यह कोईघोषित मंच नहीं, जहां किसी बहस को अंजाम तक पहुंचाया जा सके, टिप्पणी की जा सके और सवाल रखे जा सकें. लेकिन फिर भी एक लाइव बहस जारी है. बहस में शामिल चेहरे प्रत्यक्ष नमुदार नहीं हैं. उनकी उपस्थिति दर्ज कराती प्रोफाइल आमने-सामने हैं. यहां शब्द ही बहस का आगाज है और आवाज भी. पिछले कुछ वर्षों में बिना मेल-मुलाकात के ही लोगों के दोस्तों की फेहरिस्त लगतार बढ.ाने वाली सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक की वॉल में साहित्य की यह बहस आगे बढ. रही है. बिना थके. बिना थमे. इस वॉल पर निजी अनुभवों, तसवीरों से लेकर राजनीतिक, साहित्यिक और समसामयिक घटनाओं पर टिप्पणियां आम हैं. फेसबुक की वॉल एक ऐसा सार्वजनिक मंच, या नया पब्लिक स्फेयर है, जहां पर लगातार कविताएं, कहानी, संस्मरण, लेख या उसकी कुछ पंक्तियां चस्पां की जा रही हैं. लेकिन, रचनाएं फेसबुक पर वह गरमाहट नहीं पैदा कर पातीं, जैसा कोई विवादित लेख कर जाता है. कुछ लोगों का तो मानना है कि फेसबुक साहित्यिक बहस का नया अड्डा बन कर उभरा है. पिछले तीन-चार वर्षों में फेसबुक पर एक के बाद एक विवादास्पद (और अकसर कटु) बहसें चली हैं. कभी तसवीरों ने किसी बहस को जन्म दिया है, तो कभी किसी लेख, साक्षात्कार, या बहस खड.ी करने के लिए चतुरता से उठा ली गयी किसी पंक्ति ने.
हाल ही में फेसबुक पर एक लंबी बहस चली. जिसमें बडे. संपादक से लेकर वरिष्ठ कवि और युवा ‘लेखक’ तक शामिल थे. बहस के मूल में था, कवि कमलेश से उदयन वाजपेयी की लंबी बातचीत में से चुनकर निकाला गया एक बयान- ‘मानवता को सीआइए का ऋणी होना चाहिए’ है. इस बहस ने विचारधारा से लेकर व्यक्ति और अवसरवादिता तक के सिरे पकडे.. युवा कवि गिरिराज किराडू के फेसबुक वॉल से शुरू हुई यह बहस 18 अप्रैल 2013 से 4 मई 2013 तक चली. जनपक्ष ब्लॉग में इस बहस को गिरिराज किराडू - अशोक कुमार पांडेय के मार्फत ‘विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण : लेखन और जीवन’ शीर्षक से सिलसिलेवार ढंग से पढ.ा जा सकता है. कथादेश के जून अंक में अर्चना वर्मा ने इस पर एक लंबा आलेख लिखा, जो जानकीपुल ब्लॉग पर भी देखा जा सकता है. यहीं इस सबके बरक्स कुछ सवाल अपनी ओर ध्यान खींचते हैं. क्या फेसबुक की वॉल हिंदी साहित्य का नया पब्लिक स्फेयर है? जनपक्ष ब्लॉग में उक्त बहस की भूमिका देखें-‘यह बहस हिंदी साहित्य के नये पब्लिक स्फेयर फेसबुक के संजीदा उपयोग का एक उदाहरण है और उसके बारे में अपरीक्षित धारणाओं का एक सशक्त प्रतिवाद भी. फेसबुक पर बहस लाइव होती है, कोई बोलता नहीं है, सब लाइव लिखते हैं.’
फेसबुक की इस लाइव बहस में क्या कोईवैचारिक क्षितिज बनता दिखता है? क्या यह बहस क्या हमारी साहित्यिक जमीन को मजबूत कर रही है? जिस तरह की साहित्यिक बहसें फेसबुक की वॉल पर आगे बढ.ी हैं, उनकी प्राथमिकता, प्रामाणिकता और अर्थवत्ता कौन तय करेगा? यहां ऐसे ही सवालों का जवाब दे रहे हैं तीन साहित्यकार.
१- अर्चना वर्मा
फेसबुक सोशल मीडिया के अर्थ में पब्लिक स्फेयर माना जा सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसे हम साहित्य का पब्लिक स्फेयर कह सकते हैं. साहित्य का पब्लिक स्फेयर तो यह तब होगा, जब इसमें बडे. पैमाने पर और हर विधा का साहित्य प्रप्रतिनिधित्व पा सके. फेसबुक में चली हालिया बहस, जिसे साहित्य से जोड.ा जा रहा है, कवि कमलेश के बयान पर थी. लेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस ओर गया हो कि कमलेश खुद फेसबुक पर नहीं हैं. जिस व्यक्ति को लेकर इतनी लंबी बहस चली, उसका पक्ष सुना ही नहीं गया. ईमानदारी की बात यह होती कि वह पूरी बातचीत जिसमें से बहस का आधार बने ‘सात शब्द’ निकाले गये, वॉल पर डाली जाती. सबके सामने पूरी तसवीर तो आती! हो सकता है आगे हम फेसबुक को इस रूप में विकसित कर सकें. लेकिन अभी इसे साहित्य का पब्लिक स्फेयर कहना जल्दबाजी होगी. बजाय फेसबुक के बहुस से ब्लॉग और इ-पत्रिकाओं को हम बेशक साहित्य के सार्वजनिक मंच हिस्सा मान सकते हैं.
फेसबुक की बनावट देखें तो, सबके मित्रों की अलग-अलग टोली है. अपने-अपने पोस्ट हैं. अभी जो कुछ सामने है, उसमें तो यही दिख रहा है कि मूल मुद्दा यानी साहित्य से जुड.ा विचार पीछे छूट जाता है और बहस व्यक्ति केंद्रित हो जाती है. इसमें बजाय विषय की तह में जाने के एक दूसरे को ध्वस्त करने की मंशा ज्यादा दिखती है. अकसर किसी भी बात का जवाब तर्क से नहीं दिया जाता, बल्कि तर्क को हास्यास्पद बना कर मन का गुबार निकालने की मंशा अधिक नजर आती है. दोस्ती-यारी में एक दूसरे की पीठ पर हाथ मार कर, चुटकुला करके, बातचीत करने का रंग दिखायी देता है. कमलेश के बयान पर फेसबुक की पूरी टिप्पणी को देखें, तो उसमें बस एक खीझ या परेशानी दिखती है कि किसी को रजा फांउडेशन से पौने दो लाख का फेलोशिप क्यों मिला? इन विवादों से तह में मौजूद चीजें तो सामने आती हैं, लेकिन यहां साहित्य भी कहीं मौजूद है यह नहीं दिखता.
मैं फेसबुक की बहुत नियमित विजिटर नहीं हूं. लेकिन, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अशीष नंदी के बयान को लेकर हुए विवाद पर मैंने उस वक्त एक पोस्टी लिखी थी. वह एक लेखक के बारे में त्वरित प्रतिक्रिया थी. उसे जो रिस्पांस मिला, वह चाहे जितने भी लोगों का हो, उससे एक फीडबैक वाली फीलिंग तो होती है. लेकिन जो लोग आपकी बात पर लाइक का क्लिककर रहे हैं, वो आपकी बात का र्मम भी जान रहे हैं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है. किसी ने कोईठीक -ठाक कविता पोस्ट की और उसके बदले में किसी और ने कोई चलताऊ शेर जड. दिया, वह असल कोई संवाद नहीं है. अब तो लाइक पर भी चुटकुले बन गये हैं कि मृत्यु के संदेश पर भी लोग-बाग लाइक में क्लिक कर देते हैं. कोई जब फेसबुक पर अपनी कविता, कहानी या उपन्यास का अंश तत्काल डालता है, तो उस पर चार छह लोगों से प्रतिक्रिया मिल जाती है. वह आपसदारी में रचना पर एक फीडबैक और दोस्तों की बधाई ही होती है.
हालांकि फेसबुक पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी आती हैं, लेकिन यहां तात्कालिकता का दबाव इतना ज्यादा होता है कि ज्यादातर समय बहस का रुख बदल जाता है. बात गहराई तक नहीं जाती. बहस व्यक्तिगत आक्षेपों की श्रृंखला में बदल जाती है. किसी बहस में जो गंभीरता होनी चाहिए, ठहर कर सोचने का जो धैर्य होना चाहिए, संदर्भ इकट्ठा करने के लिए जिस तरह का अध्ययन होना चाहिए, वह नजर नहीं आता. अकसर लगता है कि तात्कालिकता के दबाव में एक माध्यम की शक्ति का दुरुपयोग किया जा रहा है. जिस पंक्ति पर बहस होती है, लोग उसके संदर्भ को समझे, पूरे लेख को पढे. बिना ही टिप्पणी करने लगते हैं. फतवे देने लगते हैं. सोशल मीडिया पर फैसला सुनाने की हड.बड.ी दिखाई देती है.
हां भविष्य में फेसबुक के पब्लिक स्फेयर बन जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इसके लिए जरूरी है कि किसी बहस को शुरू करने से पहले मूल लेख को भी जगह दी जाये. उस पर सोच समझ कर तर्क के साथ बात रखी जाये, बजाय टंगड.ी मार कर निकल जाने के.
अगर फेसबुक पर साहित्य के पब्लिक स्फेयर की संभावना की बात है, तो मैं पहले यह देखूंगी कि इसके लिए क्या नया किया जा सकता है. अब तक जितने लोगों ने इस पर जो काम किया है, उसमें कहां क्या कम रह गया है. मेरे ख्याल से किसी के चार-पांच हजार प्रसंशकों के दायरे में फेसबुक पब्लिक स्फेयर नहीं बन सकता.
२- मंगलेश डबराल
अभी मैं एक-डेढ. महीने से ही फेसबुक पर हूं. शायद जल्दी ही उससे बाहर आ जाऊं, क्योंकि उसमें समय बहुत लगता है. फेसबुक पर साहित्य को लेकर काफी सामग्री डाली जा रही है, लेकिन फेसबुक को साहित्य का पब्लिक स्फेयर कहना कठिन है. हालांकि कुछ लोग जरूर इसमें कायदे की बहसें, कला और संस्कृति से जुड.ी कुछ बेहतरीन चीजें लेकर आ रहे हैं. कुछ लोगों ने लिखा कि फेसबुक पर बहुत कविताएं आने लगी हैं. लेकिन, मुझे लगता है कि फेसबुक ज्यादातर लोगों के लिए अपने बारे में सूचनाएं शेयर करने का माध्यम है. यह व्यक्ति की छोटी-छोटी सफलता-विफलता की एक नोटबुक जैसा है. कुछ लोगों ने कहा कि यह उनके लिए अपनी एक पहचान की तरह है. लेकिन तमाम चीजों के बाद भी यह एक स्मिृतिविहीन माध्यम है. इसने ब्लॉग को भी काफी आघात पहुंचाया है. लोग अब ब्लॉग पर कम और फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय दिखते हैं. ब्लॉग लिखना ज्यादा जिम्मेदारी का और गंभीर काम है. वैसी गंभीरता फेसबुक में नहीं आ पायी है. इसमें चीजें जमा होती रहती हैं और दबती जाती हैं. कुल मिलाकर यह एक चौराहे की तरह है, जहां कोईभी बिना जवाबदेही के किसी भी तरह की टिप्पणी कर चला जाता है. लेकिन, इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक कुमार पांडेय और वीरेंद्र यादव जैसे पांच-सात लोग फेसबुक में एक गंभीर सामाजिक, सांस्कृति बहस की जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल, इस समय साहित्य में विचार का बहुत अभाव है. इस अभाव के कारण लोग व्यक्ति केंद्रित हो रहे हैं. इसलिए गंभीर बहस में भी जहां विचार की बात होती है, तुरंत व्यक्ति की बात भी आ जाती है. फेसबुक है भी व्यक्तिपरक माध्यम. ऐसे लोग जिन्हें चीजों की ठीक से जानकारी नहीं है, वे भी आकर टिप्पणी करते हैं. इससे बहस बीच-बीच में भटक जाती है. यहां बहस के भटकने की ज्यादा आशंका है. इसके बावजूद कुछ लोग इस बात को लेकर काफी सचेत हैं कि आज विचार की दुनिया में क्या हो रहा है? किस तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक आक्रमण हम पर हो रहे हैं? फेसबुक पर ऐसे लोग बेहतर भूमिका निप्रभाते दिख रहे हैं. इस बीच निश्चय ही फेसबुक का स्वरूप कुछ बदला है. बहुत सा दुलर्भ संगीत इसमें पोस्ट हुआ है. बहुत सी बहसें आ रही हैं. यह नया माध्यम है और युवा पीढ.ी के बहुत से लोग इसे एक वैचारिक मोड. दे रहे हैं.
लेकिन विस्मृति हर युग का बहुत बड.ा लक्षण है. भूमंडलीकरण की शक्तियों का आग्रह है कि हम भूल जायें. सीआइए को लेकर जो बहस शुरू हुई है, उसमें यह सवाल तो अपनी जगह पर है कि कमलेश जी ने सीआइए के बारे में क्या कहा, लेकिन बड.ा सवाल है कि क्यों आज संसार में सीआइए की भूमिका को विस्मृत किया जा रहा है. सीआइए ने जिस तरह से लोगों का दमन किया, सत्ताएं पलटीं, कठपुतली सरकारें बैठायीं, उसको अनदेखा करने की जानबूझ कर कोशिश हो रही है. कमलेश जी अगर यह कहते हैं कि मानव जाति को सीआइए का ऋणी होना चाहिए, इसका अर्थ है कि सीआइए के अपराध को हम अनदेखा कर दें. यह पूरी बहस इस बात के विरुद्ध है. मैं भी इस बहस में शामिल हुआ हूं, लेकिन किसी व्यक्ति नहीं, बल्कि विचार का विरोध या सर्मथन करने और दबाये जा रहे तथ्यों को सामने रखने के लिए. अमेरिका ने कैसे उस दौर में ब्रेख्त और चैपलिन को तंग किया था. इसके लिए सीआइए ने बाकायदा एक संस्था बनायी थी ‘कमेटी ऑन अनअमेरिकन एक्टिविटीज’. चैपलिन ने तो तंग आकर अमेरिका ही छोड. दिया था. यह सारे तथ्य इतिहास में दबे पडे. हैं, इनको इस समय उभार कर लाना जरूरी इसलिए लगा, ताकि कमलेश जी जैसे जिम्मेदार व्यक्ति के इस गैरजिम्मेदार बयान को वैधता न मिले. कमलेश जी ने एक और बात कही कि कम्युनिस्टों ने ब्राह्मणों के खिलाफ उसी तरह काम किया, जैसा नाजियों ने यहूदियों के खिलाफ किया. इस व्यक्तव्य का अर्थ है कि आप उस इतिहास को ही ठीक से नहीं देख रहे हैं. फिलहाल फेसबुक बहस का आगाज तो कर रहा है, लेकिन उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पा रहा.
३- प्रभात रंजन
फेसबुक को पब्लिक स्फेयर माना जाये या नहीं, लेकिन साहित्य के पब्लिक स्फेयर के रूप में यह जरूर उभरा है. खासतौर पर हिंदी साहित्य की बात करें, तो फेसबुक ने इससे जुडे. लोगों को एक बड.ा मंच दिया है. यह एक ऐसी जगह है जहां वे अपनी रचनाएं साझा कर सकते हैं, वैचारिक बहस कर सकते हैं.
हिंदी साहित्य में अलग-अलग लेखक संगठन और गुट हैं. अब तक वे आपस में ही विचारों को साझा करते रहे हैं. लेकिन फेसुबक में अलग-अलग विचारधारा और संगठन के लोग आपस में संवाद कर सकते हैं. वैचारिकता को लेकर अब तक जो एक आडंबर हमने बना रखा था, वह छटने लगा है. फेसबुक ने हिंदी साहित्य के लिहाज से यह एक बड.ा काम किया है. इसने लेखक को स्वतंत्र स्पेस तो दिया ही है, वैचारिक गुटबंदियों को भी कमजोर किया है.
कमलेश के सीआइए के बयान पर चली बहस में कहीं न कहीं निजी हमले भी हुए, लेकिन बहस का इस तरह निजी होना भी उसे एक वैचारिक आयाम देता है. सीआइए ही नहीं, मेरा मानना कि केजीबी को लेकर भी बात होनी चाहिए. यह बहस भी इस ओर जाती दिखी. हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि फेसबुक साहित्यिक जमीन मजबूत कर रहा है. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह खोई हुई जमीन को हासिल करने का काम कर रहा है.
यह बहस अथपूर्ण है या नहीं, लेकिन महत्वपूर्ण तो है ही. महत्वपूर्ण इसलिए, क्योंकि फेसबुक ने यह मौका दिया है कि मैं किसी वरिष्ठ लेखक से भी सीधे बात कर सकता हूं. किसी मुद्दे पर सहमति-असहमति जता सकता हूं. हां ऐसे लोग आपस में बहस कर सकते हैं, जो पहले संवाद की स्थिति में नहीं थे. ठीक है कि इसमें कटुता या निजता भी आ जाती है, लेकिन इसने निकटता भी बढ.ायी है. हां अभी लोग इसे बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. शायद इसलिए, क्योंकि फेसबुक पर चली ज्यादातर साहित्यिक बहसें व्यक्ति केंद्रित रही हैं. उदय प्रकाश के पुरस्कार मामले में लंबी बहस हुई,लेकिन उनकी कहानियों पर कोईबात नहीं हुई. कमलेश के बयान पर इतना हंगामा हुआ, लेकिन उनके कवित्व को लेकर कोई बात नहीं हुई. लेकिन यह शुरुआती स्थिति है और अभी निर्णय पर जाना ठीक नहीं. आने वाले समय में जरूर इसे एक सार्थक दिशा मिलेगी.
भाषा को लेकर ओम थानवी और आशुतोष के बीच चले संवाद को हम दो व्यक्तियों की लड.ाई कह सकते हैं, लेकिन दो अक्षर ‘च’ और ‘ज’ को लेकर चली इतनी बड.ी बहस असल में भाषा के प्रति सजगता भी तो है.
हिंदी साहित्य में इस समय सबसे बड.ा संकट किताबों और पत्रिकाओं की उपलब्धता का है. सवाल हैकि जो लोग सीतामढ.ी, मुज्जफरपुर, सतना जैसी जगहों में रहते हैं, वे कैसे किताबों और पत्रिकाओं तक पहुंचें? कनेक्टिविटी की इस कमी को फेसबुक और ब्लॉग ने दूर किया है. अनेक नये लोगों को इस माध्यम ने पहचान देने का काम किया है. कई लेखक फेसबुक और ब्लॉग पर पहले प्रकट हुए और बाद में उन्हें पत्र-पत्रिकाओं ने छापा. अपर्णा मनोज, लीना मल्होत्रा जैसी लेखिकाएं इसी माध्यम से आयीं.
प्रचार माध्यम के रूप में भी फेसबुक का साहित्यिक इस्तेमाल हो रहा है. किसी पत्रिका में कौन सी रचना छपी है, इसकी जानकारी फेसबुक से मिल जाती है. कौन क्या लिख रहा है, यह पता चल जाता है. वैसे इसको पब्लिक स्फेयर से ज्यादा प्रचार माध्यम के रूप में हिंदीवालों ने अपनाया है.
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