5 March 2013

शंकरानंद की कविताओं से गुजरते हुए….



मैं अमूमन कवितायें नहीं पढता। अमूमन रात गए पढता भी नही…फिर भी युवा कवि शंकरानन्द की कविताओं में ऐसा कुछ था कि 27 फ़रवरी की रात जब अगले दिन बजट  पेश होना था और दफ्तर समय से पहुचने की ताकीद की गयी थी ,  रात गए तक शंकरानंद की कवितायें पढता रहा  हले कविता संग्रह का हल्का अनगढ़पन तो इसमें था ही। फिर भी संग्रह की दर्जन भर से ज्यादा कवितायें पढ़ गया। कुछ कवितायें वाकई यादगार हैं इस संग्रह की। शंकरानंद की कविताओं पर एक टिपण्णी ...
...

कविता भी अपने तरह की चित्रकारी है. मन के कैनवास पर शब्दों की चित्रकारी. इस मायने में कविता चित्रकारी से विलक्षण है. क्योंकि चित्रकार के रंग एक बार कैनवास पर उतर जाने के बाद नहीं बदलते, जबकि पाठक दर पाठक कविता के रंग, उसके चित्र बदल जाते हैं. शब्द बिंब बन जायें और बिंब-शब्द तो कविता तैयार हो जाती है. लेकिन इसे मूल्य प्राप्त होता है अर्थवत्ता से. बिंब अगर मानीखेज नहीं, तो कविता-कविता नहीं बनती. युवा कवि शंकरानंद की कविताओं को पढ़ते हुए कविता की चित्रकारी, बिंबों और शब्दों के सुंदर तालमेल का सुखद एहसास होता है.

शंकरानंद विलक्षण बिंबों के कवि हैं. उनकी कविता ताजे-टटके-विरल बिंबों से बनती है. सबसे बड़ी बात है कि उनकी कविता सिर्फ चमत्कार की ओर नहीं जाती, अर्थ का सृजन करती है.
कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद से "प्रथम कृति प्रकाशनमाला" के अंतर्गत प्रकाशित शंकरानंद के पहले  कविता संग्रह "दूसरे दिन के लिए" की कविताएं अनुभवों की अपनी ताजगी से ध्यान आकर्षित करती है. यह ताजगी कहां है? अनदेखे बिंबों को कविता का विषय बनाने में. बल्कि यूं कहें उन विषयों पर कविता करने में जिन्हें महानगरीय बोध कविता का विषय नहीं मानता. शंकरानंद कविता को जीवन और जीवन को कविता बना देते हैं. साधारण सी  स्थितियों में छिपे व्यापक अर्थ को पकड़ पाना उनकी कविता की सबसे बड़ी शक्ति है. मसलन उनकी कविता ""ऊन" को लिया जा सकता है-

‘इस वक्त जब
 बड़े उदास बैठे हैं
 वे बच्चे ऊन से जूझ रहे हैं
 ऊन के उलझन से भर गये हैं, उनके हाथ
 उंगलियां रास्ता खोजती हैं झाडि़यों में
 जहां गुम हो गयी है सुबह
वे बच्चे ऊन से जूझ रहे हैं.

उम्बर्तो इको ने एक बेहद अर्थपूर्ण बात कही है, ‘ रचनाएं रचनाकार से कहीं ज्यादा बुद्धिमान होती हैं, उनमें वे संभावनाएं छिपी हो सकती हैं,  जो न रचनाकार को पता हों, उनके बारे में उसने कल्पना की हो. यह बात शंकरानंद पर कितनी लागू होती है, यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि उनकी कविताओं में अर्थ के स्तर पर कहीं व्यापक संभावनाएं छिपी हैं. मसलन "पलस्तर" कविता को ही देखिए-‘

"रसोईघर की दीवार से पलस्तर झरता है
मां चूल्हा जला कर बनाती है रोटी
या छौंकती है तरकारी
कुछ भी करती है कि उसमें गिरता है पलस्तर का टुकड़ा
फिर अन्न चबाया नहीं जाता
भूख-भूख ही रह जाती है
यह रोज की बात है
पलस्तर एक दुश्मन है तो
इसे झाड़ देना चाहिए
मिटा देना चाहिए उसे पूरी तरह."

ऐसी ही एक कविता है वह लड़की जिसमे ट्रेन मे बैठी लड़की की उमंग ‘पागलपन’ है. लड़कियों की उमंग को समाज में कब स्वीकार किया गया है? 
शंकरानंद की चिंताओ का दायरा काफी व्यापक है. समय, समाज के प्रति गहरे सरोकारों से उनकी कविता लैस है. उनके यहां किसानों की आत्महत्या की त्रासदी है, अन्न की कमी से मरते हुए लोग हैं, थालियां ताखे पर रखी हैं, जिनमें 'अन्न की जगह सजी है धूप'  और लगातार निर्मम और अतिचारी होते जाते विभिन्न तरीकों की स्वेच्छाचारी सत्ता भी है. वह तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग भी है जिसकी प्रतिबद्धता लगातार सवालों के घेरे में है- 
"उन्होंनेकुछ नहीं कहा" कविता का व्यंग्य देखिए 

वे जानते हैं की किसान तबाह हैं 
और आत्महत्या कर रहे हैं 
मर रहे हैं बुनकर बेघर हो रहे हैं लोग 
और मजदूरी कर रहे हैं बच्चे 
लेकिन उनके लिए ये मामूली बात है… 

...........
सरकार से उन्होंने पूछा तो यह कि 
चन्द्रमा पर जो आदमी भेजे जाने की योजना थी 
उसका क्या हुआ 
...........
अगर आदमी को चाँद पर नहीं भेजा जा रहा तो 
क्यों नहीं भेजा जा रहा 

उन्होंने सरकार से न धरती के बारे में पूछा 
न चिड़िया के बारे में पूछा 
न तितली के बारे में पूछा 
न बीज के बारे में पूछा न हत्यारे के बारे में पूछा 
न हमारे बारे में पूछा   

समय की भयावहता का यह चित्र देखिए-

कुछ बच्चे बर्तन भी मांजते हैं इस तरह जैसे चमका रहे हों सपने
सपने
जिन पर रोज जम जाती है धूल की कालिख!

शंकरानंद समय की भयावहता को पहचानते हैं, लेकिन निराश नहीं हैं. उनकी कविता में एक दृढ़ आशावाद है- 

चिड़िया पत्तों के बीच बैठी और गाने लगी 
घोंसले के बाहर का मौसम जबकि धुंधला था 
सूरज किसी लड़ाई में शामिल था 
और तारे टूटने के बाद भी बन रहे थे तेजी से

धरती की किसी दुनिया में 
रौंदी जा रही थी फसलें 
कहीं बच्चे पतंग के लिए हाथ उड़ा रहे थे 
मिटटी में रंगों का मिलना जारी था 
जारी थी एक दौड़ जिसमें शामिल दौड़नेवाले
बचा लेना चाहते थे अपनी सुबह
बचा लेना चाहते थे अपना कल
 कल जो किसी की मुट्ठी की तरफ
बढ़ रहा था बेचैन हो कर
देख रहा था पीछे कि
कितनी दूर हैं बचानेवाले
दौड़नेवाले दौर रहे हैं आज भी
कल किसी की मुट्ठी में बंद नहीं हुआ है अभी. 

यह आशावाद, लड़ने का जज्बा ‘अब’ कविता में भी देखा जा सकता है- वह रुका नहीं है बल्कि चल रहा है  दरार पर/ वह देख रहा है हरेक कोना/जैसे देख रहा है वह जगह/ जहां से शुरुआत किया जाना जरूरी है.’ वे जानते हैं कि भीषण अगलगी में भी जिसमें कुछ  नहीं बचता मिट्टी बच जाती है. वे देख सकते हैं कि चारों तरफ आग, धुआं और अगलगी के बीच भी एक बच्चा फूल का गाछ रोप रहा है. वे देख सकते हैं कि 

दूसरे दिन के लिए तैयार हो रहा है सूरज
जग चुकी हैं आंखें और कोंपल आने की आहट सुनाई पड़ रही है.

शंकरानंद की कविताएं प्रभावित करती हैं. महानगरीय यथार्थ बोध को पूरे देश का यथार्थ समझनेवाले लोगों को ये कविताएं रचनात्मक तरीके से चुनौती देती हैं.

No comments:

Post a Comment