हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि अरुण कमल की कविताएं युगों के संधिस्थल पर खड.ी हैं. उनकी कविताएं इस संक्रमण का दस्तावेज तो हैं ही, व्यवस्था को लेकर आक्रोश, आम आदमी के प्रति पक्षधरता और जिंदगी के लिए उम्मीद का स्वर भी इनमें गहरे तक मिला हुआ है. पिछले दिनों अरुण कमल से उनके रचनाकर्मे पर लम्बी बात की युवा पत्रकार प्रीति सिंह परिहार ने. यहाँ साक्षात्कार को आत्म वक्तव्य में ढाला गया है. आप भी पढ़ें..अखरावट
लेखन की शुरुआत कैसे हुई, यह ठीक-ठीक तो याद नहीं. शुरू में आप कुछ शब्दों को इधर-उधर से मिला कर जोड.ते हंै. तुक मिलाते हैं. फिर उसमें संगीत पैदा होता है, तब कोई बात बनती है. इस तरह धीरे-धीरे आप कविता की ओर बढ.ने लगते हैं. आप दूसरों को पढ. कर प्रेरणा लेते हैं. आसपास की जिंदगी को बारीकी से देखते हैं, तो लगता है इसे कैसे कविता में बदला जाये! यह सिलसिला चलता रहता है.
कविता में ज्यादा बातों को कम में कहा जा सकता है. यह सुविधा दूसरी विधाओं में नहीं है. यह भी है कि किस विधा में आप अपने आपको ज्यादा बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकते हैं. स्वामीनाथन चित्रकार थे और कवि भी, लेकिन अंतत: वह चित्रकार ही हैं. रवींद्रनाथ टैगोर और निराला जैसी प्रचंड प्रतिभाओं को छोड. दें. मेरे जैसे औसत किस्म के लेखक, अधिक से अधिक एक विधा में काम कर सकते हैं. एक कवि का डीएनए उसके जीवन में ही निहित होता है. कवि ही नहीं, यह बात हर व्यक्ति पर लागू होती है. अगर मुझे पढ.ने-लिखने की सुविधा नहीं मिलती, मेरे पिता जी को साहित्य से प्रेम नहीं होता और बचपन से मैं इतनी किताबें नहीं देखता, तो शायद ही कविता की ओर आता. मैं बहुत ही साधारण आर्थिक स्थिति का आदमी रहा हूं. अभी तक मेरे पास दुनिया में न कहीं जमीन है, न मकान. शायद यह मेरे सर्वहारा होने की स्थिति है. यह भी मुझे कई तरह की बेचैनियों की तरफ ले जाती है. दुनिया के उन सारे लोगों से मेरा संबंध जोड.ती है, जो बेघर, बेरोजगार और बेवतन हंै. जो जीवन आप वरण करते हैं या जो जीवन आपको मिलता है इस समाज द्वारा, वही अतंत: आपके सृजन के चरित्र को निर्धारित करता है. मुझे नहीं लगता कि एक भ्रष्ट, धनलोलुप, सत्तालोलुप आदमी कविता लिख सकता है. महान दार्शनिक दीदरो ने कहा था,‘कला से प्रेम के लिए धन के प्रति हिकारत की भावना का होना जरूरी है.’ मुझमें वो हिकारत तो है ही, मनुष्य और कविता के लिए प्रेम भी है. बुद्ध ने कहा था, दुख है. दुख का कारण है. बुद्ध ने यह भी कहा था कि उसका निवारण भी है. निर्वाण ही उनके लिए निवारण है. लेकिन कुछ दुख ऐसे हैं जिनका कोई निवारण नहीं. पर बहुत से दुख ऐसे भी हैं जिन्हें घटित होने से रोका जा सकता है. बिहार में अभी जिन बाों की मौत हुई, क्या यह उनकी किस्मत थी? नहीं, जानबूझकर उन्हें यह मौत दी गयी. उत्तराखंड में जो हजारों लोग मारे गये, क्या यह कोई दैवीय आपदा थी? नहीं. यह भौतिक दुख हैं. मेरी कविताओं में इन सभी दुखों के बारे में चिंता है. यही कविता का काम है. कविता भीतर से आपकी भावनाओं को प्रभावित करती है. कविता बताती है कि आप जीवन को इस तरह से देखें. जैसे पाब्लो नेरुदा कहते थे,‘मैं इस पृथ्वी की हर वस्तु को इस तरह देखना चाहता हूं, जैसे मनुष्य ने पहली बार देखा होगा.’ यह काम न विज्ञान, न तकनीक और न ही दर्शन कर सकता है. केवल कविता ही कर सकती. मैं कविताएं पढ.ता हूं, तो मुझे कविता मिलती है. कविता से कविता जन्म लेती है, जैसे एक दीप से दूसरा दीप जलता है. कभी किसी कविता को पढ.ते हुए लगता है, अरे यह अनुभव तो था मेरे पास. ऐसे ही कभी कोई पंक्ति आती है मन में, तो उसे याद कर लेता हूं. कई बार कागज पर लिख लेता हूं. यह भी होता है कि कुछ पंक्तियां आपस में जुड.ती जायें और कविता बने. यह भी हुआ कि मैंने बहुत कोशिश की लेकिन कविता नहीं बनी और मैंने उसे छोड. दिया. कई वर्षों के बाद वह एक पंक्ति, एक बिंब, एक टुकड.ा कहीं पर काम आ गया. वैसे ही जैसे बढ.ई लकड.ी के एक-एक टुकडे. का उपयोग करते हैं. वो कुछ भी फेंकते नहीं. लकड.ी का बुरादा भी नहीं, जिसे जाडे. में सुलगा कर वो गरमी पाते हैं. मेरे साथ कुछ ऐसा ही है. मैं इंतजार करता हूं, कई बार उस मुहूर्त का, प्रयत्न पूर्वक भी. हालांकि जैसे- जैसे उम्र बढ.ती है, यह भी लगता है कि वह स्फूर्ति जो शुरू में थी, अब कम हो रही है. मुझे अभी भी अपनी जो कविता सबसे अधिक प्रिय है वह मैंने 25-26 की उम्र में लिखी थी. ‘अपना क्या है इस जीवन में, सब तो लिया उधार, सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार.’ व्यक्ति और समाज, भाषा और कवि के संबंध को लेकर जितने तरह के प्रश्न हो सकते हैं, यह कविता उन्हें अपनी तरह से व्यक्त करती है. जीवन का अर्थ क्या है? इसका भी अपनी तरह से संधान करती है. लेखक होने के चलते मैंने बहुत सी यात्राएं कीं देश और विदेश की. लेखक होने के कारण ही मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. और जब यह पुरस्कार मिला, तो बहुत लोगों का विरोध भी मिला. हिंदी में इतना विरोध न पहले हुआ किसी का, न बाद में. भगवान न करे कि किसी और का हो भी. लेकिन जैसा कि मेरी आदत है, पुरस्कार में प्राप्त ताम्रपत्र वगैरह मैंने एक बक्से में बंद कर रख दिया. मेरे लिए और क्या महत्व था उसका! एक रोज मैं जब बक्से की सफाई कर रहा था, मैंने देखा कि उसमें लगे लकड.ी के स्तंभ को घुन खा गया. अंतत: सारे पुरस्कार और तमगों को घुन ही तो खा जाते हैं और जो बचती है, वो कीर्ति है. मुझे लगता है जिंदगी में जीने का दो मौका मिलना चाहिए, एक अभ्यास का दूसरा वास्तविक. ऐसा हो, तो बचपन को मैं वैसे ही रखूंगा, जैसा 16 साल की उम्र तक मैंने जिया. अभाव के बावजूद बहुत भरा-पूरा बचपन. बाद का जीवन मैं बदल दूंगा. बिल्कुल निद्र्वंद्व होकर घूमूंगा. अलग-अलग समूहों के साथ रहूंगा. कोई नौकरी नहीं करूंगा. इससे बड.ा दुख दुनिया में नहीं है. अगर आप सचमुच रचना चाहते हैं, तो आपको कोई नौकरी नहीं करना चाहिए. लेकिन इसके लिए आपके पास टॉल्स्टॉय या रवींद्रनाथ टैगोर जैसी पृष्ठभूमि हो या फिर आप तुलसीदास, कबीर और निराला की तरह फक्कड. हों. इस फक्कड.पन के साथ मैं पूरी दुनिया घूमना चाहता हूं, पैदल. लेकिन इस फक्कड.पन के लिए साहस चाहिए. बडे. कवियों में ही यह साहस होता है. स्कूल के दिनों से मुझे फिल्में देखने का बहुत शौक रहा है. अभी भी है लेकिन अब भाग कर और किताबें बेचकर फिल्में नहीं देखता. अब इतने पैसे हो गये हैं कि जब चाहूं फिल्म देख लूं. हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं की फिल्में भी देखता हूं. सत्यजीत रे की फिल्म ‘अपूर संसार’, और ‘पाथेर पंचाली’ पसंद हैं. विदेशी फिल्मों में सबसे प्रिय है अकीरा कुरासावा की ‘इकिरु’. यह मनुष्य के जीवन की अर्थवत्ता की खोज करनेवाली एक महान फिल्म है. मुझे बचपन में सब्जियों की बागवानी का भी बहुत शौक था. लेकिन वह बचपन के बाद पूरा नहीं हुआ, क्योंकि उसके लिए जमीन चाहिए. एक शौक और है खाना बनाने का. इसमें मैं बहुत तरह के प्रयोग करता हूं. हालांकि खाना बनाना कविता से भी ज्यादा कठिन है, लेकिन इसमें प्रयोग की गुंजाइश बहुत है. क्योंकि खाना ही एक ऐसी चीज है, हर आदमी जिसके स्वाद को पहचान सकता है. साथ ही मुझे बिल्कुल सुनसान सड.क पर चलना अच्छा लगता है. अकसर मैं छुट्टियों की दोपहर, जब सड.कें अधिकतर खाली होती हैं, उनमें घूमता हूं. मेरी बहुत इच्छा है एक उपन्यास लिखने की. मेरा मानना है कि अभी तक हिंदी में एक भी उपन्यास ऐसा नहीं, जो दुनिया के महान उपन्यासों की टक्कर का हो. मैं यह तो नहीं कहता कि इस कमी को पूरा करूंगा, क्योंकि यह तो असंभव है मेरे लिए. लेकिन यह इच्छा मेरी जरूर है कि मैं एक उपन्यास लिखूं. देखिये कब होता है. २८ जुलाई, २०१३ के प्रभात खबर में प्रकाशित |
28 July 2013
कवि का डीएनए उसके जीवन में ही निहित होता है : अरुण कमल
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