हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण उपन्यासकार ओरहन पामुक का लेखन पाठक पर जादू सा असर करता है. पामुक ने उपन्यास के साथ साथ साहित्य पर भी काफी लिखा है. दूसरों के लेखन पर भी और अपने लिखने और पढने पर भी. द नेव एंड द सेंटीमेंटल नॉवेलिस्ट का पहला लेख व्हाट आवर माइंड्स डू व्हेन वी रीड नावेल में पामुक ने उपन्यास को एक प्रतिबद्ध पाठक की नजर से देखा है. लेख के हिंदी अनुवाद की पहली कड़ी..
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उपन्यास दूसरा जीवन हैं. सेकेंड लाइव्स. फ्रांसीसी कवि गेरार्ड दि नेरवाल ने जिस सपने की बात की थी, उपन्यास ठीक उसी तरह हमारे जीवन के रंगों और जटिलताओं के बारे में बात करते हैं, जिसमें ढेर सारे लोग होते हैं, ढेर सारे चेहरे और ढेर सारी वस्तुएं. जिनके बारे में हमें यह लगता है कि हम उन्हें पहचानते हैं. सपनों की तरह उपन्यास पढ़ते वक्त, हमारा सामना जिन चीजों से होता है, हम उनकी असाधारणता के इस कदर वशीभूत हो जाते हैं कि हममें अपने देश-काल का बोध समाप्त हो जाता है. हम अपने आपको काल्पनिक घटनाओं और लोगों के बीच पाते हैं, जिन्हें हम देख रहे होते हैं. तब हमें वह काल्पनिक जगत जिससे हमारा सामना हो रहा है, जिसका हम लुत्फ ले रहे होते हैं, वास्तविक जीवन से भी ज्यादा वास्तविक लगता है.
चूंकि ये दूसरी जिंदगियां हमें यथार्थ से भी ज्यादा यथार्थ लग सकती हैं, इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि हम उपन्यास को यथार्थ की जगह प्रतिस्थापित कर देते हैं, या कम से कम यह तो कहा ही जा सकता है कि हमें उपन्यास से यथार्थ का भ्रम होता है. लेकिन हम कभी भी इस भ्रम के लिए शिकायत नहीं करते. न ही अपनी सोच के बचकानेपन पर. इसके उलट, जैसा कि कई बार कुछ सपनों के लिए होता है, हम चाहते हैं कि उपन्यास चलता रहे, खत्म न हो. हम आशा करते हैं, यह दूसरी जिंदगी हममें यथार्थ और प्रामाणिकता का सतत बोध जगाती रहे. कल्पित कथाओं के बारे में हमारी जानकारी के बावजूद हम परेशान और असहज हो जाते हैं, जब उपन्यास इस वास्तविक जिंदगी के भ्रम को बचाने में नाकाम हो जाता है. हम सपने को सच मानकर सपने देखते हैं. सपने की यही परिभाषा है. इसी तरह हम उपन्यास पढ़ते हैं, उन्हें यथार्थ मान कर- लेकिन, कहीं न कहीं हमारे मन में यह एहसास भी होता है कि हमारा ऐसा मानना गलत है. यह अंतर्विरोध उपन्यास की प्रकृति से जन्म लेता है. हम अपनी बात की शुरुआत इस बात पर जोर देते हुए कर सकते हैं कि उपन्यास की कला अंतर्विरोधी स्थितियों पर एक साथ यकीन करने की हमारी क्षमता से जन्म लेता है.
''हम सपने को सच मानकर सपने देखते हैं. सपने की यही परिभाषा है. इसी तरह हम उपन्यास पढ़ते हैं, उन्हें यथार्थ मान कर- लेकिन, कहीं न कहीं हमारे मन में यह एहसास भी होता है कि हमारा ऐसा मानना गलत है. यह अंतर्विरोध उपन्यास की प्रकृति से जन्म लेता है. "
मैं 40 वर्षों से उपन्यास पढ़ रहा हूं. मैं जानता हूं कि उपन्यास को लेकर हम अनेक मुद्रा अख्तियार कर सकते हैं. अनेक तरीकों से हम अपनी अपनी आत्मा और दिमाग को इसे सुपुर्द कर सकते हैं. इसे हल्के में ले सकते हैं. गंभीरता से भी. और ठीक इसी तरह मैंने अपने अनुभव से जाना है कि एक उपन्यास को पढ़ने के भी कई तरीके हो सकते हैं. हम कभी तर्क के सहारे पढ़ते हैं. कभी आंखों से, कभी कल्पनाओं के सहारे, कभी दिमाग का एक छोटा सा अंश खर्च कर. कभी हम उपन्यास को उस तरह से पढ़ते हैं, जिस तरह से हम उसे पढ़ना चाहते हैं और कभी-कभी अपने अस्तित्व के रेशे-रेशे को उसे समा कर. मेरी युवावस्था में एक दौर ऐसा था जब मैं पूरे समर्पण के साथ, यहां तक कि हर्षोन्मत्ता की स्थिति में उपन्यास पढ़ा करता था. उन वर्षों में यानी अठारह से तीस वर्ष की आयु तक (1970-1982) मैं अपने दिमाग और आत्मा में उमड़नेवाले हर भाव को उस तरह बयान कर चाहता था, जिस तरह एक चित्रकार पहाड़ों, मैंदानों, पेड़ों और नदियों से भरे किसी चटक, जटिल, उर्जावान लैंडस्केप को पूरी बारीकी और स्पष्टता से उकेरता है.
जारी....
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ओरहन पामुक की किताब THE NAIVE AND THE SENTIMENTAL NOVELIST में संकलित WHAT OUR MINDS DO WHEN WE READ NOVELS लेख का शुरूआती अंश...
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