मैंने कहा था कि मैं जल्द ही झुम्पा लाहिरी के कहानी संग्रह interpreter maladies में संकलित कहानी " जब मिस्टर पीरजादा रात के खाने पर आये" पर आगे कुछ लिखूंगा ..शायद नहीं लिख पाता..लेकिन कल एक पत्रिका में युवा पाकिस्तानी उपन्यासकार अली सेठी के दिल्ली प्रवास के संस्मरण को पढ़ा तब अचानक लगा कि हम भारतीय उपमहाद्वीप के निवासी किस तरह एक समान इतिहास की कड़ी में बंधे हुए हैं और हम कितना भी चाहें इस साझे इतिहास से मुंह नहीं मोड़ सकते. भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश, आज अलग-अलग देश भले हों लेकिन इन तीनो मुल्कों का इतिहास ही नहीं भूगोल भी समान है. हम साझे इतिहास,साझे भूगोल,साझी स्मृति और साझी यंत्रणा से बंधे हुए हैं.बिजली के झालर पर अलग अलग लटके लेकिन एक ही साथ रौशनी बिखेरते..एक ही स्रोत से जलने के लिए शक्ति लेते..शायद इतिहास के डाकखाने में हमारा पता अभी भी साझा ही है ..चिट्ठियाँ आती एक ही घर में हैं, बस अलग-अलग दरवाजों के भीतर सरका दी जाती हैं.
विभाजन के बाद का भारतीय इतिहास कुछ समझदार लोगों द्वारा तय किये गए सरहदों के भीतर अपने आपको फिट करने की कोशिश है..लेकिन इतिहास रह रह कर इस अप्राकृतिक सांचे से बाहर निकलता रहता है..हमको चिढाने के लिए नहीं हमको खुद अपने आप से रू ब रू कराने के लिए..मुझे धक्का लगा था ,जब मैंने पहली बार ये पढ़ा था कि हड़प्पा भारत में नहीं पाकिस्तान में है,जब मैंने ये पढ़ा था कि ऋग्वेद भारत में नहीं पाकिस्तान में कही लिखा गया था..यकीनन ऐसे ही कई धक्के पाकिस्तानी और बांगलादेशी नागरिकों को लगते होंगे..और चूकि इतिहास को पोंछ कर साफ़ नहीं किया जा सकता,और इन तीन देशों का इतिहास आपस में बेतरह गुथा हुआ है ,इसलिए स्मृति की मार से बचने का कोई रास्ता हम में से किसी के पास मौजूद नहीं है..खैर..अब बात मिस्टर पीरजादा की
जब मिस्टर पीरजादा रात के खाने पर आये एक ऐसी कहानी है जो हमें हमारे सामूहिक इतिहास की ओर ले जाती है. सन 1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांगलादेश) में हुआ गृह युद्ध, जो आगे चल कर मुक्ति संग्राम में बदल गया ,इतिहास के उन निर्मम दौरों में से एक है जब सत्ता ने अपने आपको बचाने के लिए राक्षसी निर्ममता को अपना अस्त्र बनाने , इंसानियत की तमाम कसौटियों को रौंद डालने, से भी परहेज नहीं किया ..यह कहानी समय के इसी दौर में अमेरिका में रह रहे एक भारतीय परिवार के एक बांगलादेशी नागरिक की यंत्रणाओं को साझा करने की कहानी है.. कहानी की नैरेटर एक दस साल की लड़की है .वह यह समझ नहीं पाती कि आखिर मिस्टर पीरजादा और उसके माता पिता में ऐसा क्या फर्क है कि वे दो अलग अलग देशों के नागरिक हैं.? .. उसकी मा उसे बताती है कि मिस्टर पीरजादा अब भारतीय नहीं समझे जाते ,कि देश का 1947 में विभाजन हो गया था,तब से नहीं ..लडकी सोचती है'' एक ही जबान बोलने वाले,एक ही चुटकुले पर हंसने वाले,एक ही तरह दिखने वाले,आम का अंचार का शौख रखने वाले ,हाथ से खाना खाने वाले,घर में घुसने से पहले जूते बाहर कर लेने वाले ,शराब ना पीने वाले ,ये लोग आखिर किस विधान से अलग -अलग हैं"? कुछ लोगों द्बारा मानचित्र पर जमीन के एक हिस्से का रंग पीला और एक का नारंगी भर कर देने से दो देश अलग हो जाते हैं?सामान संस्कृति ,सामान भाषा और ऐसे सैकडों समानताओं के होते हुए भी क्या सिर्फ धर्म के अलग होने से? लेकिन अगर धर्म ही जोड़ता है और धर्म ही अलग करता है , तो बांगलादेश में गृहयुद्ध होता ही क्यों?क्या ये सच नहीं है कि सत्ता सब कुछ को निगल लेती है ..मजहब को भी..
.मुक्ति संग्राम के दौरान जब ढाका और अन्य जगहों पर पाकिस्तानी सेना की वहशियत, खून की नदिया बहा रही थी,लूट-पाट कर रही थी , औरतों का बलात्कार कर रही थी, तब अपने परिवार की चिंता में डूबे मिस्टर पीरजादा के साथ लड़की के माँ बाप क्यों उसी तरह चिंतित थे? कहानी के हवाले से कहू तो क्यों "उस वक्त तीनो, एक आदमी की तरह,एक शरीर की तरह व्यवहार कर रहे थे..एक ही खाने को,एक ही भय,एक ही चुप्पी को साझा करते हुए?" क्या सिर्फ इस कारण नहीं कि वे एक थे ..बहुत सारे मामले में..
यही एकता,साझापन हमारा इतिहास है ,जिसे सत्ता के उन्माद में कभी पंजाब में कुचलने की कोशिश की गई,कभी बंगाल में ..लेकिन जो तमाम ऐसे कोशिशों के बावजूद जिंदा है और हम सब के भीतर से झांकता है.
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