आज से कुछ सालों पहले मुंबई के हीरानंदानी स्थित उनके घर पर मुझे उनसे मिलने का मौका मिला था. उनके घर पर पहुंचने से पहले मेरे जेहन में उनके व्यक्तित्व की एक संजीदा छवि थी, लेकिन जब वह व्हीलचेयर से कमरे में दाखिल हुईं, तो उनकी बाों की तरह खिलखिलाती मुस्कुराहट से एक अलग ही छवि जेहन में बस गयी. मुझे देख कर उनकी जो पहली प्रतिक्रिया थी,‘अरे आप तो अभी बी हो. खुशकिस्मत हो, जो आज के दौर में हो, वरना हमारे जमाने में बहुत पाबंदिया थीं. अच्छा लगता है जब लड.कियों को उनके मन का करते देखती हूं.’ शमशाद जी से मिले अभी बस दो मिनट ही हुए थे, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो हम एक-दूसरे को बरसों से जानते हों. उन्होंने तहे दिल से न सिर्फ मेरा स्वागत किया, बल्कि किसी अभिभावक की तरह ही फिल्मों से इतर दुनिया के बारे में बातचीत की. शमशाद जी की मशहूर गायिका की जगजाहिर छवि से आगे उनके व्यक्तित्व के और भी कई पहलू थे, जो उनसे मिल कर ही आप जान सकते थे. वे खुशमिजाज, नये लोगों की तारीफ करनेवाली महिला थीं. वे लोगों की हौंसलाअफजाई करने में विश्वास रखती थीं और जिंदगी से वे बेहद संतुष्ट थीं. यही वे तत्व थे, जो उन्हें औरों से जुदा करते थे. बिना शिकवा- शिकायत के उन्होंने एक बेहतरीन जिंदगी जी. आज शमशाद बेगम नहीं हैं. लेकिन उनकी गायिकी और उनका खुशमिजाज चेहरा हमेशा जेहन में जिंदा रहेगा. उस मुलाकात में उन्होंने अपनी जिंदगी की कई बातें मुझसे साझा की थीं. शमशाद बेगम से हुई उस बातचीत के मुख्य अंश उन्हीं के शब्दों में.
और मैंने गुलाम हैदर का दिल जीत लिया महज 12 साल की उम्र में जेनोफोन कंपनी से मैंने अपने कैरियर की शुरुआत की थी. मेरे चाचाजी मेरे प्रेरणास्त्रोत थे. उन्हें गाने का शौक था. उनसे ही यह गुण मुझमें आ गया था. मेरे चाचाजी को मेरी आवाज बहुत पसंद थी, इसलिए जेनोफोन (लाहौर) द्वारा आयोजित प्रतिस्पर्धा में वे मुझे ले गये,जहां मैंने बिना किसी संगीत के एक मुखड.ा गाकर संगीतकार उस्ताद गुलाम हैदर का मन जीत लिया. मैं विजेता चुनी गयी और जेनोफोन कंपनी के साथ 12 गानों का कॉट्रैक्ट मिला. एक गाने के लिए उस वक्त बारह रुपये मिलते थे. इससे पहले मेरी विधिवत ट्रेनिंग नहीं हुई थी, लेकिन उस्ताद गुलाम हैदर ने मुझे संगीत की औपचारिक शिक्षा दी. वही मेरे पहले और आखिरी गुरु थे. उस वक्त धार्मिक कट्टरता भी काफी हावी थी. मुझे याद है जेनोफोन कंपनी ने एक आरती‘जय जगदीश’ रिकॉर्ड करवायी थी, मगर धर्मिक कट्टरता की आशंका के डर से मेरी जगह उमा देवी का नाम दिया गया था. रेडियो ने रखा मेरी गायिकी को जिंदा जेनोफोन कंपनी में तो मैं गाने लगी थी, लेकिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मेरे लिए बतौर गायिका शुरुआत करना आसान नहीं था. अम्मी गुलाम ए फातिमा जितनी नर्म मिजाज की थी, अब्बा हुसैन बख्श उतने ही सख्त मिजाज थे. महिलाएं उस वक्त परदे में रहती थीं. उन दिनों प्लेबैक का जमाना नहीं था. अभिनेत्रियां अभिनय के साथ -साथ परदे पर गाती भी थीं. इसलिए लाहौर के पंचोली स्टूडियो ने मेरी आवाज सुनकर पहले मुझे स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया था. आपको विश्वास नहीं होगा, मैं चुन ली गयी. स्क्रीन टेस्ट तो मैं अब्बाजान से छिपकर देने गयी थी, लेकिन जैसे ही शूटिंग की बात आयी, अब्बा से इजाजत लेना जरूरी हो गया था. जैसे ही अभिनय के लिए मैंने उनसे बात की, उन्होंने फरमान सुना दिया कि अगर मैंने अभिनय के लिए जिद की, तो वे मेरा गाना भी बंद करवा देंगे. मेरे सपने चूर-चूर हो गए. मैंने ऑल इंडिया में रेडियो प्रोग्राम कर अपने अंदर की गायिका को जिंदा रखा था. लेकिन अल्लाह को मुझ पर तरस आ गया और दो साल बाद प्लेबैक सिगिंग का दौर शुरु हो गया. एक बार फिर पंचोली स्टूडियो ने मुझे बुलाया और बतौर गायिका अपनी फिल्म ‘खजांची’ में मुझे ब्रेक दिया. इस तरह से मुझे मेरी पहली फिल्म मिल गयी. जब मैं नरगिस की आवाज बनी ‘खजांची’ फिल्म के गीत सभी को इतने पसंद आए कि पाकिस्तान से हिंदुस्तान तक सभी मेरे प्रशंसक बन गए. इन्हीं में से एक फिल्मकार महबूब खान भी थे. मुझे मुंबई लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. वे मुझसे मिलने लाहौर आये और मेरे अब्बा को मनाया. अब्बा मान गए, लेकिन उन्होंने एक शर्त्त रखी कि मुंबई जाने के बाद भी मैं परदा करूंगी और अभिनय में कभी नहीं आऊंगी. मैंने हां कर दी और मैं मुंबई आ गयी. महबूब खान की फिल्म ‘तकदीर’ में मैं नरगिस दत्त की आवाज बनी थी. इसके बाद सी रामचंद्रन,पंडित गोविंद, अनिल विश्वास जैसे संगीतकारों की जैसे लाइन लग गयी. एक के बाद एक सुपरहिट गीत आये और मैं मुंबई की होकर रह गयी. लेकिन अपने अब्बा से किया वादा हमेशा निभाया. अपने कैरियर में मैंने हमेशा खुद को लाइम लाइट से दूर रखा. मेरी गिनी चुनी तस्वीरे ही होंगी. मैं सिर्फ गाना गाती, फिर घर आ जाती थी. यही वजह है कि इंडस्ट्री में मेरा कभी कोई दोस्त नहीं था. गुटबाजी बढ. गयी, तो मैंने इंडस्ट्री छोड. दी शुरुआत में नवोदित संगीतकार मेरे पास आकर कहते थे कि आप मेरी फिल्म में एक गाना गा दीजिए, लेकिन गाना हिट हो जाने के बाद वे मुझे पहचानते भी नहीं थे. मैं हमेशा से यही सोचती थी कि जो गीत मेरे लिए बना है, वह मुझे ही मिलेगा. नूरजहां, सुरैया, जोहराबाई अंबालेवाली, अमीरबाई कर्नाटकी, उमादेवी ये उस दौर में मेरी प्रतिद्वंद्वी थीं, जो गायकी के साथ-साथ अभिनय भी करती थीं. लोग इन्हें आवाज और अभिनय दोनों से पहचानते थे, लेकिन मेरी आवाज ही काफी थी. लोगों ने मेरी आवाज को हमेशा ही पसंद किया और मुझे काम मिलता गया. मैंने कभी भी किसी संगीतकार से काम नहीं मांगा. यही वजह है कि जब इंडस्ट्री में ग्रुपिज्म (गुटबाजी) बढ. गया, तो मैंने इंडस्ट्री छोड. दी. मुझे खुशी थी कि जब मैंने इंडस्ट्री छोड.ी, उस वक्त मैं टॉप पर थी. फिल्म ‘किस्मत’ का ‘हाय मैं तेरे कुर्बान’ मेरा आखिरी गीत था, जो बहुत बडा हिट हुआ था. उस गीत के बाद मैंने कभी माइक नहीं पकड.ा. रीमिक्स से मुझे परहेज नहीं मौजूदा दौर में मुझे सोनू निगम की आवाज बहुत पसंद है. मुझे रिमिक्स गानों से कोई परहेज नहीं है. मेरे द्वारा गाये गए ‘सैंय्या दिल में आना रे’, ‘लेके पहला-पहला प्यार’ और ‘मेरे पिया गये रंगून’ जैसे गीतों के रीमिक्स वर्जन मैं चाव से सुनती हूं. मुझे खुशी है कि कम से कम रीमिक्स गानों की वजह से आज की पीढ.ी पुराने गानों से रूबरू है. हमारे दौर में संगीत इबादत था इस पीढ.ी की मुझे सिर्फ एक परेशानी नजर आती है, वह ये कि यह अपने बडे.-बुजुगरें को उतना सम्मान नहीं देती, जितना हमारे वक्त में था. मुझे याद है, मैं मोहम्मद रफी के साथ फिल्म ‘रेल का डिब्बा’ का गीत ‘ला दे मुझे बालमा हरी हर चूड.ियां..’ गा रही थी. बिना सांस लिए गाना गाने की बात भले ही आज चर्चा में हो, लेकिन हमारे वक्त में भी हम ऐसे कई गीत गाते थे. यह गीत भी कुछ ऐसा ही था, गाते हुए मोहम्मद रफी की सांस टूट जा रही थी, लेकिन मेरी नहीं टूट रही थी. फिर क्या था, रफी साहब ने आकर मेरे पैरों को छू लिया और कहा कि ‘आपा कैसे आप एक सांस में गा ले रही हैं.’ उस वक्त अपने से बड.ों का इस कदर सम्मान किया जाता था. किशोर कुमार कोरस में वायलिन बजाता था. अक्सर गाने की रिकॉर्डिंग के बाद मेरी कुरसी के पास आकर बैठ जाता और कहता कि मेरे भाई (अशोक कुमार) मुझसे कितने आगे हैं और मैं कहीं भी नहीं हूं, तब मैंने उससे कहा था कि वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब तू सबसे आगे निकल जाएगा. वाकई ऐसा ही हुआ. उसमें संगीत को लेकर जबरदस्त जुड.ाव था. संगीत उस वक्त के लोगों के लिए सिर्फ व्यवसाय या आय का साधन नहीं था, बल्कि इबादत था. मुझे याद है राजकपूर को अपनी फिल्म ‘आवारा’ में मुझसे एक गाना गवाना था, लेकिन मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं था. क्योंकि उस वक्त एक बार में ही गाने की रिकॉर्डिंग करनी पड.ती थी. इसलिए पहले ही मैं संगीतकार के साथ रियाज कर लेती थी, तब जाकर स्टूडियो में गाना गाती थी. मगर राज साहब के लिए मेरे पास डेट्स ही नहीं थीं. मैंने उन्हें परेशानी बतायी और कहा कि अगर मैं मुश्किल से गाने के लिए एक दिन का समय निकाल लूंगी, लेकिन रिहर्सल के लिए समय कहां से लाऊं. तब राज जी ने मुझसे कहा कि आप उसके लिए परेशान न हों. शंकर-जयकिशन आपके घर आकर रिहर्सल करायेंगे. वाकई हर सुबह गाने की रिकॉर्डिंग में जाने से पहले शंकर-जयकिशन और राज कपूर मेरे घर आकर रिहर्सल करवाते थे. मुझे किसी से कोई शिकवा नहीं मुझे किसी से कोई शिकवा नहीं है. फिल्म इंडस्ट्री ने मेरी कभी खबर नहीं ली. लेकिन मुझे किसी से शिकायत नहीं है. गायिकी मेरा जुनून है और मैंने उसे शिद्दत से जिया. इससे ज्यादा मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं थी. मुझे उस वक्त भी दुख नहीं हुआ था, जब अभिनेत्री सायरा बानो की दादी शमशाद बेगम के मरने पर सभी ने सोचा कि मैं नहीं रही. कई प्रतिष्ठित अखबार और चैनलों ने मेरी ही तसवीर दिखायी थी. मेरी बेटी उषा ने कहा भी हमें इन पर केस करना चाहिए, लेकिन मैंने मना कर दिया. आखिरकार साई सामने आ गयी. मैं एक बात जानती हूं कि मैं रहूं या न रहूं, लेकिन मेरी आवाज फिल्मों के माध्यम से हमेशा जिंदा रहेगी. |
25 April 2013
मैं रहूँ न रहूँ , मेरी आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी : शमशाद बेग़म
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शमशाद बेग़म,
सिनेमा
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