8 April 2013

"लिखना एक तरह से कैद में चले जाना है" : चिनुआ अचेबे


अफ्रीकी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले चिनुआ अचेबे, जिनका निधन पिछले महीने २१ मार्च को हो गया, ने लेखन को हमेशा एक तरह का रचनातमक  एक्टिविज्म माना. उनका लेखन महज एक लेखक की रचना यात्रा नहीं बल्कि अफ्रीकी महादेश की पीड़ा की भी यात्रा है. उनके लेखन और  संघर्ष को यह साक्षात्कार (जिसे यहाँ आत्म वक्तव्य की शक्ल में ढाला गया है) काफी गहराई से सामने लाता है...आपके लिए इस आत्म वक्तव्य का दूसरा और आख़िरी हिस्सा. यहाँ उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में महत्वपूर्ण बातें कही हैं. : अखरावट




सृजन की प्रक्रिया हर रचना के लिए एक समान नहीं होती. मुझे लगता है कि सबसे पहले एक सामान्य विचार आता है, उसके ठीक बाद अहम किरदार आते हैं. हम लोगों सामान्य विचारों के समुद्र के बीच में रहते हैं, इसलिए यह अपने आप में उपन्यास नहीं है, क्योंकि सामान्य विचार अनगिनत संख्या में हैं. लेकिन जिस क्षण एक खास विचार एक किरदार से जुड़ जाता है, यह कुछ ऐसा होता है, जैसे कोई इंजन चल पड़े. तब एक उपन्यास बनने लगता है. यह खासकर उन उपन्यासों के संदर्भ में सही बैठता है, जिसमें विशिष्ट और कद्दावर चरित्र होते हैं, जैसे देवता के बाण में एजुलू. ऐसे उपन्यासों में जिसमें किरदार का व्यक्तित्व उस तरह का सब पर छा जानेवाला नहीं होता है, जैसे नो लॉन्गर एट ईज, मुझे लगता है कि एक सामान्य विचार कम से कम शुरुआती अवस्था में ज्यादा अहम होता है. लेकिन जब यह शुरुआती अवस्था बीत जाती है, सामान्य विचार और चरित्र में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता है. दोनों अहम हो जाते हैं. 

जैसे कोई उपन्यास आगे बढ़ता है, मैं प्लॉट या थीम के बारे में ज्यादा चिंता नहीं करता हूं. सारी चीजें खुद ब खुद आती हैं, क्योंकि तब किरदार कहानी को अपने हिसाब से मोड़ रहे होते हैं. एक बिंदु पर आकर लगता है कि जैसे आपका घटनाओं पर उस तरह का नियंत्रण नहीं है, जैसा आपने सोचा था. कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें वहां होना ही चाहिए, नहीं तो कहानी अधूरी लगेगी. और ऐसी चीजें खुद ब खुद आ जाती हैं. जब ऐसा नहीं होता है, तब आप मुश्किल में होते हैं और उपन्यास रुक जाता है. 

मेरे लिए लिखना एक कठिन काम है. कठिन शब्द इसे बताने के लिए काफी नहीं है. यह एक तरह से एक कुश्ती की तरह है. आपको विचारों और कहानी के साथ कुश्ती लड़नी होती है. इसके लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है. लेकिन इसी क्षण यह काफी रोचक भी है. इसलिए लिखना एक साथ कठिन और आसान दोनों है. आपको यह स्वीकार करना होता है कि जब आप लिख रहे होते हैं, तब आपकी जिंदगी पहले वाली नहीं रह जाती. मेरे लिए लिखना एक तरह से कैद में चले जाना है. फिर चाहे कितना भी वक्त लगे आप इस कैद से बाहर नहीं आ सकते. इसलिए यह एक साथ कठिन और उल्लास देनेवाला, दोनों है. 

मैंने महसूस किया है कि मैं सबसे अच्छा तब लिखता हूं, जब मैं नाइजीरिया में अपने घर में होता हूं. लेकिन आदमी  दूसरी जगहों पर भी रह कर काम करना सीखता है. जिस परिवेश के बारे में मैं लिख रहा हूं, लिखने के लिहाज से वह परिवेश मेरे लिए सहज होता है. दिन का वक्त खास मायने नहीं रखता. मैं सुबह जागनेवाला व्यक्ति नहीं हूं. मुझे बिस्तर से बाहर निकलना अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं पांच बजे जगकर लिखना नहीं शुरू करता, हालांकि मैंने सुना है कि कई लोग ऐसा करते हैं. मैं अपने दिन की शुरुआत के बाद लिखना शुरू करता हूं और रात गये तक लिख सकता हूं. लिखने का अनुशासन मेरे लिए यह है कि मुझे किसी भी सूरत में काम करना है. इससे फर्क  नहीं पड़ता कि मैं कितना लिख पा रहा हूं. 

मैं पेन से ही लिखता हूं. कागज पर पेन मेरे लिए सबसे मुफीद तरीका है. मैं मशीनों के साथ सहज नहीं हो पाता. जब भी मैं टाइपराइटर पर कुछ काम करना चाहता हूं, मुझे लगता कि यह मेरे और मेरे शब्दों के बीच आ रहा है. जो बाहर निकलता है, वह वैसा नहीं होता है, जो बेफिक्र होकर लिखते हुए आता. इस मामले में मैं शायद पूर्व औद्योगिक व्यक्ति हूं. 

जहां तक लेखक का सार्वजनिक बहसों में खुद को शामिल करने का सवाल है, मुझे लगता है कि इसके लिए कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता. लेकिन मुझे लगता है कि लेखक सिर्फ लेखक नहीं होता. वह एक नागरिक भी होता है. मेरा हमेशा से मानना रहा है कि गंभीर और अच्छे साहित्य का अस्तित्व हमेशा से मानवता की मदद उसकी सेवा करने के लिए रहा है. न कि उसे सवालों के घेरे में लाने या उस पर दोषारोपण करने के लिए. कोई कला कैसे कला कही जा सकती है, अगर इसका मकसद मानवता को हताश करना हो. हां, यह मानवता को असहज कर सकता है. यह मानवता के खिलाफ नहीं हो सकता. यही कारण है कि मैं नस्लवाद को असहनीय मानता हूं. कुछ लोगों को लगता है कि मेरे कहने का मतलब  यह है कि अपने लोगों की प्रशंसा करनी चाहिए. भगवान के लिए जाइये और मेरी किताबें पढ़िये. मैं अपने लोगों की प्रशंसा नहीं करता. मैं उनका सबसे बड़ा आलोचक हूं. कुछ लोगों को लगता है कि मेरा छोटा सा पर्चा- द ट्रॉबल विद  नाइजीरिया, थोड़ा अतिवादी था. मैं अपने लेखन के कारण हर तरह की समस्या में पड़ता रहा हूं. कला को हमेशा मानवता के पक्ष में होना चाहिए. 
समाप्त .

पेरिस रिव्यू में छपे एक पुराने साक्षात्कार के आधार पर तैयार 


2 comments:

  1. अवनीश बहुत अच्छा लिखा है। जानकारी और प्रेरणा पूर्ण।

    ReplyDelete
  2. शुक्रिया अनीता जी...

    ReplyDelete