5 May 2013

सिनेमा पर सुधीर कक्कड़: भारतीय सिनेमा दिवास्वप्नों पर पलता है..

प्रसिद्द मनो-समाजशास्त्री सुधीर कक्कड़ की नजर से सिनेमा की व्याख्या. आप भी पढ़ें. 





1940 के दशक में जब मैं बड.ा हो रहा था, कम से कम पंजाब में तो सिनेमा देखने को भले पूरी तरह अनैतिक न माना जाता हो, आवारगी का एक लक्षण जरूर माना जाता था. ऐसा मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में तो जरूर था. सिनेमा देखने की आदत को खासतौर पर बच्चों की मानसिकता के निर्माण के लिहाज से खतरनाक समझा जाता था. वैसे हर फिल्म के लिए यही बात लागू नहीं होती थी. भारत में बाकी सारी चीजों की तरह इस मामले में भी एक श्रेणीकरण था. भारतीय फिल्मों की जाति व्यवस्था में कुंग-फू की स्टंट फिल्मों की भारतीय नकलों को सबसे निचले पायदान पर रखा गया था वहीं ‘ब्राह्मण मिथकीय’ और ‘क्षत्रिय ऐतिहासिक’ फिल्में शीर्ष स्थान पर अपना दावा करतीथीं. बचपन में स्टंट फिल्में मुझे सबसे ज्यादा पसंद थीं. मेरी दोस्ती एक दरबान से हो गयी थी. इस तरह मैं इस मामले में खुशनसीब था कि लाहौर में हम कहीं भी जाते, मैं अपनी फिल्मों के प्रति दीवानगी को आगे बढ.ा सकता था. मैंने ‘दीवानगी’ शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल इसके शाब्दिक अथरें में किया है. न कि किसी रूपक के तौर पर. फिल्मों के प्रति मेरी भूख कभी न भरनेवाली थी और मेरी खुराक भी कुछ ऐसी ही थी. मैंने ‘रतन’ 16 बार देखी. शिकारी 14 बार और यहां तक कि कादंबरी भी तीन बार. 



सिनेमा देखने जाने से जुड़ी यादें मुझे नोस्टालजिक बनाती हैं और बचपन से जुड.ी दूसरी अच्छी यादों पर भी छा जाती हैं. इस पर एक दिव्य आभामंडल छाया हुआ है. अंधेरे के अकेलेपन में, जिसे एक झिलमिलाती रोशनी चीरती रहती थी और परदे पर एक जादुई लेकिन जानी पहचानी दुनिया रचती थी- मैं एक छोटा सा बा नहीं रह जाताथा, बल्कि ईष्या के साथ देखी जानेवाली वयस्कों की दुनिया का हिस्सा बन जाताथा. हालांकि मैं इस दुनिया की प्रथाओं और रहस्यों को समझता था, लेकिन बेहद धुंधले रूप में. मैं किसी उत्तेजक संवाद के बाद फूट पड.नेवाले ठहाके में शामिल हो जाया करता था, भले ही इसका वास्तविक अर्थ मेरे पल्ले न पड.ा हो. 

भारत में फिल्में जिस दर्शक वर्ग की ओर लक्षित हैं, वह इतना विविधता भरा है, कि इनकी अपील सामाजिक और भौगोलिक विभाजनों के पार चली जाती है. हर दिन कम से कम डेढ. करोड. दर्शकों द्वारा देखे जानेवाले पॉपुलर सिनेमा के मूल्य और इसकी भाषा काफी समय पहले शहरी चौहद्दियों को पार कर ग्रामीण जनसंख्या की लोक-संस्कृति में शामिल हो गयी है, जहां यह अच्छे जीवन और सामाजिक, पारिवारिक और प्रेम संबंधों से जुडे. विचारों को प्रभावित करने लगा है. किसी क्षेत्र का लोक नृत्य या संगीत का कोई खास रूप जैसे भक्ति भजन जब मुंबई या मद्रास की स्टूडियो की चौखट को पार करता है और दूसरे क्षेत्रों और संभवत: पश्‍चिम के संगीत और नृत्य की शैलियों की भी मिलावट द्वारा रूपांतरित कर पुन: प्रसारित किया जाता है, तो यह लौट कर अपने मूल रूप को भी प्रभावित करता है. इसी तरह फिल्मी दृश्यों, संवादों और साज-सज्जा ने लोक थियेटरों का भी उपनिवेशीकरण शुरू कर दिया है. यहां तक कि धार्मिक पूजा के परंपरागत प्रतीक और मूर्तियां भी फिल्मों में देवताओं और देवियों के प्रस्तुतीकरण से प्रभावित हो रहे हैं. 

लोकप्रिय फिल्मों को मैं एक सामूहिक फेंटैसी, दिवास्वप्नों के समूह के तौर पर देखता हूं. ‘सामूूहिक’ और ‘समूह’ जैसे शब्दों के प्रयोग से मेरा मतलब यह नहीं है कि हिंदी फिल्में मिथकीय सामूहिक अवचेतन या जिसे कभी-कभी सामूहिक चेतना कहा जाता है, उसकी अभिव्यक्ति हैं. इसकी जगह मैं सिनेमा को भारतीय उपमहाद्वीप में रहनेवाली विशाल जनसंख्या के साझा स्वप्नों (फेंटैसी)का वाहक मानता हूं. यह विशाल जनसंख्या सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से एक दूसरे से जुड.ी है. फेंटैसी शब्द का यहां मेरा अभिप्राय कल्पना जगत से है, जो इच्छाओं से चालित होता है और हमें एक ऐसा वैकल्पिक जगत मुहैया कराता है, जहां हम यथार्थ से अपने पुराने संघर्ष को जारी रख सकते हैं. 

हमारी फिल्मों में फिल्म दर फिल्म स्वप्नों की ऐसी भारी मात्रा में नियमितता आश्‍चर्य में डालती है. एक तरह से जिंदगी की वास्तविक समस्याओं के ऐसे जादुई हल, भारतीय जनमानस में गहरी जमी ऐसे समाधानों की इच्छा की ओर इशारा करते हैं. कुछ लोग भारतीय सिनेमा में इस तरह बाहरी यथार्थ की अनदेखी को अस्वस्थता की निशानी भी मान सकते हैं. खासकर इसलिए भी क्योंकि कोई यह तर्क नहीं दे सकता कि फिल्मों में फेंटैसी भीषण गरीबी से जूझ रहे लोगों को इससे बाहर निकलने का रास्ता देती है. 

इस संदर्भ में पहली बात यह है कि भारत में फिल्म देखनेवालों की असल आबादी गरीबों की नहीं है. दूसरी बात, दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है, जहां गंभीरतम आर्थिक विपत्रता और राजनीतिक अस्थिरता के दौर में भी इस तरह से लगातार स्वप्न जगत का प्रदर्शन होता रहा है. न ही 1920 के दशक में र्जमनी में आर्थिक संकट के दौरान, न ही द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद जापान में फेंटैसी को इस ऊंचाई तक पहुंचाया गया. हमें यह मानना होगा कि सिर्फ आर्थिक स्थिति भारतीय फिल्मों में दिखनेवाले स्वप्न लोक की व्याख्या नहीं कर सकती. 

मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा में हर जगह दिखायी देनेवाली फेंटैसी का कारण सांस्कृतिक मनोविज्ञान में छिपा है, न कि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में. दूसरी संस्कृतियों की तरह हमारे यहां भी फिल्मों के एडिक्ट हैं. ये वैसे बदकिस्मत लोग हैं, जिन्हें उनके बचपन में ही दुनिया को वयस्क तरीके से देखने पर मजबूर होना पड़ा. जिन्हें अपनी शुरुआती जिंदगी में हर तरह के जादुई चीजों से वंचित कर दिये जाने के कारण पैदा हुए खालीपन को भरने के लिए फिल्मी दुनिया की फेंटैसी की जरूरत पड.ती है. इस समूह को छोड. दिया जाये, तो कोई भी समझदार भारतीय यह नहीं मानता कि सिनेमा में वास्तविक जिंदगी का अंकन होता है. हालांकि मुझे यहां यह स्वीकार करना चाहिए कि अविश्‍वास को स्थगित रखने की हमारी प्रवृत्ति किसी भी दूसरी संस्कृति की तुलना में कहीं ज्यादा है. 

इस आधार पर देखें, तो मैं भारतीय सिनेमा के दर्शकों को न सिर्फ सिनेमा की कहानी का पाठक मानता हूं, बल्कि उन्हें उसका असल लेखक भी स्वीकार करता हूं. फिर फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों, स्क्रिप्ट लेखकों और संगीत निर्देशकों की भूमिका क्या है? मेरा मानना है कि उनकीभूमिका पूरी तरह से यांत्रिक है, जैसे एक प्रकाशक की होती है. जो पास में आयी पांडुलिपियों में से किताबें चुन कर, उसे संपादित कर प्रकाशित करता है. बॉक्स ऑफिस पर पैसा कमाने की चाहत इस बात को पक्का करती है कि फिल्मकार ऐसे दिवास्वप्नों को चुनें और विकसित करें, जो अलग हट कर न हों. फिल्मों को इसलिए दर्शकों की साझा चिंताओं की ओर लक्षित होना होता है. अगर ऐसा नहीं होगा तो सिनेमा की अपील काफी सीमित हो जायेगी. जो व्यावसायिक रूप से नुकसानदेह होगा.

(सुधीर कक्कड. की किताब ‘इंडियन आइडेंटिटी’ का अनुवादित-संपादित अंश)

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