बड़े हुए झारखंड के चाईबासा में, ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी पहुंचे. मास्टर्स के लिए लंदन का सफर तय किया और पढ़-लिख कर बीबीसी में पत्रकार हो गये. कुछ एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी करने की धुन फिल्म राइटिंग में ले आयी. फिल्म लिखते हुए ही किताब के राइटर हो गये. अपने पहले ही उपन्यास ‘लूजर कहीं का’ से पाठकों ही नहीं, गैर-पाठकों के बीच भी लोकप्रियता पा रहे लेखक पंकज दुबे से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के अंश.
दरअसल, मैंने जिंदगी में कभी कोई उपन्यास पढ़ा नहीं है. कोर्स की किताबों के अलावा कोई किताब मुङो दिलचस्प नहीं लगती थी. उपन्यास से पहले मैंने ‘लूजर कहीं का’ फिल्म लिखी. फिल्म लिखते हुए मुङो लगा कि फिल्म लेखन की अपनी एक सीमा है. इसमें वो सारी बातें नहीं आ सकतीं, जो मैं कहना चाहता हूं. उपन्यास में सारी बातें आ सकती हैं. लेकिन मैंने कभी खुद कोई उपन्यास पढ़ा नहीं था. मन में सवाल आया कि क्यों! तो जवाब मिला कि कभी कोई उपन्यास दिलचस्प नहीं लगा. मुङो लगा कि मेरे जैसे तो बहुत लोग होंगे, जो गैर-पाठक होंगे, किताबें नहीं पढ़ते होंगे. इस तरह ख्याल आया कि क्यों न एक ऐसी किताब लिखी जाये जो गैर-पाठकों को भी पाठक बना दे. जाहिर है इसकी शर्त थी किताब का दिलचस्प और मनोरंजक होना. मैंने इस किताब को लिखने में एक साल तक मेहनत की. जब मैं खुद पूरी तरह संतुष्ट हो गया, तब मैंने इसे आगे बढ़ाया.
आपने कभी कोई उपन्यास नहीं पढ़ा, तो क्या लेखन का किसी तरह का अभ्यास था पहले से?
मैंने साहित्यिक लेखन के किसी भी तरह के नियम को नहीं माना, क्योंकि मुङो उसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी. हां, लिखने का पैशन बचपन से था. खूब सारे प्रेम पत्र लिखता था स्कूल के दिनों से. क्लास में कोई लड़की बहुत पसंद आ गयी, तो उसके लिए प्रेम-पत्र लिखता, लेकिन उसे देता नहीं था. पिटाई का खतरा था. जब लड़की से अच्छी दोस्ती हो जाती, तब बताता था, ‘इफ यू डोंट माइंड, मैंने तुम्हारे लिए लव लेटर लिखा था, पढ़ लो यार, अब तो हम फ्रेंड्स हैं.’ उन लेटर्स को पढ़ कर किसी को मुझसे प्यार नहीं होता था. हां, हम अच्छे दोस्त हो जाते थे. इस पूरे प्रोसेस में लिखने का खूब अभ्यास हुआ. इंटरनेट आने के बाद चैटिंग के माध्यम से लिखने का अभ्यास जारी रहा. इन सारी चीजों के साथ सेंसऑफ ह्यूमर का होना भी काम आया. इस किताब को लिखते वक्त मुङो यह भी लगा कि अगर आप खुद को केंद्र में रख कर मजाक बनाते हैं, तो दूसरों को ज्यादा आनंद आता है. अगर आप ज्ञान मोड में आ गये कि मैं तो लेखनी से समाज ही बदल दूंगा, तो फिर बात नहीं बनेगी. इसलिए मैंने अपनी नॉन सीरियसनेस को सीरियसली लेने की कोशिश की ताकि नॉन सीरियस रीडर मेरे पा आ जायें. जो पढ़ना नहीं चाहते, इस बहाने से पढ़ाया जाये.
क्या इसे आत्मकथात्मक उपन्यास माना जाये?
यह पूरी तरह से आत्मकथात्मक नहीं है. किसी भी इनसान की पूरी जिंदगी हमेशा इतनी दिलचस्प नहीं होती. मान सकते हैं कि 17 फीसदी मेरी जिंदगी से जुड़े अनुभव हैं, तो 20-21 फीसदी चार दोस्तों की जिंदगी के दिलचस्प हिस्से. कोशिश की है कि पांडे अनिल कुमार सिन्हा की पूरी यात्र इंटरेस्टिंग हो. लेकिन इसमें सब जिंदगी की हकीकत है. फिक्शन कुछ भी नहीं है. फिक्शन पिटाई खाने से बचने के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला शब्द है. कहीं न कहीं नाम बदल कर अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों में चीजें तो घटती ही हैं.
तो क्या इसे अतीत की यात्र कह सकते हैं?
मैं इसे एक काउबेल्ट कॉमेडी की तरह देख रहा हूूं. यह एक छोटे से शहर से आये स्टूडेंट की कहानी है, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में बाबूजी से आइएएस बनने का उधार का सपना लेकर आया है और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. हर दिन उसे दिल्ली की एक लड़की लूजर बता रही है- इसके कपड़े कैसे हैं, इसे अंगरेजी नहीं आती, ये तो सीमा को शीमा जी बोलता है. अब तक उसे सिर्फ यह पता था कि उसे अंगरेजी नहीं आती, लेकिन यहां महसूस होता है कि उसे हिंदी भी नहीं आती. वह इस जद्दोजहद में होता है कि कैसे अपनी पहचान बदले, कैसे स्वीकारा जाये. बाद में उसे महसूस होता है कि अपने आप को बदलने की कोशिश बेवकूफी है. खुद को स्वीकारने की यात्र है यह. हर इनसान अपने आप में यूनिक है, हमें कुछ और बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, इसी बात को नॉन- ज्ञान मोड में बताने की कोशिश है यह किताब. क्या जरूरी है कि हर इनसान, समझदारी की बात करनी हो तो गांधीजी की तरह बात करे या विवेकानंद ही बन जाये. आप हंसते-हंसाते हुए भी कुछ काम की बातें बोल सकते हैं.
आपने इसे हिंदी-अंगरेजी दोनों भाषाओं में लिखा है. पहले किस भाषा में लिखा?
दोनों साथ-साथ ही लिखा. जैसे एक चैप्टर अगर अंगरेजी में लिखा, तो फिर उसका शब्दश: हिंदी में अनुवाद नहीं किया, बस समझ लिया कि इस चैप्टर में ये चीजें हैं, इन चरित्रों से जुड़ी हुई, उसे ही हिंदी में लिख दिया. जब जिस भाषा में मन किया, लिखता गया. कई बार तीन-चार चैप्टर हिंदी के लगातार लिख दिये, फिर इंगलिश में उसे कवरअप कर दिया. मुङो दोनों भाषाओं से प्रेम है. अंगरेजी और हिंदी दोनों मेरे साथ हैं और दोनों को पढ़नेवाले मेरे ढेर सारे दोस्त हैं.
क्या दोनों भाषाओं में प्रकाशित होने के चलते भी इसकी लोकप्रियता बढ़ी है?
फायदा तो मिलता है अंगरेजी में लिखने का. लेकिन हिंदी के प्रति जो ट्रीटमेंट है समाज का, वह मुझे दुखी करता है. अंगरेजी में होने की वजह से सोशल मीडिया में किताब को बहुत ज्यादा जगह मिली. लंदन तक में जो लोग लिख रहे हैं किताब के बारे में, वे यह भी लिख रहे हैं कि यह हिंदी में भी है. बायलिंगुअल ऑथर है. ऑस्ट्रेलिया के नेशनल रेडियो एसबीएस से मेरा जो इंटरव्यू आया, उसमें भी यह बताया गया. तो दोनों भाषाओं का जो गंठबंधन मैंने कराने की कोशिश की है, उससे ये शादी बड़ी अच्छी चल रही है.
मूलरूप में प्रभात खबर में प्रकाशित
bahut badhai pankaj dubey ji
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ReplyDeleteBadhaii Hoo Badhaii Hoo......