अच्छा हुआ कि जसवंत सिंह ने जिन्ना पर एक किताब लिखी..इससे कुछ हुआ या नहीं हुआ, हर किसी को अपने आपको देशभक्त साबित करने का मौका तो मिल ही गया....इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय इतिहास में मुहम्मद अली जिन्ना की हैसियत एक खलनायक की है....भारतीय राजनैतिक थिएटर का गब्बर सिंह और मोगाम्बो से भी बड़ा खलनायक.. यह मौका भांप कर कि जिन्ना पर किताब लिखने वाले जसवंत को गद्दार,मति - भ्रष्ट बताकर अपने आपको देशभक्त साबित किया जा सकता है राजनैतिक पार्टियां जसवंत का सर कलम करने के लिए निकल पडी...खुद जसवंत कि पार्टी ने भी जसवंत की किताब को,और जसवंत सिंह कि सोहबत को इतना खतरनाक माना कि उससे अपना दामन बचा ले जाने की बेचैनी से बीमार हो गई.. और जसवंत को कारण बताओ नोटिस देने कि सभ्यता तक से परहेज करते हुए उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया..
लेकिन अभी बात जिन्ना की नहीं,बात जसवंत की भी नहीं..जसवंत सिंह की किताब की तो बिलकुल नहीं...क्यूकि किताब अभी तक मेरे हाथ आयी नहीं है...और बिना किताब पढ़े और तथ्यों और तर्कों को पढ़े बिना इस मुद्दे पर रायशुमारी करना कोई मतलब नहीं रखता...यह काम उनके लिए छोड़ दिया जाए जो अखबार की कतरनों से ,टीवी पर कैप्शन की चन्द लाइनों से चंद्रमा और सूर्य तक के सारे रहस्य जान लेने की काबिलियत रखते हैं..
यहाँ बात लोकतंत्र की...बात लोकतंत्र के उस मॉडल की जो हमने पिछले छः दशकों में अपने यहाँ बनाया है...बात थोडी सी उस संविधान की जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की गारंटी देता है...बात उस उदारवाद के छद्म मुखौटे की जिसे हमने आजादी के बाद के इन सालों में जब मन किया है सुविधा से पहना है जब मन किया है उतार कर फेंका है..
लोकतंत्र का मतलब क्या है ? वोट डालना और एक सरकार को चुन लेना? या एक ऐसी व्यवस्था कि स्थापना करना जहाँ सभी तरह के विचार सह अस्तित्व के साथ रह सकें..लोकतंत्र कि बुनियादी खासियत ही यही है कि यहाँ विभिन्न ही नहीं विपरीत तथा विरोधी मत भी एक ही साथ सांस ले सकते हैं...एक दुसरे को काटते ,घिसते,छीलते हुए..एक दुसरे को बेहतर बनाने में योगदान देते हैं ....यह उदारवादी लोकतंत्र का गुण है.. अमेरिका में एक ही साथ एडवर्ड सईद ,नोम चोमस्की, जैसे विचारक अमेरिकी व्यवस्था की आलोचना करते हैं..लेकिन वे वहां से निकाल नहीं फेंके गए हैं...यह अमेरिकी लोकतंत्र का गुण है ..कम से कम दुनिया को दिखाने के लिए उदारवाद का एक सुन्दर मुखौटा तो उनके पास जरूर मौजूद है...लेकिन भारत में ऐसा मुखौटा भी देखने को नहीं मिलता..
बात करें सबसे पहले भाजपा के आंतरिक डेमोक्रेसी की..२२ अगस्त के हिन्दुस्तान टाइम्स में एन डी टीवी की ग्रुप एडिटर बरखा दत्ता ने लिखा है की.." जसवंत के निष्कासन ने भाजपा के आतंरिक लोकतंत्र के दावे की कलई खोल दी है".यहाँ एक बहुत महत्वपुर्ण सवाल ये है कि .लोकतंत्र के भीतर क्या किसी व्यक्ति को किसी विषय पर अपनी राय रखने से रोका जा सकता है.क्या यह व्यक्ति के मूल अधिकारों का उल्लंघन नहीं है?
जहां तक जिन्ना के व्यक्तित्व पर ,उनके भारतीय राजनीति में स्थान पर विश्लेषण कि बात है..तो साफ़ कहा जा सकता है कि जिन्ना का मूल्यांकन कभी भी पूर्वाग्रह से रहित होकर नहीं किया गया है..जिन्ना पर सारी कहानी 1929 में जिन्ना के 14 सूत्रीय मांग, 1940 में ,पाकिस्तान की मांग और 1946 में डाइरेक्ट एक्सन दिवस कि घोषणा में सिमट जाती है..लेकिन जिन्ना के राजनीतिक जीवन को देखने के लिए इससे भी भीतर जा कर इस शख्स को जाने कि जरूरत है.....
इतिहास में जिन्ना के राजनैतिक विकास को अगर गौर से देखा जाए तो इस बात से किसी को ऐतराज नहीं हो सकता है..कि जिन्ना ने अपना राजनैतिक जीवन एक राष्ट्रवादी ,धर्मनिरपेक्ष नेता के तौर पर शुरू किया था...जिन्ना किस तरह और कब कट्टरपंथी इस्लामिक राजनीति कि और झुक गए यह देखना और समजने कि कोशिश करना बहुत जरूरी है..ऐसा ही एक प्रयास एजी नूरानी ने अपने एक लेख "अस्सेसिंग जिन्ना "में किया है., जो 13 -26 अगस्त 2005 में फ्रंतलाइन में प्रकाशित हुआ था .एजी नूरानी एक जाने माने विद्वान् हैं और उनका राय इस विषय में गौर करने के लायक है. नूरानी लिखते हैं कि..जिन्ना का कांग्रेस और गांधी से अलगाव सिर्फ कट्टरपंथी इस्लामिक राजनीति चेतना के कारण ना होकर जमीनी राजनैतिक बहसों और कांग्रेस और गांधी जी द्बारा जिन्ना के साथ किये गए व्यवहार के कारण था.(.नूरानी के लेख पर यहाँ बहस करने कि गुंजाइश नहीं उस पर फिर कभी )..दरअसल इतिहास के प्रति सतही नजरिये के कारण जिन्ना को पूरी तरह समझने कि कोशिश से परहेज कर लिया जाता है..इतिहास आँखे बंद कर के विश्लेषण करने कि चीज नहीं है.शुतुरमुर्ग कि तरह असहज सवालों से बचने कि कोशिश उन सवालों को खत्म नहीं कर देती...जिन्ना के सवाल पर हमारा रुख ऐसा ही रहा है..जिन्ना की खलनायकी से शायद ही किसी को इनकार है..लेकिन अगर एक खलनायक देश को दो टुकडों में बाँट देने जैसे असंभव काम को अंजाम देने में सफल हो गया को तो उसका खलनायकत्व जरूर इमानदार तरीके से विश्लेषित किया जान चाहिए..इसी नजरिये के अभाव के कारण बरखा दत्ता ने लिखा है कि.."भाजपा दरअसल ये समझने से इनकार करती है कि आधुनिक भारत का इतिहास कौंग्रेस का इतिहास है."..दरअसल इस तरह कि सोच के कारण ही जिन्ना को कौंग्रेस और गांधी से अपना रास्ता अलग करना पड़ा था.
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जसवंत सिंह की किताब को राजनैतिक गलियारे में जिस तरह देश द्रोह के प्रमाण की तरह पेश किया गया वह आश्चर्यजनक है..ऐसा करना भारतीय राजनीति की कमजोरी को दिखाता है. लोकतंत्र में आप विचारों से सहमत या असहमत हो सकते है..विचारों के कारण किसी को सूली पर नहीं टांग सकते..जसवंत प्रकरण में यही हुआ है..ऐसी राजनीतिक व्यवस्था तालिबानी,फासीवादी व्यवस्था के करीब पहुचती दिखती है...
जिन्ना गलत थे ,ये इतिहास भी कहता है..ख़ास तौर से 16 अगस्त 1946 को मनाये गए सीधी कारवाई दिवस और उसके बाद पनपी साम्प्रदायिक हिंसा, जिसकी परिणति भारत के विभाजन में हुई और और जिसने भारत ही नहीं पाकिस्तानी जनता की सामूहिक स्मृति( collective memory ) पर कभी ना मिटने वाले जख्म दिए ,को भूलना संभव नहीं है..लेकिन जिन्ना क्यों जिन्ना बने इसकी पड़ताल करने को भी गलत करार देना, लोकतांत्रिक असहिष्णुता का ही उदाहरण है...भले ही लेखक के तर्क बिलकुल गलत ,गैर तथ्यपरक हों लेकिन उसे बोलने और लिखने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता .जो उसे संविधान से मिला है....,(भले लेखक दक्षिण पंथी पार्टी का हो या अति (रेडिकल ) वाम पार्टी का ही क्यों ना हो)..ऐसा लोकतंत्र जहां लेखक होने के लिए एक उदार वामपंथी या एक कोंग्रेसी होना जरूरी हो लोकतंत्र नहीं माना जा सकता...
जिन्ना गलत थे ,ये इतिहास भी कहता है..ख़ास तौर से 16 अगस्त 1946 को मनाये गए सीधी कारवाई दिवस और उसके बाद पनपी साम्प्रदायिक हिंसा, जिसकी परिणति भारत के विभाजन में हुई और और जिसने भारत ही नहीं पाकिस्तानी जनता की सामूहिक स्मृति( collective memory ) पर कभी ना मिटने वाले जख्म दिए ,को भूलना संभव नहीं है..लेकिन जिन्ना क्यों जिन्ना बने इसकी पड़ताल करने को भी गलत करार देना, लोकतांत्रिक असहिष्णुता का ही उदाहरण है...भले ही लेखक के तर्क बिलकुल गलत ,गैर तथ्यपरक हों लेकिन उसे बोलने और लिखने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता .जो उसे संविधान से मिला है....,(भले लेखक दक्षिण पंथी पार्टी का हो या अति (रेडिकल ) वाम पार्टी का ही क्यों ना हो)..ऐसा लोकतंत्र जहां लेखक होने के लिए एक उदार वामपंथी या एक कोंग्रेसी होना जरूरी हो लोकतंत्र नहीं माना जा सकता...
दफा भी करो जिन्ना को।
ReplyDeleteश्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभ कामनाएं-
आपका शुभ हो, मंगल हो, कल्याण हो |
This is really good.Freedom of expression is must in democracy....you have put genuine view of democracy.You'll find lots of character in history who played negative role with such a perfection and they are worth for a discussion.
ReplyDeleteWe need to know the reasons so that future should not witness any more jinnah. Good writing.