31 March 2013

ख्वाबों की या भय की भाषा!


पिछले दिनों जब संघ लोकसेवा आयोग ने सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में अंगरेजी के परचे के अंक को कुल अंकों में जोड़ने का फैसला सुनाया, तो इसने हिंदीभाषी राज्यों के छात्रों के भीतर एक गहरे आक्रोश को जन्म दिया. हालांकि चौतरफा विरोध के बाद सरकार ने इस फैसले को टाल दिया, लेकिन इसने एक बार फिर हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के ऊपर अंगरेजी को तरजीह देने की लंबी चली आ रही मानसिकता को उजागर किया है. हर बार की तरह एक बार फिर अंगरेजी के पैरोकारों ने यह तर्क दिया कि अंगरेजी अंतरराष्टÑीय भाषा है. पूरे देश की संपर्क भाषा है. यह कैरियर और तरक्की की भाषा है. अंगरेजी के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कों की हकीकत और उसकी राजनीति पर केंद्रित यह लेख मैंने कुछ दिन पहले लिखा था. इस बीच संघ लोक सेवा  आयोग ने अंग्रेजी के अंकों को मुख्य परीक्षा में जोड़ने के निर्णय को औपचारिक रूप से निरस्त कर दिया है और एक भारतीय भाषा और एक अंग्रेजी के पन्ने में क्वालीफाईंग नंबर लाने की पुरानी व्यवस्था को पुनः लागू कर दिया है.





स्कूल का नाम नहीं बताऊंगा. लेकिन यह न समझा जाये कि स्कूल का नाम न लेने के कारण यह घटना अवास्तविक या काल्पनिक है. वाकया जानने के बाद आपको एहसास होगा कि यह तो आपके आसपास की दुनिया का ही किस्सा है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप पटना में रहते हैं या रांची में. दिल्ली में या मुंबई में.

दिल्ली में मैं जिस घर में रहता हूं, उसके ठीक पीछे नगर निगम का एक प्राइमरी स्कूल है.  बच्चे अपनी कक्षाओं में पूरे कंठ से शोर मचाते रहते हैं और उनकी आवाज मेरी चेतना तक को भेदती रहती है, लेकिन शिक्षक नदारद रहते हैं, तो नदारद ही रहते हैं. हाल यह है कि जब कभी किसी शिक्षक की 'ए फॉर एप्पल"  जैसी कोई आवाज मेरे कानों में गूंजती है, मैं अचानक घबरा सा जाता हूं. सरकारी स्कूल की दशा को लेकर यह कोई खोज नहीं है. उन्हें, जिनके बच्चों को इस स्कूल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वे इस हकीकत को कहीं भली-भांति जानते हैं. फिलहाल मैं दिल्ली की एक घटना की जिक्र करना चाहूंगा. मेरे घर एक बिजली मिस्त्री काम करने के लिए आया करता है. उसका नाम लक्ष्मण है. पिछले साल वह मेरे घर पंखा लगाने आया था. पीछे स्कूल से आ रहे शोर को सुन कर वह गुस्से और लाचारी से भर उठा. गुस्सा स्कूल की दशा को देखकर. लाचारी इस बात की कि पिछले साल आर्थिक दिक्कतों के कारण उसे अपने बच्चों का इस साल सरकारी स्कूल में दाखिला कराना पड़ा. लेकिन उसने तय कर रखा था कि वह अगले साल अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में डाल देगा. प्राइवेट स्कूल... जहां उसके बच्चे अंगरेजी पढ़ सकेंगे. जिंदगी बना सकेंगे.

‘अंगरेजी! पढ़ेगा, तो साहब बनेगा. अंगरेजी नहीं पढ़ेगा, तो हमारी तरह बिजली मिस्त्री या ऐसा ही कोई छोटा-मोटा काम करेगा.’ जाहिर है वह अपने बच्चे का दाखिला मॉडर्न स्कूल या डीपीएस में कराने का ख्वाब नहीं देख रहा था. न उन दर्जनों स्कूलों में जिनकी फीस हर महीने हजारों में है. उसके बच्चे अगले साल कहां गये होंगे! गलियों के कोने में मॉडर्न सेंट जोसेफ, न्यू सेंट मैरी, सेक्रेड सेंट अगस्तस, न्यू देलही सेंट जेवियर्स जैसे किसी स्कूल में. जहां न स्कूल के नाम पर कायदे की इमारत है. न खेलने की जगह. न मिड डे मील. न ट्रेंड शिक्षक. फिर वह बिजली मिस्त्री अपने बच्चों को अंगरेजी स्कूल में क्यों भेजना चाहता था! क्योंकि वह अपने अनुभवों से जान चुका है कि अगर उसे अपने बच्चों का भविष्य बनाना है, तो उसे उन्हें अंगरेजी की शिक्षा देनी ही होगी.

यहीं एक दूसरी तसवीर है. दिल्ली के ही मुखर्जी नगर इलाके की. दिल्ली का यह वह इलाका है, जहां देशभर के परीक्षार्थी सिविल सेवा की तैयारी करते हैं.  पिछले दिनों जब संघ लोकसेवा आयोग ने सिविल सेवा परीक्षा के सिलेबस में बदलाव की घोषणा करते हुए अंगरेजी के पर्चे के अंक को कुल अंकों में जोड़ने की बात की, तो कई सपने जैसे एक साथ जमीन पर आ गिरे. हिंदी माध्यम से परीक्षा की तैयारी करनेवाले छात्रों में इस फैसले को लेकर गहरा आक्रोश था. हिंदीभाषी राज्यों के छात्र महसूस कर रहे थे कि यह फैसला अंगरेजी माध्यम के छात्रों को फायदा पहुंचाने के लिए लिया गया है. इन छात्रों का साफ कहना था कि यह हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी करनेवालों के प्रति सोचे-समझे अन्याय की तैयारी है. मूलत: बिहार के सुपौल जिले के रहनेवाले और पिछले तीन वर्षों से दिल्ली में रह कर सिविल सेवा की तैयारी करनेवाले रजनीश रत्नाकर के कहे में उनके गुस्से और बेबसी के भाव को आसानी से पढ़ा जा सकता था-‘ पिछली बार मैं पांच नंबर से मेरिट लिस्ट में आने से रह गया था. अब मेरे लिए मेरिट लिस्ट में जगह बना पाना नामुमकिन हो गया है. मेरे लिए ही क्यों उन सभी परीक्षार्थियों के लिए जो हिंदी माध्यम में परीक्षा की तैयारी करते हैं. जिनकी शिक्षा अंगरेजी माध्यम स्कूलों में नहीं हुई है.

ये दोनों बहुत दूर की तसवीरें हैं. बिल्कुल दो अलग दुनिया की. दोनों तसवीरों का साझा सूत्र क्या है? गौर से देखें तो लक्ष्मण और रजनीश दोनों में आपको एक भय नजर आयेगा. भय- अंगरेजी के हाथों पीछे छूट जाने का. इसमें शक नहीं कि अंगरेजी हमारे समय की कैरियर की भाषा बन गयी है. लेकिन, सही मायने में यह विशेषाधिकार की भाषा है, जो नौकरियों में एक अभिजात वर्ग का एकाधिकार सुनिश्चित करती है.
यह भविष्य के रास्तों पर एक भाषा के वर्चस्व का भय ही है, जो लक्ष्मण जैसे करोड़ों भारतीयों में यह भाव पैदा करता है कि उसके बच्चे की तालीम अंगरेजी में ही होनी चाहिए. उसे अंगरेजी में अच्छे भविष्य का सुनहरा सपना साकार होता दिखाई देता है. वह ऐसा मानता है, क्योंकि उसे बार-बार विभिन्न तरीकों से ऐसा बताया जाता है. इंफोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलेकनी ने अपनी किताब ‘इमैजिनिंग इंडिया’ में लिखा है, ‘भारतीय जनसंख्या के लिए अंगरेजी उभरते सपनों की भाषा है- आकर्षक नौकरी और तेजी से उभरते मध्यवर्ग में प्रवेश पाने का पासपोर्ट है.’ निलेकनी गलत नहीं हैं, क्योंकि उदारीकरण के बाद जिस तरक्की पर भारत गर्व करना चाहता है, उसका श्रेय बीपीओ, सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री, प्रबंधन के क्षेत्र में काम करनेवाले अंगरेजी भाषी नये युवा मध्यवर्ग को दिया जाता है. हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा लेनेवाला युवा इस तरक्की से बाहर हैं. अंगरेजी में हाथ तंग होने के कारण इस दुनिया में उसके लिए ‘नो एंट्री’ का बोर्ड लगा है.

संघ लोकसेवा आयोग 
जब संघ लोकसेवा आयोग जैसी संस्था भी अपने फैसले से सिविल सेवा में अंगरेजी में शिक्षित वर्ग का एकाधिकार सुनिश्चित करने की कोशिश करती दिखे, तो इस भय का बढ़ना लाजिमी है. संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में अंगरेजी के एक पेपर को अनिवार्य करने की हालिया कोशिशों को क्षेत्रीय भाषा के छात्रों के साथ अन्याय करने की लंबी चली आ रही नीति के विस्तार के तौर पर देखा जा सकता है. हालांकि यह कोशिश फिलहाल विफल हो गयी है, लेकिन इसने एक पुराने संदेश को दोहराने का काम तो किया ही है कि अगर आप शीर्ष पर पहुंचने का कोई ख्वाब देखना चाहते हैं, तो वह ख्वाब अंगरेजी में देखना ही बेहतर है. हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में देखे गये ख्वाब की इबारत काफी धुंधली होती है. लोकसेवा आयोग के इस फैसले के अर्थों को स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘इस फैसले का मंतव्य साफ है कि या तो खुद को अंगरेजी में सिद्ध करो या ऊंची नौकरियों यानी उन ओहदों से दूर रहो, जहां से देश का भविष्य संवारा जाता है. आयोग का यह फैसला भूमंडलीकृत दुनिया में अंगरेजी से जान-पहचान को बढ़ावा देनेवाला नहीं है, बल्कि बहु-भाषिकता से परिभाषित होनेवाली एक सभ्यता के भीतर एकभाषी अभिजन गढ़ने की कोशिश है. यह प्रतिभा को पुरस्कार देनेवाला नहीं, बल्कि भावी सिविल सर्वेंट के चयन के सामाजिक दायरे को जान-बूझ कर छोटा करने की कोशिश है. फैसले से निकलनेवाला संदेश यह है कि देश की 99 फीसदी आबादी जिन जबानों को बोलती है, उसकी काम चलाऊ जानकारी भी जरूरी नहीं है.’ पिछले साल हिंदी दिवस के सिलसिले में सीएसडीएस के भारतीय भाषा कार्यक्रम के संपादक अभय कुमार दुबे ने नौकरशाही के भाषायी चरित्र पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी,‘पहले संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में दी ही नहीं जा सकती थी. लेकिन 70 के दशक में दौलत सिंह कोठारी की सिफारिशों के बाद इसे क्षेत्रीय भाषाओं में भी आयोजित किया जाने लगा. इसके बाद संघ लोकसेवा आयोग में बैठने वाले छात्रों की संख्या में दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हुई है. रिक्शे वाले का बेटा, दफ्तर में चपरासी की नौकरी करने वाले का बेटा भी इस परीक्षा में कामयाब हो रहा है. आज इस अभिजन ब्यूरोक्रेसी की दीवारें चटक रही हैं.’ उन्होंने एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी, ‘भाषा के जितने भी मोरचे थे, उनमें से ज्यादातर में अंगरेजी का वर्चस्व समाप्त हो गया है या हो रहा है. अगर केंद्रीय ब्यूरोक्रेसी से अंगरेजी के प्रभुत्व को समाप्त कर दिया जाये, तो हिंदी आधी लड़ाई खुद जीत लेगी. जरूर यह लड़ाई आसान नहीं है.’ यूपीएससी के फैसले में इसी लड़ाई की आहट सुनी जा सकती है.

जाहिर है, लक्ष्मण जैसा आम भारतीय यह लड़ाई लड़ने में खुद को अक्षम पाता है. यही कारण है कि वह इस फैसले पर पहुंचता है कि उसे किसी भी हाल में अपने बच्चे को अंगरेजी में शिक्षा देनी है. यही वह सोच है, जिसने देश में अंगरेजी मीडियम और प्राइवेट स्कूल के व्यवसाय को आश्चर्यजनक विस्तार दिया है. शहर से गांव तक. गांव से शहर तक. यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी झोपड़पट्टियों में अंगरेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों की संख्या में खासी बढ़ोतरी देखी गयी है. ‘असर’ की हालिया रिपोर्ट से यह बात सामने आयी है कि पूरे देश में ग्रामीण भागों में भी प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या का अनुपात बढ़ा है. 2006 में ग्रामीण क्षेत्रों में जहां  6-14 वर्ष के आयु वर्ग के 18.7 फीसदी बच्चे प्राइवेट स्कूल में भर्ती थे, वहीं 2012 में यह बढ़ कर 28.3 फीसदी हो गया. यह अलग बात है कि जब ऐसे स्कूलों में पढ़ रहे पांचवीं के छात्रों से अंगरेजी वाक्य पढ़ने को कहा गया तो पचास फीसदी से ज्यादा बच्चे ऐसा नहीं कर पाये.

लक्ष्मण से कुछ दिन पहले फिर मुलाकात हुई. मैंने उससे पूछा कि उसके बच्चे कहां पढ़ रहे हैं. उसने उत्साह के साथ जवाब दिया कि चार महीने बाद ही उसने अपने दोनों बच्चों का दाखिला प्राइवेट स्कूल में करा दिया था. उसके चेहरे पर इस बार एक संतोष था. इस उम्मीद का संतोष कि अब उसके बच्चे अंगरेजी के ज्ञान के अभाव में अपनी उम्र के दूसरे बच्चों से पिछड़ जाने पर मजबूर नहीं होंगे और जीवन में कुछ बेहतर कर पायेंगे. मैंने उससे स्कूल का नाम नहीं पूछा. न यह पूछा कि स्कूल में पढ़ाई कैसी होती है? लक्ष्मण को मालूम है कि वहां ‘अंगरेजी की पढ़ाई होती है’ और उसके लिए इतना ही काफी है.

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