7 April 2013

लेखक को इतिहासकार होना होता है...: चिनुआ अचेबे


अफ्रीकी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले चिनुआ अचेबे, जिनका निधन पिछले महीने २१ मार्च को हो गया, ने लेखन को हमेशा एक तरह का रचनातमक  एक्टिविज्म माना. उनका लेखन महज एक लेखक की रचना यात्रा नहीं बल्कि अफ्रीकी महादेश की पीड़ा की भी यात्रा है. उनके लेखन और  संघर्ष को यह साक्षात्कार (जिसे यहाँ आत्म वक्तव्य की शक्ल में ढाला गया है) काफी गहराई से सामने लाता है...आप भी पढ़िए : अखरावट 




जहां तक बचपन में कहानियां लिखने की प्रेरणा की बात है, उस दौर में कहानियां लिखना संभव नहीं था. इसलिए तब इस बारे में सोचा भी नहीं. हां, इतना जरूर है कि मुझे यह पता था कि मुझे कहानियां पसंद हैं. कहानियां जो मेरे घर में सुनायी जाती थीं, पहले मेरी मां द्वारा. फिर मेरी बड़ी बहन द्वारा. जैसे कछुए की कहानी- या कोई भी कहानी जो मैं लोगों की बातचीत के भीतर से ढूंढ़ लेता था. जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया, तब जो कहानियां मैं पढ़ा करता था, वे मुझे अच्छी लगती थीं. वे दूसरी तरह की कहानियां थीं. लेकिन मुझे अच्छी लगती थीं. नाईजीरिया के मेरे हिस्से में मेरे माता-पिता ईसाई धर्म में धर्मांतरित होनेवाले शुरुआती लोगों में से थे. उन्होंने सिर्फ धर्म ही नहीं बदला था, मेरे पिता ईसाई धर्म प्रचारक भी थे. वे और मेरी मां  वर्षों तक इग्बोलैंड के विभिन्न हिस्सों में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए घूमते रहे. मैं छह भाई बहनों में पांचवां था. जब मैं बड़ा हो रहा था, तब तक मेरे पिता रिटायर हो चुके थे और अपने परिवार के साथ अपने पुश्तैनी गांव में आकर बस गये थे. 

जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया और पढ़ना सीखा, मेरा सामना दूसरे लोगों और दूसरी धरती की कहानियों से हुआ. ये कहानियां मुझे बहुत अच्छी लगती थीं. इनमें कई अजीब-अतार्किक किस्म की होती थीं. जब मैं बड़ा हुआ, मैंने रोमांच कथाओं को पढ़ना शुरू किया. तब मुझे नहीं पता था कि मुझे उन बर्बर-आदिम लोगों के साथ खड़ा होना है, जिनका मुठभेड़ अच्छे गोरे लोगों से हुआ था. मैंने सहज बोध से गोरे लोगों का पक्ष लिया. वे अच्छे थे! वे काफी अच्छे थे! बुद्धिमान थे! दूसरी तरफ के लोग ऐसे नहीं थे. वे मूर्ख थे. बदसूरत थे. इस तरह मुझे अपनी कहानी के न होने के खतरे से परिचय हुआ. एक महान कहावत है- जब तक शेर की तरफ से इतिहास लिखनेवाला नहीं होगा, जब तक शिकारी का इतिहास हमेशा उसे ही महिमामंडित करेगा. यह बात बहुत बाद तक मेरी समझ में नहीं आयी. जब मुझे एहसास हुआ कि मुझे लेखक बनना है, तब मुझे यह पता था कि मुझे वह इतिहासकार बनना है. यह किसी अकेले का काम नहीं है. यह एक ऐसा काम है, जिसे हम सबको मिलकर साथ करना है, ताकि शिकार के इतिहास में शेर की पीड़ा, उसका कष्ट, उसकी बहादुरी भी झलके.            

मेरी उच्च शिक्षा इबादान विश्वविद्यालय में हुई. तब यह नया-नया खुला ही था. एक तरह से यह उपनिवेशवादी समय के विरोधाभासों का आईना था. अगर अंगरेजों ने नाइजीरिया में कुछ बेहतर काम किये, तो इबादान उनमें से एक था. यह लंदन यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज के तौर पर शुरू हुआ था. उपनिवेशी शासन में चीजें ऐसी ही होती थीं. आप किसी और की पूंछ के तौर पर काम करना शुरू करते हैं.  मुझे जो डिग्री मिली वह लंदन यूनिवर्सिटी की ही थी. आजादी जब आयी, तब इसके प्रतीकों में से एक यह भी था कि इबादान यूनिवर्सिटी के तौर पर अस्तित्व में आया. 

मैंने पढ़ाई विज्ञान से शुरू की. फिर अंगरेजी, फिर इतिहास फिर धर्म. मुझे ये विषय काफी रोचक और काम के लगे. धर्म का अध्ययन मेरे लिये नया और उत्सुकता पैदा करनेवाला था, क्योंकि इसमें सिर्फ ईसाई धर्म दर्शन शामिल नहीं था, इसमें पश्चिमी अफ्रीका के धर्मों का अध्ययन भी शामिल था. वहां मुझे जेम्स वेल्स नाम के एक शिक्षक मिले. वे प्रभावशाली उपदेशक थे. एक बार उन्होंने मुझसे कहा, हम तुम्हें शायद वह नहीं पढ़ा सकते जिसकी तुम्हें जरूरत है, हम तुम्हें सिर्फ वही पढ़ा सकते हैं, जितना हम जानते हैं. मुझे लगा वे बेहद मार्के की बात कह रहे हैं. यह मुझे मिली सबसे अच्छी सीख थी. मैंने वहां सचमुच वैसा कुछ नहीं सीखा जिसकी मुझे जरूरत थी, सिवाय इस भाव के कि मुझे अपने बल पर अपना रास्ता बनाना है. अंगरेजी विभाग इसका उम्दा उदाहरण था. वहां मौजूद लोग इस विचार पर ही हंस देते कि हम में से कोई लेखक बनेगा. 

मेरी पहली दो किताबों- "थिंग्स फॉल अपार्ट" और नो लॉन्गर एट ईज के टाइटल क्रमश: आइरिश और अमेरिकी कवियों की कविताओं की पंक्तियों से हैं. ऐसा शायद इसलिए था कि ऐसा एक तरह के दिखावे के लिए था. मैंने अंगरेजी से जनरल डिग्री ली थी. और मुझे इसका प्रदर्शन करना था. लेकिन येट्स! मुझे भाषा के प्रति उसकी मोहब्बत, उसका प्रवाह अच्छा लगता था. वे दिल से हमेशा सही पक्ष में रहे. 

मेरे उपन्यास "थिंग्स फॉल अपार्ट" की पांडुलिपि की कहानी लंबी है. सबसे पहले तो यह लगभग खो ही गयी थी. 1957 में मैं स्कॉलरशिप कुछ दिन बीबीसी में जाकर पढ़ाई करने के लिए लंदन गया था. मैं थिंग्स फॉल अपार्ट का पहला ड्रॉफ्ट अपने साथ ले गया था, ताकि मैं इसे पूरा कर सकूं. वहां मैंने वहां अपने एकमात्र नाइजीरियाई साथी के कहने पर वह पांडुलिपी बीबीसी में इंस्ट्रक्टर और उपन्यासकार गिलबर्ट फेल्फ्स को दी. पांडुलिपी पाकर उन्होंने कोई उत्साह नहीं दिखाया था. वे होते भी क्यों? लेकिन उन्होंने काफी विनम्रता के साथ वह पांडुलिपी ले ली थी. वे मेरे अलावा पहले व्यक्ति थे, जिन्हें वह पांडुलिपी रोचक लगी थी. बल्कि उन्हें इसने इस  तरह प्रभावित किया था कि एक शनिवार वे मुझे खोजते रहे, ताकि वे मुझे इसके बारे में बता सकें. मैं लंदन से बाहर आ गया था. जब उन्हें इसका पता लगा, तो उन्होंने पता लगाया कि मैं कहां हूं और मेरे होटल में फोन किया और मेरे लिए पलट कर उन्हें फोन करने का संदेश छोड़ा. उनका यह संदेश मिलने पर मैं पूरी तरह बाग-बाग हो गया. मैंने अपने आप से कहा कि शायद उन्हें उपन्यास पसंद नहीं आया. फिर लगा कि अगर ऐसा होता, तो उन्होंने मुझे फोन ही क्यों किया होता! कुछ भी हो, मैं काफी रोमांचित था. जब मैं लंदन वापस लौटा, तो उन्होंने कहा, यह लाजवाब है. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं चाहता हूं कि यह उपन्यास मैं अपने प्रकाशक को दिखाऊं! मैंने कहा- हां, लेकिन अभी नहीं, क्योंकि मुझे लगता है कि इसका फॉर्म सही नहीं है. मैं तीन परिवारों की गाथा लिखना चाह रहा था, इसलिए मैंने अपने पहले ड्राफ्ट में काफी कुछ समेटने की कोशिश की थी, इसलिए मुझे लग रहा था कि मुझे कुछ क्रांतिकारी करने की जरूरत है, ताकि मैं इसे ज्यादा बड़ा कलेवर दे सकूं. 

इंग्लैंड में मैंने एक टाइपिंग एजेंसी का विज्ञापन देखा था. मुझे  एहसास था कि अगर आप प्रकाशक पर सचमुच प्रभाव जमाना चाहते हैं, तो आपको अपनी पांडुलिपी टाइप कराके भेजनी चाहिए. मैंने अपने हाथ से लिखी उपन्यास पांडुलिपि, जो उसकी एकमात्र पांडुलिपी थी, नाइजीरिया से लंदन पार्सल कर दी. उन्होंने जवाब भेजा कि पांडुलिपी की टाइपिंग के लिए प्रत्येक कॉपी के हिसाब से 32 पाउंड लगेंगे. मैंने ब्रिटिश पोस्टल आॅर्डर से यह रकम भेज दी. इसके बाद महीनों गुजर गये, लेकिन उनकी तरफ से कुछ भी सुनने को नहीं मिला. मैं उन्हें चिट्ठियां लिखता रहा. लिखता रहा. उधर से कोई जवाब नहीं आया. एक शब्द भी नहीं. मैं चिंता में  दुबला और  दुबला और दुबला होता जा रहा था. आखिरकार मैं खुशकिस्मत था. जिस ब्रॉडकास्टिंग हाउस में मैं काम करता था, उसमें मेरे बॉस छुट्टियों में  लंदन जा रहे थे. उन्हें मैंने इसके बारे में बताया. आखिरकार लंदन में उनकी कोशिशों के बाद मुझे थिंग्स फॉल अपार्ट की टाइप की हुई कॉपी मिली. सिर्फ एक. न कि दो. खैर जब यह वापस लौट कर आयी तब मैंने इसे अपने प्रकाशक हिनेमैन को भेजा. उन्होंने इससे पहले कभी कोई अफ्रीकी उपन्यास नहीं देखा था. उन्हें नहीं पता था कि इस उपन्यास के साथ आखिर करना क्या है! उन्होंने लंदन स्कूल आॅफ इकोनॉमिक्स के इकोनॉमिक्स और राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर से इस पर सलाह मांगी. वे हाल ही में नाइजीरिया से लौटे थे. उन्होंने इस उपन्यास के बारे में लिखा था, जो मेरे प्रकाशक के अनुसार किसी उपन्यास पर की गयी सबसे छोटी टिप्पणी थी. "विश्वयुद्ध के बाद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास". पहले  इस उपन्यास की काफी कम कॉपी छापी गयी थी. ऐसा उन्होंने पहले कभी नहीं किया था. लेकिन यह काफी जल्दी आउट आॅफ प्रिंट हो गया. उपन्यास की कहानी इसी जगह पर रुक जाती अगर प्रकाशक ने इसके पेपरबैक संस्करण को छापने का एक और जुआ नहीं खेला होता. इस तरह  अफ्रीकी राइटर्स सीरीज अस्तित्व में आया. ऐलन हिल को अफ्रीकी साहित्य की खोज के लिए ब्रिटेन में सम्मानित किया गया. 

जारी 

पेरिस रिव्यू में करीब डेढ़ दशक पहले छपे साक्षात्कार का अनुवाद 

No comments:

Post a Comment