22 October 2013

रफी की आवाज के राहगीर

 आपको शब्बीर कुमार याद हैं? जी हां वही ‘एक शाम रफी के नाम’ वाले शब्बीर कुमार, जिनकी आवाज से सजे ‘जब हम जवां होंगे, ‘जिहाल-ए-मिस्किन’,‘जिंदगी हर कदम एक नयी जंग है’ जैसे गीत हम आज भी गाते हैं, गुनगुनाते हैं, एफएम पर ये गीत जब बजते हैं तो  थोड़ा ठहर जाते हैं. इन्ही शब्बीर कुमार के फ़िल्मी सफ़र पर छोटा सा लेख  प्रीति सिंह परिहार का.  अखरावट


हिंदी फिल्म के महानतम पार्श्व गायकों में शुमार मोहम्मद रफी की गायिकी के अंदाज और आवाज को उनके बाद बहुत से गायकों ने अपनाने की कोशिश की और बतौर गायक एक पहचान भी हासिल की.

अस्सी के दशक में एक ऐसे ही गायक उभरे शब्बीर कुमार. जी हां वही ‘एक शाम रफी के नाम’ वाले शब्बीर कुमार. रफी साहब के इंतकाल के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इस नाम से शुरु हुआ उनका आर्केस्ट्रा कभी पूरे देश में मशहूर हुआ था.

गुजरात के वड़ोदरा में पले-बढ़े  शब्बीर शेख, जिन्हें दुनिया शब्बीर कुमार के नाम से जानती है, रफी साहब की गायिकी के दीवाने थे. उन्होंने रेडियों में मोहम्मद रफ़ी को सुनते हुए गाना सीखा. वह भी दूसरों के घर जाकर, क्योंकि उनके पिता घर में रेडियो रखने के खिलाफ थे. फिल्मों में गाने का ख्याल दूर तक उनके जेहन में नहीं था. एक इंटरव्यू में शब्बीर ने कहा था, "जिंदगी में संगीत से पहले पेंटिंग आ गई थी. गायक न बनता तो आर्टिस्ट होता.  किसी जमाने में दो से आठ रूपये में वडोदरा में चित्र बना कर कमा लेता था और उससे अपनी पॉकेट मनी निकाल लेता था. " हाँ, शब्बीर कुमार को संगीत का बेहद शौक था.  वे इतना अच्छा गा लेते थे कि दोस्तों ने उनसे कहा कि आर्केस्ट्रा में क्यों नहीं गाते? शब्बीर आर्केस्ट्रा के लिए गाने लगे और धीरे-धीरे रफी के गीत गाने के लिए लोकप्रिय हो गये. रफी से मिलती आवाज शब्बीर कुमार को आर्केस्ट्रा की दुनिया से पार्श्व गायन में ले आयी. हुआ यूं कि अमिताभ अभिनीत ‘कुली’ के गाने रफी साहब गानेवाले थे, पर कुदरत को यह मंजूर न था. फिल्मकार मनमोहन देसाई किसी और गायक की आवाज के बारे में सोच ही नहीं पा रहे थे. तब संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने ऊषा खन्ना की मदद से शब्बीर कुमार की "खोज" की.

उस समय यह चरचा आम थी कि ‘एक लड़का आया है जिसकी आवाज मोहम्मद रफी से मिलती-जुलती है.’ कुली के गानों की लोकप्रियता से उन्हें ‘बेताब’ में गाने का मौका मिला और पार्श्व  गायन के लिए फिल्म फेयर अवॉर्ड भी. ‘बेताब’ में लता मंगेशकर के साथ उनके गाये ‘जब हम जवां होंगे’ और ‘बादल यूं गरजता है’ तो आपको याद ही होंगे. ऐसे ही कुछ और यादगार गीत,‘जिहाल-ए-मिस्किन’,‘जिंदगी हर कदम एक नयी जंग है’,‘याद तेरी आयेगी’, ‘तुम्हे अपना साथी बनाने से पहले’, "गोरी हैं कलाइयां" शब्बीर की आवाज से सजे हैं. उन्होंने लता और आशा, दोनों के साथ गाया। 1980 के दशक में शब्बीर ने लगभग हर संगीतकार के साथ काम किया.  लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, आर डी बर्मन, राजेश रोशन, बप्पी लाहिरी, अनु मालिक, रवींद्र जैन जैसे शीर्ष संगीत निर्देशकों ने जो संगीत रचा, उसे शब्बीर ने स्वर दिया. पर, कई सुपर हिट गानों के बाववजूद फिल्मों में शब्बीर का फ़िल्मी सफर एक दशक से ज्यादा का नहीं रहा और गायिकी का यह सितारा माया नगरी की निगाहों से ओझल सा हो गया. वैसे शब्बीर आर्केस्ट्रा की दुनिया में आज भी लोकप्रिय और सक्रिय हैं, लेकिन कभी-कभार ही किसी फिल्म गीत में उनकी आवाज सुनी जा सकती है. पेंटिंग वे आज भी करते हैं. उन्होंने सलमान खान को उनकी फिल्म दबंग का पोट्रेट बना कर दिया था. उनके बेटे दिलशाद भी उभरते  हुए गायक हैं. दिलशाद ब्लू और रा-वन के लिए गाना गा चुके हैं. 

शब्बीर अब भले फिल्मों के लिए न के बराबर गाते हों, भले हमारा बचपन पीछे छूट गया हो और हम जवान हो गए हों और जाने कहाँ आ गये हों, लेकिन हम जहाँ भी हों आज भी शब्बीर कुमार के गाये गीतों और उनकी आवाज को तो अक्सर याद करते ही रहते हैं. उनके गानों के साथ पुराने दिनों में लौटते रहते है. 

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