23 February 2017

मेला संवाद और हिंदी लेखक समुदाय की 'सहिष्णुता'



मेला संवाद पर हंगामे के बीच एक पक्ष ये भी.
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पाखी में प्रकाशित कथाकार अल्पना मिश्र के साथ पत्रिका के सम्पादक प्रेम भारद्वाज के संवाद के कुछ अंशों को लेकर सोशल मीडिया पर बवाल मचा हुआ है। बवाल मचानेवाले लोगों में से कई लोग ऐसे भी हैं, जो ज्ञानोदय छिनाल प्रसंग के बाद भी दिवंगत संपादक रवींद्र कालिया का शिष्य कहलाना गौरव की बात महसूस करते हैं। मुझे याद नहीं आता कि चंदन पांडेय के अलावा उस वक्त किसी युवा कथाकार ने ज्ञानोदय से घोषित तौर पर अपना संबंध विच्छेद किया था। या कम से कम ऐसी घोषणा की थी। (साहित्यिक विवादों को लेकर मेरी स्मृति बहुत मजबूत नहीं है, इसलिए अगर किसी और ने ऐसा किया हो, तो वे मुझे बता सकते हैं।) जाहिर है, दिक्कत शब्द से नहीं है। कभी नहीं रही है। दिक्कत हो, तो सिर्फ अल्पना मिश्र के बेनाइन शब्दों से क्यों हो? प्रधानमंत्री से लेकर सलमान खान और बाबा रामदेव, अरविन्द केजरीवाल तक के शब्दों से उन्हें दिक्कत होनी चाहिए और कम से कम उस दिक्कत का प्रकटीकरण फेसबुक पर होना चाहिए, जिस पर अभी उनका गुस्सा देखने लायक है।
पाखी में प्रकाशित अल्पना मिश्र के साक्षात्कार के बारे में कोई भी बात करने से पहले मैं यह कहना चाहूंगा कि मेले के भीतर राजकमल या वाणी या हिन्दी के किसी भी प्रकाशक के स्टाल पर लेखक से बातचीत का विचार ही असंगत है। मेला चाहे कोई भी और कैसा भी हो, अंततः एक अगंभीर स्थान ही है। यह एक हंसी-मजाक, मन-बहलाव, सेल्फ प्रोमोशन, देखा-देखी करने की जगह है। मेले में किसी लेखक के सृजन पर गंभीर बातचीत हो सकती है, ऐसी किसी भी संभावना का विचार ही मिथ्या है। बहरहाल, क्या किया जाए, बात बाजार के हाथों मजबूर होने की है। लेखक पर दबाव है। इंटरव्यू लेनेवाले पर भी दबाव है। दबाव बाजार का भी है। धर्म-संकट का भी है। बुलाने पर कैसे न जाए इस संकोच का भी है। इन दबावों के बीच ही इस मेले में शायद प्रेम भारद्वाज को एक के बाद एक तीन लेखकों से इंटरव्यू लेते देखा गया। इसे इंटरव्यू कहना गलत होगा। बातचीत, बतकही इसके लिए ज्यादा सही शब्द है। कल्पना कीजिए, राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर खरीदारों की भीड़ आ जा रही है। किसी सेल्समैन का शोर सुनाई दे रहा है। किसी की फोन की घंटी बज रही है, लोग अपने कैमरे के फ्लैश चमका रहे हैं। लेखक को उचक-उचक कर देख रहे हैं। लेखक के चेहरे पर तेज रौशनी है। उसे चारों ओर से बड़े-छोटे लेखकों ने घेर रखा है। सामने वीडियोग्राफी हो रही है। बातचीत का सीधा प्रसारण फेसबुक लाइव पर हो रहा है। मेला है पूरा मेला। ऐसे में क्या कोई लेखक स्थिर चित्त से इंटरव्यू दे सकता है? और क्या बाजार के हाथों मजबूर होकर दिये गये इस इंटरव्यू को गंभीरता से लिया जा सकता है


आप कह सकते हैं कि लेखक का विवेक हमेशा जाग्रत रहता है। इसलिए उससे जब और जहां भी सवाल पूछे जाएंगे, वह सही जवाब ही देगा। बल्कि ऐसी स्थिति में जब लेखक के पास अतिरिक्त सचेत होने की कोई स्थिति नहीं है, उसके अंदर का सच खुल कर सामने आयेगा। आपकी बात सही हो सकती है, लेकिन दुनिया के किसी भी बड़े कथाकार से किसी महत्वपूर्ण साक्षात्कार की जगह मेला, शहर के जाम में फंसी बस या हिंडोला रहा हो, ऐसा मुझे तो याद नहीं आता। पेरिस रिव्यू पर दुनिया के कई बड़े उपन्यासकारों के उत्कृष्ट साक्षात्कार प्रकाशित हुए हैं। इनमें से ज्यादातर साक्षात्कार लेखक की इच्छा से उसकी शर्तों के साथ लिए गये। साक्षात्कार कर्ता को कई बार बातचीत को रिकॉर्ड करने की भी इजाजत नहीं दी गयी। क्या ये लेखक छोटे लेखक थे? या इनका विवेक जाग्रत नहीं था?
लेकिन अब जबकि मेले की चलताउ बातचीत को इंटरव्यू की शक्ल में प्रकाशित कर ही दिया है और संभवतः इसमें तीनों लेखकों की भी रजामंदी रही होगी, तो न ही लेखक न ही साक्षात्कारकर्ता, इसमें आये शब्दों, वाक्याशों की जिम्मेवारी लेने से मुकर सकता है। तो जिन शब्दों, वाक्यांशों पर कथाकार अल्पना मिश्र को मुख् तौर पर घेरा गया है उन्हें यहां पहले लिख देना चाहिए। एक आपत्ति वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा को है कि अल्पना मिश्र ने ये कैसे कहा कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आत्मकथा में यह लिखा है कि वे सज-धज कर हंस के दफ्तर गयी थीं और उनकी कहानी छप गयी। मैत्रेयी पुष्पा ने अपना रोष प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘अल्पना मिश्र तुम सरासर झूठ बोल रही हो।‘ बहरहाल बात यहां सच या झूठ की नहीं स्मृति की है और कुछ-कुछ सवाल को न समझने की। सवाल यह नहीं था कि मैत्रेयी पुष्पा ने ऐसा कुछ कहा था। सवाल को गलत सुना गया। मेले की भीड़-भाड़, शोर के बीच यह कोई अनोखी बात नहीं कही जा सकती। दूसरी बात यह है कि अल्पना मिश्र की स्मृति उन्हें यह कह रही है कि मैत्रेयी पुष्पा ने कहीं अपनी आत्मकथा में यह लिखा है। मैत्रेयी ने इसका विरोध किया है, इसका मतलब यह है कि अल्पना मिश्र को कोई भ्रम हुआ है। वे झूठ बोल रही हैं, इसका कोई प्रमाण यहां नहीं मिलता। यह एक गलती है, (अगर वाकई है, तो) जिस पर वे खेद प्रकट कर सकती हैं। दिलचस्प यह है कि किसी युवा कथाकार ने इस टिप्पणी को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है। छिनाल प्रसंग में उनके आचरण को देखते हुए यह स्वाभाविक ही है।
दूसरी समस्या युवा पीढ़ी के कथाकारों को है। उनके क्षोभ का सबब यह है कि अल्पना मिश्र खुद को अंकंवेशनल बता रही हैं और बाकी लेखकों से खुद को आयतन में बड़ा मान रही हैं। निस्संदेह इस वक्तव्य में मॉडेस्टी की झलक नहीं हैलेकिन क्या आत्मश्लाघा कोई अनोखी चीज है? और क्या वह दंडनीय है? किसी ने प्रेम भारद्वाज की दीवार पर गालिब के शेऔर भी दुनिया में सुखन-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयाँ और।  को उद्धृत करते हुए इस तथाकथित दंडनीय आत्मश्लाघा का बचाव किया है। लेकिन गालिब ही क्यों मंटो को देखिए। अपनी मौत के एक साल पहले मंटो ने खुद अपनी कब्र के लिए कतबा लिखा था: यहां सआदत हसन मंटो दफ्न है। उसके सीने में फनो अफसानानिगारी के सारे असरारो रूकूज दफ्न हैं। वह अपनी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वह बड़ा अफसाना निगार है या खुदा!अब इससे बड़ी आत्मश्लाघा और क्या हो सकती है? आत्मश्लाघा नई कहानी की तिकड़ी में भी मिलती है निराला की एक पंक्ति है ‘मैं कवि हूं, पाया है मैंने प्रकाश!’ फर्ज कीजिए इसकी व्याख्या इस तरह से की जाए कि क्या प्रकाश सिर्फ निराला ही पाया, किसी और ने नहीं पाया था? बाकी सब अन्धकार में ही लिख रहे थे? निराला ने तो यह भी लिखा है कि कठिन लिखना उनके समय में किसी को नहीं आता। तो क्या प्रसाद निराला से कमतर थे?
यह बहुत सामान्य बात है कि कोई भी लेखक तभी लिखेगा जब वह खुद को अपूर्व और अकेला पायेगा। जिसे यह लगेगा कि उसके विचारों या भावों, संवेदनाओं का आयतन दूसरे कहानीकारों/ कवियों से ज्यादा है। ऐसा महसूस किये बगैर अगर कोई लेखक लिख रहा है, तो वह बस अभ्यास कर रहा है। मन बहलाव कर रहा है। एक लेखक भले यह न कहे, लेकिन कहीं न कहीं वह महसूस करता है कि वह विलक्षण है। न कहना ही प्रचलित है। लेकिन यह भी सही है कि इस विलक्षणता की भावना ही उस लेखक बनाती है। युवा कहानीकारों को अगर अल्पना मिश्र के इस वक्तव्य से दिक्कत है, तो उन्हें अल्पना मिश्र की इस टिप्पणी का सुसंगत जवाब देना चाहिए। युवा कहानी के आयतन को निर्धारित करना चाहिए। उसके फ्रेम की माप करनी चाहिए इससे कुछ नहीं, तो हिन्दी साहित्य में स्वस्थ बहस की परंपरा शुरू होगी, जो अब कई दशकों से पूरी तरह समाप्त हो गयी है। ऐसी बहसें 1970 के दशक के बाद हिंदी साहित्य की दुनिया में नहीं दिखाई देती। यही कारण है कि 1980 के बाद के साहित्य का न हमारे यहां कोई सैद्धांतीकरण हुआ है, न उसे पढ़ने-समझने के रास्ते ही खोजे गये हैं। युवा कहानी का मामला अभी तरल अवस्था में है। इसलिए इस पर बहस किये जाने की जरूरत है। और यह बहस युवा कहानीकार और आलोचक ही करेंगे। बहरहाल फेसबुक की दीवार पर पूरी ताकत से टूट पड़नेवाले युवा कहानीकारों से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। वो दौर दूसरा था, जब निराला, पंत ने छायावाद को स्थापित करने के लिए लड़ाई लड़ी थी। खुद उसका सैद्धांतीकरण करने की कोशिश की थी। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता हर दौर में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। नयी कहानी को लेकर भी ऐसे प्रयास हुए। लेकिन, जिसे युवा कहानी कहते हैं, उस पर कायदे से बात करने के लिए कोई तैयार नहीं दिखता है।
तीसरी बात, जिस पर सबसे ज्यादा हंगामा बरपा है, वह है अल्पना मिश्र की वरिष्ठ कथाकर अखिलेश के चर्चित उपन्यास निर्वासनपर की गयी यह टिप्पणी कि निर्वासन आखिरकार फ्लॉपही हुआ। इस ‘फ्लॉप’  शब्द पर लोगों को काफी आपत्ति है। उन्हें आपत्ति करने का अधिकार है। लेकिन, किसी कृति को हिट या फ्लॉप मानने का अधिकार अल्पना मिश्र का भी है। यह न्यूनम सहिष्णुता है, जिसका प्रदर्शन हिन्दी लेखक समाज को करना चाहिए। निर्वासन तो निर्वासन गोदान,  मैला आंचल, तमस, राग दरबारी, आधा गांव, मुझे चांद चाहिए, आखिरी कलाम, काशी का अस्सी या कोई भी ऐसी बड़ी कृति नहीं है, जिसे किसी न किसी ने पूरी तरह से खारिज न किया हो। यह सही है कि ‘फ्लॉप’ बाजार का शब्द है, लेकिन बाजार में बैठ कर किये जा रहे साक्षात्कार में बाजार से बाहर के शब्द आएं, यह उम्मीद करना नादानी नही तो और क्या है? वैसे यह बात भी अजीब है कि जिस हिंदी समाज को ‘बेस्ट सेलर’ शब्द से दिक्कत नहीं, उसे फ्लॉप से दिक्कत है। वैसे महत्वपूर्ण लेखन हिट हुआ हो, इसके बहुत दृष्टान्त हमारे पास नहीं हैं। निर्वासन का सारा वितान बाजार के विरोध में खड़ा किया गया है, फिर भी वह हिट हो जाये यह अचरज की बात ही होती! वैसे यह भी पूछना चाहिए कि क्या अब साहित्यिक सफलता की कसौटी किसी कृति का हिट या फ्लॉप होना ही है?  
वास्तव में अल्पना मिश्र के साथ मेला-संवाद (इसे कतई इंटरव्यू नहीं कहा जा सकता) बहस के कई जरूरी मसले देता है। एक मसला तो यही है कि क्या कोई कृति निर्विवाद रूप से संपूर्ण और उत्कृष्ट हो सकती है? अगर कोई रचना, विरोधियों को जन्म न दे, तो उस रचना की सार्थकता पर कम से कम मुझे तो संदेह होता है। और यह बात अल्पना मिश्र की कहानियों और उपन्यासों पर भी उतनी ही लागू होती है
यूं तो यह सार्वजनीन परिघटना है, लेकिन फेसबुक पर साहित्यिक बहसों के स्तर में भी लगातार ह्रास हुआ है और यह महज व्यक्तिगत आलोचना तक सीमित होकर रह गया है। बात से बात बढ़े, कृतियों पर ज्यादा डेमोक्रैटिक तरीके से बातचीत हो, ऐसी संभावना नदारद है। कभी-कभी यही लगता है कि हिन्दी के लेखक वास्तव में सबसे असहिष्णु लोग हैं। जब वे अपनी छोटी-छोटी सत्ताओं के लिए आक्रामक हो रहे हैं, तो कट्टरपंथी ताकतें ऐसा करें, इसमें क्या अचरज की बात है। और उनका विरोध किस मुंह से किया जाए? 

(24 फ़रवरी, 11:13 प्रातः पर पुनः सम्पादित.)

16 April 2015

संभावनाओं की चमकती दहलीज पर से वापसी

वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत की महत्वाकांक्षी उपन्यास त्रयी की आखिरी किश्त  "धरा अंकुराई" पर हाल ही में एक लम्बी समीक्षा लिखी थी. "कैसी आगी लगाई ", "बरखा रचाई", के बाद  "धरा अंकुराई " उपन्यास एक प्रतिबद्ध लेखक की चिंताओं के व्यापक दायरे से हमें रू-ब-रू कराता है. 

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‘धरा अंकुराई’ वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत की उपन्यास त्रयी का तीसरा और आखिरी उपन्यास है। इससे पहले इस उपन्यास त्रयी के अंतर्गत ‘कैसी आगी लगाई’, ‘बरखा रचाई’ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं और पाठक-आलोचक जगत द्वारा पर्याप्त प्रशंसित हो चुके हैं। ‘कैसी आगी लगायी’ के प्राक्कथन, ‘एक अनपढ़ का विलाप’ में असगर वजाहत ने लिखा था, ‘इन दिनों से पहले कभी यह नहीं लगा कि लिखना जरूरी है। वजह, और सबसे बड़ी वजह यही है कि लेखक जो सोचता है, कहना चाहता है, उसके लिए साहित्य को छोड़कर कोई मंच नहीं बचा है।’ त्रयी के तीनों उपन्यासों का जन्म इसी बेचैनी से हुआ है, लेकिन ‘धरा अंकुराई’ में इस बेचैनी को सबसे ज्यादा महसूस किया जा सकता है। कारण यह कि यह उपन्यास हमारे आज के समय में स्थित है। इसकी चिंताएं, इसकी समस्याएं हमारी आज की चिंताएं, आज की समस्याएं हैं। हमारा खंडित वर्तमान, इस वर्तमान को बनाने, निर्धारित करनेवाली शक्तियां और इस वर्तमान से लड़ रहा, इसके आघातों से आकार ग्रहण कर रहा जीवन इसके केंद्र में है।

‘धरा अंकुराई’- उपन्यास का शीर्षक एक विशाल बिंब रचता है, जिसकी अर्थ-छवियां एक साथ इतिहास में, समाज में, भूगोल में यानी ‘टाइम एंड स्पेस’ में खुलती हैं। धरा के अंकुराने का अर्थ क्या है? बंजर जमीन का अपनी जन्म न देने की अनिच्छा से बाहर निकलना। कोई जमीन बंजर नहीं होती। लेकिन क्या हो अगर धरती प्रतिदान देने से इनकार कर दे या प्रतिदान देने की अपनी क्षमता भूल जाये? इनसान को उस धरती को अपने श्रम-स्वेद से सींचना पड़ता है, बंजर धरती की गांठों को खोलना पड़ता है। उसे मनाना होता है। इस तरह ‘धरा अंकुराई’ का बिंब एक तरफ धरती के ‘शस्य श्यामला’ होने का बिंब है, तो साथ में मेहनतकश हाथों के निशान भी यहां हैं।
जाहिर है, इतने विराट बिंब के साथ किसी कथा में प्रवेश करना, लेखक के लिए चुनौतियां पैदा करता है। असगर वजाहत ने इस चुनौती का सामना अपनी बौद्धिकता और सरोकारों के प्रति अपनी ईमानदारी के सहारे किया है। संक्रमण के दौर में करवट बदलते भारत की दास्तां कहने की बेचैनी असगर वजाहत को ‘धरा अंकुराई’ के कथा-प्रदेश में लेकर आयी है। इस उपन्यास का समय उदारीकरण के बाद का भारत है। जाहिर तौर पर यह धर्म और जाति की राजनीति के ज्यादा ताकतवर होने के बाद का भी भारत है। शब्दों के मानी बचाने की जिस बेचैनी की बात असगर वजाहत ने ‘कैसी आगी लगायी’ के प्राक्कथन में की थी, वही इस रचनात्मक यात्रा का ईंधन है। उपन्यास त्रयी का हिस्सा होने के बावजूद यह उपन्यास अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है और इसका स्वतंत्र पाठ मुमकिन है।
एक खास लेखकीय प्रविधि के तहत असगर वजाहत अपने मुख्य पात्र को जो कि दिल्ली के पत्रकारिता जगत का एक रोशन सितारा है, वापस अपने शहर लेकर आते हैं। एक ऐसे सामान्य से शहर में, जो ‘ कस्बा और शहर होने के बीच पिछले पचास साल से फंसा हुआ है। एसएस अली यानी सैयद साजिद अली ‘अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया’ के भाव से अपने पुराने शहर में लौटता है। वह अपने जीवन का अर्थ खोजना चाहता है। कुछ ऐसा करना चाहता है, जो उसे सार्थकता का एहसास दे।
अपनी ही गति से चल रहे इस कस्बानुमा शहर में कथा-नैरेटर के आने से एक किस्म का आलोड़न आता है। वह बदलाव के एजेंट के तौर पर शहर में दाखिल होता है। इस शहर में, जिसे वह 40 साल पहले छोड़ चुका है, वह एक आउटसाइडर- बाहरी की तरह है। वहां की सत्ता-संरचना में एक किस्म का व्यवधान है। एसएस अली इस शहर में चीजों को नये तरह से करना चाहता है। लेकिन, यह काम आसान नहीं है। क्योंकि यह शहर अपने चरित्र में यथास्थितिवादी है। यहां एक साथ कई शक्तियां काम कर रही हैं, जो उसे उसके जैसा ही छोड़ कर लगातार अपने हिसाब से बदल रही हैं। शहर हर दिन बढ़ रहा है। भू-माफियाओं का वहां अपना राज है। उदारीकरण के बाद आयी कुरूपताओं ने इस शहर को भी अपना निशाना बनाया है। इन चीजों के साथ शाश्वत रूप से मौजूद है निष्प्रभावी सरकारी तंत्र और उसकी उदासीनता। सबसे बड़ी बात शायद यह है कि ‘किसी तरह के सुधार के बारे में लोगों कोई विश्वास नहीं है।’ इस शहर में बदलाव लाने की कथा-नैरेटर की कोशिशो का जहां एक तरफ स्वागत होता है, वहीं मौजूदा सत्ता-संरचना में इसको लेकर असहजता का भाव भी उत्पन्न होता है। यह उपन्यास अपने समय के सवालों से जूझने, जवाब तलाशने, जरूरी सवाल पूछने की भंगिमा अपनाता है। जड़ता और बदलाव की शक्तियों के द्वंद्व से उपन्यास की शुरुआत में तनाव का सृजन हुआ है, जो एक तरफ रोचकता पैदा करता है, वहीं दूसरी ओर उपन्यास को संभावनाओं के अनदेखे क्षितिज की ओर भी ले जाता है।
अपने समय से टकराने के उपक्रम में असगर वजाहत ने यहां राग दरबारी की शैली में की गयी टिप्पणियों का सहारा लिया है। हालांकि ये वक्तव्य उस तरह से व्यंग्यपूर्ण और चुटीले नहीं हैं, लेकिन एक बुद्धिजीवी की चिंताओं से भरे हुए हैं। इन के दायरे में अंग्रेजीपरस्त शिक्षा व्यवस्था से लेकर, नगरपालिका, पूरे देश में फैली माफिया संस्कृति, सरकार का लोप और उसकी जगह प्राइवेट का आगमन, मीडिया (स्थानीय और राष्ट्रीय) का चरित्र, जैसे अनेक मसले हैं। लेखक को लगता है कि जो चीजें उसके आसपास इस देश में हो रही हैं, होती आयी हैं, उनके बारे में बोलना जरूरी है। खासकर उस हालात में  जब, ‘कुछ भी अपनी जगह पर नहीं है। जो है सब बिगड़ा हुआ है, टूटा हुआ है। मरम्मतों की हद से गुजर गया है और उस पर तुर्रा यह कि किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।’ यह बोलना ‘फर्क’ पैदा करने के लिए है।
एसएस अली इस कस्बे में नये-नये प्रयोग करता है। वह शहर मे चारों ओर फैले कूड़े को साफ करने की योजना बनाता है। यह एक प्रतीकात्मक कार्रवाई है। गांधी के नमक आंदोलन की तरह। और उसी तर्ज पर इसका विरोध भी होता है, क्योंकि अपने साधारण प्रतीक में भी यह काम सरकारी तंत्र को चुनौती देनेवाला है। सरकारी तंत्र के माथे पर इससे शिकन आती है। लेखक यह दिखाता है कि यह है भारत, जहां देश के हिंदुस्तान से ‘कूडि़स्तान’ में तब्दील हो जाने पर प्रशासन को कोई तकलीफ नहीं होती, लेकिन अपनी सत्ता पर पर एक छोटी सी खरोंच भी जिसे परेशान कर जाती है।  एसएस अली जो करना चाहता है, उसकी राह में सिर्फ माफिया और राजनीतिज्ञ (दोनों यहां पर्यायवाची हैं) ही नहीं खड़े, प्रशासन तंत्र भी खड़ा है।  इनके बीच मजबूत गठजोड़ है। न्याय मिलना मुश्किल है। संचार के साधनों पर भी इनका कब्जा है। अली की हर कोशिश पर शहर के लोगों को लगता है कि कहीं इसके पीछे राजनीति तो नहीं। कस्बे के युवकों को मु्फ्त अंग्रेजी पढ़ाने की शुरुआत भी ऐसा ही काम है। एक पहल के तहत शहर के बुद्धिजीवियों या संभ्रांत लोगों की एक सूची- डाइरेक्टरी बनायी जाती है। शहर का नक्शा बनाया जाता है। लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद उसे लगता है कि सारे रास्ते बंद हैं। सत्ता ने पक्की किलेबंदी कर ली है। उसे लगातार शक की निगाहों से देखा जाता है, कुछ उसी तरह से जिस तरह से ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ में ‘का’ को शक की निगाह से देखा जाता है। असगर वजाहत ने बेहद सिद्ध हाथों से कथानक के वितान में तनाव और द्वंद्व के तत्वों को मिलाया है। ऐसा लगता है कि इन प्रयोगों का क्लाइमेक्स -‘ज्ञान यात्रा’ के दौरान आयेगा।
‘ज्ञान यात्रा’ और उसके सहारे सामाजिक घात-प्रतिघात का चित्रण, सत्ता, प्रशासन, माफिया और संचार माध्यमों के गठजोड़ के खिलाफ लड़ाई उपन्यास की स्वाभाविक परिणति होती। लेकिन ऐसा लगता है जैसे इस बिंदु पर आकर लेखक ने उपन्यास को अपने हाथों से फिसल जाने दिया है। ‘ज्ञान यात्रा’ के लिए बन रही योजनाओं के बीच उपन्यास एक व्यक्तिगत मोड़ ले लेता है और निजी संबंधों के जाल में फंस जाता है। ‘हीरा’ जो रेणु के ‘मैला आंचल’ की डाॅक्टर ममता की तरह दूर से कथा में हस्तक्षेप कर रहा था, जिसकी उपस्थिति उपन्यास में चीजों को बौद्धिक नजरिये से देखने की जरूरत के हिसाब से थी, अचानक वह और नाजो से उसका प्रेम उपन्यास का केंद्रीय विषय बन जाता है। ‘ज्ञान यात्रा’ पृष्ठभूमि में चली जाती है।
कभी सल्लो से, जो एसएस अली के घर में काम करनेवाली नौकरानी थी, जिसके साथ उसके शारीरिक संबंध थे, वह शादी नहीं कर पाया था। क्यों? क्योंकि सामंती समाज के संस्कार उसे इसकी इजाजत नहीं देते थे। न ही, सामंती नैतिकता को बचाए रखने के लिए ही इसकी कोई जरूरत थी। उसी सल्लो की नातिन नाजो, जो हूबहू सल्लो की प्रतिरूप है, के प्रति वह खुद को शारीरिक रूप से आकर्षित पाता है। यह एक द्वंद्व की स्थिति है और कथा के विकास में इसकी मनौवैज्ञानिक स्वाभाविकता से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन, अली के बेटे हीरा की कथा में एंट्री, उसका नाजो के प्रति आकर्षण और आखिरकार दोनों की शादी उपन्यास की कथा की संगति में नहीं लगते। वृहत सामाजिक फलक पर अपने पट खोल रहे उपन्यास का यह अंत निराश करता है। हीरा और नाजो की शादी का संदर्भ भी सामंती समाज में आ रहे किसी बदलाव को प्रकट नहीं करता। इसे सामंती समाज की बंजर जमीन पर नये विचारों का कोंपल फूटना नहीं कहा जा सकता। हीरा लंदन स्कूल आॅफ इकोनाॅमिक्स का शोध छात्र है। लड़कियों के साथ वह उस तरह से सहज नहीं है। उसकी मां नूर को लगता है, उसे ऐसी लड़की की जरूरत है, जो उसका ख्याल रख सके। लंदन में उसकी सोसाइटी में उसे नाजो जैसी लड़की नहीं मिलेगी। असगर वजाहत स्त्री को लेकर सामंती स्टीरियोटाइप को तोड़ने में नाकाम रहे हैं। वह जैसे इस बात को नजरअंदाज कर जाते हैं कि इस सबमें नाजो का फैसला कहीं नहीं है। वह फैसला लेने लायक है ही नहीं। यह ठीक है कि उसे चमत्कारिक रूप से होनहार और हुनरमंद दिखाया गया है, लेकिन हीरा के लिए वह सिर्फ ‘आॅब्जेक्ट’ ही है। या फिर इतनी कम मैच्योर है, जिसे वह पूरी जिंदगी पढ़ा सके। इस पूरे रिश्ते में नाजो सिर्फ ग्रहण करनेवाली है। पुरुष से। अपने मालिकों से। उसकी जिंदगी दूसरों के फैसलों पर टिकी है। कोई उसका इस्तेमाल करके छोड़ दे, या दया करके अपना ले, दोनों में उसकी रजामंदी है। आधुनिक समाज में एक स्त्री की यह नियति आदर्श नहीं हो सकती। इसे न्यायोचित नहीं कहा जा सकता।
धरा अंकुराई के आखिरी पन्नों तक आते-आते यह एहसास होता है कि लेखक ने कथा की मांग को स्वीकार न करते हुए, उसका अंत पूर्व निर्धारित तरीके से कर दिया है। वह यह देखने में कहीं न कहीं  चूक गया है कि उपन्यास की कथा का नियंत्रण अब उसके हाथ में नहीं है और उसे पहले से सिले गये कपड़े में नहीं अंटाया जा सकता। इस उपन्यास में लेखकीय श्रम की कमी खटकती है। उपन्यास की शुरुआत में एसएस अली जिस तरह से अपने शहर में वापस लौटता है, वह एक रूमानियत से भरा कदम है और यथार्थवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। यह परिस्थितिजन्य नहीं, भावुकताजन्य है। शहर में उसकी उपस्थिति एक स्टेकहोल्डर के तौर पर नहीं है। शहर की नियति से उसकी नियति नहीं बंधी है। यही कारण है कि उसके संघर्ष मे यथार्थ का पुट कम है। अंत में यही कहा जा सकता है कि यह उपन्यास चमकदार संभावनाओं की दहलीज से वापसी के उदाहरण के तौर पर हमारे हाथ में रह जाता है।
धरा अंकुराई
असगर वजाहत
राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 400 रुपये

मूल रूप से 'पुस्तक वार्ता' में प्रकाशित.

12 April 2015

ओएलएक्स और क्विकर के दौर में...

पाखी पत्रिका में लोकप्रिय साहित्य पर आयोजित बहस में यह लेख भी शामिल है. लेखक मानता है कि एक कायदे के लेख में जिस तरह की तर्क-प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, उसका यहाँ अभाव है.. फिर भी उम्मीद है कि अपनी सीमाओं में यह लेख लोकप्रिय साहित्य पर बहस के नए सूत्र देगा...आप बेबाकी से टिप्पणी करें, तो बात आगे निकलेगी.     
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 भला मेरी रासायनिक करुणा से
भरोसेमंद क्या होगा!
आप अभी नौजवान हैं।
वक्त है कि सीख लें
अपने आपको ढीला छोड़ देना
कोई जरूरी नहीं कि मुट्ठियां
हमेशा भिंची और चेहरा तना रहे।
अपने खालीपन को मुझे दे दो।
मैं उसे नींद से भर दूंगा...’’
- विस्लावा शिम्बोर्स्का  



खालीपन एक जीवन स्थिति है और कला का अस्तित्व इस खालीपन के कारण ही है। खालीपन विचार की उर्वर जमीन है। इस खालीपन को खत्म कर दें, आदमी खत्म हो जायेगा। बीसवीं सदी की महानतम कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का  जब इस खालीपन को नींद से भरने की बात करती हैं, तो वे कहीं न कहीं, हमसे हमारे खालीपन के अधिकार के छिन जाने की चिंता व्यक्त कर रही होती हैं। हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें हमारे जीवन पर से हमारा अधिकार छीज चुका है। हमारा खालीपन भी हमारा नहीं है। हमारे पास दो विकल्प हैं- इसे नींद की गोलियों के सहारे मिलने वाली तंद्रा से भरा जाये, या इसे तकनीक संचालित बाजार के हवाले कर दिया जाये। कुछ वर्ष पहले तक यह कहना आम चलन था कि यह बाजार का युग है। यह बात आज पुरानी लगती है। आज के युग की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि हर युग तुरंत व्यतीत हो जाता है। आज व्यक्ति बाजार के युग में नहीं जी रहा है, वह खुद बाजार हो गया है। उसे कल तक सिर्फ उपभोक्ता बनाया गया था। आज उसे खरीदार, विक्रेता, वस्तु, सर्विस प्रोवाइडर, सबकुछ बना दिया गया है। आदमी के खालीपन पर बाजार ने पूरी तरह कब्जा जमाने की मुहिम छेड़ रखी है। टीवी पर पिछले एक वर्ष से आनेवाले ‘ओएलएक्स’ और ‘क्विकर’ के विज्ञापन इसकी सबसे मुखर घोषणा हैं। ‘ओएलएक्स’ हर व्यक्ति को बाजार में शामिल करने का आमंत्रण देते हुए कहता है, ‘अपने फोन को बनाओ सेल्ल फोन’ और उसके अस्तित्व की सार्थकता के लिए एक पंच लाइन देता है- ‘ओएलएक्स पर बेच डाला’। क्विकर का विज्ञापन है- ‘नो फिकर, बेच क्विकर’। यानी बेचो-बेचो-बेचो- खरीदो-खरीदो-खरीदो। फ्लिप कार्ट, अमेजन डाॅट काॅम, स्नैपडील के रूप में बाजार हमारे घरों में ही नहीं, हमारी चेतना में, हमारे हर खाली लम्हे में दाखिल हो गया है। संभवतः हमारे समय का सबसे बड़ा संकट यही है, क्योंकि यह इनसान की परिभाषा बचाए रखने का संकट है। साहित्य का समय-समाज इससे अलग नहीं है। सूचना-तकनीक के जाल से हर क्षण करोड़ों की संख्या में हम तक पहुंचनेवाली जरूरी-गैर जरूरी सूचनाओं ने हमें ढक लिया है। ऐसे में यह कहना सिर्फ दिल को तसल्ली देनेवाला ही हो सकता है कि साहित्य, सूचना, तकनीक और बाजार के खिलाफ प्रतिपक्ष तैयार करता है। इस बाजारीकृत- मीडियाकृत समय-समाज में साहित्य की कल्पना पुराने पारंपरिक, आदर्शवादी ढंग से नहीं की जा सकती है।

लोकप्रिय साहित्य (पाॅपुलर लिटरेचर) और कलात्मक साहित्य (हाइ ब्रो लिटरेचर) को लेकर चलनेवाली बहस का नया दौर वास्तव में अपने समय में साहित्य की भूमिका, उसकी परिभाषा, उसकी सामाजिक उपयोगिता और अंततः और सबसे महत्वपूर्ण रूप से बाजार से उसकी अंतक्र्रिया के प्रश्न से जुड़ा है। हम अपनी बात, अतीत और विगत हो रहे वर्तमान से शुरू कर सकते हैं। हिंदी में इस बात को लेकर बहस रह-रह कर उठती है कि हमारा साहित्य लोकप्रिय नहीं है और हम लोकप्रिय साहित्य को अपना नहीं मानते हैं। लोकप्रिय साहित्य के समर्थक पाठक-संख्या को आधार बना कर साहित्यिक बिरादरी पर हल्ला बोलते हैं कि आपका साहित्य कठिन और पाठकों की समझ से परे है। लोक और जन को जो साहित्य समझ में ही न आये, उसकी जरूरतों को पूरा न करे, जिसकी बिक्री ही न हो, ऐसे साहित्य का भला क्या करें? उसकी उपयोगिता क्या है? दूसरी ओर साहित्यिक बिरादरी लोकप्रिय साहित्य को साहित्य ही मानने से इनकार करती है और लोकप्रिय साहित्य को महज मनोरंजनवादी कहकर उसे लगभग खारिज कर देती है। ये दोनों अतिवादी स्थितियां हैं। हिंदी जगत में पाॅपुलर (लोकप्रिय) बनाम हाई ब्रो (कलात्मक) साहित्य की बहस वास्तव में साहित्य की सबकी अपनी-अपनी या कहें मनमाने परिभाषा के कारण है, न कि लोकप्रिय और उच्च साहित्य के बीच किसी वैर-भाव के कारण।
लोकप्रियता किसका काम्य नहीं है? हर साहित्यकार यह चाहता है कि उसकी किताब को ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ेें। यही उसकी रचना की सफलता और सार्थकता है। लेकिन, लोकप्रियता की धारणा सिर्फ संख्यात्मक ही नहीं है, कालिक भी है। इसकी स्थिति टाइम एंड स्पेस यानी दिक्-काल में है। अफ्रीका के महान उपन्यासकार चिनुआ अचीबी के उपन्यास ‘थिंग्स फाॅल अपार्ट’ को विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित किया गया और उनकी मृत्यु के वक्त अखबारों-पत्रिकाओं ने यह सूचना दी कि इस किताब की पांच करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैंे। ऐसी ही स्थिति गैब्रियल गार्सिया माक्र्वेज के उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स आॅफ साॅलीट्यूड’ और जाॅन स्टाइनबेक के उपन्यास ‘ग्रेप्स आॅफ रैथ’ की है। ऐमिली ब्रौंटे की ‘प्राइड एंड प्रीजूडिस’, अर्नेस्ट हेमिंग्वे की ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’, प्रेमचंद के ‘गोदान’ श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ और अनेक दूसरे उपन्यासों के लिए भी यही कहा जा सकता है। ये उपन्यास खूब पढ़े गये हैं। विकिपीडिया पर सौ सबसे ज्यादा पढ़े गये लेखकों की सूची में शेक्सपियर सबसे ऊपर हैं और उनकी किताबों की बिक्री का अनुमान दो अरब से ज्यादा है। लेकिन, इन लेखकों को लोकप्रिय लेखक की श्रेणी में नहीं रखा जाता। हिंदी में प्रेमचंद और श्रीलाल शुक्ल के नामों का उपयोग इस आरोप का जवाब देने के लिए किया जाता है कि हिंदी उपन्यास पढ़े नहीं जाते। धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ और सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ को साहित्यिक बिरादरी में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता, लेकिन इनकी लोकप्रियता असंदिग्ध है। यह तब है जब ‘मुझे चांद चाहिए’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया है। ‘मुझे चांद...’ के बाद हिंदी के कलात्मक साहित्य (हाई ब्रो लिटरेचर) में ऐसी कोई रचना नजर नहीं आती, जिससे ‘लोकप्रियता’ शब्द को जोड़ा जा सके।  इसके बावजूद ‘गुनाहों के देवता’ और ‘मुझे चांद चाहिए’ को लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। विश्व में क्लासिक कही जाने वाली रचनाएं लंबे समय से अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए हैं, मगर इनके रचनाकार ‘महान’ तो कहलाते हैं, पाॅपुलर/लोकप्रिय नहीं कहे जाते।

अंग्रेजी में किसी उपन्यास की लोकप्रियता बताने के लिए ‘क्रिएटेड अ स्टाॅर्म, (एक तूफान ले आया) ‘फ्लडेड द मार्केट’ (बाजार में बाढ़ ले आया), ‘बिकेम अ क्रेज’ (दीवानगी बन गयी) जैसे पदों का इस्तेमाल किया जाता है। ये किताबें तूफान की तरह आती हैं और बरस कर चली जाती हैं। लोकप्रियता एक आवेग है। एक तूफान है। तूफान का समय सीमित होता है। वह ठहरता नहीं है। एक तूफान में अक्सर इतनी बारिश हो जाती है, जितनी बारिश पूरे साल में नहीं होती। लोकप्रिय संस्कृति ऐसे तूफानों को ही सेलिब्रेट करती है। धीरे-धीरे बरसनेवाले मेघ से रस पीने की न उसके पास फुर्सत है, न धैर्य। बड़े लेखकों की प्रसिद्धि लंबे दिक्-काल में होती है। वे इतिहास में दर्ज अक्षर के समान होते हैं, जिन्हें लोग इत्मीनान से पढ़ते हैं। जबकि लोकप्रिय साहित्य का अभ्यासकर्ता अखबार में छपे खबर की तरह होता है, जिसे सुबह के वक्त लाखों लोग पढ़ रहे होते हैं और शाम तब भुला दिये जाते हैं।

असल बहस पाॅपुलर बनाम हाई लिटरेचर की नहीं है। यह बहस है साहित्य की परिभाषा की। सवाल यह है कि क्या हर लिखा हुआ शब्द साहित्य है? क्या हर लेखक को यह मांग करनी ही चाहिए कि उसने जो लिखा है, उसे साहित्य की श्रेणी में रखा जाये? लोकप्रिय माध्यम में लोकप्रियता के सामने कलात्मक मानदंडों की बात भुला दी जाती है, लेकिन साहित्य के मामले में ऐसा नहीं किया जा सकता। सिनेमा की प्रकृति ऐसी है कि एक साथ सैकड़ों लोग उसका ‘उपभोग’ कर रहे होते हैं, लेकिन कोई किताब जन-प्रिय होने के बावजूद सामूहिक रूप से नहीं पढ़ी जा सकती।

लोकप्रिय साहित्य पर किसी बहस में पड़ने से पहले हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि आखिर हम साहित्य से क्या चाहते हैं? इसी के साथ यह सवाल जुड़ा है कि आखिर साहित्य है क्या? आखिर साहित्य क्या काम करता है? साहित्य का काम क्या है, इस सवाल के कई जवाब मिलते हैं। इस सवाल को समझने के लिए अतीत की थोड़ी धूल उड़ाना फायदेमंद साबित हो सकता है। भारतीय काव्यशास्त्रियों ने इस विषय पर विस्तार से लिखा है। साहित्य की शुरुआती परिभाषा को देखें, तो प्रसिद्धि की प्राप्ति, धन कमाना, आनंद आदि को साहित्य का उद्देश्य माना गया है। तुलसीदास ने साहित्य को स्वांतः सुखाय भी माना है और लोकमंगल करनेवाला भी। पश्चिम में प्लेटो से लेकर वड्र्सवर्थ तक की परंपरा को देखें, तो वहां भी घुमा-फिर कर साहित्य को लेकर ऐसा ही नजरिया दिखता है। लेकिन, आधुनिकता साहित्य को इतनी पवित्र वस्तु नहीं मानती। आधुनिकता साहित्य को जीवन की व्याख्या मानती है। उसके अनुसार यह बिखरे हुए जीवन में संगति लाने की कोशिश है।

साहित्य की परिभाषाओं से यह बात निकलती है कि साहित्य महज कोई कमोडिटी नहीं है, जिसका उपभोग किया जाता है। सवाल है कि साहित्य अगर कमोडिटी नहीं है, तो फिर पाठक के साथ इसका संबंध किस तरह का है? निर्मल वर्मा ने लिखा है, ‘‘...प्रश्न उठता है कि साहित्य और बाकी लिखे हुए ‘टेक्स्ट’ में क्या अंतर है? ...मेरे ख्याल से इसका एक ही उत्तर है। बाकी लिखे हुए ‘टेक्स्ट’ सिर्फ साधन हैं, माध्यम हैं, वे एक तरह से कंज्यूमरिस्ट कमोडिटी’ की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं। जबकि साहित्य की रचना अपने में लक्ष्य है। वह किसी चीज को प्राप्त करने का साधन नहीं है। दरअसल, वह ‘साधन’ है ही नहीं, वह अपने आप में साध्य है। निर्मल वर्मा ने आगे लिखा है, ‘‘ कई लोग कहते हैं कि कला जिंदगी को बदल देती है। कई लोग कहते हैं कला हमें बदल देती है। मैं समझता हूं कि कला न तो हमें बदलती है, और न हमारी जिंदगी में कोई सुधार या रेडिकल चेंज ला पाती है। कला एक दूसरा ही काम करती है। एक बड़े परोक्ष ढंग से, और बड़े ही नरम ढंग से, बिना बोले हुए, चुपचाप हमारा आसपास की जिंदगी से रिश्ता बदल देती है। और एक बार जब रिश्ता बदल जाता है तो न मैं वैसा ही रहता हूं जैसा कि किताब पढ़ने से पहले था और न ही दुनिया वैसी रह जाती है, जो वह किताब पढ़ने से पहले मुझे दिखाई देती थी।’’

इस तरह देखें, तो साहित्य पढ़ना खुद को बदलना है। अपनी संवेदनशीलता के रुखरे कोनों को घिसकर उसे थोड़ा चमकाना है। आत्मा पर चढ़ी हुई मैल को थोड़ा खुरचना है। क्या मैक्सिम गोर्की की ‘मां’ को पढ़ने के बाद पाठक पहले जैसा रह पाता है? क्या ‘मां’ को पढ़ने के बाद कोई पाठक पेलागेला निलोवना के चरित्र की उदात्तता का एक अंश अपने भीतर महसूस नहीं करता? माक्र्वेज का ‘वन हंड्रेड इयर्स आॅॅफ सालिट्यूड’ पढ़ने के बाद क्या कोई कथा हमारे भीतर होती है, या एक आवेशित परिवेश होता है, हम खुद को जिसके भीतर महसूस करते हैं? क्या जाॅन स्टाइनबेक का उपन्यास ‘ग्रेप्स आॅफ रैथ’ की कहानी सिर्फ अमेरिकी महामंदी की कथा रह जाती है? क्या ‘मुर्दहिया’ और ‘जूठन’ जैसी दलित आत्मकथाएं पढ़ने के बाद अचानक हम यह महसूस नहीं करते कि अवचेतन रूप से जिस समाज-व्यवस्था और जाति-विन्यास में हम बंधे हुए हैं, वह विन्यास सवर्ण बस्ती से दलित बस्ती के बीच की सदियों लंबी दूरी पार करके अचानक हमारे सामने प्रकट हो गया है और हमसे सवाल पूछ रहा है? साहित्य हमारे परिवेश को बदल देता है। साहित्य अप्रकट दुनिया का प्रकटीकरण है। परिचित का अपरिचितीकरण है। दीवार में खिड़की का उग आना है, जो हमें एक नयी दुनिया में दाखिल होने का निमंत्रण देती है। 

क्या जिसे हम लोकप्रिय साहित्य कहते हैं, वह भी यह काम करता है? लोकप्रिय साहित्य क्या पाठक के जीवन के जीवन में ऐसा कोई बदलाव लाता है? क्या अगाथा क्रिस्टी के जासूसी उपन्यास या देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता संतती यह काम करते हैं? क्या सुरेंद्र मोहन पाठक, गुलशन नंदा के उपन्यास यह काम करते हैं? क्या डैन ब्राउन, अमीश त्रिपाठी, चेतन भगत के उपन्यास ऐसा करते हैं? उत्तर होगा नहीं। लेकिन, इतने मात्र से इन उपन्यासों की उपयोगिता या उनका महत्व कम नहीं हो जाता। ये उपन्यास पाठकों का मनोरंजन करने का दावा करते हैं। उन्हें ‘इनगेज’ करते हैं। उनके खालीपन को कथा से भरते हैं। जो लोग यह नहीं समझते कि ‘कथा’ (स्टोरी) या कथानक (प्लाॅट) की उपस्थिति ही उपन्यास नहीं है, और जो साहित्य से इससे ज्यादा की मांग नहीं करते, उनके लिए ये उपन्यास ही हैं। वे उपन्यास के पास अपनी आत्मा की गिरहें खोलने के लिए नहीं आते। वे अपने अधूरेपन को शब्द के सहारे पूरा करने के लिए भी साहित्य के पास नहीं आते। साहित्य को लेकर उनकी दृष्टि उपयोगितावादी होती है। वे मनोरंज चाहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या किसी भी समाज और समय में ज्यादा होती है। इसलिए जो साहित्य इस जन-समूह की मनोरंजन की जरूरत को पूरा करता है, वह अक्सर लोकप्रिय भी होता है। साहित्य की प्राचीन परिभाषाओं के हिसाब से देखें, तो हम यह याद किये बगैर नहीं रह सकते कि साहित्य के शुरुआती लक्ष्यों में ‘मनोरंजन करना’ प्रमुख था। ऐसे में मनोरंजनपरक लोकप्रिय साहित्य को साहित्य से बाहर करने या उसे खारिज करने को सही नहीं कहा जा सकता है। ठीक इसी तरह से लोकप्रियता के पैरोकारों की यह मांग कि उनके लेखन को कलात्मक लेखन के बरक्स रख कर देखा जाये और बिक्री की संख्या के आधार पर उसे श्रेष्ठ साबित किया जाये, भी सही नहीं है। वास्तव में लोकप्रिय और कलात्मक साहित्य की स्थिति समाज में समानांतर होती है। वे एक-दूसरे की जगह छीनने की कोशिश नहीं करते। जैसे कलात्मक लेखक, लोकप्रियता की इच्छा रखता है, वैसे लोकप्रिय लेखक भी कलात्मक कहलाने की इच्छा रखता है। दोनों को अपनी इच्छाओं के साथ रहने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए।
लोकप्रिय साहित्य बाजार में एक उपभोग की कमोडिटी के तरह आता है, जो लोगों से ‘पैसा वसूल’ होने का वादा करता है। बाजार के लिए व्यक्ति का खालीपन एक संभावना है और लोकप्रिय साहित्य इसी संभावना को पूरा करने का उत्पाद।



पिछले दिनों आयी टीवी पत्रकार रवीश कुमार की किताब ‘इश्क में शहर होना’ के बहाने हम अपने समय और साहित्य के बीच बन रहे नये रिश्ते के बारे में बात कर सकते हैं। इस किताब को प्रकाशक ने ‘फेसबुक फिक्शन श्रृंखला’ के नाम से प्रकाशित किया है। कहने को ये लघु प्रेम कथाएं हैं, जिसका शाॅर्ट फाॅर्म ‘लप्रेक’ किया गया है, लेकिन वास्तव में ये खास मनोदशा में लिखे गये संक्षिप्त नोट्स हैं। फेसबुक यों तो सामाजिक नेटवर्किंग की साइट है, लेकिन समाजशास्त्रीय नजरिए से देखें, तो यह हमारे खालीपन को भरने का माध्यम है। यानी कभी जो काम साहित्य की किताब किया करती थी, उसे अब फेसबुक करता है। फेसबुक के साथ शब्दों की अंतक्र्रिया ने साहित्य की नयी विधाओ को जन्म दिया है। इनमें इनमें ‘लिखी जा रही कविता’, ‘लिखी जा रही कहानी’ आदि के साथ ‘लघु प्रेम कथा’ भी एक विधा है। फेसबुक हड़बड़ी का माध्यम है। यह फुर्सत का माध्यम नहीं है, ‘निष्क्रिय सक्रियता’ का माध्यम है। किताब के पन्ने पर पाठक का नियंत्रण होता है, फेसबुक के खुले हुए पन्ने पर यूजर का नियंत्रण नहीं होता है। वहां साहित्य ‘नोटिफिकेशन’ और ‘न्यूज फीड’ की कैद में है। एक ‘नोटिफिकेशन’ को दबाते हुए देखते ही देखते दर्जनों नोटिफिकेशंस और न्यूज फीड चले आते हैं। लिखा हुआ शब्द इनके नीचे दब जाता है। रवीश कुमार ने ‘लघु प्रेम कथा’ की जो श्रृंखला फेसबुक पर लिखी उसका संचालक भी हड़बड़ी है। जैसे बिजली हड़बड़ी में चमकती है, उसी तरह से फेसबुक की पोस्ट को चमकना होता है। जाहिर है, इस चमक के लिए साहित्य की जरूरी शर्त- ‘संदर्भ’ से समझौता किया जाता है। ‘आगे क्या?’ पर सोचने के लिए चूंकि पाठक के पास अवकाश नहीं है, इसलिए इसका लेखक भी इसके बारे में ज्यादा नहीं सोचता।
वस्तुतः मीडियाकृत समाज में शुरुआती लक्षण के तौर पर प्रकट हो रहे ये साहित्य रूप भविष्य की ओर संकेत करते हैं। इसे साहित्य का भविष्य भले न कहा जाये, लेकिन इनसे भविष्य के साहित्यिक रूपों के बारे में कल्पना जरूर की जा सकती है। ऐसी रचनाएं, जिनमें ‘लिखी जा रही कविताएं’, लिखी जा रही कहानियां’ भी शामिल हैं, वास्तव में हमारे विखंडित खालीपन को छोटी-छोटी चमक से भरने का काम करती हैं। जैसा हमारा खालीपन होगा, वैसा हमारा साहित्य होगा। अगर हमारी नियति टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा हुआ, बाजार के संदेशों से भरा हुआ खालीपन है, तो हमारा साहित्य इससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकता। आनेवाला वक्त कलात्मक साहित्य से ज्यादा लोकप्रिय साहित्य के लिए चुनौतीभरा वक्त होगा, क्योंकि यह जिस खालीपन को मनोरंजन से भरने का काम करता रहा है, उस खालीपन का मालिक पाठक की जगह बाजार होनेवाला है। 

'पाखी ' के ताजा अंक में प्रकाशित.