वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत की महत्वाकांक्षी उपन्यास त्रयी की आखिरी किश्त "धरा अंकुराई" पर हाल ही में एक लम्बी समीक्षा लिखी थी. "कैसी आगी लगाई ", "बरखा रचाई", के बाद "धरा अंकुराई " उपन्यास एक प्रतिबद्ध लेखक की चिंताओं के व्यापक दायरे से हमें रू-ब-रू कराता है.
‘धरा अंकुराई’ वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत की उपन्यास त्रयी का तीसरा और आखिरी उपन्यास है। इससे पहले इस उपन्यास त्रयी के अंतर्गत ‘कैसी आगी लगाई’, ‘बरखा रचाई’ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं और पाठक-आलोचक जगत द्वारा पर्याप्त प्रशंसित हो चुके हैं। ‘कैसी आगी लगायी’ के प्राक्कथन, ‘एक अनपढ़ का विलाप’ में असगर वजाहत ने लिखा था, ‘इन दिनों से पहले कभी यह नहीं लगा कि लिखना जरूरी है। वजह, और सबसे बड़ी वजह यही है कि लेखक जो सोचता है, कहना चाहता है, उसके लिए साहित्य को छोड़कर कोई मंच नहीं बचा है।’ त्रयी के तीनों उपन्यासों का जन्म इसी बेचैनी से हुआ है, लेकिन ‘धरा अंकुराई’ में इस बेचैनी को सबसे ज्यादा महसूस किया जा सकता है। कारण यह कि यह उपन्यास हमारे आज के समय में स्थित है। इसकी चिंताएं, इसकी समस्याएं हमारी आज की चिंताएं, आज की समस्याएं हैं। हमारा खंडित वर्तमान, इस वर्तमान को बनाने, निर्धारित करनेवाली शक्तियां और इस वर्तमान से लड़ रहा, इसके आघातों से आकार ग्रहण कर रहा जीवन इसके केंद्र में है।
‘धरा अंकुराई’- उपन्यास का शीर्षक एक विशाल बिंब रचता है, जिसकी अर्थ-छवियां एक साथ इतिहास में, समाज में, भूगोल में यानी ‘टाइम एंड स्पेस’ में खुलती हैं। धरा के अंकुराने का अर्थ क्या है? बंजर जमीन का अपनी जन्म न देने की अनिच्छा से बाहर निकलना। कोई जमीन बंजर नहीं होती। लेकिन क्या हो अगर धरती प्रतिदान देने से इनकार कर दे या प्रतिदान देने की अपनी क्षमता भूल जाये? इनसान को उस धरती को अपने श्रम-स्वेद से सींचना पड़ता है, बंजर धरती की गांठों को खोलना पड़ता है। उसे मनाना होता है। इस तरह ‘धरा अंकुराई’ का बिंब एक तरफ धरती के ‘शस्य श्यामला’ होने का बिंब है, तो साथ में मेहनतकश हाथों के निशान भी यहां हैं।
जाहिर है, इतने विराट बिंब के साथ किसी कथा में प्रवेश करना, लेखक के लिए चुनौतियां पैदा करता है। असगर वजाहत ने इस चुनौती का सामना अपनी बौद्धिकता और सरोकारों के प्रति अपनी ईमानदारी के सहारे किया है। संक्रमण के दौर में करवट बदलते भारत की दास्तां कहने की बेचैनी असगर वजाहत को ‘धरा अंकुराई’ के कथा-प्रदेश में लेकर आयी है। इस उपन्यास का समय उदारीकरण के बाद का भारत है। जाहिर तौर पर यह धर्म और जाति की राजनीति के ज्यादा ताकतवर होने के बाद का भी भारत है। शब्दों के मानी बचाने की जिस बेचैनी की बात असगर वजाहत ने ‘कैसी आगी लगायी’ के प्राक्कथन में की थी, वही इस रचनात्मक यात्रा का ईंधन है। उपन्यास त्रयी का हिस्सा होने के बावजूद यह उपन्यास अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है और इसका स्वतंत्र पाठ मुमकिन है।
एक खास लेखकीय प्रविधि के तहत असगर वजाहत अपने मुख्य पात्र को जो कि दिल्ली के पत्रकारिता जगत का एक रोशन सितारा है, वापस अपने शहर लेकर आते हैं। एक ऐसे सामान्य से शहर में, जो ‘ कस्बा और शहर होने के बीच पिछले पचास साल से फंसा हुआ है। एसएस अली यानी सैयद साजिद अली ‘अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया’ के भाव से अपने पुराने शहर में लौटता है। वह अपने जीवन का अर्थ खोजना चाहता है। कुछ ऐसा करना चाहता है, जो उसे सार्थकता का एहसास दे।
अपनी ही गति से चल रहे इस कस्बानुमा शहर में कथा-नैरेटर के आने से एक किस्म का आलोड़न आता है। वह बदलाव के एजेंट के तौर पर शहर में दाखिल होता है। इस शहर में, जिसे वह 40 साल पहले छोड़ चुका है, वह एक आउटसाइडर- बाहरी की तरह है। वहां की सत्ता-संरचना में एक किस्म का व्यवधान है। एसएस अली इस शहर में चीजों को नये तरह से करना चाहता है। लेकिन, यह काम आसान नहीं है। क्योंकि यह शहर अपने चरित्र में यथास्थितिवादी है। यहां एक साथ कई शक्तियां काम कर रही हैं, जो उसे उसके जैसा ही छोड़ कर लगातार अपने हिसाब से बदल रही हैं। शहर हर दिन बढ़ रहा है। भू-माफियाओं का वहां अपना राज है। उदारीकरण के बाद आयी कुरूपताओं ने इस शहर को भी अपना निशाना बनाया है। इन चीजों के साथ शाश्वत रूप से मौजूद है निष्प्रभावी सरकारी तंत्र और उसकी उदासीनता। सबसे बड़ी बात शायद यह है कि ‘किसी तरह के सुधार के बारे में लोगों कोई विश्वास नहीं है।’ इस शहर में बदलाव लाने की कथा-नैरेटर की कोशिशो का जहां एक तरफ स्वागत होता है, वहीं मौजूदा सत्ता-संरचना में इसको लेकर असहजता का भाव भी उत्पन्न होता है। यह उपन्यास अपने समय के सवालों से जूझने, जवाब तलाशने, जरूरी सवाल पूछने की भंगिमा अपनाता है। जड़ता और बदलाव की शक्तियों के द्वंद्व से उपन्यास की शुरुआत में तनाव का सृजन हुआ है, जो एक तरफ रोचकता पैदा करता है, वहीं दूसरी ओर उपन्यास को संभावनाओं के अनदेखे क्षितिज की ओर भी ले जाता है।
अपने समय से टकराने के उपक्रम में असगर वजाहत ने यहां राग दरबारी की शैली में की गयी टिप्पणियों का सहारा लिया है। हालांकि ये वक्तव्य उस तरह से व्यंग्यपूर्ण और चुटीले नहीं हैं, लेकिन एक बुद्धिजीवी की चिंताओं से भरे हुए हैं। इन के दायरे में अंग्रेजीपरस्त शिक्षा व्यवस्था से लेकर, नगरपालिका, पूरे देश में फैली माफिया संस्कृति, सरकार का लोप और उसकी जगह प्राइवेट का आगमन, मीडिया (स्थानीय और राष्ट्रीय) का चरित्र, जैसे अनेक मसले हैं। लेखक को लगता है कि जो चीजें उसके आसपास इस देश में हो रही हैं, होती आयी हैं, उनके बारे में बोलना जरूरी है। खासकर उस हालात में जब, ‘कुछ भी अपनी जगह पर नहीं है। जो है सब बिगड़ा हुआ है, टूटा हुआ है। मरम्मतों की हद से गुजर गया है और उस पर तुर्रा यह कि किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।’ यह बोलना ‘फर्क’ पैदा करने के लिए है।
एसएस अली इस कस्बे में नये-नये प्रयोग करता है। वह शहर मे चारों ओर फैले कूड़े को साफ करने की योजना बनाता है। यह एक प्रतीकात्मक कार्रवाई है। गांधी के नमक आंदोलन की तरह। और उसी तर्ज पर इसका विरोध भी होता है, क्योंकि अपने साधारण प्रतीक में भी यह काम सरकारी तंत्र को चुनौती देनेवाला है। सरकारी तंत्र के माथे पर इससे शिकन आती है। लेखक यह दिखाता है कि यह है भारत, जहां देश के हिंदुस्तान से ‘कूडि़स्तान’ में तब्दील हो जाने पर प्रशासन को कोई तकलीफ नहीं होती, लेकिन अपनी सत्ता पर पर एक छोटी सी खरोंच भी जिसे परेशान कर जाती है। एसएस अली जो करना चाहता है, उसकी राह में सिर्फ माफिया और राजनीतिज्ञ (दोनों यहां पर्यायवाची हैं) ही नहीं खड़े, प्रशासन तंत्र भी खड़ा है। इनके बीच मजबूत गठजोड़ है। न्याय मिलना मुश्किल है। संचार के साधनों पर भी इनका कब्जा है। अली की हर कोशिश पर शहर के लोगों को लगता है कि कहीं इसके पीछे राजनीति तो नहीं। कस्बे के युवकों को मु्फ्त अंग्रेजी पढ़ाने की शुरुआत भी ऐसा ही काम है। एक पहल के तहत शहर के बुद्धिजीवियों या संभ्रांत लोगों की एक सूची- डाइरेक्टरी बनायी जाती है। शहर का नक्शा बनाया जाता है। लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद उसे लगता है कि सारे रास्ते बंद हैं। सत्ता ने पक्की किलेबंदी कर ली है। उसे लगातार शक की निगाहों से देखा जाता है, कुछ उसी तरह से जिस तरह से ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ में ‘का’ को शक की निगाह से देखा जाता है। असगर वजाहत ने बेहद सिद्ध हाथों से कथानक के वितान में तनाव और द्वंद्व के तत्वों को मिलाया है। ऐसा लगता है कि इन प्रयोगों का क्लाइमेक्स -‘ज्ञान यात्रा’ के दौरान आयेगा।
‘ज्ञान यात्रा’ और उसके सहारे सामाजिक घात-प्रतिघात का चित्रण, सत्ता, प्रशासन, माफिया और संचार माध्यमों के गठजोड़ के खिलाफ लड़ाई उपन्यास की स्वाभाविक परिणति होती। लेकिन ऐसा लगता है जैसे इस बिंदु पर आकर लेखक ने उपन्यास को अपने हाथों से फिसल जाने दिया है। ‘ज्ञान यात्रा’ के लिए बन रही योजनाओं के बीच उपन्यास एक व्यक्तिगत मोड़ ले लेता है और निजी संबंधों के जाल में फंस जाता है। ‘हीरा’ जो रेणु के ‘मैला आंचल’ की डाॅक्टर ममता की तरह दूर से कथा में हस्तक्षेप कर रहा था, जिसकी उपस्थिति उपन्यास में चीजों को बौद्धिक नजरिये से देखने की जरूरत के हिसाब से थी, अचानक वह और नाजो से उसका प्रेम उपन्यास का केंद्रीय विषय बन जाता है। ‘ज्ञान यात्रा’ पृष्ठभूमि में चली जाती है।
कभी सल्लो से, जो एसएस अली के घर में काम करनेवाली नौकरानी थी, जिसके साथ उसके शारीरिक संबंध थे, वह शादी नहीं कर पाया था। क्यों? क्योंकि सामंती समाज के संस्कार उसे इसकी इजाजत नहीं देते थे। न ही, सामंती नैतिकता को बचाए रखने के लिए ही इसकी कोई जरूरत थी। उसी सल्लो की नातिन नाजो, जो हूबहू सल्लो की प्रतिरूप है, के प्रति वह खुद को शारीरिक रूप से आकर्षित पाता है। यह एक द्वंद्व की स्थिति है और कथा के विकास में इसकी मनौवैज्ञानिक स्वाभाविकता से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन, अली के बेटे हीरा की कथा में एंट्री, उसका नाजो के प्रति आकर्षण और आखिरकार दोनों की शादी उपन्यास की कथा की संगति में नहीं लगते। वृहत सामाजिक फलक पर अपने पट खोल रहे उपन्यास का यह अंत निराश करता है। हीरा और नाजो की शादी का संदर्भ भी सामंती समाज में आ रहे किसी बदलाव को प्रकट नहीं करता। इसे सामंती समाज की बंजर जमीन पर नये विचारों का कोंपल फूटना नहीं कहा जा सकता। हीरा लंदन स्कूल आॅफ इकोनाॅमिक्स का शोध छात्र है। लड़कियों के साथ वह उस तरह से सहज नहीं है। उसकी मां नूर को लगता है, उसे ऐसी लड़की की जरूरत है, जो उसका ख्याल रख सके। लंदन में उसकी सोसाइटी में उसे नाजो जैसी लड़की नहीं मिलेगी। असगर वजाहत स्त्री को लेकर सामंती स्टीरियोटाइप को तोड़ने में नाकाम रहे हैं। वह जैसे इस बात को नजरअंदाज कर जाते हैं कि इस सबमें नाजो का फैसला कहीं नहीं है। वह फैसला लेने लायक है ही नहीं। यह ठीक है कि उसे चमत्कारिक रूप से होनहार और हुनरमंद दिखाया गया है, लेकिन हीरा के लिए वह सिर्फ ‘आॅब्जेक्ट’ ही है। या फिर इतनी कम मैच्योर है, जिसे वह पूरी जिंदगी पढ़ा सके। इस पूरे रिश्ते में नाजो सिर्फ ग्रहण करनेवाली है। पुरुष से। अपने मालिकों से। उसकी जिंदगी दूसरों के फैसलों पर टिकी है। कोई उसका इस्तेमाल करके छोड़ दे, या दया करके अपना ले, दोनों में उसकी रजामंदी है। आधुनिक समाज में एक स्त्री की यह नियति आदर्श नहीं हो सकती। इसे न्यायोचित नहीं कहा जा सकता।
धरा अंकुराई के आखिरी पन्नों तक आते-आते यह एहसास होता है कि लेखक ने कथा की मांग को स्वीकार न करते हुए, उसका अंत पूर्व निर्धारित तरीके से कर दिया है। वह यह देखने में कहीं न कहीं चूक गया है कि उपन्यास की कथा का नियंत्रण अब उसके हाथ में नहीं है और उसे पहले से सिले गये कपड़े में नहीं अंटाया जा सकता। इस उपन्यास में लेखकीय श्रम की कमी खटकती है। उपन्यास की शुरुआत में एसएस अली जिस तरह से अपने शहर में वापस लौटता है, वह एक रूमानियत से भरा कदम है और यथार्थवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। यह परिस्थितिजन्य नहीं, भावुकताजन्य है। शहर में उसकी उपस्थिति एक स्टेकहोल्डर के तौर पर नहीं है। शहर की नियति से उसकी नियति नहीं बंधी है। यही कारण है कि उसके संघर्ष मे यथार्थ का पुट कम है। अंत में यही कहा जा सकता है कि यह उपन्यास चमकदार संभावनाओं की दहलीज से वापसी के उदाहरण के तौर पर हमारे हाथ में रह जाता है।
धरा अंकुराई
असगर वजाहत
राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 400 रुपये
असगर वजाहत
राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 400 रुपये
मूल रूप से 'पुस्तक वार्ता' में प्रकाशित.