24 February 2014

मजाज : इंकलाब का मुतरिब

तरक्कीपसंद -रूमानी शायर मजाज  लखनवी पर डाक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी का यह लेख मजाज के लेखन की दुनिया में दाखिल होने , उसके महत्व को समझने की कुंजी देता है. आप भी पढ़ें।  अखरावट 




मैं बलरामपुर जिला गोंडा में डीएवी हाईस्कूल में पढ़ता था। पांचवें दशक की बात है। बलरामपुर लखनऊ से बहुत नजदीक है। वहां साहित्य का वातावरण उर्वर था। खास बात यह थी कि हिन्दी और उर्दू के साहित्यकारों में आत्मीयता थी। अधिकांश रचनाकार दोनों भाषाओं में लिखते-पढ़ते थे। विद्यार्थी आपस में बातें करते तो पंत, महादेवी, प्रसाद, निराला, बच्चन, जोश, जिगर, फैज, मखदूम के शेर भी सुनाते और सुनते। मजाज का नाम आते ही गंभीर हो जाते और एक खास तरह की आत्मीयता उनके व्यक्तित्व और रचनाओं से महसूस करते। अब मैं आपको एक ऐसी घटना सुनाने जा रहा हूं कि आपको क्या, खुद मुझे भी आश्चर्य होता है। मैं उन दिनों आरएसएस का प्रतिबध्द कार्यकर्ता था। शाम को शाखा अटेंड करता था। शाखा में कट्टर हिन्दूपंथी और मुस्लिम-विरोधी छात्र आते थे। एक बार स्वयं सेवकों से एक-एक कविता या गाना सुनाने को कहा गया। सभी सुनाने वालों ने हिन्दू राष्ट्र और धर्म से संबंधित उन्मादकारी पंक्तियां सुनाईं। एक लड़के का नंबर आया, तो वह सुनाने लगा:


वो इक नर्स थी चारागर जिसको कहिए
मदावा-ए-दर्द-ए जिगर जिसको कहिए
जवानी से तिंफ्ली गले मिल रही थी
हवा चल रही थी कली खिल रही थी
मेरी हुक्मरानी है अह्ले जमीं पर
ये तहरीर था सांफ उसकी जबीं पर
उसने कविता का अंत किया:
नहीं जानती है मेरा नाम तक वो
मगर भेज देती है पैगाम तक वो
ये पैगाम आते ही रहते हैं अक्सर
कि किस रोज आओगे बीमार होकर।

मेरे पास 'आहंग' की जो प्रति है, उसमें इन कविता का रचनाकाल 1934 दिया हुआ है। आ रएसएस की शाखा में इस कविता का तन्मय पाठ लोगों को अच्छा लगा। उस समय तो यह अच्छा लगना न आश्चर्यजनक था, न अस्वाभाविक। लेकिन, आज यह आश्चर्यजनक ही नहीं, अविश्वसनीय भी लग रहा है। इस घटना से अनेक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। एक तो यह कि कलात्मक सौंदर्य भिन्नताओं को एक तरफ रखकर सबको एक तार से जोड़ देता है। काव्यशास्त्र में इसी को सहृदयता कहते हैं। सहृदय का अर्थ हृदय वाला नहीं, बल्कि समान हृदय वाला होता है। संभवत: इसी अर्थ में जयशंकर प्रसाद ने सौंदर्य को चेतना व उज्जवल वरदान कहा है। दूसरी बात यह कि आरएसएस की शाखा में आने वाले किशोर वस्तुत: मुस्लिम-द्वेषी, संकीर्ण या उन्मादी नहीं थे (नहीं होते)। संगठन की विचारधारा के बावजूद उनमें संकीर्णता से ऊपर उठने की क्षमता बनी हुई थी। (बनी रहती है अवसर पाकर)

मजाज की लोकप्रियता यूं ही नहीं थी। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन चरम उत्कर्ष पर था। बयालीस के आंदोलन के बाद नेता रिहा किए जा रहे थे और प्रगतिशील चेतना की लहर चल रही थी। निस्संदेह सांप्रदायिकता का उन्माद भी बढ़ रहा था। सन् बयालीस में राष्ट्रवादी आंदोलन का साथ न देने के कारण वामपंथी पार्टी की निंदा भी हो रही थी, लेकिन इन सबके नीचे आम जनता में जनवादी प्रवृत्तियां और विचारधारा मजबूत थीं। प्रगतिशील लेखक संघ से हिन्दी और उर्दू के ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के समर्थ रचनाकार जुड़े हुए थे और पराधीनता से मुक्ति के आकांक्षी थे। प्रगतिशील चेतना का सुनिश्चित सौंदर्य-बोध था, जिसमें हर प्रकार की भिन्नता और भेदभाव के विरुध्द एकजुट होने की क्षमता थी। एक ओर यह चेतना धरा पर स्वर्ग उतार लेना चाहती थी और शोषण मुक्त ऐसे समाज की स्थापना करना चाहती थी, जिसमें मनुष्य की संभावनाएं साकार हो सकें। दूसरी तरफ, वह सभी प्रकार की विषमता और कुरूपता के प्रति बेचैनी और विद्रोह की भावना का भी प्रसार कर रही थी। इस यथार्थ और स्वप्न के बीच फंसे हुए अनेक संवेदनशील साहित्यकारों की स्थिति विचित्र थी, जिन पर विचार करने से हम मजाज की कविता और व्यक्तित्व का थोड़ा-बहुत पता पा सकते हैं।

असरारुल हक मजाज बाराबंकी के शिया मुसलमान थे। जमींदारी थी। परिवार सम्पन्न था। कई भाई-बहन थे। उन्हीं के समकालीन अवध के एक और कवि थे-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और उन्हीं के समकालीन बंगाली कवि नजरुल इस्लाम थे। तेलुगु में भी श्री श्री थे। ये कवि विद्रोही भावना और अग्निवर्षिणी वाणी के लिए अपने भाषा-साहित्य में अप्रतिम माने जाते हैं। एक बात और ध्यान देने की है, इन सभी कवियों ने उत्कृष्ट प्रेम कविताएं भी लिखी हैं। नजरुल के और निराला के गीत अभूतपूर्व है। श्री श्री के गीत फिल्मों में लिखे गए हैं और मजाज की नूरा नर्स का उल्लेख तो प्रारंभ में ही हो चुका है। इन कवियों के व्यक्तित्व में सौंदर्य की, सुख-शांति की सच्ची ललक थी। कविताओं में वह अनेक बिंब-रूपों और भाषा की लय और संगीतात्मकता में व्यंजित हुई है। इस विषय में मैं मजाज की कविता रात और रेल का उल्लेख करना चाहूंगा

तेज झोंकों में वो छमछम का
सरोदे दिलनशीं
ऑंधियों में जल बरसने की सदा आती हुई
जैसे मौजों का तरन्नुम,
जैसे जल-परियों के गीत
इक-इक लय में हजारों ामामें गाती हुई
ठोंकरे खाकर लचकती
गुनगुनाती झूमती
सरगुशी में घुंघरूओं की ताल पर गाती हुई।

नम तवील है और मैंने रात में रेल का ऐसा रूप-रस और नाद भरा चित्र किसी और कवि की कविता में, मेरा मतलब है रेल पर लिखी हुई कविता में नहीं पाया है। सौंदर्य, सुख और शांति की ललक ही इन कवियों को इतना उद्विग्न करती है कि उसकी अप्राप्ति और निराशा इन्हें असंतुलित बनाती है। इनकी दिक्कत यह है कि ये कवि समझौता कर नहीं पाते। दुनियादारी निभा नहीं पाते और विषमतायुक्त समाज में चल नहीं पाते। कबीर ने लिखा था

राम वियोगी न जिए
जिए तो बौरा होइ।'
मेरे स्वर्गीय मित्र डॉ. अजमल अजमली ने मुझे बताया कि जब वे मजाज की शोक-सभा में निराला को बुलाने दारागंज की कोठरी में पहुंचे और निराला को मजाज की मृत्यु की खबर दी, तो निराला बहुत देर तक अपनी सूनी आंखों से अजमल अजमली को देखते रहे। फिर बोले- 'तो तुमने मजाज को भी मार डाला।' सौंदर्य बोध का जो पक्ष विवादी होता है, वह कुरूपता से समझौता नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को इतिहास का पर्याय बना ले और समझौता करना न आता हो, तो उसके साथ वह होना निश्चित हो जाता है, जो नजरुल इस्लाम, निराला और मजाज के साथ हुआ। हम समझौतापरस्ती का पक्ष नहीं ले सकते, लेकिन समझौता न करने वालों के प्रति नतमस्तक जरूर होते हैं। वे असफल रहे, किन्तु उनका जीवन सार्थक रहा। फिराक गोरखपुरी मजाज नहीं थे। वे संतुलित रहना भी जानते थे, लेकिन महसूस करते थे

जो कामयाब है दुनिया में उनको क्या कहिए
है आदमी की इससे बढ़कर और क्या तौहीन।

मजाा ने विषमताग्रस्त ऐतिहासिक दौर को अपने व्यक्तित्व में उतार लिया था- व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन दोनों में। कहते हैं कि असफल प्रेम ने उन्हें मानसिक रोगी बन दिया था। लेकिन, यह केवल व्यक्तिगत असफलता नहीं थी, जिसने उन्हें इस हालत में पहुंचा दिया था। वह इतिहास का पागलपन था, जिसे इन कवियों ने झेला और निष्कवच झेला। इसलिए अपनी सुरक्षा नहीं कर सके। नजरुल इस्लाम, निराला, मजाज बहुत बड़े कवि थे, लेकिन उनकी निष्ठा की पूजा करते हुए भी हम उनके जीवन को अनुकरणीय नहीं कह सकते, क्योंकि हमारी समझ में ईमानदार आदमी का कर्तव्य है कि वह जीवित रहे और संघर्ष करें और हो सके, तो सफल हो। ईमानदार की सफलता इतिहास का कर्ज है, जिसे उतारने की कोशिश करनी चाहिए।
बहरहाल, हम अपने छात्र-जीवन में मजाज की 'आवारा' नम पढ़ते थे। पुलकित होते थे। झूमते थे। माथ पीटते थे और प्रेरणा भी लेते थे। इस कविता में मानवीय भावना उन्माद की उस अवस्था में पहुंच गई है, जहां वह बहुत देर तक संभली रह नहीं सकती और उन्मादग्रस्त को तोड़ के दम लेना चाहती है। आप आवारा नज्म के इन बिंबों पर ध्यान दें

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में जंजीर-सी
रात के हाथों में दिन की मोहिनी तस्वीर-सी
मेरे सीने पर मगर दहकी हुई शमशीर-सी
इक महल की आड़ से निकला
वो पीला माहताब
जैसा मुल्ला का अमामा,
जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी,
जैसे बेवा का शबाब।

याद रखिए कि ये बिंब उस नौजवान की मानसिकता में उभर रहे हैं, जो शहर की रात में नाशाद और नाकारा फिर रहा है। दर-बर-दर मारा फिर रहा है, क्योंकि यह बस्ती गैर की है। यह गैरियत सिर्फ एलियनेशल नहीं है। एलियनेशन में सत्ता से अलगाव होता है, लेकिन एलियनेट करने वाली यह सत्ता मजाज जैसे वामपंथी और एक्टिविस्ट शायर के लिए शोषक, साम्राज्यवादी और देश को गुलाम बनाने वाली भी है। इस सत्ता में हमारे देशी दलाल, सांप्रदायिक रजवाड़े, जमींदार और सामाजिक विषमता को बरकरार रखने और बढ़ाने वाली रूढ़ियाँ और परंपराएँ भी हैं। कवि का सौंदर्य-बोध और सौंदर्य से आकृष्ट होने की भावना अपार है। विडंबना यह है कि शोषक सत्ता ने सुंदरता पर भी कब्जा कर रखा है। कवि के क्षुब्ध मानस को समझने वाला और उसे सहलाने वाला कोई नहीं है

ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों पर जाल
जैसे सूंफी का तसव्वुर जैसे
आशिंक का खयाल
आह लेकिन कौन जाने
कौन समझे जी का हाल।

इस कविता में बिंबों की खास बात यह है कि वे चमकदार और आकर्षक हैं, मोहक हैं; लेकिन सब या तो टूट रहे हैं या बिखरे हैं। आकाश पर तारों का जाल है। सितारा टूट रहा है। फुलझड़ी छूट रही है। कोई चीज ठहरी हुई या किसी सिस्टम में नहीं है। वहशत और आवारगी सिर्फ कवि की मानसिकता में ही नहीं है, वह समूचे परिदृश्य में है। लेकिन, इस रात के हाथों में दिन की मोहिनी तस्वीर भी है, जो भविष्य के प्रति कवि की विचाराधारात्मक आस्था का प्रतीक है। महादेवी वर्मा की पंक्ति यादआती है'रात के डर में दिवस की चाह का शर हूं।'
इस अलगाव, ंगैरियत और विरोधी, बल्कि घृणास्पद सत्ता से लड़ने के लिए कवि के पास जो साधन हैं, वे हैं दिल पर चोट-सी पड़ने वाली सीने में हूक और सीने पर रखी दहकी हुई शमशीर:

'मेरे सीने पर मगर
दहकी हुई शमशीर-सी। '
यह आवारगी गम-ए-दिल
और
 वहशत-ए-दिल
के साथ है।'

जब गम-ए-दिल और दहशत-ए-दिल, तो कोई स्वप्न भी होगा दिल में, कुछ आरजूएं भी होंगी। नौजवान और क्रांतिकारी कवि मजाज के मन में प्रेमिका और समाजवाद या शोषणमुक्त समाज का स्वप्न एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं। जो उनके प्रेम-मिलन में बाधक है, वहीं शोषणमुक्त समाज का भी विरोधी है, और फिलहाल यह संभव नहीं है, इसलिए यह नहीं मुमकिन तो फिर ये दोस्त वीराने में चल।'
वीराना ऐसी जगह और सच्चे अर्थ में निर्वासित स्थिति का प्रतीक है। यह निर्वासन, जैसा कि पहले कह आए हैं, शोषक सत्ता द्वारा निष्कासन का भी प्रतीक है। कवियों के यहां निर्वासन प्राय: निष्कासन के भाव को अपने में समोए रहता है। जिस 'दहकती हुई शमशीर' का उल्लेख अभी हुआ है, वह मजाा की कविता में कई संदर्भों में आती है। 'शमशीर' उनके यहां जालिम से संघर्ष का प्रतीक है। उनका एक मशहूर शेर है-

देख शमशीर है ये साज है ये जाम है ये
तू जो शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है ये।
यह शमशीर 'आवारा' कविता में भी आती है, खंजर के रूप में। मजाज ऊपर के शेर में नवयुवकों को शमशीर उठा लेने के लिए ललकराते हैं और 'आवारा' में वे खुद यह शमशीर उठा लेते हैं
मुंफलिसी और ये माहिर हैं, नार के सामने
सैकड़ों सुल्तान जाबिर हैं नार के सामने
सैकड़ों चंगो औ' नादिर हैं नार के सामने
ले के इक चंगो के हाथों से खंजर तोड़ दूं
ताज पर उसके दमकता है जो पत्थर तोड़ दूं।
कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूं।

यह रवीन्द्रनाथ का 'एकला चलो' ही नहीं है, यह भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकुल्लाह का शहीदी जज्बा है, जो जुल्म के खिलाफ लड़ने में अपनी जान की परवाह नहीं करता दूसरे का मुंह नहीं देखता। एक तरफ से यह ईसा मसीह और गांधी का भी जज्बा है। हालांकि अहिंसा का नहीं है। इस कविता में महल की आड़ से निकलने वाले पीले माहताब की उपमा, मुल्ला के अमामे और बनिये की किताब, मुंफलिस की जवानी और बेवा के शबाब से दी गई है। पीले चंद्रमा से विधवा के यौवन और निर्धन की जवानी समझ में आ जाती है। सौंदर्य अशक्त और पराधीन है। इनका कोई सादृश्य मुल्ला के अमामे और बनिये की किताब से नहीं मालूम पड़ता। लेकिन, ये सादृश्य रूपगत नहीं भावगत हैं और जरा-सा ध्यान देने पर सादृश्-सूत्र मिल जाता है। हिन्दी कविता के पाठक मुक्तिबोध के प्रसिध्द शब्द संयोग 'चांद का मुंह टेढ़ा है' से परिचित हैं। मुल्ला का अमामा और बनिये की किताब मजाज के लिए विरक्ति नहीं, घृणा के प्रतीक हैं और आगे बढ़कर युवती-विधवा और जवान की मुंफलिसी के जिम्मेदार भी हैं। युवती के वैधव्य का जिम्मेदार मुल्ला का अमामा, सामाजिक-धार्मिक रूढ़ि और नौजवान की मुंफलिसी की जिम्मेदार बनिये की किताब है। यहां युवती के वैधव्य और युवक की गरीबी के प्रति मजाा का क्रोध उनके कारणों तक सीधे पहुंचकर सादृश्य वस्तु में रूपांतरित हो जाता है। मजाज और निराला में उन्माद और मानसिक विक्षेप बाह्य आचरण में तो दिखलाई पड़ता है, लेकिन कविता करते समय शब्द, रूप, रस, गंध, विवेक और काव्य-कौशल को क्षतिग्रस्त नहीं कर पाता, बल्कि उन्हें अधिक निखारता है। उनके काव्य विवेक को और अधिक जागृत करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है। इसी स्थिति के लिए निराला ने लिखा था हो- 'इसी कर्म पर वज्रपात।'

मजाज ने अनेक ऐसी गजलें कहीं हैं, जिनके शेर लोगों की जुबान पर हैं और बहुत दिनों तक बने रहेंगे। वे सिध्दहस्त शिल्पी कवि हैं और उर्दू काव्य की काव्य-रूढ़ियों, परंपराओं में निष्णात हैं। मेरे खयाल से मजाज प्रधानत: नज्मों के कवि हैं। उनकी ज्यादातर मशहूर कृतियां 'नज्म' विधा में हैं। आवारा, नूरा, नर्स, नन्हीं पुजारिन, रात में रेल, नौजवान खातून से वगैरह। मजाज की नज्में और उनकी भाषा उर्दू-हिन्दी साहित्य के इतिहास में अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। यह बात छिपी नहीं है और मान भी ली जाती है कि प्रगतिशील आंदोलन का प्रचार और प्रसार प्रधानत: उर्दू साहित्यकारों ने प्रारंभ किया। इस विषय में हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील विचार और भाव-बोध का विस्तार बाद में हुआ। यद्यपि, हिन्दी साहित्य पर प्रगतिशील भाव-बोध का विस्तार बाद में हुआ। यद्यपि, हिन्दी साहित्य पर प्रगतिशील भाव-बोध का वर्चस्व कई दशकों तक बना रहा और कमोबेश आज भी बना है, शायद समकालीन उर्दू साहित्य की अपेक्षा ज्यादा। प्रगतिशील आंदोलन ने उर्दू-हिन्दी साहित्य की भाव परिधि का विस्तार ही नहीं किया, अभूतपूर्व ऐतिहासिक भाव-संपदा ही नहीं प्रदान की, लोकोन्मुख और लोकवादी ही नहीं बनाया। रूप और शिल्प के क्षेत्र में भी युगांतर किया। वर्गीय दृष्टि ने कविता के रूप पक्ष को जैसे एक नया मिशन दिया-हिन्दी और उर्दू की मौलिक एकता का खुसरो, वली, कबीर, जायसी, तुलसी, प्रेमचंद, निराला, जोश, जिगर, फिराक, फैज, मखदूम एक ही भाषा के रचनाकार हैं। उन्हें एक जातीयता में एकजुट करने की कुछ दिन के लिए ही सही कामयाब कोशिश की गई। हिन्दी-उर्दू साहित्य का इस दृष्टि से यह स्वर्णिम काल है। साहित्य का ऐसा युग कविता में शायद ही पहले कभी आया हो। इसके कई प्रमाण है, लेकिन उनकी यहां जरूरत नहीं है। कहना सिर्फ यह है कि मजाज प्रगतिशील आंदोलन के इसी उत्कर्ष काल के प्रसिध्द और समर्पित कवि हैं। आप आहंग मजाज का काव्य संकलन के समर्पण पर ध्यान दें:
फौ और जज्बी के नाम
जो मेरे दिल और जिगर हैं
सरदार और मंखदूम के नाम
जो मेरे दस्त औ' बाजू हैं।
यह समर्पण इस भावना का घोतक है कि काव्य-रचना एक सामूहिक प्रक्रिया है। यानी वह एक आंदोलन का रूप है।

अनेक प्रगतिशील हिन्दी-उर्दू कवियों की तरह मजाज की नज्मों में तत्सम हिन्दी की ध्वनियां, ष, क्ष, त्र, ज्ञ और उर्दू कविता में प्रयुक्त तत्सम अरबी-फारसी ध्वनियां, क, ख, ग, ज, फ, बहुत कम आती हैं। इसे आप मिली-जुली भाषा का रूप ही न समझें, यह एक वर्गीय दृष्टि से निर्मित है। तत्सम ध्वनियों का प्रयोग, भाषा की तथाकथित शुध्दता का रूप सम्पन्न, सवर्ण लोगों के बीच ही व्यवहृत होता है। गरीब, मजदूर, खेतिहर, किसान लोगों के बीच उन ध्वनियों का इस्तेमाल नहीं होता। जब जनांदोलन सक्रिय था, शक्तिशाली था, तब उनका संस्कृति मंच भी आंदोलन के एक अभेद्य अंग के रूप में अपना काम कर रहा था। मजाज चौथे और पांचवें दशक में भारत की राजनीति और संस्कृति में जनांदोलन के उभार के प्रतिनिधि कवि हैं। मजाज अपने तीव्र भाव बोध के कारण विषमता के प्रति उद्विग्नता और उन्माद, एक हद तक बिखर जाने वाली मानसिकता के वैसे ही कवि हैं, जैसे निराला और नजरुल इस्लाम। निराला और नजरुल इस्लाम की तरह वे उन्माद और बिखरन के साथ अपने तीव्र भाव बोध को काव्य शिल्प में बांध लेने वाले सिध्द कवि हैं। फैज ने 'आहंग' की भूमिका में लिखा है कि 'मजाज की ख्वा-ए-सहर' और नौजवान खातून से खिताब इस दौर की सबसे मुकम्मिल और सबसे कामयाब तरक्कीपसंद नज्मों में से हैं। मजाज इन्कलाब का ढंढोरची नहीं, इंकलाब का मुतरिब हैं।'
फैज का सम्मान करते हुए जोड़ा जा सकता है कि इन्कलाब का ढंढोरची होना कोई कम महत्वपूर्ण बात नहीं है। सौंदर्य के प्रति सचेत करने के लिए नारा भी लगाना पड़ता है।

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