20 July 2010

ताले के पीछे घर

ऐसा रोज होता है
मैं अपने घर से
बाहर
निकल जाता हूँ
उसमे ताला लगाकर 
रात में वापस आने के लिए

मेरे जाने के बाद मेरा यह घर क्या करता है
किससे बातें करता है
किसे याद करता है
मुझे कुछ नहीं मालूम
उसे मेरा जान अच्छा लगता है या नहीं मुझे यह भी नहीं पता

हर रोज मैं वापस लौटता हूँ अपने इस घर में 
उसके भीतर पसरे हुए मौन को अपनी आहटों से भंग करता हूँ 
लेकिन कभी उसके मौन के स्वर को नहीं सुनता 
उसे सुनाता हूँ दिन भर की कहानियां


                                   एकतरफा संवाद का यह सिलसिला
                                   मेरे अगले दिन फिर घर से बहार निकलने तक जारी रहता है..

क्या मेरे इस घर को पता है कि एक दिन मैं जब ताला लगाकर जाऊँगा 
तो कभी वापस नहीं आऊंगा
और उसे स्वागत करना होगा हर रोज़  किसी और का
 जैसे वह मेरा स्वागत करती है
जरूर इसके साथ  ऐसा हुआ है ऐसा पहले कभी
जब मुड़कर नहीं आया कोई जिसके लिए इसने दिन भर इन्तेजार किया
मेरा जाना तय है क्या इसलिए जब तक मैं हूँ 
वह मुझसे मिलती रहेगी ऐसे ही
 मेरे लिए खोल देगी अपने सारे गवाक्ष 
रोज देगी अपना सारा कुछ 
 लेकिन उमड़  कर मिलेगी नहीं कभी मुझसे

मेरे  बस  में होकर भी मेरी नहीं होगी कभी 

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