साहित्य सीमाओं का अतिक्रमण करता है, लेकिन यह अतिक्रमण थोडा ख़ास होता है. यहाँ वैश्विक होने की कोशिश नहीं की जाती. यहाँ लोकल ही ग्लोबल हो जाता है. साहित्य समतल(चपटी) दुनिया की रचना नहीं है..यह बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक दुनिया में एकता लाने की रचनात्मक कोशिश है. साहित्य की दुनिया में सैकरों हजारों दुनिया एक साथ सांस लेते हैं. सैकड़ों भूगोल, सैकड़ों इतिहास एक साथ बसर करते हैं . यही साहित्य का गणतंत्र है. साहित्य के ऐसे ही गणतंत्र में मिथिलांचल की कहानियों को शामिल करनेवाली कथाकार हैं उषा किरण खान. वे हिंदी और मैथिली दोनों भाषाओं में लिखती हैं. मैथिली उपन्यास भामती के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ कथाकार उषा किरण खान से उनके सृजन संसार के बारे में यह बातचीत प्रीति सिंह परिहार ने कुछ महीने पहले की थी. यहाँ साक्षात्कार के संक्षिप्त अंश को आत्मवक्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है
स्कूल के दिनों में ही मैं कविताएं और नाटक लिखने लगी थी. कॉलेज में पढ़ाई के दौरान बाबा नागार्जुन के साथ कविता पाठ में भी जाती थी. लेकिन लिखना बीच में कुछ दिनों के लिए स्थगित हो गया. बच्चे जब थोड़े बड़े हुए और स्कूल जाने लगे तब बाबा नागार्जुन ने कहा कि अब लिखना-पढ़ना शुरू करो. मैंने उनसे, कविता की बजाय कहानी लिखने की इच्छा जाहिर की. उन्होंने कहा कहानी के साथ उपन्यास भी लिखो. इस तरह नियमित लेखन की शुरुआत 1977 में हुई और यही वह वक्त था जब मैं कविता छोड़ कथा लेखन की ओर मुड़ गयी.
‘कहानी’ पत्रिका में पहली कहानी ‘आंखें स्निग्ध तरल और बहुरंगी मन’ प्रकाशित हुई. इसके बाद धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान में भी कहानियां और लेख प्रकाशित होने लगे. कथा लेखन का सिलसिला जो शुरू हुआ, अब तक जारी है. ऐसा लगता है कि शायद कथा लेखन ही मेरी नियति थी. ऐसा नहीं हुआ कि कहानी मेरे दिमाग में अचानक आयी और मैंने तत्काल लिखना शुरु कर दिया. किसी रचना का विचार बहुत दिनों तक मेरे भीतर चलता रहता है. कोई कहानी जब तक पूरी तरह आकार न ले, तब तक मैं लिखने नहीं बैठती. आकार लेने के बाद कहानी, मैं अधिकतर एक सिटिंग में लिख लेती हूं. लेकिन उपन्यास लिखने के लिए दिमाग में जैसे-जैसे चीजें आती हैं, उनका नोट्स लेती हूं. पहला उपन्यास पचास-साठ कहानियां लिखने के बाद लिखा.
रूढ़ियों से टकराहट और स्वतंत्रचेता स्त्री मेरे लेखन के मूल में शामिल रहे हैं. मैं गांधीवादी परिवार से हूं. मेरे पिता ने गांव के पास एक आश्रम बनाया था. मैंने वहां के जीवन को करीब से देखा है. आज भी साल में कम से कम दो बार वहां जाकर एक दो महीने रहती हूं. एकाध अपर कास्ट और संपन्न परिवार को छोड़, वहां अधिकतर उपेक्षित वर्ग के लोग रहते हैं. मेरी रचनाओं के अधिकतर पात्र भी मुझे वहीं से मिले. दरअसल, हर लेखक अपने पारिवारिक और सामाजिक परिवेश को अपने साथ लेकर चलता है.
कल्पना की भूमिका के बिना साहित्य नहीं रचा जा सकता. रचना का आधार यथार्थ होता है, लेकिन उसकी बुनावट कल्पना से होती है. वाचस्पति मिश्र के जीवन पर आधारित ‘भामती’ उपन्यास लिखने से पहले मैंने उनके बारे में बहुत सी किताबें और दंत कथाएं पढ़ी-सुनी थीं. लेकिन ‘भामती’ लिखना कल्पना के बिना संभव नहीं था. मेरे लेखन का सबसे मुश्किल पक्ष रहा है, समय का अभाव. एक स्त्री के लिए कभी परिस्थितियां ऐसी नहीं हो पाती हैं कि वह चाह कर भी लेखन को प्राथमिकता में रख सके. घर-परिवार और समाज उसे पहले देखना पड़ता है. मुझे लगता है मेरे लिए ही नहीं, हर महिला लेखक के लिए सबसे बड़ी चुनौती है लिख पाना.
मैथिली मेरी मातृभाषा है, लेकिन पढ़ाई मैंने हिंदी में की है, लिखने का अभ्यास हिंदी में है, इसलिए हिंदी लिखना सरल लगता है. लेकिन दोनों भाषाएं मुझे प्रिय हैं. मन में कोई चीज जिस भाषा में सहज ढंग से आ जाती है, उसी में लिख लेती हूं. दोनों भाषाएं मेरी अपनी हैं.
मैं कई विधाओं में लिखती हूं, लेकिन कहानी मेरे दिल के करीब है. कहानी में जब बात नहीं बनती,तब उपन्यास लिखती हूं. मेरी रचनाओं के ज्यादातर किरदार मेरे गांव के हैं. यथार्थ में कुछ किरदार आज भी मौजूद हैं. पंचायती राज व्यवस्था के बाद उनमें जो परिवर्तन आया, उस पर मैंने ‘पानी पर लकीर’ उपन्यास लिखा. ‘फागुन के बाद’ उपन्यास लिखने का विचार मुझे बाबा नागजरुन से मिला. उन्होंने मुझसे कहा था, तुम एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार से हो. तीस वर्षो में तुमने क्या देखा-समझा, उसे लिखो. ये बात मेरे दिमाग में घुमड़ रही थी और मैंने इस पर मैथिली में लघु उपन्यास ‘अनुत्तरित प्रश्न’ लिखा. लेकिन, उससे मेरा मन संतुष्ट नहीं हुआ तब मैंने दूसरे आम चुनाव के ठीक पहले यानी 1956 के कालखंड पर ‘फागुन के बाद ’ लिखा. आजादी के बाद लोग किस उत्साह से भरे हुए हैं, गांव में क्या परिवर्तन हो रहे हैं, इस सबको अभिव्यक्त करने साथ मैंने यह संदेश दिया कि ‘फागुन के बाद’ का मौसम आने वाला.
मैं किसी भी वक्त लिख सकती हूं. लेकिन मुझे शुरू से सुबह चार बजे से 7 बजे तक लिखने का अभ्यास रहा है, क्योंकि पहले घर की जिम्मेदारियां अधिक थीं. मैं कॉलेज में पढ़ाती भी थी.अब सेवानिवृत्त हो गयी हूं. मेरे कमरे में पहले की तरह भीड़-भाड़ नहीं होती है. इसलिए मैं कभी भी लिख सकती हूं. बरसात का मौसम मुझे अपने लेखन के लिए बहुत ही मौजूं लगता है.
अपनी हर रचना रचनाकार को उसी तरह प्रिय होती है, जैसे अपने बच्चे. लेकिन मुझे ‘फागुन के बाद’ पूरा होने के बाद सबसे अधिक खुशी हुई थी, जबकि ‘भामती’ में मैंने ज्यादा मेहनत की थी. इसके बाद मैथिली में मैंने ‘हसीना मंजिल’ उपन्यास लिखा, तो मन को बहुत सुकून मिला. यह इंडियन क्लासिक में शामिल है. लेकिन सबसे ज्यादा मेहनत मैंने ‘सृजनहार’ उपन्यास में की. एक तरह से यह कवि विद्यापति की जीवनी है. मुझे हैरानी होती है कि मैंने पांच सौ पेज का उपन्यास कैसे लिख दिया. यह भारतीय ज्ञानपीठ से आया है. इसके दो संस्करण बिक चुके हैं, जबकि आज तक इसकी एक भी समीक्षा नहीं छपी है. लेकिन इस पर बहुत ज्यादा पत्र और फोन आते हैं. संतोष होता है इससे. इसे पढ़कर ओड़िशा और असम के कई लोगों ने बताया कि उनके यहां भी विद्यापति के संदर्भ में कई दंत कथाएं हैं. तब मुझे लगा, अरे ये सब तो छूट गया. बंगाल, पूर्वाचल और मिथिला में विद्यापति की प्रसिद्धि के किस्से तो मुझे मालूम थे, लेकिन असम और ओड़िशा में प्रचलित कथाओं के बारे में नहीं पता था.
मैं जब लिख नहीं रही होती हूं, तो पढ़ना पसंद करती हूं. विश्व साहित्य में मैंने अंगरेजी के कुछ उपन्यासों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं पढ़ा, क्योंकि भारतीय भाषाओं में ही इतना उत्कृष्ट और विपुल साहित्य है पढ़ने के लिए. बाबा नागाजरुन का लेखन शुरू से मुझे प्रभावित करता रहा है. मैथिली में प्रभात कुमार चौधरी की रचनाएं बहुत पसंद हैं. हिंदी में गोविंद मिश्र, जो अभी ज्यादा चर्चित नहीं हैं, उनके और शिव प्रसाद सिंह के उपन्यास मुझे अच्छे लगते हैं. महिला लेखिकाओं में मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा और राजी सेठ का लेखन प्रभावित करता है. निर्मल कुमार का उपन्यास ‘रितुराज’ पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. यह आदि शंकराचार्य की जीवनी है एक तरह से. मेरा मन करता है कि उस उपन्यास को भूल जाऊं और शंकराचार्य पर एक उपन्यास लिखूं.
वर्तमान समय-समाज का सबसे बड़ा संकट है जीवन को बचाये रखना. आप घर से निकल कर चौराहे तक जाते हैं और आपको पता नहीं होता है कि लौट कर आयेंगे भी या नहीं. मुझे लगता है कि हर प्रकार के जीवन उपयोगी साधनों से हम वंचित होते चले जा रहे हैं. यह भौतिक संकट है. वैचारिक संकट है, वैश्वीकरण.देश में वैश्वीकरण जिस तरह आया है, वह हमें हमारी ही दुनिया से बेदखल कर रहा है. ऐसे में लेखक की भूमिका तभी प्रभावी हो सकती है जब उसका लिखा हुआ लोग पढ़ें. लेखक सड़क पर लाठी लेकर नहीं उतर सकता, कलम से ही अपना प्रतिरोध जताता है. वह लगातार अपना प्रतिरोध दर्ज कर रहा है. जरूरी ये है कि उसे कितने लोग पढ़ते हैं.
इन दिनों मैं शेरशाह सूरी पर उपन्यास लिखने की तैयारी में जुटी हूं. तकरीबन साल भर बाद मेरा यह उपन्यास पाठकों के सामने होगा. लिख नहीं रही होती हूं, तो पढ़ती हूं दूसरों को. इसके अलावा गिरिजा देवी, सरिता देवी के गायन के साथ लोक संगीत सुनना पसंद करती हूं.
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