26 April 2013

जिसने चिराग बनना कबूल किया...

शमशाद बेग़म को याद करते हुए यह टुकडा लिखा है प्रीति सिंह परिहार ने आप भी पढ़ें. 




हिंदी सिनेमा के शुरुआती दशकों में फिल्म गायकी में एक खनकदार आवाज हुआ करती थी. इस आवाज ने कईयादगार गीत दिये और संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा के लिए दर्ज हो गयी. लेकिन इस आवाज की पहचान में लिपटी शख्सीयत शमशाद बेगम अरसे से गुमनाम खामोशी ओढे. जी रही थीं. इसी खामोशी के साथ उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. दुनिया से इस रुखसती से बहुत पहले से वह अपने आपको घर की चारदीवारी में समेटे हुए थीं. इस दौरान उनका जिक्र शायद ही कहीं था. आज जब वो नहीं हैं, उनके जाने की खबरें हैं. गुजर जाने के बाद याद करने का दस्तूर जो ठहरा. इस हकीकत से वाबस्ता शमशाद बेगम की सांसें बिना किसी शिकायत के चलते-चलते, थम गयीं. पीछे रह गये हैं उनके गाये सदाबहार गीत, जो कल भी उतनी ही शिद्दत से सुने जाते थे, आज भी उन्हें सुनने वालों की कमी नहीं. 

शमशाद बेगम का नाम हर उस शख्स की याद में जगह रखता है, जो संगीत से वाबस्ता रहा है. ये अलग बात है कि शमशाद उन लोगों की यादों से दूर हो गयीं थीं, जिनकी सफलता का ताला खोलने की वह चाबी बनीं थीं. लंबे समय से वह मुंबई में ही, सिने जगत की चकाचौंध से दूर अपनी बेटी और दामाद के साथ गुमनाम जिंदगी बसर कर रही थीं. बीमार थीं. लेकिन उनकी फिक्र का कोई चरचा कभी उनके गीतों से आबाद रही फिल्मी दुनिया में नहीं सुनाई दिया. चालीस से लेकर साठ के दशक तक अपनी अवाज से कई गीतों को सजाने वाली इस गायिका ने तकरीबन चार दशक पहले पार्श्‍वगायन को अलविदा कह खुद को अपने घर-परिवार तक सीमित कर लिया था. शमशाद बेगम का अंतिम गीत 1968 में फिल्म ‘किस्मत’ के लिए आशा भोंसले के साथ ‘कजरा मोहब्बत वाला’ रिकॉर्ड किया गया था. 

रेडियो और दूरदर्शन के दौर में जिन गानों को सुनते हम बडे. हुए उनमें ‘ले के पहला-पहला प्यार’,‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’,‘बूझ मेरा क्या नाम रे’ में शमशाद बेगम की मैखुश आवाज घुली थी. 14 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृत्सर में जन्मी शमशाद के एल सहगल की गायिकी की मुरीद थीं. बचपन से संगीत से लगाव तो था, लेकिन इसकी विधिवत तालीम उन्हें नहीं मिली थी. किस्मत ने जरूर उन्हें खनकती आवाज के साथ सुरों को साधने का हुनर दिया था. इसी हुनर की बदौलत शमशाद बेगम को 1937 में लाहौर रेडियो से अपनी गायकी को आगे बढ.ाने की राह मिली. 1940 के आस-पास वह फिल्मों में बतौर प्लेबैक सिंगर गाने लगीं. उन्होंने नौशाद, ओपी नय्यर, मदन मोहन और एसडी बर्मन सहित उस दौर के तमाम संगीतकारों की लिए गाने गाये. ओपी नय्यर उनकी आवाज से इतने प्रभावित थे कि कहते थे,‘शमशाद की आवाज मंदिर की घंटी की मांनिद स्पष्ट और मधुर है.’

शमशाद ने गजल और भक्तिगीत भी गाये. उनके हिस्से विभित्र भाषाओं में लगभग पांच हजार गीत गाने का श्रेय दर्ज है. फिल्मी दुनिया से उनके दूरी बना लेने के लंबे अतंराल के बाद 1998 में खबर सुनी गयी थी कि गायिका शमशाद बेगम नहीं रहीं. लेकिन उनके कुछ प्रसंशक जब इस खबर की तह में गये, तो पता चला वे जीवित हैं और यह खबर नौसिखिया खबरियों की जल्दबाजी का नतीजा थी. शमशाद बेगम को खुदा ने दिलकश आवाज के साथ खूबसूरत चेहरा भी बख्शा था. लेकिन उन्हें अपनी तसवीर खिंचवाने से हमेशा परहेज रहा. लंबे समय तक लोग उन्हें उनकी आवाज से ही पहचानते रहे. संगीत की दुनिया से खुद को दूर करने के कुछ समय पहले उन्होंने पहली बार एक साक्षात्कार के दौरान अपनी तसवीर लेने की इजाजत दी थी. वर्ष 2009 में लोगों ने व्हील चेयर पर बैठे राष्ट्राति से पद्मभूषण लेते समय इस गायिका की एक झलक देखी.

शमशाद बेगम की शख्सीयत से रूबरू होकर यही अहसास होता है कि उन्होंने सितारा बनने की सारी खूबियों के बाद भी चिराग बने रहना कबूल किया था. इस चिराग से रोशन कई जहां हुए, पर इसे अपने साये में बैठे अंधेरे का कोई मलाल न रहा. शायद शमशाद ‘सुनहरे दिन’ फिल्म में गाये अपने गीत ‘मैंने देखी जग की रीत..’ की तर्ज पर इस जमाने की रीत से वाकिफ थीं. इसलिए किसी शिकायत को अपने दिल में न जगह देकर जिंदादिली से जीते हुए इस दुनिया से अलविदा हुईं.

                                     प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं 

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