30 October 2011

जिसका लिखा गल्प में बदल गया


जिसका लिखा गल्प में बदल गया

पिछले दिनों जब श्रीलाल शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा की गयी तब साहित्यिक हलकों में इसे ’देर आये दुरुस्त आये’ फैसले के तौर पर देखा गया. श्रीलाल शुक्ल को गंभीर रूप से खराब तबियत की अवस्था में अस्पताल में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की रस्म निभायी गयी. जाहिर है पुरस्कार के जरिये ज्ञानपीठ ने श्रीलाल शुक्ल से कहीं ज्यादा अपने आप को सम्मानित किया. किसी लेखक के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है कि उसका लिखा हुआ साहित्य लोकप्रिय गल्प में तब्दील हो जाये. लोगों की जुबान का हिस्सा बन जाये. रागदरबारी संभवत: हिंदी का एकमात्र ऐसा उपन्यास है, जो प़ढने वालों को वर्षो तक याद रह जाता है. बात-बेबात उसके संवाद दोहराये जाते हैं, उसके चरित्र राह में यहां-वहां चलते हुए दिखाई दे जाते हैं. आजादी की आधी रात को पूरे देश ने नेहरू के जादुई शब्दों की डोर को पकड़कर जिस नियति से साक्षात्कार का सपना देखा था, वह किस तरह दो दशक बीतते-बीतते धराशायी पड़ा था और आम लोगों के मन में किस तरह क्षोभ घुमड़ रहा था, इसे समझने के लिए रागदरबारी से बेहतर कोई दूसरा उपन्यास शायद ही हमारे पास मौजूद है. श्रीलाल शुक्ल ने रागदरबारी में व्यंग्य से भरी भदेस भाषा में आजादी के बाद के भारत का जीवंत इतिहास इस कदर दर्ज किया कि हर कोई सत्य की एक-एक परत को अपनी आंखों से देख सकता था. जानकारों ने यहां तक कह डाला कि आने वाले समय में आजाद भारत का कोई भी इतिहास रागदरबारी को छोड़कर लिखा जाना संभव नहीं है. अब तसवीर के दूसरे पहलू की ओर रुख करते हैं. श्रीलाल शुक्ल की सुध हिंदी जगत को तब आयी, जब ज्ञानपीठ ने उनको पुरस्कार देने की घोषणा की. यह सवाल किसी ने नहीं पूछा कि आखिर रागदरबारी जैसे उपन्यासों के होते हुए हिंदी साहित्य खुद अपने ही देस में दोयम दर्जे के साहित्य में कब और कैसे बदल गया ? हम बुकर पुरस्कार और नोबेल पुरस्कार पानेवालों की तो बलाइयां लेते रहे, लेकिन अपनी ही भाषा में लिखा बेहतरीन साहित्य हमारी नजरों से ओझल क्यों हो गया? जाहिर है इस तरह अपने आप को और अपने समय को पहचानने के सभी रास्ते हिंदी पट्टी ने खुद अपने हाथों से ही बंद कर लिये. एक बड़े लेखक को याद करने का सबसे अच्छा तरीका शायद उन रास्तों को फिर से खोजना और खोलना हो सकता है, जो हमें हमारी पहचान से रूबरू कराते हैं. यह रास्ता बेशक रागदरबारी जैसे उपन्यासों से होकर जाता है.

13 October 2011

सब अपनी ही दुनिया में कैद


मोबाइल फ़ोन, इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जमाने में अगर कोई यह कहे कि इस संचार क्रांति ने लोगों को एक दूसरे के करीब लाने की बजाय एक दूसरे से दूर करने और उनके बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी करने का काम किया है, तो इसे तकनीक के प्रति पूर्वाग्रह और दुष्प्रचार की भावना से भरा हुआ ही कहा जा सकता है.
इसमें कोई शक नहीं कि इससे पहले दो लोग एक दूसरे के इतने करीब कभी नहीं रहे. लेकिन एक हकीकत यह भी है कि हम आज एक दूसरे से बिलकुल नजदीक होने के बावजूद आपस में दूर होते जा रहे हैं. हर कोई अपनी-अपनी आभासी दुनिया में सिमटता जा रहा है. समाज में पनप रहे इस नये अकेलेपन पर केंद्रित आज की आवरण कथा..
खुसरो ने कहा है- ‘इत्तिहादे मियाने मनो तो नेस्त मियाने मनो तो’ यानी कि तुम और मैं इस तरह एक हैं कि तुम्हारे और हमारे दरम्यान कोई ‘बीच’ या दीवार नहीं है. खुसरो का यह शेर  मजाजी इश्क ( सांसारिक प्रेम) के हकीकी इश्क (अलौकिक प्रेम )  में बदल जाने की आध्यात्मिक अनुभूति को बयां करता है. खुसरो, कबीर, बुल्लेशाह, जायसी जैसे कवियों के यहां बेइंतहां इश्क हर दीवार को गिरा देती है. लेकिन आज के डिजिटल युग में किसी के इस कदर पास आने के लिए आपको किसी से इतना डूबकर प्रेम करने की जरूरत नहीं है. तकनीक आपके लिए यह काम आसानी से कर सकती है.
आपके हाथ में एक मोबाइल फ़ोन हो, थैले में एक लैपटॉप या कमरे में एक कंप्यूटर, तो आप आसानी से पलक झपकती तेजी के साथ हजारों मील की दूरी को मिटा सकते हैं. हर समय हर किसी से जुड़े रहने का खुसरोनुमा आध्यात्मिक विचार आज के समय की सच्चाई है. न दिखायी देने वाले, लेकिन हमेशा हमारे साथ चलने वाले सूचना-संचार तरंगों ने हमें हर किसी से जोड दिया है. इससे दूरी की पुरानी परिभाषाएं धुंधली पड़ गयी हैं.
बिहार के पटना में रहने वाली शांति वर्मा अमेरिका में रहने वाले अपने बेटे से इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन के सहारे लगातार जुड़ी रहती हैं. आइआइटी दिल्ली से पढ़ाई करने के बाद उनका बेटा सिद्धार्थ पिछले आठ सालों से अमेरिका में ही रह रहा है. दूर देश में रह रहे अपने बेटे से इस तरह जुड़कर उन्होंने कभी टेक्नोलॉजी की बलाइयां ली थीं. उसे आशीष दिये थे.
जुग-जुग जिये टेक्नोलॉजी कहा था. उनके बेटे ने अमेरिका से उनके लिए खास लैपटॉप भेजा था. अपने जीवन में कभी कंप्यूटर से किसी तरह का वास्ता न रखने वाली मिसेज वर्मा ने बेटे से जुड़ने के लिए बाकायदा कंप्यूटर का सामान्य प्रशिक्षण भी लिया. पिछले साल जब वे दादी बनी थीं, तब अपनी पोती को उन्होंने पहली बार किलकारी भरते हुए इंटरनेट पर ही तो देखा था. वे वीजा की समस्या के कारण तब अमेरिका नहीं जा सकीं थीं.
लेकिन अब उन्हें महसूस होता है कि टेक्नोलॉजी उनके और बेटे के बीच दीवार गिराने की जगह और बड़ी दीवार बन गयी है. बेटे के साथ उनका जुड़ाव महज एक भ्रम है. एक छलावा है. और यह दीवार उनके और उनके बेटे के बीच ही नहीं है, इसने उन्हें बाकी संबंधों से भी दूर कर दिया है. जिस साथ की उन्हें इस उम्र में जरूरत है, उसकी भरपायी इंटरनेट या मोबाइल फ़ोन नहीं कर सकते.
मिसेज वर्मा का यह अकेलापन अगर उनके बेटे के अमेरिका में होने की वजह से है तो बहुत से भरे-पूरे घर में भी लोग आज अकेले होते जा रहे हैं. एक घर के अंदर अलग-अलग लोगों की अपनी-अपनी दुनिया बसती है. कहीं इंटरनेट की खटखट है तो कहीं किसी के कानों में कोई संगीत बज रहा है या कोई कंप्यूटर पर गेम खेलते हुए व्यस्त है. अगर कुछ नहीं है तो वह है एक ही छत के नीचे बसते लोगों के बीच आपसी संवाद. साथ बोलने बतियाने की आवाज. एक वीरानापन चुपचाप अपने चारों ओर पांव पसार रहा है.
अनुभव बताते हैं कि मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट के आने के बाद लोगों की जिंदगी पहले से ज्यादा अपने में सिमटकर रह गयी है. पहले जहां शहरों में लोगों की शामें दोस्तों के साथ चिर-परिचित अड्डों पर या काफ़ी हाउसों में गप्पें लड़ाते हुए बीता करती थीं, वहीं अब मोबाइल फ़ोन उस आमने-सामने बैठकर बतियाने, बात-बेबात पर ठहाके लगाने का स्थानापन्न ( सब्स्टीट्यूट ) बनता जा रहा है.
विकसित देशों में हुए शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि इंटरनेट और मोबाइल ने लोगों को पहले से ज्यादा अकेला और खुद में ही कैद कर दिया है. अमेरिका में पिछले साल हुए एक शोध में पाया गया था कि 12 ये 28 साल की उम्र की नयी पीढ़ी में दो दशक पहले की तुलना में अकेलेपन की समस्या बढ़ी है. लोगों के साथ आपसी संवाद और मिलने-जुलने में 25 से 30 फ़ीसदी तक की कमी आयी है.
आज दुनियाभर में टेक्नोलॉजी का चस्का लगे लोगों की तादाद तेजी से बढ़ रही है. हालांकि, इस टेक्नोलॉजी ने सामाजिक संबंधों को पहले से ज्यादा व्यापक बनाया है या उसे सीमित कर दिया है, इस मसले पर लोगों में मतभेद है. फ़ेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जमाने में अगर यह कहा जाये कि लोग एक-दूसरे से कटते जा रहे हैं, तो पहली नजर में यह तकनीक के प्रति पूर्वाग्रह और दुष्प्रचार की भावना से भरा हुआ लग सकता है. किसी व्यक्ति की मित्र सूची में अगर एक हजार लोग हों, जिनके हर पल की खबर उसे अनायास मिलती रहती हो, जिनसे वह कभी भी ऑनलाइन होकर बतिया सकता हो, तो उसे लोगों से कटा हुआ कैसे कहा जा सकता है ?
लेकिन इस दोस्ती का एक दूसरा पहलू भी है. दिल्ली विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद फ़िलहाल एक निजी फ़र्म में नौकरी कर रहे सौरभ तिवारी की फ़ेसबुक मित्रता सूची में कुल 2000 से ज्यादा मित्र हैं. सौरभ कहते हैं, ‘मुझे अपने दोस्तों से जोड़कर रखने में फ़ेसबुक ने अहम भूमिका निभायी है. ऐसे समय में, जब समय की कमी के कारण दोस्तों से मिलना काफ़ी कम हो पाता है, इंटरनेट और फ़ोन ही दोस्तों से संपर्क में बने रहने का सबसे आसान जरिया है.’
सौरभ के इस जवाब में ही कई सवाल छिपे हुए हैं. सबसे अहम सवाल तो यही है कि क्या दोस्तों से आमने-सामने मिलने-जुलने का कोई दूसरा विकल्प हो सकता है? सौरभ अनमने ढंग से इस सवाल का जवाब हां में देते हैं. हां, वे स्वीकार करते हैं कि विशेष अवसरों के अलावा दोस्तों से यूं ही मिल लेना, कुछ अपने और उसके दिल की बात कह लेना बीते समय की बात हो गयी है.
टेक्नोलॉजी आज की जिंदगी को किस तरह से अपने वश में कर रही है, इसकी बानगी देखने के लिए आपको कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है. शहर की स़ड़कों पर या ट्रेन में सफ़र करते वक्त फ़ोन पर बात करते हुए, कान में इयरफ़ोन लगाये, अपने मोबाइल फ़ोन के कीपैड पर उंगलियां दौड़ाते लोगों को देख लेना उतना ही स्वाभाविक है, जितनी कि कोई भी दूसरी चीज. कहीं न कहीं संचार के साधनों के बीच बाहरी दुनिया की हर आवाज, हर दृश्य से इनका रिश्ता टूटता जा रहा है. यह एक अजीबोगरीब किस्म की स्थिति है, जहां वर्चुअल या आभासी दुनिया वास्तविक दुनिया पर हावी होती जा रही है.
1970 की छोटी सी बात या बातों ही बातों में जैसी फ़िल्मों में नायक-नायिका के बीच प्रेम बंबई के लोकल ट्रेन में साथ आते-जाते हुए परवान चढ़ता है. आज के समय में जब हर कोई अपनी ही बनायी दुनिया में कैद है, तब क्या इस तरह की फ़िल्मों की कल्पना की जा सकती है? इस लिहाज से देखें तो तकनीक जीवन के मानवीय और कोमलतम पहलुओं को कहीं दूर पीछे खिसकाने का काम कर रही है. दुनियाभर में लगातार हो रहे शोध इस बात की तस्दीक भी करते हैं.
जाहिर है, यह एक नयी दुनिया है, जिसे तकनीकी क्रांति ने रचा है. किसी जमाने में लोग शहरों में अकेलेपन की दुहाई देते थे. अकेलेपन और अजनबीपन पर कविता लिखा करते थे. वह अकेलापन मजबूरी थी. लेकिन आज का अकेलापन लोगों का चयन है. लोग एक छत के नीचे साथ-साथ रहते हुए अकेले-अकेले जी रहे हैं. तकनीक ने अकेलेपन और साथ के मायने ही बदल दिये हैं.

12 October 2011

फिर लुभायेगी नौटंकी


आज के समय को अगर इतिहास के लोप का समय कहा जा सकता है, तो इसे कुछ समर्पित लोगों द्वारा इतिहास को बचाने की कोशिश का दौर कहा जाना भी गलत नहीं होगा. यही वजह है कि नौटंकी और दास्तानगोई की ही तरह असम में सत्रिया को तो कर्नाटक में यक्षगान, महाराष्ट्र में संगीत नाटक और तमिलनाडु में हरिकथा को बचाने की कोशिश की जा रही है. पुराने कलारूपों को पुनर्जीवित करने की कोशिशों पर आज का रविवार. .
आजादी से पहले कानपुर शहर की एक शाम. गुलाब बाई गाना गा रही हैं- नदी नारे ना जाओ श्याम पय्यां पड़ूं ..
गुलाब बाई के इस दादरे की आवाज लोगों के कानों में गूंज रही है और उनकी भंगिमाओं को देखकर लोग सम्मोहन में बंधे जा रहे हैं. पूरी रात आवाज का जादू और जादू में डूबते-तिरते लोग. अब न गुलाब बाई हैं, न नौटंकी को लेकर किसी तरह की दीवानगी. नौटंकी की पहली महिला अदाकारा गुलाब बाई ने जब अपने जीवन की ओखरी सांसें लीं तब तक नौटंकी का चेहरा इतना कुरूप हो गया था कि इसके बारे में बात करना भी उन्हें गहरे अवसाद में डाल देता था.
नौटंकी क्वीन के नाम से पुकारी जाने वाली गुलाब बाई की मौत के पंद्रह साल बाद नौटंकी का भविष्य भले स्वर्णिम न कहा जा सकता हो, लेकिन कुछ समर्पित लोग नौटंकी को फ़िर से उसकी खोयी पहचान वापस दिलाने की कोशिश में जुटे हैं. उसी कानपुर शहर में जहां गुलाब बाई ने अपने ग्लैमर, अभिनय और गायकी की बदौलत राज किया था, नौटंकी को फ़िर से जीवित करने की कोशिश रंग लाती दिख रही है.
किसी जमाने में उत्तर भारत में आम लोगों के मनोरंजन का सशक्त माध्यम रहा यह लोककला रूप आज नकारात्मक वजहों से ज्यादा जाना जाता है. व्यावसायिकता के दबाव में मनोरंजन का साफ़ सुथरा रूप गायब होता गया और नौटंकी के नाम पर ईलता का कारोबार किया जाने लगा. गुलाब बाई की मौत के बाद गुलाब थियेटर कंपनी को संभालने वाली उनकी बेटी मधु अग्रवाल कहती हैं कि ‘इस बात की समझ समाज से धीरे-धीरे गायब होती गयी कि नौटंकी एक लंबी परंपरा से विकसित हुआ कला रूप है. नौटंकी में कला को, अभिनय परंपरा को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया.’
इस कहानी को नया मोड़ देने की कोशिश कुछ वर्ष पहले कानपुर में शुरू हुई. नौटंकी को उसके गौरवमयी स्वरूप में फ़िर से जीवित करने के लिए जिन लोगों ने महत्वपूर्ण काम किया है उनमें हरीश चंद्रा का नाम प्रमुख है. उस्ताद राशिद खां के शिष्य चंद्रा नौटंकी से जुड़े वाद्य नक्कारा के कुछ बचे हुए सिद्धहस्त कलाकारों में से एक हैं. चंद्रा ने नौटंकी को बचाने के लिए कानपुर में नौटंकी प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की.
आज यह संस्था संगीत नाटक अकादमी की मदद से राज्य के कई शहरों में हरिश्चंद्र, तारामती, पूरणमल, बहादुर लड़की, दिल की खता, बेटी की कुर्बानी जैसे शो का प्रदर्शन कर चुकी है. इनमें से ज्यादातर प्रदर्शन सरकार की तरफ़ से प्रायोजित रहे हैं और प्रदर्शनों को शहरों में ही किये जाने पर जोर दिया गया है. नौटंकी से जुड़े लोगों के साथ ही शहर के बुद्धिजीवी भी इस मृत होती विधा को बचाने के लिए सामने आये हैं. नौटंकी के लिए यह बड़ी बात है.
खासकर इसलिए, क्योंकि नौटंकी के स्वरूप में आयी विद्रूपता के कारण सभ्य लोगों ने इससे दूरी बना ली थी. हौसला देने वाली बात यह भी है कि दर्शकों ने भी इस प्रयास के प्रति सकारात्मक रुझान दिखाया है. लेकिन नौटंकी के इस नये सफ़र को आगे ले जाने की राह में कई दिक्कतें हैं. नौटंकी पेशे से जुड़े हुए लोग बताते हैं कि सबसे बड़ी समस्या नये स्क्रिप्ट का न होना है. अभी भी ज्यादातर शो पुराने स्क्रिप्ट के आधार पर किये जा रहे हैं. साथ ही ओर्थक संसाधनों में कमी बड़ी समस्या पैदा कर रही है.
अभी भी नौटंकी को उस तरह से सरकारी मदद नहीं मिल रही है, जितनी की पश्चिमी नाट्य शैली को विकसित करने के लिए दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को मिलती है. नौटंकी को फ़िर से जीवित करने को लेकर कई तरह के राय हैं. नाटककार ह्रषीकेश सुलभ का मानना है कि ‘सिर्फ़ नौटंकी को पुनर्जीवित करने के लिए पुनर्जीवित करना लक्ष्य नहीं हो सकता. वे कहते हैं कि नौटंकी के तत्वों का नाटकों में भी इस्तेमाल हो रहा है. नौटंकी के कई सारे तत्व थिएटर के लिए उपयोगी हैं. उनका उपयोग किया जाना चाहिये.’
जिन विधाओं को फ़िर से जीवित करने की कोशिश की जा रही है उनमें दास्तानगोई ने हाल के दिनों में काफ़ी लोकप्रियता हासिल की है. दास्तानगोई 16 वीं शताब्दी में फ़ारस में जन्मा कला रूप है. कहा जाता है कि सम्राट अकबर भी दास्तानगोई के बड़े प्रशंसक थे. दास्तानगोई में युद्ध और योद्धाओं की, जादूगरों और शैतानों, राजाओं और महारानियों के किस्से सुनाने का प्रचलन है. भारत में इसे जिन लोगों ने फ़िर से लोकप्रिय बनाने का काम किया है, उनमें महमूद फ़ारूकी, दानिश हुसैन के नाम प्रमुख हैं. मशहूर अभिनेता नसीरूद्दीन शाह ने भी इनके साथ मिलकर दास्तानगोई का प्रदर्शन किया है. फ़ारूकी खुद इतिहासकार हैं.
दास्तानगोई में हालांकि समकालीन जीवन से जुड़े प्रसंगों के भी किस्से कहे जाते हैं, लेकिन इसका मुख्य आधार आमिर हम्जा की कहानियां हैं. इसका एक अध्याय तिलिस्म-ए-होशरुबा दास्तानगो ( दास्तान सुनाने वालों ) का सबसे पसंदीदा है. फ़ारूकी जैसे लोग दास्तानगोई को अपनी तरह से विकसित कर रहे हैं. पूरे प्रदर्शन के दौरान कपड़े के चुनाव से लेकर कहानी सुनाने की शैली तक को आज के समय के हिसाब से विकसित किया गया है. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि दास्तानगोई का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.
दास्तानगोई के जानकार दिल्ली के कहानीकार अशोक गुप्ता कहते हैं कि दास्तानगोई अपने मौजूदा समय की बात सामने रखती है. नौटंकी और रास जैसी विधाओं में बयान किये जाने वाले किस्से एकदम प्रासंगिक संदर्भो को छूते हैं. अक्सर यथार्थ की लीक से परे हट कर ही ठोस यथार्थ के मसलों का हल पाया जाता है. दरअसल, मनबहलाव उसी प्रस्तुति से होता है, जो आदमी को उसकी मुश्किलों को पार करने की राह दिखाती है.
एक तरह से आज के समय को अगर इतिहास के लोप का समय कहा जा सकता है तो इसे कुछ समर्पित लोगों द्वारा इतिहास को बचाने की कोशिश का दौर भी कहा जा सकता है. यही वजह है कि नौटंकी और दास्तानगोई की ही तरह असम में सत्रिया को तो कर्नाटक में यक्षगान, महाराष्ट्र में संगीत नाटक और तमिलनाडू में हरिकथा को बचाने की कोशिश की जा रही है.
असम में सत्रिया नृत्य का जन्म आज से करीब 600 साल पहले हुआ था. यह नृत्य गुम होने के कगार पर पहुंच गया था, लेकिन इंदिरा और मोतीलाल बोरा के प्रयासों से आज संगीत नाटक अकादमी ने इसे शास्त्रीय नृत्य के दर्जे से नवाजा है. बोरा ने सत्रिया के मूल तत्वों को बचाते हुए इसमें आज के समय के हिसाब से कई बदलाव किये हैं.
उन्होंने गुवाहाटी में कलाभूमि नामक संस्था का गठन किया जिसके संरक्षकों में कपिला वात्स्यायन, भुपेन हजारिका और सुनील कोठारी जैसे प्रतिष्ठित लोग हैं.हरिकथा किसी जमाने में तमिलनाडू में काफ़ी लोकप्रिय थी. थंजावुर में 17वीं सदी में मराठा शासन के दौरान इसकी शुरुआत हुई. इसमें तमिल कहानियों और मराठी कीर्तन का अनूठा संगम देखने को मिलता है.
हरिकथा को लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाने वाली सुचित्रा बालासुब्रमन्यम पिछले तीन सालों में देश भर में पांच सौ से ज्यादा हरिकथा प्रस्तुतियां दे चुकी हैं. देश के विभिन्न कोनों में संस्कृतिकर्मी गुम होते कला रूपों को बचाने की कोशिशों में लगे हुए हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि ये कोशिश महज सांस्थानिक किस्म के नहीं हैं, बल्कि आम लोग और बुद्धिजीवी भी इसमें योगदान दे रहे हैं.

2 October 2011

गोडसे @ गांधी . कॉम : मौजूदा रंगमंच पर गांधी की खोज


 गोडसे @ गांधी . कॉम : मौजूदा रंगमंच पर गांधी की खोज



गांधी पर किताबों की संख्या दस बीस में नहीं हजारों में है. गांधी को लेकर देश ही नहीं, बल्कि बाहर भी ऐसा आकर्षण है कि हर साल दुनिया के अलग-अलग कोनों से उनके जीवन और राजनीति को बेहतर तरीके से समझने और समझाने का दावा करने वाली किताबों का प्रकाशन एक रिवाज-सा बन गया है.
गांधी पर आने वाली ज्यादातर किताबें गांधी के जीवन, दर्शन और गांधी के नेतृत्व में हुए राजनीतिक आंदोलनों के इर्द-गिर्द ही लिखी जाती रही हैं. यानी ये किताबें या तो गांधी की जीवनियां हैं या गांधी से होकर नि:सृत होने वाला इतिहास. यह अपने आप में स्वाभाविक भी है. ओखर आधुनिक भारत के इतिहास को गढ़ने में अकेले गांधी की जितनी बड़ी भूमिका रही है उतनी शायद ही किसी दूसरे नेता की.


असगर वजाहत 


एक बेहद विचित्र स्थिति यह है कि गांधी पर शोधपरक किताबों की बाढ़ के बीच सृजनात्मक साहित्य या लोकप्रिय कला माध्यमों से गांधी लगभग गायब हैं. पिछले-दिनों बनी इक्की-दुक्की फ़िल्मों को छोड़ दें तो गांधी का जीवन और मूल्यों के कलात्मक पुनर्निर्माण की कोशिश बहुत कम दिखाई देती है. वैसे सवाल, जो हमें अकसर ‘आज अगर गांधी होते तो क्या होता?’ की विचारमुद्रा में ले जाते हैं, उनसे टकराने का उपक्रम भी गांधी से होकर नहीं जाता.
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गांधी को लेकर इस तरह की विस्मृति की मुद्रा आज के सृजनात्मक परिदृश्य की एक सच्चाई है. वरिष्ठ कथा लेखक और नाटककार असगर वजाहत का हाल ही में प्रकाशित नया नाटक गोडसे @ गांधी . कॉम  हमारे आज के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में गांधी और गांधीवाद की प्रासंगिकता पर नये सिरे से जिरह और संवाद की संभावना के द्वार खोलता है. अपने चर्चित नाटक ‘जिस लाहौर नईं देख्या वो जन्माई ही नहीं’ में सांप्रदायिकता के सुलगते सवाल से रचनात्मक स्तर पर जूझने के बाद अपने इस नये नाटक में वजाहत आज के समय के हिसाब से गांधीवादी रास्तों और मूल्यों की संभावनाओं और सीमाओं की पड़ताल करते हैं.       

‘अगर आज गांधी जिंदा होते तो क्या करते’ का जवाब खोजने की कोशिश में वजाहत जी ने एक एक दिलचस्प नाटकीय प्रविधि का इस्तेमाल किया है. यह प्रविधि है मंच पर गांधी को पुनर्जीवित करना. नाटक की शुरुआत रेडियो की इस उद्घोषणा से होती है-‘..समाचार मिला है कि ऑपरेशन के बाद महात्मा गांधी की हालत में तेजी से सुधार हो रहा है. उन पर गोली चलाने वाले नाथूराम गोडसे को अदालत ने 15 दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया है..’ 
गांधी जी गोडसे को माफ़ कर देते हैं और उससे मिलने की इच्छा जताते हैं. सत्याग्रह के सहारे संवाद को सबसे बड़ी ताकत मानने वाले गांधी और गोडसे का संवाद इतिहास में भले संभव नहीं हो पाया, लेकिन यह सवाल तो इतिहास छोड़ ही गया है कि अगर गांधी गोडसे की गोली से बच गये होते तो क्या होता? दो किश्तों में होने वाले गांधी-गोडसे संवाद को दो विचारधाराओं के बीच की टकराहट को बौद्धिक स्तर पर समझने की कोशिश कहा जा सकता है. गांधी जी गोडसे से कहते हैं-‘ मैं घृणा और प्रेम के बीच से नया रास्ता, संवाद का रास्ता ‘डॉयलॉग का रास्ता निकालना चाहता हूं.’
गांधी सवाल करते हैं, ‘ क्या तुमने हिंदुस्थान को देखा है?’ यानी उस देश को जो सिंधु से लेकर असम तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फ़ैला हुआ है. इस  देश में रहने वाले उन तमाम लोगों  को उनके जीवन को, उनके काम को, जिनसे यह देश बनता है. इसे सिर्फ़ हिंदुओं का देश मानना इसके बहुरंगी जीवन को, इसके अभूतपूर्व सांस्कृतिक इतिहास को न्यून करना है. उसकी आत्मा में समाहित समन्वय की अदम्य चेतना को नकारना है.
जाहिर है यह बात तब न गोडसे ने समझी थी और न आज की वे चरमपंथी शक्तियां समझती हैं, जो बहुलतावाद की जगह किसी विचार की सार्वभौमिकता की जिद करती हैं. गांधी-गोडसे संवाद में एक तरह से ऐसा कुछ नया नहीं, जिसे पहले न कहा गया हो. नया बस यह है कि नाटककार ने इसे दोहराने को अपने समय को बेहतर बनाने के लिए जरूरी माना है.       
जहां एक तरफ़ गांधी-गोडसे संवाद सांप्रदायिकता के सवाल से जूझता है, वहीं आज के दौर के कई दूसरे मुद्दों को भी गांधीवादी दर्शन की कसौटी पर कसने की कोशिश इस नाटक में की गयी है.पिछले दिनों गांधी की किताब हिंद स्वराज के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य म पश्चिमीकरण बनाम गांधी के ग्राम- स्वराज की अवधारणा पर लंबे-लंबे लेख लिखे गये. व्याख्यानों का आयोजन किया गया. लेकिन स्वराज से गांधी का मतलब क्या था और उसकी ताकत क्या है, उसे जितनी आसानी से इस किताब में समझाया गया है, वह समझ उन व्याख्यान मालाओं से नहीं बन पायी.                        
आत्मनिर्भर गांव गांधी का सपना थे. इस नाटक में गांधी के इस सपने की संभावना पर बात की गयी है. यह एक तथ्य है कि गांधी के ज्यादातर सिद्धांतों को नेहरूवादी विकास के मॉडल ने तिलांजलि दे दी थी. इस नाटक में लेखक ने कल्पना की है कि अगर गांधी जीवित रह जाते और अपने सिद्धांतों को अमल में लाने की कोशिश करते तो, तत्कालीन या मौजूदा शासन-व्यवस्था से उनका टकराव निश्चित था. केंद्रीकरण पर जो़र देने वाली सत्ता, जो कि शासन से लेकर, वित्त और घोटालों तक पर अपना एकाधिकार मानती है, सत्ता को आम लोगों में बांटने और उनके सशक्तिकरण को खतरनाक मानती है.
देश में आज भी ऐसे कई इलाके हैं, जहां स्थानीय लोग अपना शासन खुद चलाते हैं और जिन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है. संयोग से ये देश के वैसे इलाके हैं, जिन्हें आज रेड कॉरिडोर में शामिल किया जाता है. यानी नक्सल प्रभावित इलाकों में. यह महज एक नाटकीय युक्ति नहीं है कि कांग्रेस को विघटित कर, नेताओं को देश के दूर-दराज के हिस्सों में जाकर काम करने की सलाह देने वाले गांधी झारखंड के एक आदिवासी गांव में जाकर अपना आश्रम बनाते हैं और वहां ग्राम स्वराज के सपने को साकार करते हैं. नाटककार ने यह दिखाया है कि अगर गांधी जी जीवित होते और अपने आदर्शो को जमीन पर उतारने की कोशिश करते तो उसे एक किस्म का देशद्रोह माना जाता. ग्राम स्वराज को समानांतर सरकार स्थापित करने की कोशिश माना जाता.
अपने जंगल और जमीन पर अपने हक का दावा करने वाले आदिवासी को आज की सरकार विद्रोही ही तो मानती है. सरकार यह भी भूल जाती है कि अपनी जमीन से बेदखल किये जाने की सूरत में बंदूक का रास्ता उठाने वाले लोग देश के ही नागरिक हैं. नागरिकों को ही देश का शत्रु मानकर उनके खिलाफ़ ऑपरेशन ग्रीनहंट की शुरुआत की जाती है. इन लोगों पर देश के कानून को तोड़ने का आरोप लगाया जाता है. तभी तो नाटक में गांधी कहते हैं,‘ सरकार हुकूमत करती है जवाहर..सेवा नहीं करती..सरकारें सिर्फ़ सत्ता की प्रतीक होती हैं और सत्ता सिर्फ़ अपनी सेवा करती हैं.’यहां शासन के उस नेहरूवादी मॉडल के बरक्स गांधीवादी मॉडल की भी बात की गयी है.
नेहरू मानते थे कि देश का उद्धार प्लानिंग कमीशन, फ़ाइव इयर प्लान से होगा. पॉलिसीज से होगा, उन्हें लागू करने से होगा. लेकिन इस विचार का जवाब गांधीवादी मॉडल कुछ इस तरह से देता है. नाटक में गांधी नेहरू से कहते हैं, ‘ जवाहर तुम पत्तों से जड़ तक जाने की बात करते हो और मैं जड़ से पत्तों की तरफ़ आने की बात करता हूं..मैं कहता हूं कि लोगों को ताकत दो, ताकि वे अपने लिए वे सब करें, जो जरूरी समझते हैं. यही विकास के नेहरूवादी और गांधीवादी मॉडल के बीच का फ़र्क है.       

विकास, सांप्रदायिकता आदि मसले पर गांधी के विचारों को फ़िर से उठाने की पहल करने वाले इस नाटक  को निश्चित तौर पर अपने समय और समाज में एक सजग रचनाकार की ओर से किया गया हस्तक्षेप कहा जा सकता है. यहां गांधी के प्रति अंधभक्ति से परे हटकर हमारे समय की संगति गांधी के विचारों से बिठाने की कोशिश की गयी है. इसे मौजूदा दौर में गांधीवाद की संभावना की तलाश करने की गंभीर कोशिश कहा जा सकता है.