इंदिरा गाँधी स्टेडियम के बहार का नजारा |
७० दिन शेष और, और पूरी दिल्ली खुदी पड़ी है. कल तक बारिश के लिए तरसते लोग अचानक मनाने लगे हैं की मेघ दिल्ली से दूर ही रहें...एक तो देश की नाक का सवाल है ..दुसरे...दिल्ली के लोग हर बारिश के साथ जाम और जलभराव से इस कदर बेहाल हो रहे हैं की बारिश दुश्मन नजर आने लगी है..उस पर से यहाँ वहां हर जगह की हुई खुदाई के अपने और ही खतरे हैं...इतना तो हर व्यक्ति देख रहा है की दिल्ली खेलों से पहले दुल्हन की तरह तो नहीं ही सज पाएगी..बहुत संभव है कि हमें बद इन्तजामी के कारण शर्मिंदगी का सामना करना पड़े...लेकिन क्या इतनी सारी तैयारी सिर्फ खेलों तक सीमित थी? यह विच्त्र बात है कि जो लोग आज दिल्ली सरकार को मौजूदा हालात के लिए कोस रहे हैं वो कल तक यह सवाल पूछ रहे थे कि इन सारे इंतजामो में जनता कहाँ शामिल है? सारे इंतजाम किसके लिए हैं? मुट्ठी भर विदेशी खिलाडिओं के लिए?कुछ विदेशी दर्शको के लिए..?
ये है सड़कों का नजारा |
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इसमें कोई शक नहीं कि अगर हम नाकाम रहते हैं तो हमारी किरकिरी होगी.. मौजूदा हालात में हमारा प्रयास न्यूनतम तैयारी को बेहतरीन ढंग से करने के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए....उस बच्चे कि तरह जिसे मालूम है कि उसके पास समय कम है..और फिलहाल गेस प्रश्नों को रटने में ही समझदारी है ...लेकिन दुनिया यही ख़त्म नहीं होने वाली...डेढ़ करोर लोगों को शरण देने वाला यह शहर किसी 'फैसले के दिन' पर आकर ख़त्म नहीं होने वाला...इस शहर के लिए हर दिन फैसले का दिन है...तो अब जरूरी है कि हम इस खेल से आगे सोचे और खुद से पूछे कि अब इसके आगे क्या? हम यह पूछे कि क्या इस पूरी तैयारी का कोई हासिल नहीं है...क्या हमने कुछ भी नहीं पाया? ढेर सारे फ्लाईओवर, अंडरपास मेट्रो का जाल, हरी हरी बसें...और थोड़ी महंगी दिल्ली ..दिल्ली महंगी हुई...लेकिन अगर इन अवसंरचनाओं को बनाने के लिए दिल्ली को महंगा होना था तो क्या यह कहा जा सकता है कि अवसंरचनाओं के इस विकास रोका जा सकता था? आज अगर दिल्ली में ये विकास के काम नहीं किये जाते तो .आखिर कब? क्या तकरीबन डेढ़ करोड़ की आबादी वाले इस मेगालोपोलिस को मरने के लिए छोड़ दिया जा सकता था? दिल्ली के हमारे देश की राजधानी होने के कारण हमें दिल्ली को जरूरी सिविल अवसंरचनाओं से आज ना कल लैस करना ही था..
हम तभी कुछ करते हैं जब वैसा करना हमारा आपद धर्म हो जाता है...तो ये खेल हमारे लिए आपद धर्म बन कर आये ..जब हम इन विकास के कामो से मुह नहीं चुरा सकते थे...आप यह नहीं कह सकते कि बेहतर दिल्ली बिहार, बंगाल, उड़ीसा ,उत्तर प्रदेश से आने वाले मजदूरों के लिए महंगी हो रही है,,,,इसलिए इसे रोक लो .....दिल्ली को जरूरी सुविधाओं से महरूम रखना किसी समस्या का हल नहीं...समस्या यह है की उन राज्यों में वैसी स्थितियां कैसे पैदा की जाए जिससे वहाँ विकास को गति मिले और लोगों का दिल्ली की और प्रवास कम हो...आप जब तक यह नहीं समझेंगे कि भारी संख्या में प्रवास दिल्ली के लिए ही नहीं उन राज्यों के लिए भी खतरनाक हैं जहाँ से प्रवास हो रहा है..तब तक आप इस तरह की भावुक दलीलों से विकास का विरोध करने कि गलती करते रहेंगे... .
भारत जैसे देश में असफलता कभी मूल्यहीन नहीं हो सकती...क्योंकि हमारे सामने जो च्नौतियाँ हैं उसका सामना प्रयास करने से ही किया जा सकता है...और प्रयास में असफलता ना आये यह किसी गणित के फार्मूले से भी तय नहीं किया जा सकता है....हाँ इतना जरूर है असफलता तभी मूल्यवान होती है जब असफलता के कारणों की padtaal की जाए है....गलतियों को स्वीकारा जाए..जवाबदेही तय की जाए.... आप असफलता के कारण अगर अपना मुह ढाप कर छुप नहीं सकते .. हाँ उसे ग्लोरिफाई भी नहीं कर सकते....यह जरूरी है कि हम इस बात को जाने कि असफल क्यों हुए? क्या हम गैर जरूरी चीजों में अटक कर रह गए...मसलन इंडिया गेट , सीपी, और ल्युतेंस दिल्ली में ना उलझकर हमारा ध्यान खेलो से जुडी अवसंरचनाओं पर ज्यादा लगाना चाहिए था....भले यह सर्वश्रेष्ट निर्णय नहीं होता लेकिन उपलब्ध विकल्पों में सर्वाधिक संभव जरूर होता...बातें बहुत सारी की जानी होगी लेकिन फिलहाल दिल्ली की झोली में आयी सुविधाओं को इस खेल की उपलब्धि मानने में कोई हर्ज नहीं दिखता. क्योंकि इस तरह इस खेल ने इस शहर की उम्र बढ़ाई है..और यहाँ के निवासियों की भी .
अभी तक तो दिल्ली वाले इन खेलों के बहाने दिल्ली की झोली में आने वाली सुविधाओं को उपलब्धि मन कर सच मुच सब्र किये बैठे थे. क्या हुआ जो घर के बच्चे आधा पेट भूखे हैं, मेहमानवाजी तो दुनियादारी का तकाज़ा है! पर सी वी सी की रिपोर्ट आते ही सब्र के सारे बांध टूट गए हैं. तय किये गए खर्चे से तीन गुना खर्चा ! इस्तेमाल किया गया माल रिकॉर्ड में दिखाए गए माल से कई गुना घटिया quality का! कॉमन आदमी की वेल्थ पर कॉमन वेल्थ का घोटाला!! जितना कोसा जाये उतना कम है!
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