15 August 2009

चमरे के जूते की दरकार

दिल्ली में अगर जीना है ,अगर यहाँ मेहनत मशक्कत करके रोजी रोटी कमानी है तो सबसे पहले आपको एक मजबूत चमरे के जूते की दरकार है जूतों के बिना आप दिल्ली में नौकरी करने की बात भी नही सोच सकते.दिक्कत ये है की मैंनेपिछले - साल जूते पहने ही नही.कहाँ वोह सैंडल पैर में डालोऔर निकल जाओ का मजा और कहाँ जूते डालो .फीते बांधो ,पोलिश करो, का झंझट .लेकिन जूते पहनने की ये आदत रोजी ोटी कमाने मेरे प्रयास में बाधा डालने वाली है यह मुझे नही मालूम था.मुझे होता भी कैसे ? मैं ठहरा पक्का घर घुस्सू किताबों में घुसाए रहने वाला किताबी कीडा कह सकते हैंआप मुझे खैर एक दिन मुझे घर से निकलना पड़ा.नौकरी की तलाश में .ओर मैं पहुच या नॉएडा.नौकरी केलिए .बिना जूते बस में सवारी करके.आपलोगों में से जिन लोगों ने ३४७,या ३५५ ,या३२३ नम्बर के बस से सफर किया होगा उनको मेरे पैरों के अंगूठे का ध्यान रहा होगा मेरी मुर्खता पर हँसी भी रही होगी .एक के ऊपर दुसरे आदमी का पैड और दुसरे आदमी के ऊपर तीसरे आदमी का पैड .हाँ जब पैड रखने के लिए और जगह नहीं तो लोग बेचारे क्या करें .मुझे भी तो अनचाहे में कितनी बार किसी दुसरे आदमी के पेडों पर ओना पैड रखना पड़ा है.
हाँ लेकिन एक बात मुझे कभी समझ नहीं आयी कि दिल्ली को worldclass बंनाने के पीछे जो धन खर्च किया जा रहा है उस धन का कोई सरोकार हमारे अंगूठों कि रक्षा करना भी है या नहीं?मुझे तो लगता हैकि सारे सजावट कि चीजों पर ही सरकार का ध्यान टिका हुआ है.बस के भीतर झाँकने कि और ठसम ठस भरे बस में यात्रा करने वाले आदमी का वर्ल्डक्लास क्या होगा इसको समझने या उस हिसाब से नीति बनाने में सरकार की कोई रूचि ही नहीं है.
खासतौर से इसबार जब बारिश भी ऊँट के मुहँ में जीरे के सामान ही दिल्ली को छू भर कर मात्र चली गयी और प्रचंड गर्मी से रोज बस में यात्रा करनेवाले साधारण लोग पसीने के परनाले में नहाते रहे तब भी शायद ही किसी नेता या अधिकारी को यह बात शायद ही ध्यान आया होगा कि शहर को बेहतर वहाँ कि जनता के लिए बनाया जाना चाहिए.. चन्द दिनों के लिए आने वाले विदेशी खिलाडियों और मुट्ठी भर सैलानियों को होस्ट करने के नाम पर जिस तरीके से बेशर्म सजावट पर ध्यान दिया जा रहा है उसे देख कर तो यही लगता है कि मायावती हों या शीला दीक्षित या कोई और.. जनता के पैसों का दुरूपयोग करते हुए राजनेताओं को सोचना नहीं पड़ता ..
एक अदना से आदमी के अंगूठे का चूर होना ,जख्म से उसका लहुलुहान हो जाना नीति निर्माताओं के जेहन में कभी आ भी सकता है यह सोचना भी अपने आप पर हंसी ही पैदा करता है..
लाचार बन गयी जनता फिलहाल अपने पिसे अंगूठों के साथ मायावती के पार्कों के हाथियों का और शीला दीक्षित के दिल्ली दरवाजों का लुफ्त उठा सकती है....नेताओं के लिए उसके अंगूठे के बारे में यानी मेरे अंगूठे के बारे में सोचने के लिए अभी काफी वक़्त बचा है .....

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