मेला संवाद पर हंगामे के बीच एक पक्ष ये भी.
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पाखी में
प्रकाशित कथाकार अल्पना मिश्र के साथ पत्रिका के सम्पादक प्रेम भारद्वाज के संवाद
के कुछ अंशों को लेकर सोशल मीडिया पर बवाल मचा हुआ है। बवाल मचानेवाले लोगों में
से कई लोग ऐसे भी हैं, जो ज्ञानोदय ‘छिनाल प्रसंग’ के बाद भी
दिवंगत संपादक रवींद्र कालिया का शिष्य कहलाना गौरव की बात महसूस करते हैं। मुझे
याद नहीं आता कि चंदन पांडेय के अलावा उस वक्त किसी युवा कथाकार ने ज्ञानोदय से
घोषित तौर पर अपना संबंध विच्छेद किया था। या कम से कम ऐसी घोषणा की थी। (साहित्यिक
विवादों को लेकर मेरी स्मृति बहुत मजबूत नहीं है, इसलिए अगर किसी और ने ऐसा किया हो, तो वे मुझे बता सकते हैं।) जाहिर है, दिक्कत शब्द से नहीं है। कभी नहीं रही है। दिक्कत हो,
तो सिर्फ अल्पना मिश्र के बेनाइन शब्दों से क्यों हो?
प्रधानमंत्री से लेकर सलमान खान और बाबा रामदेव,
अरविन्द केजरीवाल तक के शब्दों से उन्हें दिक्कत होनी चाहिए और कम से कम उस दिक्कत
का प्रकटीकरण फेसबुक पर होना चाहिए, जिस पर अभी उनका गुस्सा देखने लायक है।
पाखी में
प्रकाशित अल्पना मिश्र के साक्षात्कार के बारे में कोई भी बात करने से पहले मैं यह
कहना चाहूंगा कि मेले के भीतर राजकमल या वाणी या हिन्दी के किसी भी प्रकाशक के
स्टाल पर लेखक से बातचीत का विचार ही असंगत है। मेला चाहे कोई भी और कैसा भी
हो, अंततः एक अगंभीर स्थान ही है। यह एक हंसी-मजाक, मन-बहलाव, सेल्फ प्रोमोशन,
देखा-देखी करने की जगह है। मेले में किसी लेखक
के सृजन पर गंभीर बातचीत हो सकती है, ऐसी किसी भी संभावना का विचार ही मिथ्या है। बहरहाल, क्या किया जाए, बात बाजार के हाथों मजबूर होने की है। लेखक पर दबाव है। इंटरव्यू लेनेवाले पर
भी दबाव है। दबाव बाजार का भी है। धर्म-संकट का भी है। बुलाने पर कैसे न जाए इस
संकोच का भी है। इन दबावों के बीच ही इस मेले में शायद प्रेम भारद्वाज को एक के
बाद एक तीन लेखकों से इंटरव्यू लेते देखा गया। इसे इंटरव्यू कहना गलत होगा। बातचीत,
बतकही इसके लिए ज्यादा सही शब्द है। कल्पना
कीजिए, राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर खरीदारों की भीड़ आ जा रही है। किसी सेल्समैन का
शोर सुनाई दे रहा है। किसी की फोन की घंटी बज रही है, लोग अपने कैमरे के फ्लैश चमका रहे हैं। लेखक को उचक-उचक कर देख रहे हैं। लेखक
के चेहरे पर तेज रौशनी है। उसे चारों ओर से बड़े-छोटे लेखकों ने घेर रखा है। सामने
वीडियोग्राफी हो रही है। बातचीत का सीधा प्रसारण फेसबुक लाइव पर हो रहा है। मेला है
पूरा मेला। ऐसे में क्या कोई लेखक स्थिर चित्त से इंटरव्यू दे सकता है? और क्या बाजार के
हाथों मजबूर होकर दिये गये इस इंटरव्यू को गंभीरता से लिया जा सकता है?
आप कह सकते हैं
कि लेखक का विवेक हमेशा जाग्रत रहता है। इसलिए उससे जब और जहां भी सवाल पूछे
जाएंगे, वह सही जवाब ही देगा।
बल्कि ऐसी स्थिति में जब लेखक के पास अतिरिक्त सचेत होने की कोई स्थिति नहीं है,
उसके अंदर का सच खुल कर सामने आयेगा। आपकी बात
सही हो सकती है, लेकिन दुनिया के
किसी भी बड़े कथाकार से किसी महत्वपूर्ण साक्षात्कार की जगह मेला, शहर के जाम में
फंसी बस या हिंडोला रहा हो, ऐसा मुझे तो याद
नहीं आता। पेरिस रिव्यू पर दुनिया के कई बड़े उपन्यासकारों के उत्कृष्ट साक्षात्कार
प्रकाशित हुए हैं। इनमें से ज्यादातर साक्षात्कार लेखक की इच्छा से उसकी शर्तों के
साथ लिए गये। साक्षात्कार कर्ता को कई बार बातचीत को रिकॉर्ड करने की भी इजाजत
नहीं दी गयी। क्या ये लेखक छोटे लेखक थे? या इनका विवेक
जाग्रत नहीं था?
लेकिन अब जबकि
मेले की चलताउ बातचीत को इंटरव्यू की शक्ल में प्रकाशित कर ही दिया है और संभवतः
इसमें तीनों लेखकों की भी रजामंदी रही होगी, तो न ही लेखक न ही साक्षात्कारकर्ता, इसमें आये शब्दों,
वाक्याशों की जिम्मेवारी लेने से मुकर सकता है।
तो जिन शब्दों, वाक्यांशों पर
कथाकार अल्पना मिश्र को मुख्य तौर पर घेरा गया है उन्हें यहां पहले लिख देना
चाहिए। एक आपत्ति वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा को है कि अल्पना मिश्र ने ये कैसे कहा कि
मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आत्मकथा में यह लिखा है कि वे सज-धज कर हंस के दफ्तर गयी
थीं और उनकी कहानी छप गयी। मैत्रेयी पुष्पा ने अपना रोष प्रकट करते हुए लिखा है कि
‘अल्पना मिश्र तुम सरासर झूठ बोल रही हो।‘ बहरहाल बात यहां सच या झूठ की नहीं
स्मृति की है और कुछ-कुछ सवाल को न समझने की। सवाल यह नहीं था कि मैत्रेयी पुष्पा
ने ऐसा कुछ कहा था। सवाल को गलत सुना गया। मेले की भीड़-भाड़, शोर के बीच यह कोई अनोखी बात नहीं कही जा सकती। दूसरी बात
यह है कि अल्पना मिश्र की स्मृति उन्हें यह कह रही है कि मैत्रेयी पुष्पा ने कहीं
अपनी आत्मकथा में यह लिखा है। मैत्रेयी ने इसका विरोध किया है, इसका मतलब यह है कि अल्पना मिश्र को कोई भ्रम
हुआ है। वे झूठ बोल रही हैं, इसका कोई प्रमाण
यहां नहीं मिलता। यह एक गलती है, (अगर वाकई है,
तो) जिस पर वे खेद प्रकट कर सकती हैं। दिलचस्प
यह है कि किसी युवा कथाकार ने इस टिप्पणी को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है। छिनाल
प्रसंग में उनके आचरण को देखते हुए यह स्वाभाविक ही है।
दूसरी समस्या
युवा पीढ़ी के कथाकारों को है। उनके क्षोभ का सबब यह है कि अल्पना मिश्र खुद को
अंकंवेशनल बता रही हैं और बाकी लेखकों से खुद को आयतन में बड़ा मान रही हैं। निस्संदेह इस वक्तव्य में मॉडेस्टी की झलक नहीं है। लेकिन क्या आत्मश्लाघा कोई अनोखी चीज है? और क्या वह दंडनीय है? किसी ने प्रेम भारद्वाज की दीवार पर गालिब के शे‘र ‘और भी दुनिया में सुखन-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयाँ और।’ को उद्धृत करते
हुए इस तथाकथित दंडनीय आत्मश्लाघा का बचाव किया है। लेकिन गालिब ही क्यों मंटो को
देखिए। अपनी मौत के एक साल पहले मंटो ने खुद अपनी कब्र के लिए कतबा लिखा था:
‘यहां सआदत हसन मंटो दफ्न
है। उसके सीने में फनो अफसानानिगारी के सारे असरारो रूकूज दफ्न हैं। वह अपनी मनों
मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वह बड़ा अफसाना निगार है या खुदा!’ अब इससे बड़ी आत्मश्लाघा और क्या हो सकती है? आत्मश्लाघा नई कहानी की तिकड़ी में भी मिलती है।
निराला की एक पंक्ति है ‘मैं कवि हूं, पाया है मैंने प्रकाश!’ फर्ज कीजिए इसकी
व्याख्या इस तरह से की जाए कि क्या प्रकाश सिर्फ निराला ही पाया, किसी और ने नहीं
पाया था? बाकी सब अन्धकार में ही लिख रहे थे? निराला ने तो यह भी लिखा है कि कठिन लिखना उनके
समय में किसी को नहीं आता। तो क्या प्रसाद निराला से कमतर थे?
यह बहुत सामान्य
बात है कि कोई भी लेखक तभी लिखेगा जब वह खुद को अपूर्व और अकेला पायेगा। जिसे यह
लगेगा कि उसके विचारों या भावों, संवेदनाओं का
आयतन दूसरे कहानीकारों/ कवियों से ज्यादा है। ऐसा महसूस किये बगैर अगर कोई लेखक
लिख रहा है, तो वह बस अभ्यास
कर रहा है। मन बहलाव कर रहा है। एक लेखक भले यह न कहे, लेकिन कहीं न कहीं वह महसूस करता है कि वह विलक्षण है। न कहना ही प्रचलित है। लेकिन यह भी सही है कि इस
विलक्षणता की भावना ही उस लेखक बनाती है। युवा कहानीकारों को अगर अल्पना मिश्र के
इस वक्तव्य से दिक्कत है, तो उन्हें अल्पना
मिश्र की इस टिप्पणी का सुसंगत जवाब देना चाहिए। युवा कहानी के आयतन को निर्धारित करना चाहिए। उसके फ्रेम की माप करनी चाहिए। इससे कुछ नहीं, तो हिन्दी साहित्य में स्वस्थ बहस की परंपरा
शुरू होगी, जो अब कई दशकों से पूरी
तरह समाप्त हो गयी है। ऐसी बहसें 1970 के दशक के बाद हिंदी साहित्य की दुनिया में नहीं दिखाई देती। यही कारण है कि
1980 के बाद के साहित्य का न
हमारे यहां कोई सैद्धांतीकरण हुआ है, न उसे पढ़ने-समझने के रास्ते ही खोजे गये हैं। युवा कहानी का मामला अभी तरल
अवस्था में है। इसलिए इस पर बहस किये जाने की जरूरत है। और यह बहस युवा कहानीकार
और आलोचक ही करेंगे। बहरहाल फेसबुक की दीवार पर पूरी ताकत से टूट पड़नेवाले युवा
कहानीकारों से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। वो दौर दूसरा था, जब निराला, पंत ने छायावाद को स्थापित करने के लिए लड़ाई लड़ी थी। खुद
उसका सैद्धांतीकरण करने की कोशिश की थी। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता हर दौर
में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। नयी कहानी को लेकर भी ऐसे प्रयास हुए। लेकिन,
जिसे युवा कहानी कहते हैं, उस पर कायदे से बात करने के लिए कोई तैयार नहीं
दिखता है।
तीसरी बात,
जिस पर सबसे ज्यादा हंगामा बरपा है, वह है अल्पना मिश्र की वरिष्ठ कथाकर अखिलेश के
चर्चित उपन्यास ‘निर्वासन’
पर की गयी यह टिप्पणी कि निर्वासन आखिरकार ‘फ्लॉप’ ही हुआ। इस ‘फ्लॉप’ शब्द पर लोगों को
काफी आपत्ति है। उन्हें आपत्ति करने का अधिकार है। लेकिन, किसी कृति को हिट या फ्लॉप मानने का अधिकार अल्पना मिश्र का
भी है। यह न्यूनम सहिष्णुता है, जिसका प्रदर्शन
हिन्दी लेखक समाज को करना चाहिए। निर्वासन तो निर्वासन गोदान, मैला आंचल, तमस, राग दरबारी,
आधा गांव, मुझे चांद चाहिए, आखिरी कलाम, काशी का अस्सी या
कोई भी ऐसी बड़ी कृति नहीं है, जिसे किसी न किसी
ने पूरी तरह से खारिज न किया हो। यह सही है कि ‘फ्लॉप’ बाजार का शब्द है, लेकिन बाजार में बैठ कर किये जा रहे
साक्षात्कार में बाजार से बाहर के शब्द आएं, यह उम्मीद करना नादानी नही तो और क्या है? वैसे यह बात भी अजीब है कि जिस हिंदी समाज को ‘बेस्ट सेलर’
शब्द से दिक्कत नहीं, उसे फ्लॉप से दिक्कत है। वैसे महत्वपूर्ण लेखन हिट हुआ हो, इसके बहुत दृष्टान्त
हमारे पास नहीं हैं। निर्वासन का सारा वितान बाजार के विरोध में खड़ा किया गया है,
फिर भी वह हिट हो जाये यह अचरज की बात ही होती! वैसे यह भी पूछना चाहिए कि क्या अब साहित्यिक सफलता की कसौटी किसी कृति का हिट या फ्लॉप होना ही है?
वास्तव में
अल्पना मिश्र के साथ मेला-संवाद (इसे कतई इंटरव्यू नहीं कहा जा सकता) बहस के कई
जरूरी मसले देता है। एक मसला तो यही है कि क्या कोई कृति निर्विवाद रूप से संपूर्ण
और उत्कृष्ट हो सकती है? अगर कोई रचना,
विरोधियों को जन्म न दे, तो उस रचना की सार्थकता पर कम से कम मुझे तो संदेह होता है। और यह बात अल्पना मिश्र की कहानियों और उपन्यासों पर भी उतनी ही लागू होती है।
यूं तो यह
सार्वजनीन परिघटना है, लेकिन फेसबुक पर
साहित्यिक बहसों के स्तर में भी लगातार ह्रास हुआ है और यह महज व्यक्तिगत आलोचना
तक सीमित होकर रह गया है। बात से बात बढ़े, कृतियों पर ज्यादा डेमोक्रैटिक तरीके से बातचीत हो, ऐसी संभावना नदारद है। कभी-कभी यही लगता है कि हिन्दी के
लेखक वास्तव में सबसे असहिष्णु लोग हैं। जब वे अपनी छोटी-छोटी सत्ताओं के लिए आक्रामक हो रहे हैं, तो कट्टरपंथी
ताकतें ऐसा करें, इसमें क्या अचरज
की बात है। और उनका विरोध किस मुंह से किया जाए?
(24 फ़रवरी, 11:13 प्रातः पर पुनः सम्पादित.)
(24 फ़रवरी, 11:13 प्रातः पर पुनः सम्पादित.)