मशहूर कथाकार मंजूर एहतेशाम का लेखन अपनी एक अलग ही काट लिए हुए है. उनके उपन्यास उस भारत का चेहरा हैं , जिस पर अब फ़िल्में भी नहीं बना करतीं. सामूहिक सामाजिक बहसें तो नहीं ही होतीं. भारत का वह समाज जो स्मृतियों से भी लापता हो चुका है. एहतेशाम जी के लेखन में ख़ास किस्म का नोस्टाल्जिया है. स्मृति आख्यान. लापता हो चुके या हो रहे को सहेज लेने की एक बेचैनी. मंजूर एहतेशाम से बात की प्रीति सिंह परिहार ने. यह आलेख बातचीत को आत्म-वक्तव्य में ढाल कर लिखा गया है.
लिखने वाला मंजूर एहतेशाम कुछ इस तरह होगा, ऐसा कभी सोचा नहीं था. आज भी यही समझता हूं कि यह मैं नहीं हूं. प्रिंट में दिखने वाले नाम मेरे लिए बहुत बड़ी चीज थे, आज भी हैं. जेहन में कहीं यह कल्पना कभी नहीं थी कि लेखक के रूप में मेरा नाम किसी किताब में आ सकता है. यह भी नहीं जानता था कि ऐसा समय आयेगा जब मेरे लेखन को पसंद करने वाले पाठक होंगे, मुझे राष्ट्रपति भवन जाने का मौका मिलेगा या इस वजह से कुछ लोग मुझसे नाराज भी हो जायेंगे. इन सारी चीजों से खुशी मिली, तो एक बड़ी जिम्मेदारी का एहसास भी हुआ. बचपन से डायरी लिखता था. स्कूल में लिखे गये निबंध पर हिंदी की शिक्षक की सराहना अकसर लिखने के लिए प्रेरित करती. एक वक्त ऐसा आया जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड.कर कहानी लिखने लगा. सत्येन साहब जैसे दोस्त मिले, जिनसे कहानी पर बात होती.
पहली कहानी ‘रमजान में मौत’ 1973 में सारिका के लंबी कहानी कॉलम प्रकाशित हुई. इस बात को चालीस साल हो गये. तब से अब तक जितना भी लिखा, वो मेरी अपनी जिंदगी से हट कर कुछ भी नहीं. दरअसल, कथा लेखन में यथार्थ कहीं परछाईं की तरह भीतर होता है और कल्पनाशीलता उसे शब्दाकार देती है. फिक्शन में लेखक का सामाजिक परिवेश, वर्ग, समाज, शहर- नाम लिए बिना भी आते जाते हैं. मेरे लेखन में भी आजादी के बाद की जिंदगी, मध्यवर्गीय मुसलिम परिवार, भोपाल शहर बार-बार आते हैं. लिखते हुए मैंने कोशिश की है कि अपनी आपबीती को जगबीती बना सकूं.
कहानी लिखना मेरे लिए ज्यादा मुश्किल होता है, उपन्यास की बनिस्बत. कहानी की अलग चुनौतियां होती हैं लेकिन वह ज्यादा सुख भी देती है. हालांकि मैंने चालीस साल के लेखन में कुल जमा 40 कहानियां ही लिखी हैं. कहानी सीधे वार करने की कला की मांग करती है. एक उम्दा कहानी लिखना मुश्किल काम है. वैसे उपन्यास लेखन की भी अपनी मुश्किलें हैं लेकिन उसका फलक बड.ा होता है. वह आपको वक्त देता है, ठहर कर सोचने और कहने का. सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक परिवेश को अभिव्यक्त करने का. मैंने अपने हर उपन्यास को लिखने के लिए पांच-छह साल का लंबा वक्त लिया है. बहुत सी ऐसी बातें जिनके बारे में मुझे लगता है कि लोगों को जानना चाहिए और वह मैं ही लिख सकता हूं, उन्हें कहने के लिए जब कहानियां छोटी पड. जाती हैं, तो उपन्यास लिखता हूं.कोई चीज है, जो सवाल की तरह घेरती है और वही मजबूर करती है लिखने के लिए. कभी-कभी मैं अपना लिखा हुआ जब खुद पढ.ता हूं, तब पता चलता है कि मेरे लेखन की मूल चिंता क्या थी. पहले से यह बहुत साफ नहीं होता. मैं किसी एक समस्या के बारे में बहुत कांशियस होकर नहीं लिखता.
मैंने कभी भी रात को या सुबह उठकर नहीं लिखा. हमेशा ऑफिस टाइम में हमारे शो रूम में बैठकर लिखता हूं. अपना पहला उपन्यास मैंने एक दवा की दुकान में बैठकर लिखा था. लिखते समय मुझे सिर्फ कुर्सी और मेज की दरकार होती है. फिर आप चाहे चौराहे पर भी बैठा दें, मैं अगर लिख रहा हूं, तो लिखता ही जाऊंगा. हालांकि कई बार ऐसा भी हुआ है कि लिखते-लिखते एक जगह पर आकर अटक गया और बहुत वक्त लगा है आगे बढ.ने में. शायद ऐसा सबके साथ होता होगा. पाठक भले आपको इत्मीनान दिलायें कि हां सबकुछ ठीक है. लेकिन कभी-कभी कुछ छूट जाने का एहसास रह जाता है. हर रचना अपना आवरण, तकनीक और भाषा खुद-ब-खुद लेकर आती है. एक बार आप उसके रिदिम में बंध गये, तो रुकते नहीं. लेकिन अगर उस रिदिम को आप नहीं पकड. पाये, तब मुश्किल होती है.
मैं इस सच से वाकिफ हूं कि अकेले मेरे लिख भर देने से कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा.लेकिन यह भरोसा बना रहता है कि अगर पांच लोग भी मेरे लिखे को पढेंगे, तो उनके माध्यम से मेरी बात दूर तलक जायेगी. दरअसल, लेखक के पास बहुत बडे. बदलाव की गुंजाइश नहीं होती. फ्रेंच रिव्योलूशन में जरूर लेखकों की भूमिका रही. लेकिन काल मार्क्स भी अकेले कुछ नहीं कर पाये, उन्हें दोस्तवस्की की जरूरत पड.ी. महात्मा गांधी के बाद उनकी बात करने वाले बहुत सारे हुए, लेकिन पहले उन्हें खुद लिखना पड.ा. ये सभी बहुत बडे. लोग थे.
हमारे समय-समाज की कुछ चीजें मुझे अकसर परेशान करती हैं. एक समय के बाद समझ नहीं
आता कि आपने समाज को बनाया है या समाज ने आपको. मुझे समझ नहीं आता कि चाहे वो हिंदू हों या मुसलमान लोग सांप्रदायिक क्यों हो जाते हैं! हमारा सेंस ऑफ ह्यूमर और कामनसेंस हमें इसकी इजाजत क्यों नहीं देता कि जो चीजें ऐतिहासिक हो चुकी हैं, अब हमें उनसे आगे बढ.ना चाहिए. लेकिन कहीं एक अजीब तरह की शतरंज चल रही है. किसको कौन मात देगा, कहना मुश्किल है पर इसकी फिराक हर तरफ दिखती है. फायदा उठाने का यह एटीट्यूट मेरे ख्याल से एक राष्ट्र के लिए बहुत ही घातक है. कुछ मामलों में तय करना होगा कि हम क्या हैं. मौजूदा समय में हमारे जीवन मूल्यों में लगातार दोगलापन हावी हो रहा है. आज बेईमानी को इस तरह से अपना लिया गया है, जैसे वो सेकेंड नेचर हो. यह इतनी गंभीर समस्या है कि इससे लड.ने के लिए गांधी जैसे किसी व्यक्ति की जरूरत होगी. इसका इलाज अगर मिल भी जाये, तो उस पर काम करने के लिए लंबा वक्त लगेगा. साहित्य इस तरह की चीजों को थोड.ा बहुत ही बदल सकता है. ऐसे चंद लोग जो सही सोच पर टिके हैं, उन्हें थोड.ी बहुत हिम्मत दिला सकता है. लेकिन अगर बुनियादी स्वभाव ही ऐसा हो जाये, तो कुछ नहीं रहेगा न मूल्य, न जीवन.
लिखने के बहुत पहले से मैं देश ही नहीं, दुनिया भर का साहित्य पढ.ता रहा हूं. लेकिन जो रचनाएं और रचनाकार अच्छे लगे, उन सबके नाम याद कर पाना मुश्किल है. जो याद आ रहा है उसमें दोस्तोवस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ और ‘द ब्रदर्स कारमाजोव’ के साथ टॉल्स्टाय का लिखा बहुत कुछ है. मार्खेज और विलियम फाकनर पसंद आये. साउथ अफ्रीका के भी कुछ लेखक हैं. अमिताभ घोष के शुरुआती उपन्यास अच्छे लगे. हिंदी में प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु का लेखन लाजवाब है. मुक्तिबोध मुझे बेपनाह पसंद हैं. उनकी डायरी, कविता, कहानी सब बहुत ही उम्दा हैं. निर्मल वर्मा, जो मेरे बहुत करीबी रहे हैं और जिन्हें मैं बहुत ज्यादा प्यार भी करता था, उनके उपन्यास ‘वे दिन’,‘लालटीन की छत’ और ‘एक चिथड.ा सुख’ सहित उनकी कुछ कहानियां बेहद पसंद हैं. वे उस तरह के लेखक हैं, जो मैं नहीं हूं. लेकिन मुझे उनका लिखा हुआ बहुत अच्छा लगता है. श्रीलाल शुक्ल और विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का मुरीद हूं. उर्दू में सआदत हसन मंटो तो थे ही. अब्दुल्लाह हुसैन का उपन्यास ‘उदास नस्लें’ पसंद आया. स्वदेश दीपक भी पसंद हैं. उदय प्रकाश के साथ नये में मनोज रूपड.ा प्रभावित करते हैं. गीतांजलि श्री की ‘माई’,‘खाली जगह’ सहित कुछ कहानियां अच्छी लगीं.
इन दिनों मैं एक उपन्यास पर ही काम कर रहा हूं. बहुत ठंड के दिनों में मैं लिख नहीं पाता, तो कुछ ऐतिहासिक मालूमात जो उपन्यास के लिए जरूरी हैं, उन्हें पढ. कर उनके नोट्स लेता रहा हूं. कुछ कहानियां भी हैं, धूप निकलते ही जिन पर काम करूंगा. लगता है कि अभी बहुत लिखना है और कभी लगता है कि अब क्या करूंगा लिख कर. कविता मुझे बहुत अच्छी लगती है, लेकिन मेरे अंदर वह योग्यता ही नहीं है कि कविता की एक पंक्ति भी लिख सकूं. लेखन से इतर मुझे पढ.ना पसंद है. दोस्त जिनकी तादाद अब दिन ब दिन कम होती जा रही है, उनके साथ मिल बैठना अच्छा लगता है.
प्रीति सिंह परिहार युवा पत्रकार हैं.
मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित
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