ही. विचारधारा ही जबान और बयान को तय करती है, चाहे आप इसको लेकर जागरूक हों या नहीं. बाजार से लाकर रचना पर कोई चीज थोपना तो ठीक नहीं है, पर नैसर्गिक या रचनात्मक आत्मसंघर्ष से अर्जित वैचारिक मूल्यों को छिपाना या तथाकथित कलावादियों की तरह उलीच कर या बीन कर निकालना बुरी बात है. यह उसकी मनुष्यता का हरण है. और एक झूठी गवाही देने की तरह है.
क्या आपको लगता है कि मौजूदा समय-समाज में कवि की आवाज सुनी जा रही है?
मौजूदा व.क्त खराब है, और शायद इससे भी खराब व.क्त आने वाला है. यह कविता के लिए अच्छी बात है. कविकर्म की चुनौती और जिम्मेदारी, और कविता का अंत:करण इसी से बनता है. अच्छे वक्तों में अच्छी कविता शायद ही लिखी गयी हो. जो लिखी भी गयी है वह बुरे व.क्त की स्मृति या आशंका से कभी दूर न रही. जहां तक कवि की आवाज के सुने जाने या प्रभावी होने की बात है, मुझे पहली चिंता यह लगी रहती है कि दुनिया के हंगामे और कारोबार के बीच क्या हमारा कवि खुद अपनी आवाज सुन पा रहा है? या उसी में एब्जॉर्ब हो गया है, सोख लिया गया है? अगर वह अपने स्वर, अपनी सच्ची अस्मिता, अपनी नागरिक जागरूकता को बचाए रख सके, तो बाकी लोगों के लिए भी प्रासंगिक होगा.
आपके एक समकालीन कवि ने लिखा है (अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश) ‘आपके साथ हिंदी की आलोचना ने न्याय नहीं किया.’ क्या आपको भी ऐसा लगता है?
मैं अपना ही आकलन कैसे करूं! या क्या कहूं? ऐसी कोई खास उपेक्षा भी मुझे महसूस नहीं हुई. मेरी पिछली किताब मेरे खयाल में गौर से पढ.ी गयी और चर्चा में भी रही. कुछ इधर का लेखन भी. इस बहाने कुछ अपना और कुछ जगत का हाल भी पता चला.
इन दिनों क्या नया लिख रहे हैं और लेखन से इतर क्या, क्या करना पसंद है?
कुछ खास नहीं. वही जो हमेशा से करता रहा हूं. मेरी ज्यादातर प्रेरणाएं और मशगले साहित्यिक जीवन से बाहर के हैं, लेकिन मेरा दिल साहित्य में भी लगा रहता है. समाज-विज्ञानों से सम्बद्ध विषयों पर ‘थ्री एसेज’ प्रकाशनगृह से किताबें छापने का काम करता हूं. और अपना लिखना पढ.ना भी करता ही रहता हूं. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, खास कर खयाल गायकी, सुनते हुए और विश्व सिनेमा देखते हुए एक उम्र गुजार दी है.
ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ.ने के बाद जेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?
चलते-चलते ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते. मैं पुराना पाठक हूं. जवाब देने बैठूं, तो बकौल शाइर,‘वो बदखू और मेरी दास्ताने-इश्क तूलानी/ इबारत मु.ख्तसर, कासिद भी घबरा जाये है मुझसे.’ कुछ आयतें जो बचपन में रटी थीं और अंतोन चेखव की कहानी ‘वान्का’ जो किशोर उम्र में ही पढ. ली थीं जेहन में न.क्श हो गयी हैं. इसके बाद की फेहरिस्त बहुत लंबी है.
‘कविता’ आपके लिए क्या है ?
कविता समाज में एक आदमी के बात करने का तरीका है. पहले अपने आप से, फिर दोस्तों से, तब उनसे जिनके चेहरे आप नहीं जानते, जो अब या कुछ बरस बाद हो सकता है आपकी रचना पढ.ते हों. कविता समाज को मुखातिब बाहरी आवाज नहीं, समाज ही में पैदा होनेवाली एक आवाज है, चाहे वह अंतरंग बातचीत हो, उत्सव का शोर हो या प्रतिरोध की चीख. यह एक गंभीर नागरिक कर्म भी है. कविता आदमी पर अपनी छाप छोड.ती है. जैसी कविता कोई लिखता है वैसा ही कवि वह बनता जाता है और किसी हद तक वैसा ही इंसान.
लेखन की शुरुआत कैसे हुई? क्या इसके पीछे कोई प्रेरणा थी?
खुद अपने जीवन को उलट-पुलट कर देखते, जो पढ.ने, सुनने और देखने को मिला है उसे संभालने से ही मेरा लिखने की तरफ झुकाव हुआ. घर में तालीम की कद्र तो थी पर नाविल पढ.ने, सिनेमा देखने, बीड.ी-सिगरेट पीने, शेरो-शायरी करने, गाना गाने या सुनने को बुरा समझा जाता था. यह लड.के के बिगड.ने या बुरी संगत में पड.ने की अलामतें थीं. लिहाजा अपना लिखा अपने तक ही रहने देता था. मगर मिजाज में बगावत है, यह सब पर जाहिर था.
कविता विधा ही क्यों?
शायद सुस्ती और कम लागत की वजह से. मुझे लगता रहता था असल लिखना तो कविता लिखना ही है. यह इस मानी में कि कविता लिखना भाषा सीखना है. कविता भाषा की क्षमता से रू-ब-रू कराती है और उसे किफायत से बरतना भी सिखाती है. कविता एक तरह का ज्ञान देती है, जो कथा-साहित्य या ललित गद्य से बाहर की चीज है. वह सहज ही दूसरी कलाओं को समझना और उनसे मिलना सिखा देती है. हर कवि के अंदर कई तरह के लोग- संगीतकार, गणितज्ञ, चित्रकार,फिल्मकार, कथाकार,मिनिएचरिस्ट,अभिलेखक, दार्शनिक, नुक्ताचीन र्शोता और एक खामोश आदमी- हरदम मौजूद होते हैं.
अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में बताएं.
मैं अकसर एक मामूली से सवाल का जवाब देना चाहता हूं. जैसे : कहो क्या हाल है? या, देखते हो? या, उधर की क्या खबर है? या, तुमने सुना वो क्या कहते हैं? या, तुम्हें फलां बात याद है? या, यह कैसा शोर है? जहां तक मैं समझ पाया हूं, मेरे प्रस्थान बिंदु ऐसे ही होते हैं. कई दफे अवचेतन में बनती कोई तसवीर या दृश्यावली अचानक दिखने लगती है, जैसे कोई फिल्म निगेटिव अचानक धुल कर छापे जाना मांगता हो. मिर्जा ने बड.ी अच्छी बात कही है- ‘हैं .ख्वाब में हनोज जो जागे हैं .ख्वाब में.’ दरअसल, रचना प्रक्रिया पर ज्यादा ध्यान देने से वह रचना प्रक्रिया नहीं रह जाती, कोई और चीज हो जाती है. यह तो बाद में जानने या फिक्र में लाने की चीज है. यह काम भी रचनाकार नहीं, कोई दूसरा आदमी करता है- चाहे वह उसी के भीतर ही बैठा हो- जो रचना में कोई मदद नहीं करता.
अपनी रचनाशीलता का अपने परिवेश, समाज, परिवार से किस तरह का संबंध पाते हैं?
संबंध इस तरह का है कि ‘दस्ते तहे संग आमद: पैमाने वफा है’ (गालिब). मैं इन्ही चीजों के नीचे दबा हुआ हूं, इनसे स्वतंत्र नहीं हूं. लेकिन मेरे लेखन से ये स्वतंत्र हैं, यह बड.ी राहत की बात है.
क्या साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा का होना जरूरी है?
पानी में गीलापन होना उचित माना जाये या नहीं, वह उसमें होता है. समाज-रचना में कला वैचारिक उपकरण ही है- आदिम गुफाचित्रों के समय से ही. विचारधारा ही जबान और बयान को तय करती है, चाहे आप इसको लेकर जागरूक हों या नहीं. बाजार से लाकर रचना पर कोई चीज थोपना तो ठीक नहीं है, पर नैसर्गिक या रचनात्मक आत्मसंघर्ष से अर्जित वैचारिक मूल्यों को छिपाना या तथाकथित कलावादियों की तरह उलीच कर या बीन कर निकालना बुरी बात है. यह उसकी मनुष्यता का हरण है. और एक झूठी गवाही देने की तरह है.
क्या आपको लगता है कि मौजूदा समय-समाज में कवि की आवाज सुनी जा रही है?
मौजूदा व.क्त खराब है, और शायद इससे भी खराब व.क्त आने वाला है. यह कविता के लिए अच्छी बात है. कविकर्म की चुनौती और जिम्मेदारी, और कविता का अंत:करण इसी से बनता है. अच्छे वक्तों में अच्छी कविता शायद ही लिखी गयी हो. जो लिखी भी गयी है वह बुरे व.क्त की स्मृति या आशंका से कभी दूर न रही. जहां तक कवि की आवाज के सुने जाने या प्रभावी होने की बात है, मुझे पहली चिंता यह लगी रहती है कि दुनिया के हंगामे और कारोबार के बीच क्या हमारा कवि खुद अपनी आवाज सुन पा रहा है? या उसी में एब्जॉर्ब हो गया है, सोख लिया गया है? अगर वह अपने स्वर, अपनी सच्ची अस्मिता, अपनी नागरिक जागरूकता को बचाए रख सके, तो बाकी लोगों के लिए भी प्रासंगिक होगा.
आपके एक समकालीन कवि ने लिखा है (अपनी उनकी बात: उदय प्रकाश) ‘आपके साथ हिंदी की आलोचना ने न्याय नहीं किया.’ क्या आपको भी ऐसा लगता है?
मैं अपना ही आकलन कैसे करूं! या क्या कहूं? ऐसी कोई खास उपेक्षा भी मुझे महसूस नहीं हुई. मेरी पिछली किताब मेरे खयाल में गौर से पढ.ी गयी और चर्चा में भी रही. कुछ इधर का लेखन भी. इस बहाने कुछ अपना और कुछ जगत का हाल भी पता चला.
इन दिनों क्या नया लिख रहे हैं और लेखन से इतर क्या, क्या करना पसंद है?
कुछ खास नहीं. वही जो हमेशा से करता रहा हूं. मेरी ज्यादातर प्रेरणाएं और मशगले साहित्यिक जीवन से बाहर के हैं, लेकिन मेरा दिल साहित्य में भी लगा रहता है. समाज-विज्ञानों से सम्बद्ध विषयों पर ‘थ्री एसेज’ प्रकाशनगृह से किताबें छापने का काम करता हूं. और अपना लिखना पढ.ना भी करता ही रहता हूं. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, खास कर खयाल गायकी, सुनते हुए और विश्व सिनेमा देखते हुए एक उम्र गुजार दी है.
ऐसी साहित्यिक कृतियां जो पढ.ने के बाद जेहन में दर्ज हो गयी हों? क्या खास था उनमें?
चलते-चलते ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते. मैं पुराना पाठक हूं. जवाब देने बैठूं, तो बकौल शाइर,‘वो बदखू और मेरी दास्ताने-इश्क तूलानी/ इबारत मु.ख्तसर, कासिद भी घबरा जाये है मुझसे.’ कुछ आयतें जो बचपन में रटी थीं और अंतोन चेखव की कहानी ‘वान्का’ जो किशोर उम्र में ही पढ. ली थीं जेहन में न.क्श हो गयी हैं. इसके बाद की फेहरिस्त बहुत लंबी है.
बहुत सुंदर बातचीत , कविता के बारे में असद चचा की बात महत्त्वपूर्ण है -'कविता समाज में एक आदमी से बात करने का तरीक़ा है'। मैं बस इसे थोड़ा सा मोड़ीफ़ाई करूँगा-' कविता समाज में बात करने का सबसे सशक्त और सघन तरीक़ा है'।
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