अगर बाबरी मस्जिद किसी प्राचीन और महान मंदिर के ऊपर बना था ...तो क्या यह सही होगा कि उस ऐतिहासिक मंदिर को खोजे बिना , उसका उत्खनन किये बगैर उसके ऊपर एक मंदिर बना दिया जाए? अगर पुरातात्विक साक्ष्य ऐसी किसी इमारत का इशारा करते हैं तो इस इमारत को जमीन से बाहर निकालने की कोशिश की जानी चाहिए. इससे दो तरफ़ा फायदा है.पहला इससे साक्ष्य पुख्ता हो जायेंगे ...संदेह का बाजार गरम नहीं होगा दूसरा हमें एक ऐतिहासिक , सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर स्थल मिल जाएगा.
राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवाद पर कोर्ट में दशकों से चल रहे मुक़दमे का फैसला कल आ गया. जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस एस यू खान के अलग अलग फैसले को गौर से पढने की जरूरत है. इन दोनों न्यायाधीश ने अपने फैसले में जो लिखा है उसे भारत की कौमी तहजीब को समझने के लिए एक जरूरी सन्दर्भ के तौर पर इस्तेमाल में लाया जा सकता है. साझा मालिकाना हक़ देकर कोर्ट ने आदर्श रचने की कोशिश की है .यह बात मैं इस फैसले से तमाम तरह की असहमति होने के बावजूद कह रहा हूँ. लेकिन फैसले पर बात करने से पहले कुछ जरूरी बात.
बाबरी मस्जिद विवाद मूल रूप से आक्रमणकारी मुस्लिम और पराजित हिन्दू के प्रचलित डीकोटोमी पर आधारित है. यह इस धारणा की उपज है कि हिन्दुओं को मुस्लिम शासन काल में शोषण का सामना करना पड़ा. हिन्दुओं के इबादतगाह नष्ट किये गए. उनकी धार्मिक भावना को ठेस पहुचाई गयी. इसलिए अब हिन्दुओं का यह अधिकार है की वे इतिहास के अन्याय का बदला वर्तमान में लें...या इतिहास के पराजय को वर्तमान की जीत से दुरुस्त करें. दूसरी और मुस्लिम यह मानते हैं कि अपने हक़ की रक्षा समझौतावादी होकर नहीं किया जा सकता. जिन चीजों पर उनका अधिकार रहा है उसकी रक्षा उन्हें लड़कर करनी होगी. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें अपने हकों से लगातार महरूम होते जाना पड़ेगा. इस बात में कोई शक नहीं कि इतिहास में ऐसी घटनाओं की कमी नहीं जहाँ हिन्दू ढांचे को इस्लामी ढांचे में दब्दील किया गया. आज सवाल यह है कि क्या इसे सिर्फ मुस्लिम अत्याचार माना जाए या सत्ता संरचना में बदलाव का स्वाभाविक परिणाम. भारत में ही हिन्दू राजाओं द्वारा बौद्ध उपासना स्थलों को नष्ट किये जाने के कई उदहारण सामने हैं. हिन्दू- बौद्ध, शैव- वैष्णव के झगडे का परिणाम किस तरह से कई बार एक दुसरे के शोषण में हुआ यह बात इतिहास में दर्ज है.दरअसल धार्मिक उन्माद और मध्य काल का सांस्कृतिक और राजनीतिक दर्शन एक साथ चलते हैं. अपने धर्म की श्रेष्ठता साबित करना विजय अभियान को लेजिटीमाइज करने के लिए जरूरी था. और इसका इस्तेमाल सिर्फ इस्लाम में ही नहीं हुआ. हिन्दू भी इससे अछूते नहीं थे. अपने आप को आधुनिकता और मानवतावाद का पैरोकार कहने वाले यूरोपीय तो इस मामले में शायद सबसे आगे रहे. दरअसल उस समय राजनीति और धर्म इस तरह घुले मिले थे कि उन्हें किसी तरह से अलग नहीं किया जा सकता था. राजनीतिक जीत का अर्थ धार्मिक जीत भी हुआ करती थी. कहते हैं जिसकी ताकत उसका धर्म उसका कानून . डोमिनेंट धर्म या कानून डोमिनेंट या सत्ताधारी वर्ग का अनुसरण करता है .लेकिन राजनीति के इस फलसफे को आज उस तरह से खुलेआम लागू नहीं किया जा सकता. ऐसा करना बेहद खतरनाक भी है.
बात करते हैं अयोध्या फैसले की. यह एक ऐसा मुकदमा था जिसका फैसला जरूर आना चाहिए था. लेकिन कानूनी फैसला कानूनी होना चाहिए ना कि विश्वास पर आधारित. जब कोर्ट प्रचलित विश्वास और आस्था का सहारा लेकर फैसले देने लगेगी तो इस देश का क्या होगा इसकी कल्पना की जा सकती है. साझा मालिकाना हक़ देकर जहां कोर्ट ने भारत की सामासिक संस्कृति को पुख्ता किया वही राम जन्मभूमी स्थान को पिन प्वाइंट करने के पीछे का तर्क समझ से परे है. कोर्ट का यह कहना कि बाबरी मस्जिद के मध्य गुम्बद के नीचे राम का जन्मस्थान है में धार्मी भावुकता का रंग है. यह सही है कि ऐसा करके कोर्ट ने संभावित हिन्दू मुस्लिम तकरार के लिए कम जगह छोडी है...लेकिन अगर कोर्ट को इस तकरार से बचना था तो फिर फैसला देने कि क्या जरूरत थी. अयोध्या मामला मर चुका था. इससे ना राजनीति की रोटी सेकी जा रही थी ना यह कोई कोई धार्मिक ज्वार ही उत्पन्न कर रहा था.
क्या इस बात के सबूत हैं कि राम का जन्म इस स्थल पर या इसके आस पास हुआ? अगर ऐसा हुआ तो वहां एक महल जैसा भी कुछ होना चाहिए जहां कभी सचमुच में राम का जन्म हुआ हो. भारत में एक ही इमारत के ऊपर दूसरी इमारत बनाए कि परंपरा रही है. इसे आप नालंदा में देख सकते हैं ..जहाँ प्राचीन विश्वविद्यालय के कई स्तर है..जो अलग अलग काल के निर्माण का साक्ष्य है. यानी अगर भारतीय पुरातत्व विभाग को इस जगह प्राचीन मंदिर के साक्ष्य मिले तो संभव है कि थोड़ी और खुदाई से वहाँ एक महल का भी साक्ष्य मिल जाए. अगर ऐसा होता है तो क्यों ना यहाँ भी बोधगया की तरह उस पुराने मंदिर या महल को सांस्कृतिक विरासत के तौर पर विकसित किया जाए, बनिस्पत इस जगह पर एक भव्य मंदिर का विजय के प्रतीक के तौर पर निर्माण करने के.
जिन साक्ष्यों के आधार पर यह फैसला आया है..उसके बाद इस जगह को धार्मिक परिसर की जगह विश्व सांस्कृतिक धरोहर के तौर पर ही विकसित किया जाना चाहिए. यहां किसी भी तरह के निर्माण से पहले इस जगह का पूरा एक्स्केवेशन किया जाना चाहिए. जो साक्ष्य कोर्ट को दिए गए वो मामूली साक्ष्य नहीं है. इसके आधार पर इतिहास की पुनर्रचना की जा सकती है. अयोध्या में एक हड़प्पा खोजा जा सकता है. एक पूरी कहानी जो इतिहास के मलबे में दबी है उसे जाने बिना यहाँ मंदिर का या किसी भी दूसरी इमारत का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए. अयोध्या मामले पर आये फैसले में में इतिहास के अध्याय को बंद करने की ताकत भले ना हो लेकिन इसने हमें इतिहास के भीतर झाँक सकने का मौका जरूर दिया है.