वरिष्ठ कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास झीनी-झीनी बीनी चदरिया को कौन भूल सकता है! काशी के बुनकरों पर लिखे इस उपन्यास को हिंदी साहित्य के मास्टरपीस का दरजा दिया जाता है. जीवन अनुभवों को कथा लेखन का बीज माननेवाले अब्दुल बिस्मिल्लाह से उनके सृजन संसार पर यह साक्षात्कार लिया है प्रीति सिंह परिहार ने. यहाँ साक्षात्कार को आत्मवक्तव्य की शक्ल में ढाला गया है. :: अखरावट.
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मैंने पढ.ते-पढ.ते ही लिखना सीखा. बचपन से मुझे पढ.ने का शौक था, लेकिन साहित्य की दुनिया और साहित्यिक किताबें मेरी पहुंच से बहुत दूर थीं. मैं ‘साहित्य’ के नाम से भी वाकिफ नहीं था, हां स्कूल की किताबों से अलग कुछ पढ.ना चाहता था. हम उन दिनों मध्यप्रदेश के डिंडोरी में रहते थे. वहां रविवार को लगने वाले हाट में फुटपाथ पर किस्सा तोता-मैना और हातिमताई जैसी किताबें एक या दो आना में मिला करती थीं. पिता से जिद कर मैं अपने लिए वे किताबें ले लेता था. पढ.ने के लिए मैं अखबारों की कतरनें भी सहेज लेता था, जिनमें धनिया, मिर्ची, हल्दी वैगरह लपेट कर बाजार से आती थीं. बहरहाल, इंटर कॉलेज पहुंचा, तो वहां छोटा सा पुस्तकालय मिला. लेकिन लेखन की वास्तविक प्रेरणा मुझे जीवन से मिली है.
इसके पीछे भी एक घटना रही. शरतचंद्र के उपन्यास ‘परिणीता’ से प्रभावित होकर मैंने ‘वादा’ शीर्षक से पहली बार एक प्रेम कहानी लिखी थी. मैंने कहानी के पात्रों के नाम हिंदू रखे और अज्ञानवश मामा की बेटी के साथ प्रेम दिखा दिया. मुसलिम समाज में तो मामा और चाचा की बेटी से विवाह हो जाता है, लेकिन हिंदू समाज में नहीं. अपने हिंदी के अध्यापक त्रिपाठी जी को मैंने वह कहानी दिखायी कि वो मेरी प्रसंशा करेंगे, पर बड.ी डांट पड.ी मुझे. उसी क्षण मैंने तय किया कि अब यथार्थ को जाने बिना कोरी कल्पना से कहानी नहीं लिखूंगा. इस समाज में यथार्थ की कितनी परते हैं, तब मैं नहीं जानता था. इसके बाद बहुत दिनों तक मैं छटपटाता रहा पर लिख नहीं सका. हालांकि लिखने की छटपटाहट तो पैदा हो ही गयी थी, इसलिए मैंने फिर हिम्मत की और अपने ही जीवन में जिन अनुभवों से गुजरा था, उन्हीं को आधार बनाकर लिखना शुरू किया. बचपन की एक घटना पर ‘खोटा सिक्का’कहानी लिखी. बेशक मैंने जीवन के अनुभवों पर लिखना शुरू किया, लेकिन यह भी सच है कि महज यथार्थ से साहित्य नहीं रचा जा सकता. साहित्य में कल्पना मिर्शित यथार्थ जरूरी है.
मेरी पहली कहानी आगरा से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘युवक’ में ‘सोने की अंगूठी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई. उन्हीं दिनों बरेली की पत्रिका ‘एकांत’ में कविता भी छपी. तब मैं बीए में था.
मैं मानता हूं कि रचना एक वृक्ष है. वृक्ष जन्म लेता है एक बीज से. रचना एक बीच के रूप में रचनाकार के भीतर आ जाती है. भीतर ही भीतर वह रूप ग्रहण करती रहती है. यहीं पर रचनाकार की परख होती है. अगर उसने धैर्य से काम नहीं लिया, तो असमय जन्मे बो की तरह अपरिपक्व रचना का जन्म होगा. रवींद्रनाथ टैगोर ने भी रचना के जन्म की तुलना प्रसव पीड.ा से की थी. मेरा ख्याल है कि हर लेखक लगभग इस तरह की स्थिति से गुजरता है. लेकिन हर विधा की रचना प्रक्रिया अलग ढंग की होती है. उपन्यास एक थीम पर होता है. थीम के अनुकूल कहानी तथा कहानी के अनुकूल पात्र सोचने पड.ते हैं. इसके बाद कहानी बुनने की प्रक्रिया शुरू होती है. भीतर पूरा ढांचा तैयार हो जाता है, तब बारी आती है उसे कागज पर उतारने की. पर कागज पर उतराते वक्त जरूरी नहीं कि वह ज्यों की त्यों रहे. एक समय के बाद लेखक का किरदारों पर नियंत्रण नहीं रहता. कईबार वे ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं. हम समाज में कई तरह के लोगों को देखते और जानते हैं और उनमें से ही हमें किरदार मिलते हैं. मेरे साथ प्राय: ऐसा होता है कि मैं एक किरदार में कई किरदारों की खूबियां और खामियां शामिल कर देता हूं. ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के दो प्रमुख किरदार मतीन और अमीरउल्ला न जाने कितने लोगों से मिला कर गढे. गये हैं.
‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के कारण बहुत से लोगों को लगता है कि मैं बनारस का रहने वाला हूं. लेकिन मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ, बचपन मध्यप्रदेश में बीता, पढ.ाई ज्यादातर मिर्जापुर और इलाहाबाद में हुई. नौकरियां छिटपुट कीं. बनारस के एक इंटर कॉलेज में परमानेंट नौकरी मिली, तो जहां मकान किराये पर मिला, वह बुनकरों का इलाका था. दिन-रात बराबर चलने वाले करघों की आवाज मुझे परेशान करने लगी. बहुत कोशिश के बाद भी किसी दूसरी जगह मकान नहीं मिला. यह इस देश की कटु साईहै, किसी मुसलमान को हिंदू मोहल्ले में किराये पर मकान नहीं मिलता. और बनारस में मुसलमान मतलब बुनकर. मैंने वहां तीन मकान बदले और तीनों बुनकर इलाके में ही मिले. सोचा अब इससे नहीं बचा जा सकता. बाद में वहां रहते-रहते करघों की आवाज की इतनी आदत हो गयी कि दीवाली पर तीन दिन के लिए करघे बंद हुए, तो एक अजीब से सूनेपन का एहसास हुआ. अब मुझे उनसे संगीत सा आनंद मिलने लगा. शायद कबीर ने अनहद नाद यहीं से पकड.ा हो.
वहां रहते हुए मैं बुनकरों के जीवन को नजदीक से देख रहा था. मैंने देखा वे मुसलमान तो हैं पर उनके त्योहार, रीति रिवाज, भाषा सब अलग हैं. मैं उनके सुख-दुख में शामिल हुआ और उनका अंग बन गया. तब मुझे लगा कि इन पर मैं लिखूंगा. मैं उनसे जुड.ी सूक्ष्म से सूक्ष्म चीजें देखता और नोट करता था. उनके जीवन को जानने के लिए मैं जितना भी प्रयत्न कर सकता था, किया. फिर भी दावे से नहीं कह सकता कि मैंने समग्रता में उनका चित्रण किया.
मेरी अधिकांश कहानियों के किरदार असल जीवन से हैं. कहीं-कहीं मैं भी हूं किरदार बनकर. जिस जगह के किरदार हैं, वहां की भाषा और बोली भी है. कालिदास का ‘शाकुंतलम’ पढ.ते वक्त मैंने देखा कि दुष्यंत के संवाद संस्कृत में हैं और शांकुतला के प्राकृत में. यह बात मेरे मन में हमेशा से थी. हर युग में दो तरह की भाषा होती है, एक पढे. लिखों की और एक आमजन की. बनारस के बुनकर जो भाषा बोलते हैं उसे अगर हिंदी में लिख दिया जाये, तो वह उपन्यास बन ही नहीं सकता था. मुझे लगता है कि बहुत जरूरी है किरदार अपनी भाषा बोले. भाषा केवल शब्द नहीं पूरी संस्कृति है. रचनाओं में क्षेत्रीय बोलियों-भाषाओं का इस्तेमाल एक तरह से उनका संरक्षण भी है.
मेरे लेखन की मूल चिंता पहले तो स्पष्ट नहीं थी. बाद में एहसास हुआ कि प्रतिबद्धता जरूरी है. तय करना होगा कि हम किसके पक्ष में खडे. हैं. मैंने उपेक्षित और शोषित के साथ खडे. होना चुना. पक्ष निर्धारित किये बिना क्रिटिकल एप्रोच भी नहीं आता. कभी-कभी इसमें सेल्फ क्रिटिसिज्म भी होता है. आत्म आलोचना के बगैर हम दूसरे की आलोचना भी नहीं कर सकते.
अब मेरी पहचान कथाकार के रूप में बन गयी है और उसे धोया नहीं जा सकता. ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ प्रकाशित होने से पहले मेरे नाम के आगे दो विशेषण लगते थे- कवि, कथाकार. बाद में कवि गायब हो गया, सिर्फ कथाकार रह गया. हाल ही में मेरा एक कविता संग्रह छपा, उसे मैंने दो लोगों को सर्मपित किया. त्रिलोचन शास्त्री को, जो मुझे मूलत: कवि मानते थे और प्यारे दोस्त मंगलेश डबराल को, जो मुझे मूलत: कथाकार मानते हैं.
लिखना मेरा कर्तव्य है, पेशा नहीं. पेशा तो अध्यापन है. जाहिर है कि दिन का समय मेरे पास नहीं होता, प्राय: मैं रात में ही लिखता हूं. लिख रहा होता हूं, तो कुछ भी होता रहे मैं उससे डिस्टर्ब नहीं होता. हालांकि लिखने के बीच बड.ा अंतराल आ जाये, तो वो जरूर लेखन को बाधित करता है. ‘अपवित्र आख्यान’ और ‘रावी लिखता है’ मैंने लगभग आगे-पीछे 1993-94 में पोलैंड में लिखना शुरू किया था. तभी भारत लौटना था. दोनों अधूारे उपन्यास लेकर 95 में मैं भारत लौट आया. दोनों वैसे ही पडे. रहे समय नहीं मिला पूरा करने का. 10 साल बाद मैं जब मॉस्को गया, उन्हें भी साथ लेता गया. इन दोनों को मैंने मॉस्को मैं बैठ कर पूरा किया. यानी शुरुआत पोलैंड में हुई और अंत मॉस्को में. बीच में दस साल का अंतराल रहा है. एक नया उपन्यास शुरू किया, लेकिन बीमार पड. जाने के कारण वह अधूरा पड.ा है, देखिए कब पूरा होता है.
मेरी दृष्टि में लेखन पुरस्कार के दो पहलू हैं. पुरस्कार से नयी ऊर्जा मिलती है, वहीं वे एक अजीब तरह की जिम्मेदारी का एहसास भी कराते हैं. आजकल तो तमाम तरह के पुरस्कार हैं और उनको लेकर राजनीति भी है. लेकिन मैंने इसे ऊर्जा और जिम्मेदारी के तौर पर ही लिया है. पुरस्कार से भी बड.ी चीज है पाठकों का स्नेह. हालांकि अब समय बदल गया है. पहले कोई रचना छपती थी, तो बाकायदा पत्र आते थे पाठकों के. लेकिन अब कोई एसएमएस कर देता है या फोन. पत्रों में एक अभिव्यक्ति होती थी भावों की. अब कितना जुड.ाव है, तय कर पाना मुश्किल है. फिर भी असली निर्णायक पाठक है और उस निर्णय की जड. रचना में है. अगर रचना में सार्मथ्य है तो वो बची रहेगी. यही वास्तविकता है और मैं पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया को ही वास्तविक पुरस्कार मानता हू.
इसके पीछे भी एक घटना रही. शरतचंद्र के उपन्यास ‘परिणीता’ से प्रभावित होकर मैंने ‘वादा’ शीर्षक से पहली बार एक प्रेम कहानी लिखी थी. मैंने कहानी के पात्रों के नाम हिंदू रखे और अज्ञानवश मामा की बेटी के साथ प्रेम दिखा दिया. मुसलिम समाज में तो मामा और चाचा की बेटी से विवाह हो जाता है, लेकिन हिंदू समाज में नहीं. अपने हिंदी के अध्यापक त्रिपाठी जी को मैंने वह कहानी दिखायी कि वो मेरी प्रसंशा करेंगे, पर बड.ी डांट पड.ी मुझे. उसी क्षण मैंने तय किया कि अब यथार्थ को जाने बिना कोरी कल्पना से कहानी नहीं लिखूंगा. इस समाज में यथार्थ की कितनी परते हैं, तब मैं नहीं जानता था. इसके बाद बहुत दिनों तक मैं छटपटाता रहा पर लिख नहीं सका. हालांकि लिखने की छटपटाहट तो पैदा हो ही गयी थी, इसलिए मैंने फिर हिम्मत की और अपने ही जीवन में जिन अनुभवों से गुजरा था, उन्हीं को आधार बनाकर लिखना शुरू किया. बचपन की एक घटना पर ‘खोटा सिक्का’कहानी लिखी. बेशक मैंने जीवन के अनुभवों पर लिखना शुरू किया, लेकिन यह भी सच है कि महज यथार्थ से साहित्य नहीं रचा जा सकता. साहित्य में कल्पना मिर्शित यथार्थ जरूरी है.
मेरी पहली कहानी आगरा से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘युवक’ में ‘सोने की अंगूठी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई. उन्हीं दिनों बरेली की पत्रिका ‘एकांत’ में कविता भी छपी. तब मैं बीए में था.
मैं मानता हूं कि रचना एक वृक्ष है. वृक्ष जन्म लेता है एक बीज से. रचना एक बीच के रूप में रचनाकार के भीतर आ जाती है. भीतर ही भीतर वह रूप ग्रहण करती रहती है. यहीं पर रचनाकार की परख होती है. अगर उसने धैर्य से काम नहीं लिया, तो असमय जन्मे बो की तरह अपरिपक्व रचना का जन्म होगा. रवींद्रनाथ टैगोर ने भी रचना के जन्म की तुलना प्रसव पीड.ा से की थी. मेरा ख्याल है कि हर लेखक लगभग इस तरह की स्थिति से गुजरता है. लेकिन हर विधा की रचना प्रक्रिया अलग ढंग की होती है. उपन्यास एक थीम पर होता है. थीम के अनुकूल कहानी तथा कहानी के अनुकूल पात्र सोचने पड.ते हैं. इसके बाद कहानी बुनने की प्रक्रिया शुरू होती है. भीतर पूरा ढांचा तैयार हो जाता है, तब बारी आती है उसे कागज पर उतारने की. पर कागज पर उतराते वक्त जरूरी नहीं कि वह ज्यों की त्यों रहे. एक समय के बाद लेखक का किरदारों पर नियंत्रण नहीं रहता. कईबार वे ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं. हम समाज में कई तरह के लोगों को देखते और जानते हैं और उनमें से ही हमें किरदार मिलते हैं. मेरे साथ प्राय: ऐसा होता है कि मैं एक किरदार में कई किरदारों की खूबियां और खामियां शामिल कर देता हूं. ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के दो प्रमुख किरदार मतीन और अमीरउल्ला न जाने कितने लोगों से मिला कर गढे. गये हैं.
‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के कारण बहुत से लोगों को लगता है कि मैं बनारस का रहने वाला हूं. लेकिन मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ, बचपन मध्यप्रदेश में बीता, पढ.ाई ज्यादातर मिर्जापुर और इलाहाबाद में हुई. नौकरियां छिटपुट कीं. बनारस के एक इंटर कॉलेज में परमानेंट नौकरी मिली, तो जहां मकान किराये पर मिला, वह बुनकरों का इलाका था. दिन-रात बराबर चलने वाले करघों की आवाज मुझे परेशान करने लगी. बहुत कोशिश के बाद भी किसी दूसरी जगह मकान नहीं मिला. यह इस देश की कटु साईहै, किसी मुसलमान को हिंदू मोहल्ले में किराये पर मकान नहीं मिलता. और बनारस में मुसलमान मतलब बुनकर. मैंने वहां तीन मकान बदले और तीनों बुनकर इलाके में ही मिले. सोचा अब इससे नहीं बचा जा सकता. बाद में वहां रहते-रहते करघों की आवाज की इतनी आदत हो गयी कि दीवाली पर तीन दिन के लिए करघे बंद हुए, तो एक अजीब से सूनेपन का एहसास हुआ. अब मुझे उनसे संगीत सा आनंद मिलने लगा. शायद कबीर ने अनहद नाद यहीं से पकड.ा हो.
वहां रहते हुए मैं बुनकरों के जीवन को नजदीक से देख रहा था. मैंने देखा वे मुसलमान तो हैं पर उनके त्योहार, रीति रिवाज, भाषा सब अलग हैं. मैं उनके सुख-दुख में शामिल हुआ और उनका अंग बन गया. तब मुझे लगा कि इन पर मैं लिखूंगा. मैं उनसे जुड.ी सूक्ष्म से सूक्ष्म चीजें देखता और नोट करता था. उनके जीवन को जानने के लिए मैं जितना भी प्रयत्न कर सकता था, किया. फिर भी दावे से नहीं कह सकता कि मैंने समग्रता में उनका चित्रण किया.
मेरी अधिकांश कहानियों के किरदार असल जीवन से हैं. कहीं-कहीं मैं भी हूं किरदार बनकर. जिस जगह के किरदार हैं, वहां की भाषा और बोली भी है. कालिदास का ‘शाकुंतलम’ पढ.ते वक्त मैंने देखा कि दुष्यंत के संवाद संस्कृत में हैं और शांकुतला के प्राकृत में. यह बात मेरे मन में हमेशा से थी. हर युग में दो तरह की भाषा होती है, एक पढे. लिखों की और एक आमजन की. बनारस के बुनकर जो भाषा बोलते हैं उसे अगर हिंदी में लिख दिया जाये, तो वह उपन्यास बन ही नहीं सकता था. मुझे लगता है कि बहुत जरूरी है किरदार अपनी भाषा बोले. भाषा केवल शब्द नहीं पूरी संस्कृति है. रचनाओं में क्षेत्रीय बोलियों-भाषाओं का इस्तेमाल एक तरह से उनका संरक्षण भी है.
मेरे लेखन की मूल चिंता पहले तो स्पष्ट नहीं थी. बाद में एहसास हुआ कि प्रतिबद्धता जरूरी है. तय करना होगा कि हम किसके पक्ष में खडे. हैं. मैंने उपेक्षित और शोषित के साथ खडे. होना चुना. पक्ष निर्धारित किये बिना क्रिटिकल एप्रोच भी नहीं आता. कभी-कभी इसमें सेल्फ क्रिटिसिज्म भी होता है. आत्म आलोचना के बगैर हम दूसरे की आलोचना भी नहीं कर सकते.
अब मेरी पहचान कथाकार के रूप में बन गयी है और उसे धोया नहीं जा सकता. ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ प्रकाशित होने से पहले मेरे नाम के आगे दो विशेषण लगते थे- कवि, कथाकार. बाद में कवि गायब हो गया, सिर्फ कथाकार रह गया. हाल ही में मेरा एक कविता संग्रह छपा, उसे मैंने दो लोगों को सर्मपित किया. त्रिलोचन शास्त्री को, जो मुझे मूलत: कवि मानते थे और प्यारे दोस्त मंगलेश डबराल को, जो मुझे मूलत: कथाकार मानते हैं.
लिखना मेरा कर्तव्य है, पेशा नहीं. पेशा तो अध्यापन है. जाहिर है कि दिन का समय मेरे पास नहीं होता, प्राय: मैं रात में ही लिखता हूं. लिख रहा होता हूं, तो कुछ भी होता रहे मैं उससे डिस्टर्ब नहीं होता. हालांकि लिखने के बीच बड.ा अंतराल आ जाये, तो वो जरूर लेखन को बाधित करता है. ‘अपवित्र आख्यान’ और ‘रावी लिखता है’ मैंने लगभग आगे-पीछे 1993-94 में पोलैंड में लिखना शुरू किया था. तभी भारत लौटना था. दोनों अधूारे उपन्यास लेकर 95 में मैं भारत लौट आया. दोनों वैसे ही पडे. रहे समय नहीं मिला पूरा करने का. 10 साल बाद मैं जब मॉस्को गया, उन्हें भी साथ लेता गया. इन दोनों को मैंने मॉस्को मैं बैठ कर पूरा किया. यानी शुरुआत पोलैंड में हुई और अंत मॉस्को में. बीच में दस साल का अंतराल रहा है. एक नया उपन्यास शुरू किया, लेकिन बीमार पड. जाने के कारण वह अधूरा पड.ा है, देखिए कब पूरा होता है.
मेरी दृष्टि में लेखन पुरस्कार के दो पहलू हैं. पुरस्कार से नयी ऊर्जा मिलती है, वहीं वे एक अजीब तरह की जिम्मेदारी का एहसास भी कराते हैं. आजकल तो तमाम तरह के पुरस्कार हैं और उनको लेकर राजनीति भी है. लेकिन मैंने इसे ऊर्जा और जिम्मेदारी के तौर पर ही लिया है. पुरस्कार से भी बड.ी चीज है पाठकों का स्नेह. हालांकि अब समय बदल गया है. पहले कोई रचना छपती थी, तो बाकायदा पत्र आते थे पाठकों के. लेकिन अब कोई एसएमएस कर देता है या फोन. पत्रों में एक अभिव्यक्ति होती थी भावों की. अब कितना जुड.ाव है, तय कर पाना मुश्किल है. फिर भी असली निर्णायक पाठक है और उस निर्णय की जड. रचना में है. अगर रचना में सार्मथ्य है तो वो बची रहेगी. यही वास्तविकता है और मैं पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया को ही वास्तविक पुरस्कार मानता हू.
प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं
मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित
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