बॉलीवुड में इन दिनों रीमेक फिल्मों का मौसम चल रहा है. रीमेक की इस बहार में एक नाम ‘चश्मे- बद्दूर’ का भी जुड. गया है. स्कूल के दिनों में दूरदर्शन ने इस फिल्म से रूबरू कराया और यह फिल्म याद के किसी कोने में एक निश्छल मुस्कान की तरह बैठ गयी. इसके रीमके के बारे में सुना तो एक बार फिर पहले वाली ‘चश्मे-बद्दूर’ आंखों में तैर गयी. ऐसे में सई परांजपे का खयाल आना भी लाजिमी था. इस खयाल में उनकी अर्थपूर्ण फिल्मों के नाम भी जुड.ते चले गये. बेशक सई परांजपे निर्देशित फिल्मों की फेहरिस्त बहुत छोटी है, लेकिन जिंदगी को गहरे मायनों के साथ सहजता से परदे पर उतारने के उनके हुनर को कभी नहीं बिसराया जा सकता. सई के व्यक्तित्व में मौजूद फिल्मकार के पास ‘जादू का शंख’ था, जिसने मन को ‘स्पर्श’किया और ‘चश्मे बद्दूर’ अंदाज में ‘कथा’ कह गया, जिससे एक ‘दिशा’ निकली और ‘साज’ बन गयी.
सई परांजपे का बचपन कला एवं शिक्षा में पारंगत लोगों के बीच बीता. पिता रशियन वाटरकलर आर्टिस्ट थे. मां शकुंतला परांजपे मराठी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री. बाद में वे अभिनय छोड.कर लेखन और राजनीति के क्षेत्र में आ गयीं. सई के जन्म के बाद ही उनके माता-पिता में अलगाव हो गया और उनकी परवरिश मां और नाना ने की. सई के नाना आरपी परांजपे जाने-माने शिक्षाविद और गणितज्ञ थे. आठ साल की उम्र में सई ने मराठी में किताब लिखी ‘मूलांचा मेवा’. कॉलेज आकर रंगमंच पर उनके अभिनय, निर्देशन तथा लेखन का सिलसिला चल पड.ा. पारिवारिक मित्र अच्युत रानाडे जिन्हें सई मामा कहती थीं, के साथ रोज सुबह की सैर में होने वाली बातचीत ने उनके भीतर पटकथा लेखन और फिल्म निर्देशन का बीज रोपा. इसी बीच सई को बतौर उद्घोषिका आकाशवाणी पुणे में काम मिल गया. यहीं उन्होंने बच्चों के लिए कई नाटक लिखे और निर्देशित किये. ‘जादू का शंख’ भी इन्हीं दिनों लिखे गये नाटकों में एक है. यहीं उनकी दोस्ती अरुण जोगलेकर से हुई, जो बाद में शादी में बदल गयी. हालांकि यह रिश्ता दो साल बाद टूट गया, पर दोस्ती अरुण के इस दुनिया से अलविदा कहने तक बनी रही.
सई को दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक करने के लिए छात्रवृत्ति मिली. यहीं अंतिम वर्ष में उन्हें इब्राहिम अल्काजी से रंगमंच से जुड.ी बारीक सीखें मिलीं. इसके बाद वे दूरदर्शन से जुड.ीं. यह देश में टेलीविजन के शुरुआती दिन थे. इन्हीं दिनों सई के भीतर का फिल्मकार सामने आया. यहां उन्होंने अनगिनत वृत्तचित्र और टेलीफिल्में बनायीं. दूरदर्शन के लिए बनायी गयी उनकी टेली फिल्में ‘रैना बीती जाए’ और ‘धुआं-धुआं’ ही बाद में ‘स्पर्श’ और ‘चश्मेबद्दूर’ फीचर फिल्मों के रूप में आयीं. सई में कहानी बुनने की कला तो बचपन से थी, अब वो स्क्रिप्ट राइटर और निर्देशक के तौर पर अपनी कहानियों को परदे पर उतारने लगी थीं. बतौर फिल्मकार सई का सफर लंबा नहीं रहा, लेकिन अपने छोटे से सफर में ही उन्होंने एक लंबी लकीर खींच दी और भारत की पहली महिला फिल्म निर्देशक के रूप में प्रसिद्धि पायी.
नेत्रहीनों की जिंदगी पर ‘स्पर्श’ जैसी फिल्म उनसे पहले शायद ही किसी ने बनायी हो. इस फिल्म को बेस्ट स्क्रीनप्ले का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला और फिल्मफेयर ने बेस्ट डायरेक्टर और बेस्ट डायलॉग अवार्ड से नवाजा. 1993 में सई निर्देशित ‘चूड.ियां’ को सामाजिक मुद्दे पर बनी बेस्ट लघु फिल्म का नेशनल अवॉर्ड मिला. सत्रह वर्ष में बनकर तैयार हुई उनकी फिल्म ‘दिशा’ को कान के क्रिटिक फेस्टिवल में बेस्ट ज्यूरी अवार्ड और पीपुल्स च्वाइस अवार्ड मिला. 2009 में एचआइवी पर सई निर्देशित 29 मिनिट की लघु फिल्म ‘सुई’ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रही. इसमें सई के सार्थक सिनेमाई सफर का ही एक बिंब है. पद्म विभूषण से सम्मानित सई उन चुनिंदा लोगों में से हैं, जो जिंदगी में शोहरत की बजाय सार्थकता को चुनते हैं और उसे पाने के लिए लाभ-हानि के फेर में उलझे बिना अपनी र्मजी का काम भी करते हैं. सई परांजपे में सार्थकता के इस चयन को बखूबी देखा जा सकता है, उनकी ही फिल्म ‘स्पर्श’ के एक गीत की तरह, जो ‘खाली प्याला, धुंधला दर्पण’ से ‘प्याला छलका, उजला दपर्ण’ में तबदील हो जाता है. सई की कहानी सार्थकता को पाने की एक कहानी है.
-प्रीति सिंह परिहार
मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित
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