15 August 2009

सुबह के इन्तजार में

हर शाम के बाद जो सुबह होती है
वो बैठी है अभी कही छुपकर,
रूठी हुई
दिए अब भी टिमटिमा रहे हैं घरों में
खामोश ,गुमशुम
बुझने को तैयार
नयी नवेली दुल्हन ने नहीं धोया हैं अभी अपना श्रृंगार
देखने के लिए खुद को भोर के उजाले में
महसूसने के लिए अपनी नयी ज़िन्दगी,
शहंशाह ने नहीं उतारा है अपना ताज
यकीन करना है उसे भी अपनी ताजपोशी का
देखनी है मुन्नू को सुबह कि पहली किरण में
अपनी कल शाम ही खरीदी गयी साइकिल
उड़ना है उस चिडिया को घोसले से
और चुन कर लाना है दाने अपने शिशु के लिए
सुबह के इन्तेजार मे सभी हैं मैं अकेला नहीं हूँ.

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