आज शिक्षक
दिवस के मौके पर वरिष्ठ आलोचक-साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने जीवन में गुरुओं, ख़ास कर हजारी प्रसाद द्विवेदी की भूमिका को याद किया है। यहाँ कई संस्मरण व्योमकेश दरवेश से हटकर हैं। शिक्षक दिवस के मौके पर शिष्य-गुरु सम्बन्ध
को प्रकट करता त्रिपाठी जी का यह लेख------
गुरु पर तटस्थ हो कर नहीं लिख सकता
मुझ पर अध्यापकों का स्नेह ही नहीं रहा, बल्कि कहिए उनकी कृपा रही. यह मेरा आत्मस्वीकार है कि मैं जो कुछ भी बन पाया अध्यापकों के इसी स्नेह के कारण. वह जमाना ही दूसरा था. आत्मीयता का एक धागा गुरु को शिष्य से जोड़ता था. मुझे ऐसे गुरु मिले जिन्होंने मेरी पढ़ाई- लिखाई ही नहीं मेरे खाने-पीने तक में मेरी मदद की.
मैं जब हाई स्कूल में था तब घर की स्थिति ऐसी नहीं थी, बल्कि कहिए कि परंपरा भी नहीं थी कि पढाई-लिखाई को प्रोत्साहन मिलता. पैसे नहीं होते थे. खैर, मैं हाईस्कूल पास कर गया और पहुंच गया कानपुर. आगे पढने के लिए. हॉस्टल में रहने लगा. सन् 1949-50 की बात है. भीषण अकाल पड़ा था. घर से पैसे आने की तो कोई उम्मीद ही नहीं थी. सिर्फ एक रास्ता बचा था कि वापस लौट जाऊं. लेकिन, असल में वापस लौटने के लिए भी पैसे नहीं थे. चिंता में डूबा हुआ था कि एक विद्यार्थी ने मेरे कमरे पर आकर कहा कि तुम्हें पंडित अयोध्यानाथ शर्मा बुला रहे हैं. उन्होंने मुझसे कहा कि तुम पढाई -लिखाई में अच्छे हो, क्लास मे अव्वल आये हो, मुझे पता चला है कि तुम्हारी आर्थिक स्थिति खराब है, पर तुम आर्थिक चिंता छोड़ दो और पढाई की ओर ध्यान लगाओ. उस जमाने में यानी 1949 मे उन्होंने 30 रुपये दिये. बीए में स्कॉलरशिप मिलने लगी. 60 रुपये. पढ़ाई के साथ-साथ कई शौक पाल लिये. सिनेमा-विनेमा देखने लगा. रिजल्ट खराब आया. टॉप-वगैरह की बात तो दूर फस्र्ट डिवीजन के नंबर भी नहीं आये.
भाग कर काशी पहुंचा. भविष्य के प्रति अनजान और सशंकित था. वहीं पहली बार हजारी प्रसाद द्विवेदी से भेंट हुई. जब उनसे मिला तो उनके चरण स्पर्श किये और यह पूछने पर कि कैसे आये हो, लगभग एक सांस मे बोल गया, ‘आपकी शरण मे आया हूं. असहाय हूं. आपके चरणों में आकर मेरा जीवन बन जायेगा.’ द्विवेदी जी ने जवाब दिया, ‘कोई दूसरा किसी का जीवन नहीं बनाता. तुम अपना जीवन खुद बना-बिगाड़ सकते हो.’ तो यह द्विवेदी जी के पहले गुरुवचन थे. उन्होंने मुझे अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया और पूछा, ‘कोई आर्थिक कष्ट है?’ हालांकि कष्ट तो मुझे था, लेकिन मैं अपनी स्थिति उनके सामने जाहिर नहीं करना चाहता था. मैंने कहा कि उसका प्रबंध मैं कर लूंगा. मुझे बस आपकी कृपा चाहिए. द्विवेदी जी ने कहा जब तुम मेरे शिष्य हो गये हो, तो गुरु शिष्य से बढ. कर कौन सा आत्मीय संबंध हो सकता है. विद्यार्थी को जहां से भी संभव हो, ज्ञान ग्रहण करना चाहिए. यह दूसरी शिक्षा थी. मैं जैसे-जैसे रटा रटाया सा कह गया, ‘आप हिंदी के सूर्य हैं. आपके पास रहूंगा तो कुछ सीख लूंगा.’ उन्होंने कहा, ‘तुम्हें क्या पता, मेरे भीतर कितने दोष हैं. किसी पर अंध श्रद्धा नहीं करनी चाहिए.’ यह तीसरी सीख थी. हालांकि यह नहीं कह सकता कि उनसे सुनी और सीखी बातों को कितना अपने जीवन में उतार पाया. बल्कि सच कहूं तो मैं उन पर तटस्थ होकर नहीं लिख पाया. यह मेरे बस की बात ही नहीं थी.
द्विवेदी जी विद्वता का काफी सम्मान करते थे. खुद 16-16 घंटे अध्ययन किया करते थे. लेकिन सिर्फ विद्वता ही उनकी नजरों में श्रेष्ठता की पर्याय नहीं थी. वे कहा करते थे कि विद्वान बनना कोई बड़ी बात नहीं है. कोई भी आदमी 50 किताबें पढ. ले तो विद्वान बन सकता है, लेकिन सबसे बड़ी बात है मनुष्य बनना. विद्वानों के बारे में वे अकसर कहा करते थे कि कम लोग ही जानते हैं कि वे कितना कम जानते हैं. वे शिक्षा को सबसे पहले मनुष्य निर्माण का ही साधन मानते थे. और यह बात किसी से छिपी नहीं है.
उन्हें सभी शिष्य प्रिय थे. नामवर सिंह से वे साहित्यिक-राजनीतिक मंत्रणा भी करते थे. नामवर सिंह सिर्फ गुरुभाई नहीं थे. उनसे मैंने काफी कुछ सीखा है. उपन्यासकार शिवप्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह भी उनके प्रिय थे. खैर. पता नहीं कैसे द्विवेदी जी को पता चल गया कि मैं दोनों समय का भोजन नहीं करता. मैंने अपने जीवन में अनगिनत मजबूरी के उपवास रखे हैं. शाम के वक्त मैं उनके साथ घूम रहा था. उन्होंने मुझसे कहा, मेरे घर चलो. कलकत्ता से एक सेठ ने पैसे भिजवाये हैं. जरूरतमंद मेधावी छात्रों में बांटना चाहते हैं. मैं उनका मतलब समझ गया और बात बदलने के लिए बोला, आप दिल्ली कब जा रहे हैं? द्विवेदी जी ने डांट कर कहा, तुम्हारी बुद्धि निर्मल नहीं है. तुम्हारा यह स्वाभिमान भ्रामक है. मैं तुम्हारी सहायता इसलिए नहीं कर रहा कि तुम पर कोई कृपा करूं. इसलिए कर रहा हूं कि आगे चल कर तुम भी किसी पात्र की सहायता कर सको. ब.डे होकर दूसरों की सहायता करने लायक बन सको.
मैं 22-25 साल तक उनके करीब रहा. किसी योग्य व्यक्ति का तिरस्कार या उपेक्षा करते हुए मैंने उन्हें नहीं देखा. वे आकाशधर्मा गुरु थे. कबीर के गुरु रामानंद के लिए उन्होंने ही इस शब्द का इस्तेमाल किया था. आकाशधर्मा गुरु अपने शिष्यों को पनपने और आकाश तक पहुंचने में मदद करते हैं. वे अपनी विद्वता के बोझ से उन्हें नहीं लादते. उनकी विद्वता और प्रतिभा को निखारते हैं. पंडित जी के साथ रहते-रहते जब एक साल बीत गया था, तब एक दिन मैंने उनसे कहा कि पंडित जी मैं इतने दिन से आपके साथ हूं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैं कुछ सीख रहा हूं. उन्होंने मुझे देखा और कहा कि अब तुम्हारे सीखने की शुरुआत हो गयी है, क्योंकि अब तुम सजग हो गये हो. उनका मानना था कि विद्या और ज्ञान आत्मसजगता से ही आती है.
द्विवेदी जी को कुछ खास बातों से सख्त नाराजगी होती थी. खासतौर पर अगर कोई किसी महिला के चरित्र की निंदा करे. रवींद्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय, गांधीजी और जवाहर लाल नेहरू के बारे में हल्की बात करे. साहित्यिक बहस करते मैंने उन्हें नहीं देखा. या तो बोलते या सुनते. भवभूति को बड़ा मानो कोई आपत्ति नहीं, कालिदास से बड़ा नहीं कहो. कोई प्रतिवाद करता तो ‘चुप’ हो जाते. गुस्से में गुस्से का कम, थकान का भाव ज्यादा होता था.
द्विवेदी जी के साथ जो कुछ सीखा वह एक तरह से गुरुकुल की परंपरा में रह कर सीखने जैसा था. साथ रहते-रहते सीखता गया और क्या पढ.ना चाहिए, क्या महत्वपूर्ण है जानता गया. अब तो ऐसी परंपरा है नहीं. मुमकिन भी नहीं है. नये बच्चों का संघर्ष हमसे कहीं ज्यादा है. उनका तनाव हमसे कहीं ज्यादा है. यह तनाव भरी शिक्षा नये बच्चों को सफलता की ओर तो ले जा रही है, लेकिन नये सोच और रचनात्मकता से दूर कर रही है.
(विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की संस्मरणात्मक जीवनी व्योमकेश दरवेश नाम से लिखी है.)