30 November 2009

ओखला मंडी को हटाओ





क्यों भाई ओखला मंडी को क्यों हटाओ और ऐसे ऐसे कैसे हटा सकता है कोई ओखला मंडी को .कितनी बड़ी मंडी है यह दक्षिणी दिल्ली की .फूलों की ,सब्जियों की ..साग सब्जियों की खरीदारी फिर कहा से करेंगे बेचारे दुकानदार ,कैसे आप तक पहुचायेंगे छोटी-छोटी मंडियों के सब्जी वाले  फल सब्जियां ,कैसे ठेले पर बिकेगा आपके रसोई को  चलाने  वाली सब्जियां आलू प्याज..कैसे चलेगा उन हजारों लोगों का रोजगार जो रोज ओखला मंडी के सहारे अपना कारोबार चलते हैं?  बहुत बड़ा कारोबार फैला है ओखला मंडी में ,ओखला मंडी के आस पास..करोड़ों के वारे न्यारे हो जाते हैं यहाँ रोज...कोई वजह तो हो ..यू ही कैसा हटाया जा सकता है फलता फूलता बाजार किसी के सनक में कुछ कह देने से ..नहीं बिल्कुल नहीं हटेगा ..शान के साथ रहेगी ये मंडी..सब की जरूरतें पूरी करती रहेगी.
    हाँ भाई इन बातों से किसको इनकार है..लेकिन फिर भी ओखला मंडी को यहाँ से हटाओ..नहीं हटा सकते तो ओखला मंडी में रहने वाले आदमियों को कहो की वे हट जाएँ इस मंडी से..हद है कोई सिविक सेंस नाम की चीज भी होती है या नहीं..आप कह दें की सभ्य समाज में इस सेन्स की कोई दरकार नहीं , सफाई और इंसानी तहजीब की कोई जगह होती है या नहीं? नहीं होती तो मत हटाओ और अगर होती है तो जरूरी है कि इस मंडी को यहाँ से जल्द से जल्द हटा दिया जाये..यह सभ्य समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि ओखला मंडी में रहने वाले वहाँ कारोबार करने वाले ओखला मंडी के सामने वाली सड़क को पब्लिक  टायलेट बना दे और इस मंडी के सामने से निकलने वाले लोग अपनी नाक पर रुमाल रख कर उस सड़क से गुजरें..अरे ये भी तो सोचो कि यह मंडी शहर के पौश लोकैलिटी से सटा हुआ है और उन अमीर लोगों पर इस यातनादायक स्थिति का क्या प्रभाव पड़ता होगा और वे कितने बेजार से रहते होंगे ..हाँ ये भी सही है कि वे कार में चलने वाले लोग हैं.उनको शहर की बदबू वातानुकूलित शीशे चढ़े कारों में महसूस नहीं होती ..अरे अमीरों की नहीं तो कम से कम उन लोगों के बारे में तो कोई सोचो जिन्हें ओखला मंडी के बस स्टॉप पर रोज बस के लिए खड़ा होना पड़ता है..
अरे कुछ नहीं तो कॉमन वेल्थ गेम के नाम पर तो इस शहर के बदनुमा दाग को हटाने की कोई तरकीब निकालो..शीला जी से कहो वे मान जायेंगी..वहाँ कोई पार्क खुलवा  देंगी उसे विदेशी आगंतुकों के सामने गर्व से दिखलाएंगी..हाँ ये सही है,हिट आइडिया है ,. क्योंकी अगर सरकार  को इस और कुछ करना होता तो वह यहाँ पब्लिक टायलेट की कोई ना कोई व्यवस्था अरसा पहले कर चुकी होती..लेकिन अफ़सोस शायद यहाँ से कभी मुख्यमंत्री का कारवां गुजरा ही नहीं और कभी गुजरा भी तो यकीनन उन्होंने  अपने कार के शीशे चढ़ा रखे होंगे...
  लेकिन सवाल ये है कि एक सभ्य कहे जाने शहर में ,जो गलती से भारत की राजधानी भी है ,कोई आदमी सड़क के किनारे अपने आप को फारिग करने के लिए क्यों विवश होता है? कोई क्यों नहीं देखता उस मजबूरी  को जो उसे ऐसा करने पर मजबूर करती है..उसको इंसान की श्रेणी से यू ही हम जानवरों की श्रेणी में धकेल कर चैन की नींद कैसे सोते हैं..दिल्ली को वर्ल्ड क्लास शहर बनाए की कवायद में इन लोगों की जिन्दगी मामूली इंसानी स्तर तक पहुच क्यों नहीं पा रही ये सोचने का वक़्त कोई क्यों नहीं निकाल पा रहा है? क्या हमारी सिविल सोसाइटी नाम मात्र की सिविल सोसाइटी रह गई है? बर्बरता सिविलाइज्ड का विलोम है ,क्या हम ज्यादा से ज्यादा बर्बर होते नहीं जा रहे? अगर हम इंसानों को सड़क के किनारे मजबूरी  में  निवृत होते देख कर भी अपने घरों में चैन की नींद सो सकते हैं तो हमें बर्बर के अलावा क्या कहा जा सकता है?बात सिर्फ ओखला मंडी की नहीं है दिल्ली के भीतर ऐसे अनगिनत इलाके हैं जहाँ इंसान न्यूनतम इंसानी गरिमा के साथ जी पाने में भी समर्थ नहीं है..अगर हमारी सिविल सोसाइटी इसको देख कर शर्मसार नहीं होती तो क्या कोई मतलब है हमारे  सिविलाइज्ड कहलाने का? दिल्ले चमकेगा ,वर्ल्ड क्लास बनेगा क्या ऐसे ही?

2 comments:

  1. वैसे ही सब्जियां बहुत महंगी हो रही हैं।
    ओखला मंडी को हटा दिया फिर तो
    बहुत मुश्किल हो जाएगी
    हम बेचने के लिए सब्जियां खरीदने
    क्‍या आजाद पुर मंडी जायेंगे।

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  2. lokatantr jindabad
    arganikbhagyoday.blogspot.com

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