7 September 2009

"फाइव पॉइंट समवन " के लेखक की तीन इडिऔटिक बातें





आप का  नाम चेतन भगत है.आप  ने अपनी पढाई , भारत के सबसे प्रतिष्ठित इंजिनीअरिंग और प्रबंधन  संस्थानों  ,क्रमशः- आई आई टी और आई आई एम्  से की है.. आप आज भारत के सबसे ज्यादा बिकने  वाले लेखक हैं..आपकी किताबें बेस्ट सेलर हैं ,आप सेलेब्रिटी हैं..आप के उपन्यास " वन नाईट @ काल सेंटर " पर पहले ही " हेलो " नाम की फिल्म बन चुकी है .".फाइव पॉइंट समवन" पर आमिर को लेकर " थ्री ईडिअट्स"  नाम की फिल्म भी बन रही है.. 

लगता है तीन इडिऔटिक बात करने की प्रेरणा शायद चेतन भगत को यही से  मिली ..अगर ऐसी प्रेरणा वे आई आई टी और आई आई एम् से लाना भूल गए हों तो ....,,क्यूकि अपने इडिऔटिक उपन्यासों के लिए तो प्रेरणा वे इन जगहों से लेते ही रहे हैं.खैर फिलहाल उनके किताबों पर कुछ नहीं लिखूंगा.. फिलहाल कल चेतन ने  टाइम्स ऑफ इंडिया में जो बातें कही हैं उसके इडियोसिटी  पर कुछ कहना चाहता हूँ .
चेतन के अनुसार वे एकता कपूर और करण जौहर से इस बिना पर बेहतर हैं..कि  वे अंग्रेजी में लिखते हैं..या कहें उनकी भाषा अंगेरजी होना ही  उन्हें हिंदी  धारावाहिक  और फिल्मे बनाने वाली  एकता कपूर ,और करन जौहर से बेहतर  बनाता है..दूसरी मजेदार बात जो चेतन ने कही, कि चूकि उनकी भाषा अंग्रेजी है..,इसलिए यह अपने आप में सिद्ध है कि उनका लेखन प्रोग्रेसिव है..और हिंदी पिछडों की भाषा है..तीसरी और खुद चेतन की चेतना और समझदारी  के स्तर को बताने  वाली उनकी उक्ति पर तो अंग्रेजी को प्रगतिशील मानने वाले सारे लोग भी सर पीट ले ,वो दिलचस्प उक्ति इस प्रकार है..सेक्स्पीअर भीड़ के लिए लिखने वाले  साहित्यकार थे..और चुकी चेतन  भी भीड़ के लिए, यानी  मास  के  लिए लिखते हैं इसलिए वे भी सेक्स्पीअर के साथ गिने जाने लायक हैं  ...हाई रे चेतन की चेतना और हाई रे उनको पढने वाले.!!.चेतन उस कुंठित मास के लिए लिख रहे हैं जो अपने ना पढ पाने की कुंठा को उनके जैसे  हलके लेखक को पढ कर शांत करते हैं..चेतन सफल व्यक्ति हैं..उनकी उपलब्धियां शानदार है.लेकिन इतना होने से कोई लेखक नहीं हो सकता..चेतन बाजार के लेखक हैं..और उनको पढने वाले वे हैं जो सब कुछ खरीद  लेना  चाहते हैं..साहित्य  पढने के संतोष को भी ..चेतन कन्जूमर  के लिए लिखते हैं,पाठक के लिए नहीं..मार्केटिंग का ज्ञान उनके इस लेखन रणनीति में काम आ रहा है...उन्हें जो लिखना है लिखें..जिनको उनको पढना है पढें..लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे चेतन इस तरह के इडिऔटिक  उक्तियों को उचारने से परहेज करेंगे  

3 September 2009

जब मिस्टर पीरजादा रात के खाने पर आये :..साझा इतिहास,साझी स्मृति , साझी यंत्रणा












मैंने कहा था कि मैं जल्द ही झुम्पा लाहिरी के कहानी संग्रह interpreter maladies में संकलित कहानी " जब मिस्टर पीरजादा  रात के खाने पर आये" पर आगे   कुछ लिखूंगा ..शायद नहीं लिख पाता..लेकिन कल एक पत्रिका  में युवा पाकिस्तानी  उपन्यासकार अली सेठी के दिल्ली प्रवास के संस्मरण  को पढ़ा तब  अचानक लगा कि  हम भारतीय उपमहाद्वीप  के निवासी किस तरह एक समान इतिहास की कड़ी में बंधे हुए हैं और हम कितना भी  चाहें इस साझे इतिहास से मुंह नहीं मोड़ सकते. भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश, आज अलग-अलग देश भले हों लेकिन इन तीनो मुल्कों का इतिहास  ही नहीं भूगोल भी  समान है. हम साझे इतिहास,साझे भूगोल,साझी स्मृति और साझी यंत्रणा से बंधे हुए हैं.बिजली के झालर पर अलग अलग लटके लेकिन एक ही साथ रौशनी बिखेरते..एक ही स्रोत से जलने के लिए शक्ति लेते..शायद इतिहास के डाकखाने में हमारा पता अभी भी साझा ही है ..चिट्ठियाँ आती एक ही घर में हैं, बस अलग-अलग दरवाजों के भीतर सरका दी जाती हैं. 
                 विभाजन के बाद का भारतीय इतिहास कुछ समझदार लोगों द्वारा तय किये गए सरहदों के भीतर अपने आपको फिट करने की कोशिश है..लेकिन इतिहास रह रह कर इस अप्राकृतिक सांचे से बाहर निकलता रहता है..हमको चिढाने के लिए नहीं हमको खुद अपने आप से रू ब रू कराने के लिए..मुझे धक्का लगा था ,जब मैंने पहली बार ये पढ़ा था कि हड़प्पा भारत में नहीं पाकिस्तान में है,जब मैंने ये पढ़ा था कि ऋग्वेद भारत में नहीं पाकिस्तान में कही लिखा गया था..यकीनन ऐसे ही कई धक्के पाकिस्तानी और बांगलादेशी नागरिकों को लगते होंगे..और चूकि इतिहास को पोंछ कर साफ़ नहीं किया जा सकता,और इन तीन देशों का इतिहास आपस में बेतरह गुथा हुआ है ,इसलिए स्मृति की मार से बचने का कोई रास्ता हम में से किसी के पास मौजूद नहीं है..खैर..अब बात मिस्टर पीरजादा की 
                   जब मिस्टर पीरजादा रात के खाने पर आये एक  ऐसी कहानी है जो हमें हमारे सामूहिक इतिहास की ओर ले जाती है. सन 1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांगलादेश) में हुआ गृह युद्ध, जो आगे चल कर मुक्ति संग्राम में बदल गया ,इतिहास के उन निर्मम दौरों में से एक  है जब सत्ता ने  अपने आपको बचाने के लिए राक्षसी  निर्ममता को अपना अस्त्र बनाने ,  इंसानियत की तमाम कसौटियों को रौंद डालने, से भी परहेज नहीं किया ..यह कहानी समय के इसी  दौर में अमेरिका  में रह रहे   एक भारतीय परिवार के  एक बांगलादेशी नागरिक की यंत्रणाओं को साझा करने की कहानी है.. कहानी की नैरेटर एक दस साल की लड़की है .वह  यह समझ नहीं पाती कि आखिर मिस्टर पीरजादा और उसके माता पिता में ऐसा क्या फर्क है कि वे दो अलग अलग देशों के नागरिक हैं.? .. उसकी मा उसे बताती है कि मिस्टर पीरजादा अब भारतीय नहीं समझे जाते ,कि देश का 1947 में विभाजन हो गया था,तब से नहीं ..लडकी  सोचती है'' एक ही जबान बोलने वाले,एक ही चुटकुले पर हंसने वाले,एक ही तरह दिखने वाले,आम का अंचार का शौख रखने वाले ,हाथ से खाना खाने वाले,घर में घुसने से पहले जूते बाहर कर लेने वाले ,शराब ना पीने वाले ,ये लोग आखिर किस विधान से अलग -अलग हैं"? कुछ लोगों द्बारा  मानचित्र पर जमीन के एक हिस्से का  रंग पीला और एक का नारंगी भर कर देने से दो देश अलग हो जाते हैं?सामान संस्कृति ,सामान भाषा और ऐसे सैकडों  समानताओं के होते हुए भी क्या सिर्फ धर्म के अलग होने से? लेकिन अगर धर्म ही जोड़ता है और धर्म ही अलग करता है , तो बांगलादेश में गृहयुद्ध होता ही क्यों?क्या ये सच नहीं है कि सत्ता सब कुछ को निगल लेती है ..मजहब को भी..
       .मुक्ति संग्राम के दौरान जब ढाका और अन्य जगहों पर पाकिस्तानी सेना की वहशियत, खून की नदिया बहा रही थी,लूट-पाट कर रही थी , औरतों का बलात्कार कर रही थी, तब अपने परिवार की चिंता में डूबे मिस्टर पीरजादा के साथ लड़की  के माँ बाप क्यों उसी तरह चिंतित थे? कहानी के हवाले से कहू तो क्यों "उस वक्त तीनो, एक आदमी की तरह,एक शरीर की तरह व्यवहार कर रहे थे..एक ही खाने को,एक ही भय,एक ही चुप्पी को साझा करते हुए?"  क्या सिर्फ इस कारण नहीं कि वे एक थे ..बहुत सारे मामले में..
    यही एकता,साझापन हमारा इतिहास है ,जिसे सत्ता के उन्माद में कभी पंजाब में कुचलने की कोशिश की गई,कभी बंगाल में ..लेकिन जो तमाम ऐसे कोशिशों के बावजूद जिंदा है और हम सब के भीतर से झांकता है.  



जे एन यू के पोस्टर और वाल पेंटिंग्स : रचनात्मक राजनीति की मिसाल








जे एन यू छात्र  राजनीति की  ट्रेडमार्क मानी जाती हैं वहाँ की पोस्टरें और वाल पेंटिंग्स ..वाम दलों से सम्बद्ध पार्टियां ही नहीं बल्की एनएसयूआई और एबीवीपी जैसी पार्टियां भी इसका पूरा सहारा लेती हैं..यह राजनीति को रचनात्मक बनाता है,,एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का माहौल वहाँ के दीवारों पर बनाए गए पोस्टरों  में  देखा जा सकता है .. .कुछ पोस्टर तो इतने कलात्मक होते हैं कि आप इनको राजनीतिक सन्देश के लिए नहीं सिर्फ इनकी कलात्मकता के कारण निहार सकते हैं..  मैंने अपने एक दोस्त से वहाँ की तस्वीरें भेजने के लिए कहा..तस्वीरें ज्यादा तो नहीं आ पायी, लेकिन पोस्टरों की रचनात्मकता की .ओर वे जरूर थोडा इशारा करती हैं..कोशिश करूंगा कि जे एन यू की दीवारों पर लगे पोस्टरों और वाल पेंटिंग्स आगे कभी अच्छी तरह समेट कर आपके सामने हाजिर करू..फिलहाल ये थोड़े से फोटो.. 

2 September 2009

छात्र संघ चुनाव :.डी यू चला जे एन यू की राह!!









मुझे याद है ,वो 1998 का अगस्त का महीना ...दिल्ली विश्वविद्यालय पूरी तरह चुनाव के रंग में रंग चुका था..हवाओं में कुछ ऐसा था कि वह पहचानी हुई -सी नहीं लगती थी..हवा के हर कण पर जैसे बैलेट नंबर , पार्टियों के नाम ,उम्मीदवारों के नाम आकर अटक  गए थे और हमारे चारों तरफ डोल रहे थे..हवा में पर्चे  उड़ते ..और जोर का शोर गूंजता--" बैलेट नंबर क्या है 5 है 5 है.."...."आई आई एन एस यू आई....... ".हॉस्टल में रहने वाले हम जैसे छात्रों  के लिए तो चुनाव प्रचार असल में शाम के 7 बजे से शुरू होता और आधी रात तक चलता रहता..कभी कभी  पूरी रात तक भी .एक याद जो हमेशा जेहन में ताजा रह गई वह है किसी दल के  कैंडीडेट की दी हुई कोल्ड ड्रिंक की पार्टी..यह इस तरह की मेरी पहली पार्टी,या कहें मुफ्तखोरी  थी .बाद में पता चला कि ये पुराना दस्तूर था..कोल्ड ड्रिंक ही क्या, वे शराब और कबाब  से भी खिदमत करने को तैयार रहते ... खुद अपनी,और अपने गुर्गों की  खिदमत तो  वे ऐसे करते ही थे..दस -बारह दिनों तक काफी गहमा-गहमी रहती..पर्चे.. पैम्फलेट  ..बैनर ,टी- शर्ट ,डायरी ,और भी बहुत सारे चीजें बांटी जातीं ..लड़कों के लिए कैंटीन फ्री कर दिया जाता..जितना खाना है खाओ,मजे करो..लेकिन वोट दे दो.." नोट लो और वोट दो" का खेल भी चलता ..वैसे लड़के अमूमन ऐसे candidate को वोट नहीं देते..कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में चुनावों में गन-तंत्र चलता है  और डी यू में धन-तंत्र ...बात सोलह आने सच हो या ना हो ,आठ आने तो सही है ही.. यहाँ पूरे आठ आने डी यू के ही.(यू-पी वाले 8 आने  का फैसला मैं नहीं करना चाहता..).खूब पैसा.. खूब -खूब पैसा खर्च किया जाता..
       चुनावों के दौरान होता तो बहुत कुछ लेकिन यहाँ सब कुछ बता पाना संभव नहीं..कई साल हो गए डूसू चुनावों के समय विश्वविद्यालय नहीं गया था..इस बार जा रहा हु..फिजा काफी बदली बदली है.. पोस्टर गायब हैं ,डायरियां नहीं बँट रही, टी शर्ट पहन कर बस स्टाप पर आपसे वोट नहीं मांगे जा रहे.शराब और कबाब  का दौर , चल रहा   है या नहीं..ये फिलहाल पता  लगाने  का कोई साधन नहीं..क्यूकि मैं बाहर बाहर से ही सब कुछ देख रहा हूँ, एक outsider की तरह    ..हाँ बाहर से जो देख रहा हु..वो  अभी भले थोडा कम चमकीला..फीका फीका लगे ..लेकिन यह एक सुखद परिवर्तन है..हाथ से लिखे पोस्टर दीवारों पर टंगे हैं..भले ही कम मात्रा   में..जे एन यू जैसा पोस्टर कल्चर यहाँ विकसित होते होते जरूर बहुत समय लगेगा..लेकिन मजबूरन ही इस बार इसकी शुरुआत हो गयी है..शुरुआत नहीं होती अगर कुछ उम्मीदवारों की उम्मीदवारी रद्द नहीं की जाती .... वैसे अभी भी डीयू की "वाल ऑफ डेमोक्रेसी" खाली है..और वहाँ जे एन यू  मार्का पोस्टरबाजी नहीं दिख रही है..जिसे मैं राजनीतिक चेतना की कलात्मक अभिव्यक्ति मानता हूँ..हाँ ऐसा जरूर लग रहा है कि  मौहाल बदलेगा..डीयू  में भी राजनीति ,जल्दी ही रचनात्मक और कलात्मक मोड़ लेगी .. 


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