उर्दू शायरी में अपना ख़ास मकाम रखनेवाले जाँनिसार अख़्तर का शताब्दी वर्ष 16 फरवरी को समाप्त हुआ. बीबीसी हिंदी के लिए रेहान फज़ल ने जाँनिसार अख़्तर पर यह बेहद पठनीय लेख लिखा है.
जाँनिसार अख़्तर |
जाँनिसार अख़्तर एक बोहेमियन शायर थे. अगर ये कहा जाए कि तरक्कीपसंद शायरी के स्तंभ कहे जाने के बावजूद वो बुनियादी तौर पर एक रूमानी लहजे के शायर थे तो शायद गलत नहीं होगा. हो सकता है कि उन्होंने वक्त के तकाज़ों और सोहबत के असर में कुछ नारेबाज़ी भी कर ली हो लेकिन वो बहुत ही मामूली हिस्सा है उनकी शायरी का. उनकी शायरी में जो रोमांस है, वो ही उसका सबसे अहम पहलू है. वास्तव में रोमांस जाँनिसार अख़्तर का ओढ़ना बिछौना था...
बहुत सारे बिखरे काले सफ़ेद बाल, उनको सुलझाती हुई उनकी उंगलियाँ, होठों के बीच दबी सुलगती सिगरेट, सड़क पर घिसटता हुआ चौड़े पांएचे का पाजामा और उस पर टंगी हुई किसी मोटे कपड़े की जवाहर जैकेट... ये थे दूर दूर के बहुत सारे जाँनिसार अख़्तर! अंदाज़ा लगाइए तीस के दशक के अलीगढ़ विश्वविद्यालय का क्या बौद्धिक कलेबर रहा होगा जहाँ एक साथ जाँनिसार अख़्तर, सफ़िया मजाज़, अली सरदार जाफ़री, ख़्वाजा अहमद अब्बास और इस्मत चुग़ताई जैसे दिग्गज पढ़ रहे हों.
जाँनिसार अख़्तर को जानना है तो उनकी 'साथिन' सफ़िया अख़्तर के उनको लिखे ख़त पढ़िए या कृष्ण चंदर के लेख, जहाँ वो कहते हैं, "जाँनिसार वो अलबेला शायर है जिसको अपनी शायरी में चीख़ते रंग पसंद नहीं हैं बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी धीमी आंच पर पकती है."
अल्फ़ाज़ का ख़ज़ाना
जानेमान संगीतकार ख़य्याम कहते हैं कि जाँनिसार अख़्तर में अल्फ़ाज़ और इल्म का खज़ाना था. उनके अनुसानर फ़िल्म रज़िया सुल्तान में जाँनिसार ने ऐ दिले नादाँ गीत के छह-छह मिसरों के लिए कम से कम कुछ नहीं तो सौ अंतरे लिखे होंगे. एक-एक गीत के लिए कई मुखड़े लिख कर लाते थे वो और ज़्यादा वक्त भी नहीं लगता था उनको गीत लिखने में. वो बहुत ही माइल्ड टोन में गुफ़्तगू करते थे और अपने शेर भी माइल्ड टोन में पढ़ा करते थे. जाँनिसार के जानने वाले कहते हैं कि वो मुशायरे के शायर नहीं थे. उनका तरन्नुम भी अच्छा नहीं था. फ़ैज़ का भी यही हाल था. उनके मुंह से उनका कलाम सुनने वालों का जी चाहता था कि इन्हें कोई और पढ़े. सलमा सिद्दीकी याद करती हैं कि अशआर पढ़ते वक्त जाँनिसार अपनी ज़ुल्फ़ों को झटकते जाते थे जिन्हें उनके बेतकल्लुफ़ दोस्त उनकी अदाएं कहा करते थे.
साहिर लुधियानवी से दोस्ती
जाँनिसार अख़्तर को बहुत नज़दीक से देखने वालों में शायर निदा फ़ाज़ली भी हैं जो उनसे बहुत जूनियर ज़रूर थे लेकिन उन्होंने मुंबई में अपने संघर्ष के दिनों की बहुत सारी शामें जाँनिसार अख़्तर के साथ बिताईं थीं. वो जिस हॉस्टल में रहा करते थे उसके चंद क़दम के फ़ासले पर उनका फ़्लैट था. बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने बताया, "साहित्य में लगाव होने के कारण मैं जाँनिसार के करीब आ गया था और मेरी हर शाम कमोबेश उनके ही घर पर गुज़रती थी. मेरे जाने का रास्ता उनके घर के सामने से गुज़रता था. जब मैं सोचता था कि उनके यहाँ न जाऊँ क्योंकि रोज़ जाता हूँ तो अच्छा नहीं लगता, तो अक्सर अपनी बालकनी पर खड़े होते थे और मुझे गुज़रता देख कर पुकार लेते थे."
यह वो ज़माना था जब जाँनिसार के वक्त का ज़्यादा हिस्सा साहिर लुधियानवी के यहाँ गुज़रता था. अपने घर तो वो सिर्फ़ वक्त बेवक्त कपड़े बदलने आते थे. यूँ भी वो रोज़ाना कपड़े बदलने और नहाने के शौकीन नहीं थे. निदा कहते हैं कि वो दिन जाँनिसार अख़्तर के मुश्किल दिन थे. साहिर लुधियानवी का सिक्का चल रहा था. साहिर को अपनी तन्हाई से बहुत डर लगता था. जाँनिसार इस ख़ौफ़ को कम करने का माध्यम थे जिसके एवज़ में वो हर महीने 2000 रूपये दिया करते थे. निदा कहते हैं कि ये जो अफ़वाह उड़ी हुई है कि वो साहिर के गीत लिखते थे ये सही नहीं है लेकिन ये सच है कि वो गीत लिखने में उनकी मदद ज़रूर करते थे.
प्रेम त्रिकोण
लेकिन इस दोस्ती का कोई भविष्य नहीँ था. आख़िरकार ये दोस्ती एक दिन दिल्ली के इंपीरियल होटल में टूट गई और इसका सबब बना एक प्रेम त्रिकोण! साहिर की कई महिलाओं से दोस्ती हुआ करती थी. ये दोस्ती लवज़ी होती थी जो कभी भी अपने अंजाम तक नहीं पहुंचती थी.
दिल्ली की एक मोहतरमा के साथ साहिर साहब की दोस्ती थी. हुआ यूँ कि एक दिन जब साहिर शॉपिंग करके लौटे तो उन्हें जाँनिसार हमेशा की तरह इंतज़ार करते हुए नहीं मिले. पता ये चला कि उन मोहतरमा ने जाँनिसार साहब को इनवाइट कर लिया था. साहिर को इतना गुस्सा आया कि वो उसी वक्त उन साहिबा के घर गए और तूतू-मैंमैं कर जाँनिसार को वहाँ से वापस ले आए. जाँनिसार पढ़े-लिखे आदमी थे, वर्ष 1935 के एमए थे अलीगढ़ विश्वविद्यालय से. उन्हें गालमगलौज की बात अच्छी नहीं लगी . जाँनिसार ने देर रात अपना सामान उठाया और साहिर का होटल छोड़ दिया. उस दिन से जाँनिसार के संबंध साहिर से ख़राब हो गए और यहीं से उनका रिवाइवल शुरू हुआ.
सफ़िया अख़्तर के ख़त
जाँनिसार अख़्तर ने अपने दो बेटों जावेद और सलमान को अपनी पत्नी सफ़िया अख़्तर के हवाले कर मुंबई का रुख़ किया था. वो भी बहुत अच्छी लेखिका थीं. उन्होंने एक बार अपने पति को लिखा था, "जाँनिसार, ज़्यादा लिखना और तेज़ी से लिखना बुरा नहीं है लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम रुक रुक के और थम थम के लिखो."
असग़र वजाहत ने सफ़िया अख़्तर के जाँनिसार अख़तर को लिखे ख़तों का हिंदी में अनुवाद किया है. वो कहते है, "जाँनिसार अख़्तर को समझने के लिए सफ़िया अख़्तर को समझना ज़रूरी है. कल्पना कीजिए 1942-43 में एक मुसलमान जवान ख़ातून किस क़दर गहराई से अपने आप को अपने रिश्ते को देखती हैं और एनालाइज़ करती हैं अपने माशरे को. इस स्तर की इंटेलेक्चुअल किस क़दर बेपनाह, बेतहाशा मोहब्बत करने लगीं जाँनिसार से, उससे लगता है कि उनमें ज़रूर कुछ रहा होगा."
जादू की कहानी
सफ़िया के ख़तों में उनके बेटे जादू उर्फ़ जावेद अख़्तर का काफ़ी ज़िक्र है. जावेद अपना नाम रखे जाने की दिलचस्प कहानी बताते हैं, "अपनी शादी से पहले मेरे वालिद ने एक नज़्म लिखी थी जिसका मिसरा था लम्हा लम्हा किसी जादू का फ़साना होगा. शादी के बाद जब मैं आया तो अस्पताल में ही उनके किसी दोस्त ने सुझाया कि उस मिसरे पर मेरा नाम क्यों न जादू रख दिया जाए. मेरा नाम जादू ही रख दिया गया."
जादू से जावेद बनने की कहानी पर जावेद बताते हैं, "साल डेढ़ साल तक मुझे इसी नाम से पुकारा गया. लेकिन जब स्कूल भेजने की बात आई तो सवाल उठा कि स्कूल में क्या नाम लिखाया जाए. सब लोग जादू नाम सुन कर हंसेंगे तो अब्बा ने कहा कि भई अब तो जादू की आदत पड़ गई है, तो उससे ही मिलता जुलता कोई नाम सोचो. तो इस तरह मेरा नाम जावेद पड़ा. आम तौर से लोगों के असली नाम पर उनका पेट नेम बनता है. मेरे केस में पेट नेम से मेरा असली नाम पड़ा."
पिता से बग़ावत
जावेद अख़्तर अपनी किताब तरकश में लिखते है कि उनकी उनके अब्बी जाँनिसार अख़्तर से बग़ावत और नाराज़गी थी. लिखते हैं, "लड़कपन से जानता हूँ कि चाहूँ तो शायरी कर सकता हूँ मगर अब तक की नहीं है. ये भी मेरे बाप से शायद मेरी बग़ावत का प्रतीक है.1979 में पहली बार शेर कहता हूँ. और ये शेर लिख कर मैंने विरासत और अपने बाप से सुलह कर ली है."
बाप से इस नाराज़गी की झलक मिलती है जावेद अख़्तर की लिखी फ़िल्म त्रिशूल में भी, जहाँ बाप और बेटे के बीच तनाव है, टकराहट है. बाप सफल और मशहूर है लेकिन अपनी कारगुज़ारियों पर शर्मिंदा भी है. उसके लिए अपने बेटे के सवालों का जवाब देना आसान नहीं है.
जावेद अब इस नाराज़गी को दूसरी तरह से देखते हैं. वो कहते हैं, "असल में दूरियाँ ग़लतफहमियाँ पैदा करती हैं. मुझे तो ऐसा लगता है कि परिवार को, कैसे भी हालात हों, कोशिश करनी चाहिए साथ रहने की. अलग रहने से ही शिकायतें पैदा होतीं हैं और उनका जवाब भी नहीं मिल पाता लोगों को."
थीसिस जला कर चाय
निदा फ़ाज़ली कहते हैं कि एक बार अटलबिहारी वाजपेई ने उन्हें बताया था कि जाँनिसार अख़्तर ने उन्हें ग्वालियर में पढ़ाया था. वो बहुत ही मिलनसार, बहुत ही महफ़िलबाज़ और हंसमुख इंसान थे. उनके बारे में एक कहानी ये है कि जब वो अलीगढ़ में पीएचडी कर रहे थे तो एक बार उनके स्टोव का तेल ख़त्म हो गया. तब उन्होंने अपनी अधूरी पीएचडी की थीसिस को जला कर चाय बनाई थी.
उनके बारे में एक और कहानी मशहूर है कि मजाज़ ने अपनी बहन सफ़िया की जाँनिसार से शादी के बाद उन्हें एक विहस्की की बोतल तोहफ़े में दी थी. बाद में उनकी मयख़्वारी पर कई किस्से कहे गए. निदा फ़ाज़ली एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं.
हुआ यूँ कि एक रात डेढ़ बजे जाँनिसार दिल्ली में जामा मस्जिद के पास जवाहर होटल में मिल गए. बुरी तरह से पिए हुए थे. उन्हें अपने दोस्त के पास मॉडल टाउन जाना था. तो निदा भी उनके साथ हो लिए.
टैक्सी मॉडल टाउन पहुंची लेकिन उनके दोस्त का घर मिल ही नहीं...अंधेरी सर्द रात में इस आँख मिचोली ने एक- डेढ़ घंटा बरबाद कर दिया तो निदा का माथा ठनका. उन्होंने ड्राइवर से करीब के पुलिस स्टेशन चलने के लिए कहा. एक पुलिस कांस्टेबल उनकी टैक्सी में बैठा और मुश्किल से दो मिनट में वो उनके दोस्त के घर पहुंच गए.
घर देख कर उन्हें हैरत हुई कि जिस गली से वो कई बार गुज़रे थे उसी गली में जाँनिसार के दोस्त का घर था. जब इस बारे में निदा ने जाँनिसार से पूछा तो वो बोतल का आख़िरी क़तरा गले में उंडेलते हुए बोले, "भाई पूरी हाफ़ बोतल थी. इसे ख़त्म करने के लिए भी तो वक्त चाहिए था. जिनके यहाँ ठहरा हूँ उनके यहाँ इस वक्त कैसे पीता. अपनी टैक्सी थी....शान से पी."
जाँनिसार आख़िरी दम तक जवान रहे. जब तक लोग इश्क करेंगे जाँनिसार अख़्तर की नज़्में और नग़्में उनके होठों पर रहेंगे...आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो.... साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो...जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में...शर्माए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो...
******बीबीसी हिंदी से साभार
padhwane ke liye shukriya....
ReplyDeletekripya kabhi anuragheen.blogspot.in par bhi padharen
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