पान सिंह तोमर के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले इरफ़ान खान की अदाकारी का कौन मुरीद नहीं? लेकिन सच कहूं इरफ़ान मुझे अपनी अदाकारी से ज्यादा अपनी अदाकारी में विश्वास और कमिटमेंट के कारण आकर्षित करते हैं। करन जोहर मार्का फिल्मों और खानों के दबदबे वाले भारतीय फिल्म उद्योग, जो मुझे अक्सर सोनपुर मेले का उन्नत संस्करण नजर आता है, में इरफ़ान उस अल्पसंख्यक बिरादरी के सदस्य हैं जो फिल्मों को आज भी "कला" के तौर पर लेते हैं ... खुद को सिर्फ इंटरटेनर और उछल कूद करने वाला न मानकर एक कलाकार मानते है ...अपनी कला में यकीन करते हैं।।।पता नहीं क्यों लेकिन इरफ़ान की फ़िल्में देखते हुए मुझे हमेशा "जाने भी दो यारों" का वह गीत याद आता है… हम होंगे कामयाब एक दिन… और यह भी आश्चर्य नहीं कि उनकी इस कामयाबी में मुझे कहीं "मुझे चाँद चाहिए" के हर्ष को बचा लेने का सुकून मिल रहा है. इरफ़ान की खासियत शायद यही है कि उन्होंने धारा के साथ बहने की जगह धारा के खिलाफ बहने का फैसला किया और अपने फैसले पर टिके भी रहे. पान सिंह तोमर लम्बे समय तक हाशिये पर खड़े तीन लोगों की सफलता कथा है… इरफ़ान, तिग्मांशु धूलिया और संजय चौहान। इस फिल्म की सफलता के साथ अचानक सोनिवुड( सोनपुर मेले का उन्नत संस्करण) में काफी कुछ बदल रहा है.
बहरहाल पुरस्कारों की घोषणा के बाद पान सिंह यानि इरफ़ान की जब बात चल रही है तो यह जानना रोचक होगा कि फिल्म का असल बाण आखिर उन्हें कब चुभा था? कुछ अरसा पहले फिल्म रिपोर्टर उर्मिला कोरी ने इरफ़ान खान से उनके सिनेमा के साथ जुडाव पर बात की थी। फिल्मों से बने इरफ़ान के रिश्ते पर यह छोटी सी बातचीत ...
मैं जिस परिवार और माहौल से आया हूं, वहां सिनेमा को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था. उसे नाचने-गाने वालों का काम करार दिया जाता था. मैट्रिकुलेशन तक मैंने मुश्किल से चार-पांच फिल्में देखी थीं. फिल्में देखने की आजादी नहीं थी. थोड.ा बड.ा हुआ तो एक बार हमारे मोहल्ले में प्रोजेक्टर पर फिल्म दिखायी गयी थी. फिल्म क्या थी याद नहीं, लेकिन प्रोजेक्टर मेरे जेहन में बस गया था. छह महीने तक अपने वालिद साहब का दिमाग खाता रहा कि क्या है वह और कैसे कहानी कहता है. मैं अपने आस-पास की हर चीज में उस प्रोजेक्टर के खांचे को ढूंढ.ने लगा था, जो कहानी कहता है.
कहानियों से लगाव वहीं से शुरू हुआ फिर ऑल इंडिया रेडियो में जो नाटक आते थे, उन्हें भी बहुत ध्यान से सुनता था. इसके बाद चोरी छुपे टेलीविजन और वीडियो पर फिल्में देखने लगा. कईयों की तरह दिलीप कुमार की फिल्मों ने मेरा भी जुड़ाव सिनेमा और अभिनय से करा दिया. उनकी फिल्में ‘आजाद’ हो या ‘मुगल-ए-आजम’ सब मेरी पसंदीदा फ़िल्में थीं. बचपन में मैं क्रिकेटर बनना चाहता था लेकिन दीलिप कुमार ने मुझे फिल्मों से इस कदर जोड़ दिया कि मैंने महसूस किया कि क्रिकेटर तो सिर्फ 11 लोग ही बन सकते हैं लेकिन एक्टिंग तो 11 से ज्यादा लोग कर सकते हैं.
उसके बाद मैंने टेलीविजन पर देव आनंद साहब की फिल्म ‘गाइड’ देखी. उस वक्त मैं शायद 12वीं में था. उस फिल्म का मुझ पर गहरा असर हुआ, खासकर वहीदा जी के किरदार ‘रोजी’ ने मुझमें विपरीत परिस्थितियों में भी सपनों को पूरा करने की एक आशा जगा दी थी. अब तक परदे पर ऐसी अभिनेत्री मैंने नहीं देखी थी. उसी फिल्म से मैं अपने भीतर के एक्टर को हासिल कर पाया था. मैंने तय कर लिया कि मैं भी एक्टर बनूंगा. इसके बाद मैंने ग्रेजुएशन की पढ.ाई करने के साथ एक्टिंग की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया. पहले मैं कुछ नये कलाकारों के साथ एक्टिंग सीखने की कोशिश करने लगा. फिर मेरी मुलाकात नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के एक शख्स से हुई. वे कॉलेजों में जाकर नाटक किया करते थे. मैं भी उनके साथ उनकी टीम में शामिल हो गया और स्टूडेंट्स के साथ कॉरिडोर, क्लासरूम और कैंटीन में ड्रामा करते हुए ही एनएसडी में दाखिले को लेकर गंभीर हुआ. फिर एनएसडी में दाखिला लिया. ‘गाइड’ अब भी मुझे एक एक्टर, एक इनसान के तौर पर बहुत प्रभावित करती है. आखिर में मैं सिर्फ ‘गाइड’ के बारे में यह कह सकता हूं कि अब दुबारा वह फिल्म कभी नहीं बन सकती, ऐसी फिल्म सिर्फ एक बार ही बनती है.
उर्मिला कोरी युवा फिल्म रिपोर्टर हैं
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