21 December 2010

उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार के मायने

उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार के  मायने






एक अंतहीन सूची है..शब्दों की. शब्दों से आकार लेती कहानियों की. हर बार नयी कहानी. हर पाठ में कहानी नया अर्थ ले ले. कभी वह मेरे गाँव के मेरे परिचित के शक्ल में मेरे सामने हाजिर हो जाये..कभी मेरा चेहरा ही उस चेहरे में मिल जाए.  कभी कोने पर सब्जी बेचने वाले कि शक्ल की रेखाएं उसके चेहरे के भाव को प्रकट करने लगे तो कभी इतिहास का कोई टुकडा कहानी के टुकड़े में विन्यस्त हो जाए..कल्पना की उड़ान या अपने समय की पहचान ..कुछ भी कहें..लेकिन जो बार बार आपको अपने पास बुलाये...वो आपको ऊंचे आकाश पर भी ले जाए और अपने भीतर झाँकने की निर्मम चुनौती भी छोड़ जाए. 
उसकी कहानिया समय की हर नामालूम सी लकीर पर भटकती हुई कहानी है..उस लकीर को मिटने से बचाने की विकलता से उपजी कहानी  है.  अंतिम आदमी की कहानी. हाशिये को क्रेंद्र में लाने की बेचैनी से भरी कहानी. हर शब्द के अनेक रूप बनाये हैं हमने....समय के बीहड़ में रौशनी सी उसकी कहानी मुझे गुडगाँव  और मुंबई के चमकते माल में अँधेरे की ओर देख सकने लायक मानवीय बनाती हैं...
उदय जी को मैं सर्वश्रेष्ट कहानीकार नहीं कहता. प्रिय रचनाकार जरूर कहता हूँ. जिसकी कहानिया विशिष्ट हैं. मेरे अन्दर चेतना की कुछ रेखाएं खीचने में जिसने भूमिका निभायी है. जिसने मुझे थोडा बदला है...मेटामोर्फोसिस की प्रक्रिया के लिए जरूरी कुछ आंच थोडा दबाव उनकी  कहानियों से भी मिला  है. 


उदय  जी  को पुरस्कार उनके लेखन को देर आये दुरुस्त आये कि तर्ज पर दिया गया है..जहाँ अकादमी ने खुद को दुरुस्त किया है...पिछले कुछ वर्षों में अकादमी यही कर रही है...मनोहर श्याम जोशी और कमलेश्वर  के  बाद  उदय प्रकाश को पुरस्कार दिया जाना इसी अकादमी वाली परंपरा का हिस्सा है. वैसे यह सब लिखते हुए मैं गहरे आशंका से घिर गया हूँ...वह आशंका जिसका जिक्र उदय प्रकाश बार बार करते हैं...साहित्यिक गठजोड़-गिरोहबंदी पर यू तो उदय जी ने बहुत कुछ बहुत बार लिखा है...और फिलहाल ट्रेन में होने के कारण मैं उनके लिखे को प्रमाणिक रूप से उधृत नहीं कर सकता इसलिए कुछ दिन पहले उनके ब्लॉग पर पढ़े ये शब्द यहाँ दर्ज कर रहा हूँ- रामविलास शर्मा को याद करते हुए उन्होंने लिखा था..
 'पिछले कुछ अरसे से, जब से पुरस्कारों की लूट-खसोट और उन पर अखबारबाजी साहित्य के हलके से आने वाली अकेली सूचनाएं बन चुकी हैं, ऐसे में रामबिलास जी फिर से याद आते हैं। सैमसुंग टैगोर, साहित्य अकादेमी या हिंदी अकादेमी पुरस्कार को लेने वाले और न लेने वाले ‘नायक-नायिकाओं’ की परस्पर बयानबाजियों से भरी इन तारीखों में वह लगातार चुप रहने वाला धीरोदात्त, स्थावर लेखक बार-बार याद आता है, '
मैं उदय जी को पुरस्कार दिए जाने पर कतई खुश नहीं होना चाहता हूँ.  क्यूकि उदय जी ने पुरस्कारों पर ऐसा कई बार खुद कहा है...ऐसा नहीं है कि कमलेश्वर  म, नोहर श्याम जोशी, या अलका सरावगी को या श्रीलालशुक्ल ( इस  सूची में  और  भी  कई नाम  शामिल  हैं  )को मिले पुरस्कार को मैं गिरोहबंदी का परिणाम मानता  हूँ..लेकिन पुरस्कारों को लेकर उदय जी  कि स्थिति थोड़ी विशिष्ट है.  वो कल तक पुरस्कारों को गिरोहबाजों का खेल मानते थे.. 
क्या? क्या ?
क्या मैं उदय जी को बधाई दूं? क्या  उदय  प्रकाश  ने  पुरस्कार  देने  वालों  को  क्लीन  चिट  दे  दी  है ?  उदय जी  से यह सवाल बहुत लोग पूछेंगे . कही न कही वह इस सवाल का जवाब भी  देंगे ..आखिर  राडियागेट  के इस ज़माने में अविश्वास करना ही निरीह  जनता के पास एकमात्र अस्त्र है..और ये अस्त्र उदय प्रकाश ने ही कई पाठकों को दिया है...


-

1 October 2010

राम जन्मभूमि या राम की हड़प्पा


अगर बाबरी मस्जिद किसी प्राचीन और महान मंदिर के ऊपर बना था ...तो क्या यह सही होगा कि उस ऐतिहासिक मंदिर को खोजे बिना , उसका उत्खनन किये बगैर उसके ऊपर एक मंदिर बना दिया जाए? अगर पुरातात्विक साक्ष्य ऐसी किसी इमारत का इशारा करते हैं तो इस इमारत को जमीन से बाहर निकालने की कोशिश की जानी चाहिए. इससे दो तरफ़ा फायदा है.पहला इससे साक्ष्य पुख्ता हो जायेंगे ...संदेह का बाजार गरम नहीं होगा दूसरा हमें एक ऐतिहासिक , सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर स्थल मिल जाएगा. 


राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवाद पर कोर्ट में दशकों से चल रहे मुक़दमे का फैसला कल आ गया. जस्टिस  सुधीर अग्रवाल और जस्टिस एस यू खान के अलग अलग फैसले को गौर से पढने की जरूरत है. इन दोनों न्यायाधीश ने अपने फैसले में जो लिखा है उसे भारत की कौमी तहजीब को समझने के लिए एक जरूरी सन्दर्भ के तौर पर इस्तेमाल में लाया जा सकता है. साझा मालिकाना हक़ देकर कोर्ट ने आदर्श रचने की कोशिश की है .यह बात मैं इस फैसले से तमाम तरह की असहमति  होने के बावजूद कह रहा हूँ.  लेकिन फैसले पर बात करने से पहले कुछ जरूरी बात.

बाबरी मस्जिद विवाद मूल रूप से आक्रमणकारी मुस्लिम और पराजित हिन्दू के प्रचलित डीकोटोमी पर आधारित है. यह इस धारणा की उपज है कि हिन्दुओं को मुस्लिम शासन काल में शोषण का सामना करना पड़ा. हिन्दुओं के इबादतगाह नष्ट किये गए. उनकी धार्मिक भावना को ठेस पहुचाई गयी.  इसलिए अब हिन्दुओं का यह अधिकार है की वे इतिहास के अन्याय का बदला वर्तमान में लें...या इतिहास के पराजय को वर्तमान की जीत से दुरुस्त करें. दूसरी  और   मुस्लिम यह मानते हैं  कि  अपने हक़ की रक्षा समझौतावादी  होकर नहीं किया जा सकता.  जिन चीजों पर उनका अधिकार रहा है उसकी रक्षा उन्हें लड़कर करनी होगी. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें अपने हकों से लगातार महरूम होते जाना पड़ेगा. इस बात में कोई शक नहीं कि इतिहास में ऐसी घटनाओं की कमी नहीं जहाँ हिन्दू ढांचे को इस्लामी ढांचे में दब्दील किया गया. आज सवाल यह है कि क्या इसे सिर्फ मुस्लिम अत्याचार माना जाए या सत्ता संरचना में बदलाव का स्वाभाविक परिणाम. भारत में ही हिन्दू राजाओं द्वारा  बौद्ध उपासना स्थलों को नष्ट किये जाने के कई उदहारण सामने हैं. हिन्दू- बौद्ध, शैव- वैष्णव के झगडे का परिणाम किस तरह से कई बार एक दुसरे के शोषण में हुआ यह बात इतिहास में दर्ज है.दरअसल धार्मिक उन्माद  और मध्य काल का सांस्कृतिक और राजनीतिक दर्शन एक साथ चलते हैं.  अपने धर्म  की श्रेष्ठता साबित करना विजय अभियान को लेजिटीमाइज करने के लिए जरूरी था. और इसका इस्तेमाल सिर्फ इस्लाम में ही नहीं हुआ. हिन्दू भी इससे अछूते  नहीं थे. अपने आप को आधुनिकता और मानवतावाद का पैरोकार कहने वाले यूरोपीय तो इस मामले में शायद सबसे आगे रहे. दरअसल उस समय राजनीति और धर्म इस तरह घुले मिले थे कि उन्हें किसी तरह से अलग नहीं किया जा सकता था. राजनीतिक जीत का अर्थ धार्मिक जीत भी हुआ करती थी. कहते हैं जिसकी ताकत उसका धर्म उसका कानून . डोमिनेंट  धर्म या कानून डोमिनेंट या सत्ताधारी वर्ग का अनुसरण  करता  है .लेकिन राजनीति के इस फलसफे को आज उस तरह से खुलेआम लागू नहीं किया जा सकता.  ऐसा करना बेहद खतरनाक भी है. 

बात करते हैं अयोध्या फैसले की. यह एक ऐसा मुकदमा था जिसका फैसला जरूर आना चाहिए  था. लेकिन कानूनी फैसला कानूनी होना चाहिए ना कि विश्वास पर आधारित. जब कोर्ट प्रचलित विश्वास और आस्था का सहारा लेकर फैसले देने लगेगी  तो इस देश का क्या होगा इसकी कल्पना की जा सकती है. साझा मालिकाना हक़ देकर जहां कोर्ट ने भारत की सामासिक संस्कृति को पुख्ता किया वही राम जन्मभूमी स्थान को पिन प्वाइंट करने के पीछे का तर्क समझ से परे है. कोर्ट का यह कहना कि बाबरी मस्जिद के मध्य गुम्बद के नीचे राम का जन्मस्थान है में धार्मी भावुकता का रंग है.  यह सही है कि ऐसा करके कोर्ट ने संभावित हिन्दू मुस्लिम तकरार के लिए कम जगह छोडी है...लेकिन अगर कोर्ट को इस तकरार से बचना था तो फिर फैसला देने कि क्या जरूरत थी. अयोध्या मामला मर चुका था. इससे ना राजनीति की रोटी सेकी जा रही थी ना यह कोई कोई धार्मिक ज्वार ही उत्पन्न कर रहा था. 

क्या इस बात के सबूत हैं कि राम का जन्म इस स्थल पर या इसके आस पास हुआ? अगर ऐसा हुआ तो वहां एक महल जैसा भी कुछ  होना चाहिए जहां कभी सचमुच में राम का जन्म हुआ हो.  भारत में एक ही इमारत के ऊपर दूसरी इमारत बनाए कि परंपरा रही है. इसे आप नालंदा में देख सकते हैं ..जहाँ प्राचीन विश्वविद्यालय  के कई स्तर है..जो अलग अलग काल के निर्माण का साक्ष्य है. यानी अगर भारतीय पुरातत्व  विभाग को इस जगह प्राचीन मंदिर के साक्ष्य मिले तो संभव है कि थोड़ी और खुदाई से वहाँ एक महल का भी साक्ष्य मिल जाए. अगर ऐसा होता  है तो क्यों ना यहाँ भी बोधगया की  तरह उस पुराने मंदिर  या महल को सांस्कृतिक विरासत के तौर पर विकसित किया जाए, बनिस्पत इस जगह पर एक भव्य मंदिर का विजय के प्रतीक के तौर पर निर्माण करने के. 
जिन साक्ष्यों के आधार पर यह फैसला आया है..उसके बाद इस जगह को धार्मिक परिसर की जगह विश्व सांस्कृतिक  धरोहर के तौर पर ही विकसित किया जाना चाहिए. यहां किसी भी तरह के निर्माण से पहले इस जगह का पूरा एक्स्केवेशन किया जाना चाहिए. जो साक्ष्य कोर्ट को दिए गए वो मामूली साक्ष्य नहीं है. इसके आधार पर इतिहास की पुनर्रचना की जा सकती है. अयोध्या में एक हड़प्पा  खोजा जा सकता है. एक पूरी कहानी जो इतिहास के मलबे में दबी है उसे जाने बिना यहाँ मंदिर का या किसी भी दूसरी इमारत का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए. अयोध्या मामले पर आये फैसले में में इतिहास के अध्याय को बंद करने की ताकत भले ना हो लेकिन इसने हमें इतिहास के भीतर झाँक सकने का मौका जरूर दिया है. 

11 August 2010

वसंत के हत्यारे

(मूलतः इंडिया टुडे में प्रकाशित )
 वरिष्ठ कथाकार ,नाटककार हृषिकेश सुलभ का नया कहानी संग्रह ‘वसंत के हत्यारे’ एक विस्मृत प्रदेश और समय में हमारी आवाजाही को संभव बनाता है। ये कहानियां उस जीवन का आईना हैं जो है तो हमारा हिस्सा ही, हमारा खुद का भोगा हुआ , लेकिन इस कदर हमसे अलग हो चुका है कि उसकी बेचैन आहटें अब हमारे कानो  तक नहीं पहुंचतीं। यथार्थ के अनेकों चेहरे और उसके छल-छद्मों  को समेटे हुए ये कहानियां हमें  चकित भी करती हैं और स्तब्ध भी। हमें मथती भी हैं और अक्सर निःशब्द भी बना डालती हैं।
  संग्रह की शीर्षक कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है।विद्रूप समय और समाज में रंगकर्म और प्रेम के दोहरे जोखिम को उठानेवाला कथावाचक घुटन भरी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक है। उसकी हत्या एक व्यक्ति के भीतर जन्म ले रहे वसंत की हत्या नहीं है, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के वसंत की, उसके सपनों की हत्या है। अपनी ही मौत की जुलूस में शामिल कथा नैरेटर यह महसूस करता है कि यह (व्यवस्था के दुश्चक्र का)भंवर मुझे लील रहा है।....इस जुलूस में शामिल तमाम लोग इस भंवर में गड़ाप होते जा रहे हैं।’ यह कहानी किसी भी शहर की हो सकती है लेकिन पटना शहर के सांस्कृतिक और मानवीय वातावरण के क्षय को दर्ज करने के कारण इसका महत्व काफी ज्यादा है।  
      वसंत इस पूरे कहानी संग्रह की थीम है।ये इंसानी जीवन के कोमलतम को बचाए रखने की लेखकीय कोशिश  को दर्ज करती हुई कहानियां हैं। ‘काबर झील का पाखी’ में पुनीत शर्मा की आवारगी दहशतनाक समय में एक अकेले आदमी के-‘फर्क’ पैदा करने की कोशिश  , को बयान करती है। ‘स्वप्न जैसे पांव’ में भी इस कोशिश  को देखा जा सकता है और इसकी परिणति को भी। ‘डाइन’ कहानी दरकते हुए इंसानियत की , उसके पतन की कहानी है। यह आदमी की आत्मा के व्यवस्था के स्याह रंग से रंग जाने की त्रासदी को प्रकट करती है।
      ‘फजर की नमाज’ प्रेमचंद की परंपरा की कहानी है। यह कहानी ग्रामीण मुसलिम समाज की उन ओझल सच्चाइयों को बेहद आत्मीय तरीके से बयान करती है जिन्हें किसी रिपोर्ट से नहीं समझा जा सकता है। ये कहानी अरब देशों  को होने वाले मुसलमान आबादी के प्रवास के कारणों की और उसके कारण बनते बिगड़ते सामाजिक संबंधों की पड़ताल करती है। यह संभवतः इस विषय पर पर लिखी गई पहली कहानी है। यहां गन्ना मिलों की तालाबंदी से किसानी तंत्र  के चरमराने की सच्चाई को भी उजागर किया गया है।
       ‘खुला’ मुसलिम समाज की तस्वीर है। ‘आबरू’ की पुरुषवादी मानसिकता के कैदखाने में जकड़ी स्त्री की मुक्ति का मार्ग लेखक ने शिक्षा में देखा है। शिक्षा, लुबना को अपने लिए निर्णय लेने का साहस देती है और वह अनचाहे विवाह से ‘खुला’ यानी तलाक मांगती है।  ‘कुसुम कथा’ भी स्त्री की आजादी के वरण की कहानी है। यह अपने भीतर समाज के विकृत चेहरे को ही नहीं आत्मीयता के धागों को भी समेटे हुए है। इस कहानी के जरिए हम एक बिछडे़ जीवन में वापसी कर सकते हैं। ‘हां मेरी बिट्टू’ इंसानी रिष्तों की एक बेहद मार्मिक कहानी है।इस कहानी में एक सहज भावुकता है जिसका आज के कथा सहित्य में लोप होता जा रहा है ।
        इस संग्रह की तकरीबन सभी कहानियां ऐसी हैं जो ठहरकर सोचने के लिए विवष करती हैं। ये यथार्थ में गहरे तक डूबी हुई और उससे उपजी हुई कहानियां हैं। यहां घुटन भरी व्यवस्था के भीतर प्रेम में लरजते दिल भी हैं तो बेरोजगारी का दंष झेलता हुआ युवा भी । स्नेहिल रिश्तों  की नर्म आंच भी है तो प्रतिरोध की सुलगती चिंगारी भी। यहां सिर्फ विद्रूप समय का चेहरा ही नहीं, वह जीवन राग भी है जो इंसान को लड़ने और आगे बढ़ने की शक्ति देता है।
        इस संग्रह की कहानियां अपने ‘कहन’ के टेकनीक, यानी शिल्प  के कारण याद रखी जाएंगी। संग्रह की पहली कहानी ‘भुजाए’ं में जिस तरह ‘डबल क्लाइमेक्स’ का सृजन किया गया है वह आकर्षक है। ‘वसंत के हत्यारे’ में कथा नैरेटर अपनी ही हत्या की कहानी सुनाता है। अंत में जब यह बात पता चलती है तो पाठक को झटका लगता है। इसी तरह से ‘स्वप्न जैसे पांव’ में स्वप्न और यथार्थ का फ्यूजन मुक्तिबोध की कविताओं में प्रयुक्त फैंटेसी की याद दिलाता है।‘डाइन’ कहानी का वातावरण एक आदिम गंध लिए है;बहुत कुछ रेणु की कोसी अंचल की कहानियों की तरह। यथार्थपरक होने के बावजूद ये कहानियां कहीं बोझिल नहीं हुई हैं और रोचकता और नाटकीयता के तत्व से भरपूर हैं। एक कथाकार जो नाटककार भी है उसकी कहानियों में ऐसा होना विस्मयकारी नहीं है। यह महज संयोग नहीं है कि इस संग्रह की तमाम कहानियां हल्के एडप्टेशन  के साथ रंगमंच पर खेली जा सकती हैं। इन कहानियों से निश्चित ही हिंदी कथा-जगत समृ़द्ध हुआ है।

24 July 2010

नयी इबारत: क्या राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी की असफलता से हमा...

नयी इबारत: क्या राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी की असफलता से हमा...: "इंदिरा गाँधी स्टेडियम के बहार का नजारा ७० दिन शेष और, और पूरी दिल्ली खुदी पड़ी है. कल तक बारिश के लिए तरसते लोग अचानक मनाने लगे हैं की..."

क्या राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी की असफलता से हमारा सर झुक जाएगा



इंदिरा गाँधी स्टेडियम  के बहार का नजारा

७० दिन शेष और, और पूरी दिल्ली खुदी पड़ी है. कल तक बारिश के लिए तरसते लोग अचानक मनाने लगे हैं की मेघ दिल्ली से दूर ही रहें...एक तो देश की नाक का सवाल है ..दुसरे...दिल्ली के लोग हर बारिश के साथ जाम और जलभराव से इस कदर बेहाल हो रहे हैं की बारिश दुश्मन नजर आने लगी है..उस पर से यहाँ वहां हर जगह की हुई खुदाई के अपने और ही खतरे हैं...इतना तो हर व्यक्ति देख रहा है  की दिल्ली खेलों से पहले दुल्हन की तरह तो नहीं ही सज पाएगी..बहुत  संभव है कि हमें बद इन्तजामी  के कारण शर्मिंदगी का सामना करना पड़े...लेकिन क्या इतनी सारी तैयारी सिर्फ खेलों तक  सीमित थी? यह विच्त्र बात है कि जो लोग आज दिल्ली सरकार को  मौजूदा  हालात के लिए कोस रहे हैं वो कल तक यह सवाल पूछ रहे थे कि इन सारे इंतजामो में जनता कहाँ शामिल है? सारे इंतजाम किसके लिए हैं? मुट्ठी भर विदेशी खिलाडिओं के लिए?कुछ विदेशी दर्शको के लिए..?
ये है सड़कों का नजारा 
.
इसमें कोई शक नहीं कि अगर हम नाकाम रहते हैं तो हमारी किरकिरी होगी.. मौजूदा हालात में हमारा प्रयास न्यूनतम तैयारी को बेहतरीन ढंग से करने के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए....उस बच्चे कि तरह जिसे मालूम है कि उसके पास समय कम है..और फिलहाल गेस प्रश्नों को रटने में ही समझदारी है ...लेकिन दुनिया यही ख़त्म नहीं होने वाली...डेढ़ करोर लोगों को शरण देने वाला यह शहर किसी 'फैसले के दिन' पर आकर ख़त्म नहीं होने वाला...इस शहर के लिए हर दिन फैसले का दिन है...तो अब जरूरी है कि हम इस खेल से आगे सोचे और खुद से पूछे कि अब इसके आगे क्या? हम यह पूछे कि क्या इस पूरी तैयारी  का कोई हासिल नहीं है...क्या हमने कुछ भी नहीं पाया? ढेर सारे फ्लाईओवर, अंडरपास मेट्रो का जाल, हरी हरी बसें...और थोड़ी महंगी दिल्ली ..दिल्ली महंगी हुई...लेकिन अगर इन अवसंरचनाओं को बनाने के लिए दिल्ली को महंगा होना था तो क्या यह कहा जा सकता है कि  अवसंरचनाओं  के इस विकास  रोका जा सकता था? आज अगर दिल्ली में ये विकास के काम नहीं किये जाते तो .आखिर कब?   क्या तकरीबन डेढ़ करोड़  की आबादी वाले इस मेगालोपोलिस को मरने के लिए छोड़ दिया जा सकता था?   दिल्ली के हमारे देश की राजधानी होने के कारण हमें दिल्ली को जरूरी सिविल अवसंरचनाओं से आज ना कल लैस करना ही था.. 
हम तभी कुछ करते हैं जब वैसा करना हमारा आपद धर्म  हो जाता है...तो ये खेल हमारे लिए आपद धर्म बन कर आये ..जब हम इन विकास के कामो से मुह नहीं चुरा सकते थे...आप यह नहीं कह सकते कि बेहतर दिल्ली बिहार, बंगाल, उड़ीसा ,उत्तर प्रदेश से आने वाले मजदूरों के लिए महंगी हो रही है,,,,इसलिए इसे  रोक लो .....दिल्ली को जरूरी सुविधाओं से महरूम रखना किसी समस्या का हल नहीं...समस्या यह है की उन राज्यों में वैसी स्थितियां कैसे पैदा की जाए जिससे  वहाँ विकास को गति मिले और लोगों का दिल्ली की और प्रवास कम हो...आप जब तक यह नहीं समझेंगे कि भारी संख्या में प्रवास दिल्ली के लिए ही नहीं उन राज्यों के लिए भी खतरनाक हैं जहाँ से प्रवास हो रहा है..तब तक आप इस तरह की भावुक दलीलों से विकास का विरोध करने कि गलती करते रहेंगे... .
भारत जैसे देश में असफलता कभी मूल्यहीन नहीं हो सकती...क्योंकि हमारे सामने जो च्नौतियाँ हैं उसका सामना प्रयास करने से ही किया जा सकता है...और प्रयास में असफलता ना आये यह किसी गणित के फार्मूले से भी तय नहीं किया जा सकता है....हाँ इतना जरूर है असफलता तभी मूल्यवान होती है जब असफलता के कारणों की padtaal की जाए है....गलतियों को स्वीकारा जाए..जवाबदेही तय की जाए.... आप असफलता के कारण अगर अपना मुह ढाप कर छुप नहीं सकते .. हाँ  उसे ग्लोरिफाई भी नहीं कर सकते....यह जरूरी है कि हम इस बात को जाने कि असफल क्यों हुए? क्या हम गैर जरूरी चीजों में अटक कर रह गए...मसलन इंडिया गेट , सीपी, और ल्युतेंस दिल्ली में ना उलझकर हमारा ध्यान खेलो से जुडी अवसंरचनाओं पर ज्यादा लगाना चाहिए था....भले यह सर्वश्रेष्ट निर्णय नहीं होता लेकिन उपलब्ध   विकल्पों में सर्वाधिक संभव जरूर होता...बातें बहुत सारी की जानी होगी लेकिन फिलहाल दिल्ली की झोली में आयी सुविधाओं को इस खेल की उपलब्धि मानने में कोई हर्ज नहीं दिखता. क्योंकि इस तरह इस खेल ने  इस शहर की उम्र बढ़ाई है..और यहाँ के निवासियों की भी . 

20 July 2010

ताले के पीछे घर

ऐसा रोज होता है
मैं अपने घर से
बाहर
निकल जाता हूँ
उसमे ताला लगाकर 
रात में वापस आने के लिए

मेरे जाने के बाद मेरा यह घर क्या करता है
किससे बातें करता है
किसे याद करता है
मुझे कुछ नहीं मालूम
उसे मेरा जान अच्छा लगता है या नहीं मुझे यह भी नहीं पता

हर रोज मैं वापस लौटता हूँ अपने इस घर में 
उसके भीतर पसरे हुए मौन को अपनी आहटों से भंग करता हूँ 
लेकिन कभी उसके मौन के स्वर को नहीं सुनता 
उसे सुनाता हूँ दिन भर की कहानियां


                                   एकतरफा संवाद का यह सिलसिला
                                   मेरे अगले दिन फिर घर से बहार निकलने तक जारी रहता है..

क्या मेरे इस घर को पता है कि एक दिन मैं जब ताला लगाकर जाऊँगा 
तो कभी वापस नहीं आऊंगा
और उसे स्वागत करना होगा हर रोज़  किसी और का
 जैसे वह मेरा स्वागत करती है
जरूर इसके साथ  ऐसा हुआ है ऐसा पहले कभी
जब मुड़कर नहीं आया कोई जिसके लिए इसने दिन भर इन्तेजार किया
मेरा जाना तय है क्या इसलिए जब तक मैं हूँ 
वह मुझसे मिलती रहेगी ऐसे ही
 मेरे लिए खोल देगी अपने सारे गवाक्ष 
रोज देगी अपना सारा कुछ 
 लेकिन उमड़  कर मिलेगी नहीं कभी मुझसे

मेरे  बस  में होकर भी मेरी नहीं होगी कभी