23 June 2013

मन के अंदर एक कारखाना होता है, जहां रचना की बुनाई चलती रहती है : इब्बार रब्बी

वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी की कविताओं में जिंदगी के यथार्थ में शामिल वे चीजें हैं, जिनके आस-पास से हम रोज गुजरते हैं, लेकिन उनके होने को ठहर कर नहीं देखते. बिजली का खंभा हो, रेल की पटरी या दिल्ली की बस या फिर घर में रखी मेज, ऐसी अनगिनत चीजें उनकी कविताओं में जीवंत एहसास के साथ जगह पाती हैं. पिछले दिनों प्रीति सिंह परिहार ने इब्बार रब्बी से लम्बी बातचीत कॆ. उस साक्षात्कार को यहाँ इब्बार रब्बी के आत्मवक्तव्य में ढाला गया है… 

फोटो : राजेश कुमार 


बचपन से किताबें पढ़ने में मेरी गहरी रुचि थी. पढ़ने का जुनून मुझ पर इस कदर हावी था कि मैं बच्चों की कहानियां ही नहीं, रामायण, महाभारत सबकुछ बिना समझे पढ़ जाता था. उन्हीं दिनों मैंने दो किताबें पढ़ीं, ‘प्रतिनिधि कहानियां’ और ‘21 कहानियां.’ बहुत छोटा था इसलिए अज्ञेय, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र, उपेंद्रनाथ अश्क और अन्य लेखकों की कहानियां ज्यादा समझ नहीं आयीं. लेकिन प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ ने मुझे गहराई से प्रभावित किया. मैंने सोचा मैं भी ऐसी कहानियां लिखूंगा. इसके बाद मैंने कहानियां लिखने की कोशिश भी की, जो बहुत ही बचकानी किस्म की थीं. 

मेरे माता-पिता बहुत पहले गुजर चुके थे. उनकी कोई खास स्मृति मेरे जेहन में नहीं थी. मैं अपने नाना के यहां रहता था. मैं जब 15-16 साल का था, मेरे नाना की मृत्यु हो गयी. पहली बार समझ में आया कि मृत्यु क्या होती है. मैंने तब उन पर एक कविता लिखी. वो शायद मेरी पहली कविता कही जा सकती है. 
दिल्ली आने से पहले करीब एक दशक तक कुछ भी नहीं लिखा. पहले का लिखा पीछे छूट गया. दिल्ली आकर फिर नये सिरे से श्ुारुआत हुई. 10 अगस्त 1975 की रात एक रात मैंने बहुत सारी कविताएं एक साथ लिखीं. ‘घड़ी का एक गीत’,‘मेज का गीत’, ‘अखबार की नौकरी 10 वर्ष’,‘बच्चा घड़ी बनाता है’,‘गुलाब’ आदि कविताएं उस रात लिखीं. उस वक्त आपातकाल लगा था. उस पर भी कविता  लिखी. लिखता गया. 
मैंने ज्यादातर ऐसी चीजों पर कविता लिखी, जो कविता के विषय नहीं थे, जिन्हें कभी छुआ नहीं गया था. ‘अरहर की दाल’ इसी तरह की कविता है. 

नागार्जुन के उपन्यासों में हर प्रकार के आम और मछलियों के स्वाद का वर्णन आता है . ऐसा वर्णन पहले किसी ने नहीं किया था. इसी तरह रेणु के ‘मैला आंचल’ से पहले किसी भी लेखक ने हवा ,पेड़ों, पंछियों और गांव की बोली का इतना कलात्मक उपयोग नहीं किया था. उन्होंने ध्वनियों, आवाजों आदि को पकड़ा. मुझे यह सब चीजें बहुत हॉन्ट करती हैं. ऐसी अनेक चीजों से मेरी कविता भी बनती रही है. हालांकि रचनाकार को पता नहीं होता कि कौन सी चीज क्या असर छोड़ेÞगी या कैसे कविता हो जायेगी. मैं वैसे भी आवेश वाला कवि हूं. आवेश पल भर में आता और चला जाता है. ऐसा ही कुछ मेरी रचना के साथ होता है. मैंने अकसर अनुभवों को नोट करने की कोशिश की, नहीं तो वे स्मृति से चले जाते हैं. अनुभव के किसी हजारवें हिस्से से शायद कोई कविता बनती है. जरूरी नहीं कि तब भी कविता हो ही जाये. 

मैंने आदिवासी इलाकों में जाकर काम किया. महीनों उनके बीच रहा. वहां के  दुर्लभ अनुभवों से मेरी डायरियां भरी पड़ी हैं. लेकिन उनका अभी तक कोई लेखकीय उपयोग नहीं हुआ. इन जगहों में असल में मैं जीवन, कला और कविता की खोज में गया था. कुछ चीजें कविताओं में आयीं भी. दिल्ली या भोपाल में बैठ कर आदिवासियों के जीवन पर कविता नहीं लिखी जा सकती. उनके साथ रहना, देखना और फिर लिखना एक तरह से उनके जीवन का दस्तावेजीकरण है. 

मन के अंदर एक कारखाना होता है, जहां रचना की बुनाई चलती रहती है. वह बुनाई जब पूरी हो जाती है, तब कपड़ा बाहर आता है. यह समाधि लगाने या स्वयं से बात करने जैसा कुछ है. मेरे साथ ही नहीं, शायद औरों के साथ भी ऐसा होता होगा. 
कविता कभी नष्ट नहीं होती, जैसे ध्वनि और विचार नष्ट नहीं होते. हर चीज नये सिरे से लौट कर पुन: आती रहती है. मैंने जब लिखना शुरू किया था, तब कहा जाता था कि कविता मर गयी है. लेकिन! नागार्जुन, त्रिलोचन और शमशेर तब महान कविता लिख रहे थे. आज भी कविता लिखी जा रही है और खूब लिखी जा रही है. 

रचनाकार को अपनी वही रचना प्रिय होती है, जो प्रकाशित नहीं होती. मुझे मेरी  ‘दिल्लीनामा’और हाल में लिखी गयी ‘भिखारियों का गीत’ कविता अच्छी लगती है. ये दोनों किसी संग्रह में नहीं हैं. ‘लोग बाग’ संग्रह की तारीफ हुई, पर वह मुझे बहुत कमजोर लगा. पहला संग्रह ‘घोषणा-पत्र’ मन के ज्यादा करीब लगा. खुद तय करना मुश्किल है. 

मैंने कभी पुरस्कारों को अहमियत नहीं दी. सार्त्र ने कहा भी था नोबेल पुरस्कार के लिए कि ‘यह आलू का बोरा है.’ मेरे मन में कभी पद या प्रतिष्ठा की लालसा नहीं रही. नौकरी के दौरान कई बार मेरे सामने पदोन्नति के मौके आये. लेकिन, मैंने आगे बढ़ कर उन्हें पाने की कोशिश नहीं की. नतीजतन मुझसे कनिष्ठों को मुझसे बड़े पद मिल गये. लेकिन कभी मेरे मन में इस बात को लेकर कुंठा या क्रोध नहीं उपजा. मार्क्सवाद और कविता ने मुझे शायद तनाव से बचाया. वैसे भी जीवन के अंतिम क्षणों में पुरस्कार मिले, तो उसका क्या लाभ. लेकिन कोई लेखक बीमार है और पुरस्कार या सम्मान में उसे कुछ लाख की राशि मिलती है, तो वह इलाज में काम आ सकती है. यही पुरस्कार की उपयोगिता है. हमारे यहां तो अंतिम समय में पुरस्कार दिये जाते हैं. पूरा जीवन अभाव में कट जाने के बाद अंत में पुरस्कार मिले, तो क्या लाभ! कई बार लेखक के पास रोटी खाने के भी पैसे नहीं होते. दुनिया से जाने के बाद किसी ने उसे याद भी किया, तो इससे लेखक को क्या हासिल होगा!

यात्राएं मुझे पसंद हैं. ऐसे ही सड़कों और गलियों में घूमना, खंडहरों और एतिहासिक स्थलों को खोजना अच्छा लगता है. लेकिन अब स्वास्थ्य कारणों से कहीं जा नहीं सकता. पढ़ने का तो शौक है ही. विषयों की रुचि का कहीं अंत ही नहीं है. इस समय पढ़ रहा हूं कि समुद्र के रास्ते कैसे योरोप वालों ने दुनिया को खोजा. अब किताबें नहीं खरीद पाता. आर्थिक स्थति ऐसी नहीं रही. पुस्तकालय भी नहीं जा सकता, क्योंकि आने-जाने का साधन नहीं है. इसलिए बहुत पहले खरीदी गयी ऐसी किताबें पढ़ रहा हूं, जो समय की कमी के कारण पढ़ नहीं सका था. हाल ही में चालीस साल पहले खरीदी गयी भगत सिंह की जीवनी पढ़ी, जो उनकी  भतीजी ने लिखी है. नेपोलियन की जीवनी पढ़ी. पढ़ते हुए समय कट जाता है और मुझे कभी किसी तरह की निराशा नहीं घेरती. मेरा तनाव किताबों में विलीन हो जाता है. जानकारियां भी बढ़ती हैं. जैसे कि हंगरी के मूल निवासी और हमारे बीच घनिष्ठ संबंध हैं. इन दिनों मैं ‘सोशल हिस्ट्री आॅफ इंग्लैंड’ पढ़ रहा हूं, जो मैंने एमए के दौरान खरीदी थी. हमारे यहां भगवतशरण उपाध्याय और वासुदेव शरण अग्रवाल ऐसा काम कर चुके हैं. मेरी इच्छा है कि ‘कबीर के समय का भारत’ नाम से ऐसी ही एक किताब लिखूं. पता नहीं लिख पाता हूं या नहीं, क्योंकि कवि अकसर बोलते बहुत हैं और लिखते कम हैं. 

मुझे विष्णु खरे, वीरेन डंगवाल की कविताएं पसंद हैं. उदय प्रकाश का कविता संग्रह ‘रात में हारमोनियम’ खासतौर पर. कहानियां तो उनकी अद्भुत हैं ही. हिंदी में अभी उनके जैसा कहानीकार कोई और नहीं दिखता. कभी शताब्दियों में ऐसे लेखक जन्म लेते हैं. इसी तरह विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास और कविताएं दोनों चकित करते हैं, जैसे फेलिनि की फिल्में चकित कर देती हैं. विनोद कुमार शुक्ल की भाषा का भी कोई मुकाबला नहीं है. वह कल्पना की सीमाएं तोड़ देते हैं. नये लोगों में निर्मला पुतुल की कविताएं प्रभावित करती हैं. व्योमेश शुक्ल, अष्टभुजा शुक्ल, बद्रीनारायण भी अच्छा लिख रहे हैं.
बातचीत : प्रीति सिंह परिहार

No comments:

Post a Comment